Tuesday 4 October 2011

क्या भ्रष्टाचार को लेकर आप गुस्सा हैं? You hate corruption or not, be clear please

by on 17:17
आपके चारो तरह निराशा का माहौल होने के बावजूद, भ्रष्टाचार से घिरे होने पर भी, भारतवर्ष की महानता के भाव से आपका मस्तक ऊँचा होता होगा, हमेशा नहीं तो कभी-कभार तो जरूर ही. नहीं, नहीं मै ठिठोल नहीं कर रहा हूँ, यह एक विपरीत वास्तविकता है, कम से कम मुझ-जैसो के साथ तो निश्चित ही है. यदि दुसरे व्यक्तियों की बात छोड़ दे तो भी स्वयं का अर्ध-विकसित मस्तिष्क निश्चय ही चारो तरफ बुराइयों का भंडार दिखाता है, लेकिन कहीं कोने में छुपी मस्तिष्क की पूर्णता कहती है, नहीं यह बुराइयां हमारे भारतवर्ष की निश्चित ही नहीं हैं, यह तो बाहर से आयी हुई हैं. इन बातों में सच्चाई हो भी सकती है. लेकिन एक बात तो तय है की यदि इन बुराइयों का अस्तित्व है तो भी अभी पूर्ण रूप हम पर हावी नहीं हो पाई हैं, सिर्फ हमारा उपरी आवरण ही इनसे प्रभावित हुआ है. यह बात मै बहुत विश्वास से कह सकता हूँ की हर भारतीय की अंतरात्मा अभी भी उसे रास्ता दिखाती है, लाख वह बुरा दीखता है, पर एक छोटी सी घटना उसके असली सच्चे स्वरुप को उजागर कर ही देती है. आखिर हम यह कैसे भूल जायें की अंगुलिमाल जैसों की अंतरात्मा पर पड़ी धुल यदि साफ़ हो गयी, तो हमारी अंतरात्मा से भी बुराइयों का पर्दा हट सकता है और फिर सामने होगी भारत की स्वक्ष, निर्मल और विश्व गुरू की छवि. यही हमारा भारत है, जिसके बारे में सोच-सोच कर छाती चौड़ी होती रहती है, कि कभी तो हम उस जगह पर पहुंचेगे जो हम सिर्फ अतीत में सुनते आयें है. लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि आत्मा पर पड़ी धुल साफ़ हो और इसके लिए निश्चित ही हर बार कोई बुद्ध नहीं आयेंगे. हमें स्वयं अपने बीच में से ही बुद्ध खोजना होगा और उन्हें आदर देना होगा. इस बात पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे.

एक वाकया आज मेरे साथ घटित हुआ, मैं अपनी मोटरसाइकिल से बैंक में अपनी कंपनी का रूपया जमा कराने जा रहा था, रास्ते में दिल्ली पुलिस की खाकी वर्दी में ३-४ कांस्टेबल और ट्रैफिक पुलिस वैरिकेड लगाकर चेकिंग कर रहे थे. यदि आपने दिल्ली में मोटरसाइकिल से सफ़र किया है तो आप परिचित होंगे इस तरह कि चेकिंग से, ड्राइविंग लाइसेंस, प्रदुषण और इन्सुरेंस के कागज दिखाओ, ऐसा निर्देश हुआ एक कांस्टेबल का. मै अपने कागजात पुरे रखता हूँ, सो आश्वस्त था. मैंने अपने पर्स में देखा तो इंसोरेंस का पेपर नहीं था. याद आया, पिछली बरसात में गीला होने के कारन मेरी पत्नी ने उसे सुखाने के लिए निकाला था. गाड़ी साइड में लगाओ, फिर कांस्टेबल की आवाज आई और इन्सुरेंस का पेपर न पाकर मेरी मोटरसाइकिल की चाभी निकाल कर अपने हाथ में ले ली. कर दूं चालान, ११०० रुपये का होता है इन्सुरेंस का, कर दूं ? लगातार वह दबाव बनाने का प्रयत्न करने लगा. इधर मै नम्रता से पेश आ रहा था, नहीं तो झूठ-मूठ का और समय लगता. मेरी ऊपर की जेब फूली हुई थी, इस बात का एहसास उसे बखूबी हो चूका था, और अब वह कुछ और ही चाह रहा था. मै इस इशारे को समझ रहा था, लेकिन मै ऐसी लेन-देन से भरसक बचने की कोशिश करता हूँ. वह कांस्टेबल भी आश्वस्त था की अब कहाँ? अब तो कुछ बन ही जायेंगे. यदि १०० रुपये का चालान होता तो मै कब का भर चुका होता पर ११०० रुपये का चालान सुनकर मेरा आदर्श लगातार अंकल जी, अंकल जी की रट लगा रहा था, उसे अपनी सफाई पेश कर रहा था. ‘जाने दो यार उसे’, लड़का झूठ बोलता नहीं लग रहा है, एक बुजुर्ग की आवाज थी, बगल के फुटपाथ पर शायद टहल रहे होंगे. यह बोलकर वह महानुभाव आगे चले गए. आप यकीं नहीं करेंगे, वह बुजुर्ग चले गए और कांस्टेबल ने मेरी तरफ गाड़ी की चाभी कर दी. मुझसे नजरे मिलाये बिना, कहा ‘जाओ बेटा’ . दो बातें इससे निकलती हैं. पहली भारतीय व्यवस्था, सभ्यता, अंतरात्मा नाम की चीजें अभी भी अस्तित्व में हैं, जरूरत है उस पर जमी हुई धुल पर कपडा मारने की. दूसरी बात, हम सभी को बार-बार लगातार सही रास्ता दिखाने की भी जरूरत है और जो वर्ग, ज्यादा से ज्यादा प्रभावी हो सकता है, वह ‘सीनियर सिटिजन’ वर्ग ही है. भारतीय सभ्यता में बुजुर्गो का एक खास स्थान रहा है. उसके पास व्यापक समझ होने के साथ-साथ पर्याप्त समय भी है.

मै सकारात्मक लेखन में हमेशा से विश्वास करता हूँ. हमसे पूछा जाता है, क्या भ्रष्टाचार को लेकर आप गुस्सा हैं? लेकिन यह प्रश्न अधूरा है. सही प्रश्न यह है कि- आप भ्रष्टाचार More-books-click-hereको लेकर किस से गुस्सा हैं ? निश्चय ही जवाब आएगा, दूसरों से, सरकार से, दूधवाले से. और खुद से ?? हाँ, जी आपने सही सुना, क्या आप भ्रष्टाचार को लेकर खुद से भी गुस्सा है ? यदि नहीं तो यह मान लीजिये की आप दोहरी मानसिकता के शिकार है. छोटे से लेकर बड़े-बड़ो तक को सांप सूंघ जायेगा इस प्रश्न से. लेकिन सवाल यहाँ सिर्फ समस्या का नहीं है, समस्या से हम सभी कहीं न कही अवगत तो हैं ही, प्रश्न है समस्या के समाधान का. यकीं मानिये, यह समाधान एक लम्बी प्रक्रिया है और वह भी सावधानी से अपनाई जाने वाली प्रक्रिया. इस संपूर्ण समस्या का हल देश के नौनिहालों का चरित्र-निर्माण है, नैतिक विकास है और वह संभव है सिर्फ और सिर्फ ‘भारतीय संयुक्त परिवार’ से. मै आगे की पंक्तियों में इस बात को तथ्यात्मक तरीके से रखूँगा.

वैसे भी आज की पीढ़ी काफी हद तक तार्किक और वैज्ञानिक है. संयुक्त भारतीय परिवार में लाख अन्य बुराइयां हो सकती है, पर मै कुछ प्रश्न रखता हूँ समाज के सामने खालिस तार्किक और वैज्ञानिक भी-
एक युवा की शादी की औसत उम्र २५-३५ साल के बीच में होती है. इसी उम्र में सामान्यतः संतानोत्पति भी होती है. पहला प्रश्न- क्या इस उम्र में इस युवा के पास अपने बच्चे के लिए समय होता है, ध्यान रहे, यह कैरियर का सुनहरा दौर होता है हर एक के लिए. दूसरा प्रश्न- क्या इस उम्र में इस युवा के पास इतना पर्याप्त अनुभव होता है जो बच्चे के विकास में सहायक हो सके. जी नहीं, वह तो अपने जीवन-साथी तक को न समझ पाता है न समझा पाता है. अदालतों में तलाक के बढ़ते मामले इसकी कहानी स्वयं कहते हैं. तीसरा प्रश्न- यदि मान भी लिया जाये कि इस युवा के पास इतना समय भी है और पर्याप्त अनुभव भी है, तो भी आप समाजशास्त्र के मूल सिद्धांत का पुनरावलोकन करें, जो स्पष्ट कहता है कि- “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है”.
उस छोटे बच्चे को मनुष्यों से भरे माहौल में विकसित होने दो, मेरे आदरणीय और महान देशवासियों. उसे दादा कि कहानियाँ सुनने दो, उसे चाचा कि डांट पड़ने दो, बड़ी माँ को लाड करने दो, उसे भाइयों-चचेरे भाइयों से मेलजोल बढ़ाने दो. मत पालो उसे मशीनों के बीच में. विडिओ गेम, कंप्यूटर, बुद्धू-बाक्स उसे स्वार्थी, संकुचित और आत्मकेंद्रित बनाते है. यह प्रक्रिया हमारे संपूर्ण समाज को बीमार कर रही है. जिस एकल परिवार में बाप घूस कि मोटी रकम से लम्बी-लम्बी गाड़ियां खरीदता है, क्या कोई उस से पूछता है इसकी नैतिकता के बारे में? बच्चा छोटा है और पत्नी तो आनंदित होती है हीरा-जडित मोटे हार को पाकर. बच्चा बड़ा होकर ठीक इन्ही आदतों का मुरीद बन जाता है.

इसके विपरीत भारतीय समाज में संयुक्त परिवार कि व्यवस्था इन सबका निदान है, बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी है. मै इसका अंध-समर्थन नहीं कर रहा हूँ, इस में भी तमाम बुराइयां हो सकती है, समाजशास्त्र के विशेषज्ञ इसके बारे में बेहतर तर्क दे सकते हैं. पर मै उन्ही विशेषज्ञ-बंधुओं से पूछता हूँ कि आज ‘संसदीय-व्यवस्था’ से सबका भरोसा उठ चुका है, नेता संपूर्ण विश्वसनीयता खो चुके हैं, तो यह व्यवस्था ख़तम कर के हम कोई तानाशाही-माडल क्यों नहीं विकसित कर लेते हैं ? फिर तो यहाँ एक अन्ना हजारे के आन्दोलन से समाजशास्त्रियों कि भृकुटियाँ तन जाती है. राहुल गाँधी को संसदीय-परंपरा पर खतरा दिखने लगता है. और पूरा समाज एक सुर में इस सड़ी-गली संसदीय व्यवस्था को सुधारने का समवेत प्रयास करता दीखता है. ठीक इसी प्रकार हमें संयुक्त परिवार के दोषों को हटाकर समाज के हित में इस व्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहिए. स्वयंसेवी संगठनो को इसकी महत्ता समझकर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिए. यदि बहूत जरूरी हो तो सरकार को भी इसके संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए, क्योंकि चरित्र-निर्माण के बिना वास्तविक बदलाव कि आशा करना दिवा-स्वप्न ही है. आंदोलनों से सिर्फ सत्ता बदलती है, व्यवस्था नहीं. व्यवस्था के लिए चरित्र-निर्माण अति आवश्यक तत्व है. और चरित्र-निर्माण की प्रथम और अति प्रभावी सीढ़ी परिवार ही है. नहीं, नहीं मै सिर्फ परिवार कि बात नहीं कर रहा हूँ, एकल परिवार तो बच्चो को मशीन में परिवर्तित करते जा रहे हैं. मै तो भारतीय संयुक्त परिवार की बात कर रहा हूँ, जिसके बल पर भारतीयों ने एक होकर विकास किया, कृषि रुपी उद्यम को चरम पर पहुँचाया और सोने की चिड़िया, विश्व-गुरु इत्यादी उपनामों से कृतार्थ किया देश को. इस व्यापक भारतीय महानता का आधार सिर्फ भारतीय-चरित्र था, जिसने हमें निर्विवाद शिखर पर पहुँचाया और भारतीय चरित्र की एकमात्र जन्मदात्री भारतीय संयुक्त परिवार परंपरा ही थी.

सोचिये ! सोचिये ! सोचिये !

- Mithilesh

You hate corruption or not, be clear please, article in Hindi by Mithilesh

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