Sunday 30 December 2012

मै प्रतिज्ञा लेता हूँ कि ... I swear about Women, Girls!

by on 15:12

मै प्रतिज्ञा लेता हूँ कि स्वयं अपने, अपने सम्बन्धियों, अपने मित्रों, अपने कर्मचारियों, अपने पड़ोसियों द्वारा लड़कियों/ स्त्रियों के सम्बन्ध में उनके विचारों और उनके कृत्यों केdelhi-gangrape-case प्रति जागरूक रहूँगा… जरूरत पड़ी तो उनके खिलाफ सामाजिक बहिष्कार की शुरुआत भी स्वयं करूँगा, और यदि पानी सर से ऊपर जाता दिखा तो पुलिस और अख़बारों में उनके खिलाफ जाने में एक पल की भी देरी नहीं करूँगा …. !!
जय हिन्द !! ....


I swear about Women, Girls in Hindi.

Sunday 23 December 2012

व्यभिचार : सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक अथवा व्यक्तिगत, एक अवलोकन - Rape and Crime against Women, Article in Hindi

by on 15:24

  • हम सभी को क्रोध आता है इस तरह की घटनाओं को सुनकर, देखकर;; क्योंकि इस तरह की घटनाओं में दुसरे शामिल होते है |

  • सभी को हंसी आती है, आनंद आता है, कौतूहल जगता है ऐसे समय;; जब उन्हें पूरा समाज ही इस तरह के व्यभिचार की तरफ बढ़ता दीखता है, कुछ अलग नहीं दीखता है जब उन्हें, आम सी बात लगती है उन्हें |

  • रोना आता है हम सबको अपने आप पर क्योंकि यह तो सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, संस्थाओं और समाज की बात कौन करे, बल्कि यह व्यभिचार/ जंगलीपन सोच तो हमारे स्वयं के अन्दर बहूत गहरे से मौजूद है | आज यदि देश के गृहमंत्री कह रहे है कि जो आज एक निर्दोष लड़की के साथ हुआ वह हमारे घर में भी हो सकता है तो यह निश्चित रूप से अपराधियों का डर नहीं बल्कि समाज के व्यक्तियों में लगातार उत्पन्न हो रही जंगली-सोच का भय है, क्योंकि यह सोच तो उच्च से लेकर निम्न वर्ग तक व्याप्त है, सर्वव्यापी, ला-ईलाज | .... अब यदि देश का गृहमंत्री समाज की गन्दी होती सोच से भय खा रहा है तो साधारण जनमानस की कौन कहे.. ??


इनके अतिरिक्त एक चौथी अवस्था मुझे और ज्ञात होती है, जो मुझे सिरे से क्रोधित करती है, हंसी की अवस्था भी उत्पन्न करती है, साथ में रोने का अंतिम विकल्प भी देती है... और वह है हमारे समाज के नामचीन महानुभावों, संस्थाओं आदि की बौद्धिक विवशता | समाज न कानून से चलता है, न जनता मात्र से और न ही धनाढ्यों की मनमर्जी से न किसी और संशाधन मात्र से, बल्कि यह सब तो मात्र सहयोगी तत्व है समाज के परिचालन के ;; वहीँ समाज तो हमेशा दूरदर्शियों द्वारा बताई गयी दिशा में मुड़ने को विवश हो जाता है | चाहे कोई भी युग हो, कोई भी महारथी हुआ हो... हमेशा उसने अपने अतीत पर गौरव किया है (आज भी अनेक संस्थाएं इसी अतीत के नाम पर चल पा रही हैं) | प्राचीन काल के अपने पूर्वजों में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की बात करें, युधिष्ठिर इत्यादि भाइयों के समाज निर्माण योगदान की, अथवा वर्तमान ईतिहास के स्वामी विवेकानंद की बात करें अथवा महर्षि दयानंद की, सभी ने अतीत का सहारा लेकर वर्तमान को सुधारने में महती भूमिका निभायी है | स्वामी दयानंद ने तो नारा भी दिया है- "वेदों की ओर लौटो" |

लब्बो-लुआब यह कि क्या आज हमें फिर से अपने अतीत में देखने की जरूरत नहीं है ? आज जब समाज में हर तरफ अपराध, अन्याय, भागमभाग, व्यभिचार बढ़ रहा है, तो क्या हमें सच में सिर्फ तात्कालिक शोर मचाकर तुष्ट हो जाना चाहिए ? क्या हम सिर्फ कुछ बेलगाम, कु-सांस्कारिक लोगों को फांसी पर चढ़ाकर संतुष्ट हो लेंगे, अथवा इसके More-books-click-hereपीछे छुपे वास्तविक कारणों को समझना चाहेंगे भी | राष्ट्रवादी विचारकों, आधुनिक विचारकों, युवाओं सहित कई लोगों ने इस घटना के पीछे के अनेक कारण गिनाये है, कुछ ने कहा है कि यह फिल्मों, टी.वी. कार्यक्रमों में बढती अश्लीलता का परिणाम है तो कुछ का विचार है कि कानून सख्त होने चाहिए, कानून का भय होना चाहिए, कुछ ने फांसी की सजा की मांग की | कुछ लोगों को तो मैंने यह भी चर्चा करते सुना कि लडकियां इस तरह के हालातों के लिए स्वयं जिम्मेवार है, कुछ ने फतवा जारी करके ऐसी समस्याओं से निबटने की कोशिश करी, आदि, आदि |

पर देशवासियों, यकीन कीजिये और सोचिये क्या फांसी की सजा देने से ऐसे अपराध रुक जायेंगे ? क्या फिल्मों पर प्रतिबन्ध इसका समाधान है, क्या लड़कियों को फतवों के जरिये हमेशा बुरका पहनाने से इस समस्या पर रोक संभव है ? यह तो ठीक उसी प्रकार है, जैसे गहरे प्रेम में किसी व्यक्ति का दिल टूट गया हो और हम उसे जोड़ने के लिए उसपर 'प्लास्टर' लगायें अथवा उसके छाती पर गरम तेल, किसी एलोपैथ दवा जैसे मूव/ झंडू बाम लगायें | यह मात्र हास्य का विषय हो सकता है, रोग का ईलाज कदापि नहीं हो सकता है | वर्तमान स्थिति भी कुछ ऐसी ही है | साफ्टवेयर पेशे से जुड़े होने के कारण एक दो चीजों का उल्लेख करना चाहूँगा यहाँ, हमारे पेशे में साफ्टवेयर टेस्टिंग नाम का एक डिपार्टमेंट कार्य करता है, जिसका मुख्य कार्य किसी बनाये गए प्रोग्राम में गलतियों की जाँच करना होता है | जरा बारीकी से ध्यान दीजियेगा यहाँ, वह सिर्फ गलतियों को ठीक से पकड़ता है, सही नहीं करता है, सही करने के लिए तो अन्य दुसरे विभाग कार्य करते हैं | ,इसी प्रकार यदि देश में भी कोई दंगा हुआ, कोई घोटाला हुआ, कोई अन्य समस्या आयी तो हमारी माननीय सरकार भी इस तरह के विभागों से जाँच कराती है, कारणों पर और उनसे निवारण के उपायों पर भी | कभी किसी पूर्व न्यायाधीश से तो कभी सांसदों के समूह से, और दोस्तों कभी कभी तो जाँच इतनी छोटी- छोटी बातों पर बैठाई जाती है जिससे यह भान ही नहीं हो पाता है कि सरकार का वास्तविक काम क्या है ? उदाहरण स्वरुप सरकार को पता होता है कि किसी मंत्री ने दिल खोल कर घोटाला किया है, फिर भी वह उस पर सी.बी.आई. जाँच बैठाती है, किसी विशेष न्यायाधीश से कारणों की जाँच कराती है और वह विशेष आयोग अथवा एजेंसी एक भारी भरकम रिपोर्ट सरकार को देती है |

इस उद्धरण के पीछे मेरा स्पष्ट मंतव्य है कि जब छोटी- छोटी घटनाओं पर हमारी केंद्र सरकार अनेक तरह की जाँच बैठा देती है, तो इस तरह के व्यापक सामाजिक अपराधों पर उसने किसी विशेष न्यायाधीश से जाँच करने की जरूरत क्यों नहीं समझी ? क्या यह वास्तव में एक छोटा- मोटा अपराध मात्र है ? क्या लोगों का प्रदर्शन गुस्से में उठा ज्वार भर है अथवा इसका कोई सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी है ? यदि हाँ, तो सरकार को इस तरह के सामाजिक बदलावों पर एक व्यापक जांच करानी चाहिए, इसके कारणों पर और निवारणों पर भी | पर हमारे माननीय गृह मंत्री तो संसद का विशेष सत्र बुलाने भर की जरूरत भी नहीं समझते है | दोगलापन देखिये हमारा, एक तरफ तो हमारे गृहमंत्री को अपनी बेटियों की चिंता सताती है कि उनके साथ भी कुछ ऐसा न हो जाये, वहीँ दूसरी तरफ वही गृहमंत्री इस पूरी घटना को सिर्फ कानून सख्त कर देने भर से हल करने का भ्रम पालते है |

क्या वाकई यह समस्या इतनी छोटी है, जिसे हम जैसे नीम हकीम भी अपने नुस्खों से ठीक करने का दम भरने लगे हैं ? इस विकराल सामाजिक समस्या पर समाज, कानून, बुद्धिजीवी समाज का दोगलापन तो देखिये, सब इसको ठीक करने का इतना सरल नुस्खा दे रहे है, जैसे इधर नुस्खा लगाया और उधर समस्या समाप्त | कुछ जाने माने बुद्धिजीवियों को तो इस समस्या के जोर पकड़ने पर ऐतराज भी होने लगा है, एक देश के जाने माने न्यायविद और प्रेस से सम्बंधित विद्वान ने इस समस्या को मिडिया में इतनी कवरेज मिलने पर उकताहट प्रकट की है, उन्होंने बाकायदा अपने ब्लॉग पर इस समस्या को ज्यादा कवरेज मिलने पर दबे स्वरों में निंदा की है | क्या करें वह भी, कुछ नया नहीं है न इसमें, रोज- रोज वही प्रदर्शन, माध्यम वर्ग का दर्द... अब बोरियत तो होगी ही न | एक अन्य नामी दबंग मंत्री ने भी इस सारी कवायद को मात्र पब्लिसिटी- स्टंट बताया है | और भी है कई लोग, जो इस तरह की भावना रखते है | कहने को हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में निवास करते हैं दोस्तों, और लोकतंत्र का तो प्रथम गुण ही यही होता है कि हम किसी भी समस्या पर व्यापक वाद- विवाद करके उसका हल निकालें | पर यहाँ किसी समस्या पर आप दो दिन से ज्यादा चर्चा नहीं कर सकते, पुराना पड़ जाता है न | यहाँ के लोगों को, बुद्धिजीवियों को फुर्सत नहीं है किसी समस्या पर चर्चा करने हेतु, उसका समाधान ढूंढने हेतु | मामला बासी हो जाता है यार, कौन सुने वही रोज की टर्र- टर्र | हम अपने रोग का ईलाज करने को कौन कहे, अपने को रोगी मानने को ही तैयार नहीं है |

पर रोग तो है, और रोग इतना व्यापक और संक्रामक है कि रोज नए नए मरीजों की पहचान हो रही है | पर यह रोग अभी ला-ईलाज नहीं बना है दोस्तों और ऐसा भी नहीं है कि Buy-Related-Subject-Book-beहम भारतवासी भाई बहन मिलकर इसका मुकाबला ही नहीं कर सकें | पर इसके लिए इक्का- दुक्का मरीजों पर ध्यान लगाने की बजाय इसका टीकाकरण अभियान चलाना होगा, वह भी लगातार | जिस प्रकार से पोलियो नामक भयानक बीमारी से हम भारतवासी भाई बहन मिलकर लड़ पाए हैं, ठीक उसी प्रकार से हम समाज में व्याप्त कुसंस्कारों से भी अवश्य ही लड़ेंगे | पर इसके लिए सबसे पहले हम सरकार से इस घटना की व्यापकता की तरफ ध्यान दिलाकर इसके लिए एक उच्च- स्तरीय न्यायिक आयोग और जे.पी.सी. के गठन की सामानांतर मांग करते है, जिससे हमें समाज में हो रहे इन नकारात्मक परिवर्तनों पर एक आधिकारिक दृष्टिकोण मिल सके | कृपया सरकार इस मामले में जो भी तात्कालिक निर्णय लेना हो, अवश्य ले परन्तु दीर्घकालिक रूप से इसकी व्यापकता पर दो उच्च स्तरीय समितियां जरूर बनाये जिसमे न्यायिक आयोग न्याय की दृष्टि से सामजिक बदलावों का अध्ययन करे और जे.पी.सी. सामाजिक और राजनीतिक रूप से | इस मामले में लोक सभा प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज द्वारा संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग का मै पुनः समर्थन करना चाहूँगा, जिसे मीडिया ने शायद गौर ही नहीं किया | सुषमा जी का ध्यान मै उनकी पार्टी द्वारा स्मृति ईरानी और संजय निरुपम मामले में त्वरित प्रतिक्रिया की तरफ भी दिलाना चाहूँगा | जिस तरह से बी.जे.पी. ने तुरंत आनन फानन में अपनी नेता के आत्म सम्मान के लिए एक्शन लिया ठीक उसी प्रकार से वह दिल्ली रेप मामले सहित देश के इसी तरह के तमाम अन्य मामलों में भी तुरंत सरकार पर व्यापक दबाव बनाये और उसे दो सामानांतर आयोगों के गठन के लिए मजबूर करे, क्योंकि वह सिर्फ स्मृति ईरानी भर के लिए विपक्ष नहीं है बल्कि वह सम्पूर्ण भारतवर्ष की तरफ से संसद में विपक्ष की भूमिका में है | प्रमुख विपक्षी दल इस बात का ध्यान रखे कि यदि इस मुद्दे पर वह सरकार को उच्च-स्तरीय निष्पक्ष जाँच कराने और उसकी संस्तुतियों पर कार्रवाई करने के लिए राजी कर लेती है तो अयोध्या के राम उसे राम मंदिर न बना पाने के लिए अवश्य ही क्षमादान दे देंगे |

वहीँ कांग्रेस शासित यू.पी.ए. भी यह अच्छे से समझ ले कि सिर्फ कानून बना लेने भर से और डंडे के जोर से वह समाज को सुसाशन नहीं दे पायेगी, क्योंकि यदि ऐसा होता तो रामदेव सहित अन्ना हजारे का जनलोकपाल के लिए इतना विकराल आन्दोलन न खड़ा होता, वह इस बात को भी भली- भांति समझ ले कि दिल्ली में जो गुस्सा जनता का दिख रहा है, उसमे पिछली कई घटनाओं का मिश्रण है और जनता में यह कत्तई सन्देश न जाये कि यह सरकार तो बस मजबूरी का नाम है, सरकार इस से जैसे तैसे गला भी न छुडाये क्योंकि किस से किससे गला छुड़ाएगी वह, कभी काला धन, कभी जनलोकपाल तो कभी बलात्कार के लिए न्याय आन्दोलन | वस्तुतः लोग अब यह सोच रहे हैं कि सरकार तो कुछ गंभीरता से करना ही नहीं चाहती | तो अब अवसर है सरकार के पास जनता के लिए वास्तव में कुछ करने का | त्वरित कार्रवाई तुरंत जो होनी है वह तो हो ही और सामानांतर न्यायिक जाँच के साथ- साथ जे.पी.सी. की राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल और उनकी संस्तुतियों पर कार्रवाई | यकीन करे शिंदे साहब, यह जनता के साथ साथ सोनिया मैडम के प्रति सबसे बड़ी वफादारी होगी क्योंकि मनरेगा, आर.टी.आई. तो अब पुराने पड़ चुके है, अगले चुनाव में राहुल बाबा लोगों को यह वादा तो कर पाएंगे कि हमने स्त्रियों को भयमुक्त समाज देने के लिए कुछ किया | एक दो और राजनीतिक लाभ आपको बता दे शिंदे साहब, इसमें कोई भी पार्टी, कोई भी जाति आरक्षण की मांग नहीं करेगी और सच्चर इत्यादि कमेटियों की तरह इनकी सिफारिशों को लागू करना मुश्किल और राजनीतिक नुकसानदायक कदापि नहीं होगा | अब भला कोई पोलियो- उन्मूलन का विरोध करेगा क्या ? ... तो शिंदे साहब, अपनी बेटियों को निर्भय कीजिये और कृपया लग जाइये इस वास्तविक कार्य में, भगवान, अल्लाह, ईसु आपकी मदद करे ।।

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मिथिलेश (९९९००८९०८०)
www.mithilesh2020.com

Rape and Crime against Women, Article in Hindi by Mithilesh

Friday 21 December 2012

कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है ... Image of Narendra Modi between Hindutv and Development

by on 15:18
कोई चमत्कार ही नरेंद्र मोदी को गुजरात में हरा सकता था। .... और चमत्कार नहीं हुआ। इसीलिए किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ। अप्रत्याशित या अनहोनी हो जाने के इंतजार में सनसनी का मजा लेने वाले लोगों को तो जाहिर है निराशा ही हुई। अब वो प्रलय से होने वाली सनसनी के इंतजार में अपना समय ख़राब कर सकते हैं।
बहरहाल, कांग्रेस और केशुभाई के बूते की बात तो यह थी भी नहीं। उन्होंने तो एक तरह से पूरा मैदान ही खुला छोड़ दिया था मोदी के लिए। मोदी तो यों भी कांग्रेस और केशुभाई से लड़ नहीं रहे थे। वो अपने आप से लड़ रहे थे, अपने अहं से, अपनी छवि से, अपने लोगों से, अपनी पार्टी से, अपने संघ से। ... और वो चुनाव जीत गए हैं... लेकिन सिर्फ चुनाव.... बाकी लड़ाइयां अभी बाकी हैं। आगे की लड़ाई के लिए इस चुनाव को जीतना उनके लिए बेहद जरूरी था, नहीं तो आगे की सीढ़ी ही टूट जाती।
कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उस फार्मूले की तलाश में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी ...पर वो इस फार्मूले को नहीं गढ़ पाए|

Image of Narendra Modi between Hindutv and Development in Hindi.

Friday 15 June 2012

प्रणब दा… सफल राजनीति से आदर्श चुनौतियों तक - Pranab Mukherjee, The President of India, Political Mastermind

by on 18:28
जब अधिकाधिक लोग राजनीति के बारे में यह कहते नहीं थकते है कि “राजनीति में विश्वास की जगह नहीं होती”, उन सक्रिय लोगों को भावी महामहीम प्रणब मुखर्जी के धैर्य और विश्वास से सीख लेनी चाहिए. सीख लेने की जरूरत न सिर्फ कांग्रेस के लोगो को है, बल्कि इस घटनाक्रम से भाजपा के अति सक्रिय राजनेता एवं संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को भी जरूरत है, क्योंकि धैर्य और विश्वास न रखने का ही नतीजा है कि वह अपने मातृ- संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चरम नाराजगी और अपनी पार्टी भाजपा में भी नाराजगी के आखिरी मुहाने पर खड़े है. निश्चित रूप से धैर्य ममता बनर्जी को भी रखने की जरूरत है, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत राजनीति की जल्दबाजी में अलग- थलग होने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और साथ ही साथ मुलायम सिंह यादव की अंगड़ाई को भी धैर्य रखने की जरूरत थी, जिसमे उन्होंने तुरुप का पत्ता बनने की कोशिश में शायद अपनी विश्वसनीयता को ही दाव पर लगा दिया.

राजनीति की हर एक व्याख्या इतिहास से शुरू होती है. इससे पहले कि हम प्रणब मुखर्जी की राजनीति की सुलझी चालों की बात करें, हमें यह जान लेना होगा कि प्रणब आखिर राजनीति में इतने अहम् क्यों है, विशेष रूप से कांग्रेस जैसी पार्टी में जिसमे हमेशा से एक ही परिवार का राजनैतिक वर्चस्व रहा है, उसके लिए प्रणब मुखर्जी अपरिहार्य कैसे हो गए ? एक सर्वोत्कृष्ट राजनेता, अक्लमंद प्रशाशक, चलता फिरता शब्दकोष, इतिहासकार- लेखक एवं पिछले ८ वर्षों से कांग्रेस पार्टी की डूबती नाव के खेवनहार इत्यादि उपनामों से नवाजे गए श्री मुखर्जी का जन्म १९३५ को बीरभूम जिले के मिराती नमक गावं में हुआ था. पिता कामदा किंकर मुखर्जी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य एवं ख्यात स्वतंत्रता सेनानी थे. उनके पिता पश्चिम बंगाल विधान परिषद् के करीब १४ साल तक सदस्य भी रहे. उनके पदचिन्हों पर चलते हुए प्रणब मुखर्जी ने अपना राजनैतिक जीवन १९६९ से राज्य सभा सदस्य के रूप में आरम्भ किया. १९७३ में उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री के तौर पर कार्य किया. उनका मंत्री के रूप में उल्लेखनीय कार्यकाल १९८२ से १९८४ के बीच रहा जिसमे युरोमनी पत्रिका ने उन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया. इसके बाद श्री मुखर्जी ने कांग्रेसी सरकार में अनेक विभागों में मंत्री के रूप में कार्य किया. राजनीति में कांग्रेस पार्टी में श्री मुखर्जी की लोकप्रिय नेता की छवि सदा से बनी रही है.

कांग्रेस पार्टी की आतंरिक राजनीति की बात करें तो, श्री मुखर्जी के हाशिये पर जाने की कहानी भी लगातार चर्चा में बनी रही. इंदिरा गाँधी के शाशनकाल के दौरान नंबर दो की पोजीशन हासिल करने वाले श्री मुखर्जी का राजनीतिक वनवास श्रीमती इंदिरा गाँधी की आकस्मिक मृत्यु के बाद शुरू हुआ. अपनी सर्वविदित छवि के अनुरूप कांग्रेस पार्टी केpranab-mukherjee-article-in-Hindi-by-Mithilesh परिवार-पूजक नेता श्री राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की गद्दी सौपना चाहते थे और बाद में हुआ भी वही. श्री मुखर्जी वही पर मात खा बैठे और अपनी योग्यता और बुद्धिमता को उन्होंने राजनीति समझ लिया. कहा जाता है कि श्री मुखर्जी के उस समय के रवैये को नेहरु-गाँधी परिवार आज तक नहीं भुला पाया और श्री मुखर्जी लगातार अपनी अवहेलना झेलते भी रहे. श्री मुखर्जी के योग्य होने के बावजूद पहले राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने फिर उसके बाद पी.वी.नरसिम्हा राव और हद तो तब हो गयी जब गाँधी परिवार के वर्तमान नेतृत्व ने श्री मुखर्जी के कनिष्ठ रहे डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया और श्री मुखर्जी के मन में हर घाव गहरा होता गया. पर उन्होंने धैर्य और विश्वास का दामन लम्बे समय तक नहीं छोड़ा. यहाँ तक कि कई छोटे बड़े मंत्री डॉ. मुखर्जी को आँख भी दिखाते रहे, कई अहम् फैसलों में उनकी सलाह को ताक पर रखा गया पर उन्होंने विश्वास का दामन और अपनी योग्यता को निखारना जारी रखा, उन्हें अपनी अंतिम जंग जो जीतनी थी.

वर्तमान राजनीति की बारीक़ समझ रखने वाले इस बात पर एक मत है कि कांग्रेस पार्टी पहले प्रणब मुखर्जी के नाम पर भी सिरे से असहमत थी. सोनिया गाँधी प्रणब के नाम पर लगातार नाक- भौं सिकोड़ती रही है. अब से नहीं बल्कि जबसे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने है तब से, या शायद उससे पहले से ही, क्योंकि पहले कांग्रेस पार्टी के नाम पर सोनिया गाँधी ऐसा राष्ट्रपति चाहती थी जो २०१४ में कांग्रेस की भावी सम्भावना राहुल गाँधी को जरूरत पड़ने पर उबार सके, अपनी गरिमा के विपरीत जाकर भी, इसीलिए कुछ कमजोर नाम भी लगातार चर्चा में बने रहे. यदि कांग्रेस पार्टी की मंशा साफ़ होती तो प्रणब मुखर्जी के नाम की सार्वजानिक घोषणा कभी की हो चुकी होती और राष्ट्रपति चुनाव की इतनी छीछालेदर तो नहीं ही होती. भला हो ममता बनर्जी का जो उन्होंने कांग्रेस को तो कम से कम इस बात के लिए मजबूर किया कि वह अपने प्रत्याशियों के नाम तो बताये. इसी कड़ी में प्रणब का नाम कांग्रेस की तरफ से दावेदार के रूप में उभरा, पर उनके साथ और भी एक नाम उभरा जिससे यह साफ़ जाहिर हो गया कि कांग्रेस पार्टी अभी भी प्रणब का विकल्प खोज रही थी. सीधी बात कहें तो प्रणब मुखर्जी भी अपनी दावेदारी को लेकर बाहरी दलों की तरफ से ज्यादा आश्वस्त थे, परन्तु कांग्रेस की तरफ से बिलकुल भी नहीं. यहाँ तक कि उनके संबंधो की बदौलत भाजपा के कई नेता जैसे मेनका गाँधी, यशवंत सिन्हा इत्यादि सार्वजनिक रूप से उन्हें अपनी पसंद बता चुके थे, परन्तु प्रणब मुखर्जी अपनी धूर-विरोधी सोनिया गाँधी को कैसे भूल जाते, जिसने श्री मुखर्जी की राजनीतिक संभावनाओं पर गहरा आघात किया था. अब ले- देकर श्री मुखर्जी को राजनीति के आखिरी पड़ाव पर राष्ट्रपति पद की एक ही उम्मीद बची थी, और उसे वह किसी भी हाल में हासिल करने की मन ही मन ठान चुके थे.

इसी क्रम में श्री मुखर्जी ने अपने संबंधो का जाल बिछाया और राष्ट्रपति चुनाव के समय से काफी पहले इसकी चर्चा अलग-अलग सुरों से शुरू करा दी. इसमें श्री मुखर्जी खुद भी सधे शब्दों में राय व्यक्त करने से नहीं चुके और अपने को मीडिया, अन्य राजनैतिक मित्रों के माध्यम से चर्चा में बनाये रक्खा. श्री मुखर्जी सोनिया गाँधी की पिछली चालो से बेहद सावधान थे, जिसमे पिछले राष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती गाँधी अपनी मर्जी का प्रत्याशी उठाकर कांग्रेसियों के सामने रख दिया और क्या मजाल कि कोई कांग्रेसी चूँ भी करता कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए वर्तमान राष्ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल से भी योग्य उम्मीदवार हैं. श्रीमती सोनिया गाँधी इस बार भी वही दाव चलने की कोशिश में थी और शायद वह कोई छुपा हुआ उम्मीदवार लाती भी जो की महामहीम की कुर्सी की शोभा बढाता परन्तु सोनिया गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को येन-केन-प्रकारेण पूरा ही करता, भले उसकी गरिमा सुरक्षित रहती अथवा नहीं. प्रणब दा इस तथ्य से भली- भांति परिचित थे कि यदि सोनिया ने किसी गदहे को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए प्रस्तावित कर दिया तो कांग्रेस की समस्त राजनीति सिर्फ उसकी हाँ में हाँ ही मिलाती नजर आती, फिर उसके बाद प्रणब दा लाख सर patakte, kuch नहीं होता, बल्कि उनको बागी कह कर नटवर सिंह, जगन मोहन, harish rawat जैसी कार्रवाई का सामना करना पड़ता, और गाना पड़ता “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत” |

पर बंगाली बाबु इस बार बेहद सावधान थे, अपनी छवि लगातार खेवनहार की बनाये रखते हुए, उन्होंने सोनिया की किसी चाल को कोई मौका ही नहीं दिया. जब तक सोनिया कुछ समझती तब तक तो गेद को बंगाली बाबु ईडन-गार्डेन की सीमा रेखा के बाहर भेज चुके थे और इस खेल में मुलायम ने दादा का भरपूर साथ दिया. आश्चर्य न करें आप लोग, है तो यह अनुमान ही परन्तु मुलायम जैसा राजनैतिक पहलवान ममता जैसी बिगडैल नेता के साथ प्रेस- कांफ्रेंस करता है और तीन में से दो बेवकूफी भरे नाम का प्रस्ताव करता है. मुलायम जैसे राजनीतिज्ञ को क्या यह आम आदमी को भी पता है कि मनमोहन को राष्ट्रपति बनाने का मतलब उनका प्रधानमंत्री के रूप में नाकाम होना है और कांग्रेस इसे सरेआम स्वीकार करेगी, वह भी ममता- मुलायम के कहने पर यह तो असंभव बात थी. सोमनाथ चटर्जी एक मृतप्राय राजनीतिज्ञ है और उनका नाम सिर्फ बंगाली प्रतीक के रूप में घसीटा गया. ले देकर बचे डॉ. कलाम. मुलायम यह भली- भांति जानते थे कि कलाम की उम्मीदवारी बेहद मजबूत होगी और कांग्रेस उसके मुकाबले में अपने सबसे मजबूत प्रत्याशी को ही मैदान में उतारेगी, और प्रणब मुखर्जी जैसा मजबूत और स्वीकार्य नेता भला कौन होता. बस तस्वीर पानी की तरफ साफ़ हो गयी और जैसे ही कांग्रेस ने दबाव में आकर प्रणब मुखर्जी को प्रत्याशी बनाया, राजनीति के माहिर मुलायम ने तगड़ा दाव खेलते हुए और बिना देरी किये उनके बिना शर्त समर्थन की घोषणा कर दी. इससे पहले प्रत्याशी ghoshit करने का जबरदस्त दबाव सपा ने अपने नेताओं के माध्यम से कांग्रेस पर बनाया कि “कांग्रेस अपने प्रत्याशी को लेकर खुद ही bharam में है, और उसे प्रणब के नाम की जल्द से जल्द घोषणा करनी चाहिए”. यही नहीं बल्कि सपा ने जबरदस्त शंशय बनाते हुए कांग्रेस को यह साफ़ कर दिया कि वह आसानी से उसके किसी भी उम्मीदवार का समर्थन नहीं करेगी. परन्तु प्रणब के नाम की सार्वजानिक घोषणा होते ही सपा ने बहूत ही आसानी से उसे समर्थन दे दिया.

दोस्तों, अब मुझे यह बात बिलकुल समझ नहीं आ रही है कि ममता बनर्जी राजनीति के इस खेल में सिर्फ इस्तेमाल हुई है अथवा उन्होंने सोनिया के वर्चस्व को तोड़ने की सार्थक पहल करते हुए अपना राजनैतिक नुकसान janbujhkar किया है. परन्तु कोई बात नहीं ममता दीदी, आप अपने खेल में सफल रहीं और दादा ने आपको अपनी बहन Buy-Related-Subject-Book-beसंबोधित करके आपका सार्वजनिक आभार भी व्यक्त किया है. पर यदि आप इस खेल से अनजान थी तो मुलायम सिंह को भूलियेगा नहीं, उनके पलीते में चिंगारी दिखाने के लिए कमसे कम आप २०१४ लोकसभा चुनाव का intjar तो कर ही सकती हैं.

इसी कड़ी में डॉ. कलाम ने भी अपने पत्ते नहीं खोलकर बहूत ही परिपक्व नागरिक होने का सबूत पेश किया है, क्योंकि यदि इस खेल में आप घसीटे जाते तो भारत की जनता अपने आप को अपमानित महसूस करती, क्योंकि संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव की एक प्रक्रिया है जिसे राजनीतिक दल एक दायरे में रह कर और बिना शोर- शराबे के पूरा करते हैं. परन्तु कांग्रेस पार्टी की आतंरिक राजनीति से यदि गलती हुई है और उस गलती के फलस्वरूप आज देश का प्रत्येक नागरिक इस चुनाव से सीधा जुड़ा महसूस कर रहा है, तब कांग्रेस पर जन भावना की अनदेखी करके जनता का अनादर ही नहीं बल्कि लोकतंत्र का सीधा अपमान करने का भी आरोप लगता, क्योंकि आपका व्यक्तित्व राजनीति से परे है. जनता से जुडाव की बात करें तो डॉ. कलाम आसमान का दर्जा रखते है, और प्रणब मुखर्जी एक सम्मानित नेता होने के बावजूद उनसे कोषों पीछें है, न सिर्फ एक व्यक्ति के तौर पर बल्कि एक सार्वजनिक छवि के तौर पर भी, साफ़ सुथरी छवि के तौर पर भी, देश को दिए गए उनके सीधे योगदान के तौर पर भी, त्याग के तौर पर भी और यही नहीं वरन राष्ट्रपति के पिछले कार्यकाल में डॉ. कलाम ने यह साबित कर दिखाया कि भारत का राष्ट्रपति किसे कहते है, उसे कैसा होना चाहिए, जन- जन से कैसे जुड़कर काम किया जाता है.

प्रणब दा की असली चुनौतिया सिर्फ सोनिया गाँधी को पटखनी देने की ही नहीं है, उसमे तो वह शत- प्रतिशत कामयाब ही रहे हैं, वरन प्रणब मुखर्जी को डॉ. कलाम के सफ़र को ही आगे बढ़ाना होगा, जनभावनाओं के साथ जुड़कर चलना होगा और अलोकतांत्रिक और जनता-विरोधी कार्यों से बचना होगा. गौरतलब है पिछले दिनों अन्ना हजारे के More-books-click-hereजनांदोलन में डॉ. प्रणब मुखर्जी ने जनभावनाओं को दबाने का काम किया था, चाहे अन्ना हजारे की गिरफ़्तारी हो, किरण बेदी को डांटना हो अथवा अनेक घोटालो इत्यादि में कांग्रेस पार्टी को बचाना हो, प्रणब जी साफ़ छवि के बावजूद मंत्रिमंडल का ही एक हिस्सा रहे है और वह कांग्रेस पार्टी के घोटालों से कहीं न कहीं सीधा न सही तो परोक्ष रूप से jude rahne का daag जरूर है. राष्ट्रपति पद पर वह किसी पार्टी या किसी आलाकमान के नहीं वरन देश के प्रतिनिधि लगे, नहीं तो भारतीय जनता खुद को ठगा सा महसूस करेगी. यह सच है कि भारत की जनता ९० फीसदी से ऊपर डॉ. कलाम को राष्ट्रपति पद के लिए पसंद करती है, परन्तु वह डॉ. प्रणब मुखर्जी को नापसंद भी नहीं करती. बस यही वह अंतर है जिसमे डॉ. कलाम के आदर्श को आगे बढ़ाना होगा प्रणब दा को और राजनीति में उनकी स्वीकार्यता और व्यापक अनुभव को देखते हुए भारतीय जनता की उम्मीदें निसंदेह बहूत स्वाभाविक है. उम्मीद है भारत देश पिछले ८ वर्ष से नेतृत्व- vihin होने के aaropon से ubrega और डॉ. प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में एक नया सवेरा सभी भारतवासियों के चेहरे की मुस्कान बनेगा.

जय हिंद !!
by- Mithilesh Kumar Singh

Pranab Mukherjee, The President of India, Political Mastermind, article in Hindi by Mithilesh

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