माननीय विनोद जी बब्बर के द्वारा बताई गयी तीन बातें … - Bauddhik vilasita and Lok katha in Hindi
by
मिथिलेश - Mithilesh
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15:31
आदरणीय विनोद बब्बर जी द्वारा मुझे बताई गयी तीन मुख्य बातें / कहानियाँ:
१. बौद्धिक विलासिता / बौद्धिक व्यभिचार एक तरह का पाप है: इसकी सीधी परिभाषा उन्होंने यही बताई कि यदि हम अपने द्वारा बनाये गए आदर्श को स्वयं ही पालन नहीं कर पाते हैं और उसे सिर्फ दूसरों से पालन करने की अपेक्षा करते हुए उसके पक्ष में तमाम तर्क देते हैं, तो यह बौद्धिक विलासिता की श्रेणी में आता है. इसके साथ यदि कोई बात सैद्धांतिक रूप से चाहे कितनी भी उत्तम क्यों न हो, पर यदि वह व्यावहारिकता की कसौटी पर बार-बार और लगातार खरी नहीं उतर पाती है तो उस सिद्धांत को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करने वाला भी बौद्धिक व्यभिचारी की संज्ञा ही पायेगा.
लोक-कथाएँ कई बार बड़े-बड़े ग्रंथो के सिद्धांतों पर भी भारी पड़ती हैं क्योंकि वह कठिन से कठिन बातों को बड़ी ही सरल और मनोरंजक भाषा में समझाने की क्षमता रखती हैं. इसी सन्दर्भ में उन्होंने मुझे कहानी सुनायी जो इस प्रकार है-
2. किसी गावं में दो मित्र रहा करते थे. बचपन से उन दोनों में सगे भाई से भी ज्यादा स्नेह था. समय के साथ उन दोनों की शादियाँ हुई, बच्चे हुए, पर उन दोनों के स्नेह में कोई अंतर न आया. एक बार दोनों मित्रों ने तीर्थ-स्थान की यात्रा करने की सोची और हरिद्वार के लिए निकल पड़े. रास्ते भर उनमे से एक मित्र दुसरे को लगातार टोकता रहा, उसे बात बात पर समझाने का प्रयास करता रहा. इस से दोनों के बीच में बहस भी हो गयी, बात बढ़ते बढ़ते एक मित्र ने दुसरे को थप्पड़ जड़ दिया, दुसरे मित्र को इस घटना से बहूत पीड़ा हुई और उसने गंगा के किनारे रेत पर तत्काल लिख दिया- “आज मेरे साथ दुनिया का सबसे बड़ा छल हुआ, जिस मित्र को अपने भाई से भी ज्यादा मानता था उसी ने आज घर से इतनी दूर मेरे ऊपर हाथ उठाया”. यात्रा के दौरान दोनों मित्रों के बीच बातचीत बंद रही. खैर, दोनों मित्र स्नान करने पहुंचे. घाट पर पहला मित्र (जिसने मारा था), किनारे पर ही स्नान कर रहा था, जबकि दूसरा मित्र (जिसने मार खाई थी), वह थोडा आगे निकल गया नहाने के लिए. संयोग बस आगे कीचड़ रुपी दलदल था और दूसरा मित्र डूबने लगा, पहले मित्र ने आव देखा न ताव और दुसरे मित्र को तमाम प्रयास से किनारे पर खींचने में सफल रहा. इस घटना के बाद दुसरे मित्र ने पास पड़े पत्थर पर खुरच-खुरच कर लिखा- “आज मेरे साथ मेरे जीवन की सबसे अच्छी बात हुई, कि जिस मित्र को मै बुरा-भला कहता रहा, आज उसी ने मेरी जान बचाई.” … एक तीसरा व्यक्ति जो काफी समय से दोनों के साथ था, उसने दुसरे मित्र से पूछा कि- जब तुमको तुम्हारे मित्र ने मारा तो तुमने इस घटना को रेत पर लिख कर व्यक्त किया, जबकि उसने जब तुम्हे बचाया तो तुमने उसे पत्थर पर लिखा, क्यों? … दुसरे मित्र का बहुत सरल जवाब था- “कोई तुम्हारे साथ बुरा करे तो, उसे रेत पर लिखो और भूल जाओ, पर तुम्हारे साथ यदि कोई अच्छा करे तो उसे पत्थर पर लिखो ताकि इतिहास भी उसे मिटा न सके”. यह कहानी सुनते हुए बब्बर जी ने कहा कि- “इसी प्रकार का व्यवहार किसी भी रिश्ते की नींव साबित होती है.” दूसरों के बुराई को भूलने की कोशिश जबकि दूसरों को अच्छाई को स्थाई रूप से याद रखने का प्रयास.
३. इसी सन्दर्भ में एक दूसरी कहानी उन्होंने सुनायी- “एक व्यक्ति अपने जीवन से काफी दुखी था, उसने भगवान् की दिलो-जान से पूजा की और भगवान के प्रकट होने पर उसने “जीवन में सुखी रहने का वरदान माँगा”. भगवान ने उसे दो थैले (बैग) दिए और उस से कहा कि वह एक थैला अपने आगे लटका ले और उसे जो भी अपने स्वयं के अन्दर कमी दिखे, उस कमी को आगे के थैले में डालता रहे और उसे बार बार खोलकर देखता रहे. वहीँ भगवान ने दुसरे थैले को पीठ पर लटकाने का आदेश देते हुए कहा कि इस थैले में तुम दूसरों की बुराइयां डालते रहना और इसे खोल कर देखने की जरूरत भी नहीं है. … काफी समय बाद वह आदमी और भी दुखी हो गया, भगवान ने प्रकट होकर देखा तो दो थैले उस व्यक्ति के आगे और पीछे लगे हुए थे, और आगे वाला थैला काफी भारी लग रहा था. भगवान ने उस व्यक्ति से पूछा- आगे वाले थैले में तुमने क्या रखा है तो व्यक्ति ने जवाब दिया- “आगे वाले में मै दूसरों की बुराइयां डालता रहता हूँ. तो भगवान ने फिर उससे पूछा तो फिर आगे वाले थैले को तुम बार बार देखते भी होगे. व्यक्ति ने कहा कि – हाँ. फिर पीछे वाले थैले की तरफ भगवान ने इशारा करते हुए पूछा कि- यह इतना हल्का क्यों है, तो व्यक्ति ने कहा कि मेरे अन्दर बुराइयां कहाँ हैं?, जो एक- दो थी, वह मैंने दाल दी है और उनकी तरफ मै देखता भी नहीं…. तो भगवान ने उसे पुनः बताते हुए कहा कि- “फिर तो तुम कभी सुखी हो ही नहीं सकते क्योंकि- जो व्यक्ति अपनी कमी नहीं देखता है और सिर्फ दूसरों की कमियाँ देखते रहता है, वह न सिर्फ दूसरों की कमियाँ देखता है, बल्कि बार बार देखने से वह सारी कमियाँ उसके स्वयं के अन्दर प्रवेश कर जाती है, जबकि वह अपनी कमियों को कई बार तो देखना भी नहीं चाहता, और यदि एक-दो की तरफ कोई ध्यान दिलाता है तो वह पीछे वाले थैले में डालकर भूल जाता है.” … भगवान ने उस इंसान को पुनः समझाते हुए कहा कि अपनी कमियों को देखो और बार बार देखो ताकि तुम उन्हें सुधार सको जबकि दूसरों की कमियों को मत देखो और देखो भी तो उसे पीछे वाले थैले में डालकर भूल जाओ., यही सुखी होने का मंत्र है. कबीर दास ने भी कहा है -
“बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलया कोय.
जो दिल खोज आपना, मुझसा बुरा न कोय.”
Bauddhik vilasita and Lok katha in Hindi
१. बौद्धिक विलासिता / बौद्धिक व्यभिचार एक तरह का पाप है: इसकी सीधी परिभाषा उन्होंने यही बताई कि यदि हम अपने द्वारा बनाये गए आदर्श को स्वयं ही पालन नहीं कर पाते हैं और उसे सिर्फ दूसरों से पालन करने की अपेक्षा करते हुए उसके पक्ष में तमाम तर्क देते हैं, तो यह बौद्धिक विलासिता की श्रेणी में आता है. इसके साथ यदि कोई बात सैद्धांतिक रूप से चाहे कितनी भी उत्तम क्यों न हो, पर यदि वह व्यावहारिकता की कसौटी पर बार-बार और लगातार खरी नहीं उतर पाती है तो उस सिद्धांत को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करने वाला भी बौद्धिक व्यभिचारी की संज्ञा ही पायेगा.
लोक-कथाएँ कई बार बड़े-बड़े ग्रंथो के सिद्धांतों पर भी भारी पड़ती हैं क्योंकि वह कठिन से कठिन बातों को बड़ी ही सरल और मनोरंजक भाषा में समझाने की क्षमता रखती हैं. इसी सन्दर्भ में उन्होंने मुझे कहानी सुनायी जो इस प्रकार है-
2. किसी गावं में दो मित्र रहा करते थे. बचपन से उन दोनों में सगे भाई से भी ज्यादा स्नेह था. समय के साथ उन दोनों की शादियाँ हुई, बच्चे हुए, पर उन दोनों के स्नेह में कोई अंतर न आया. एक बार दोनों मित्रों ने तीर्थ-स्थान की यात्रा करने की सोची और हरिद्वार के लिए निकल पड़े. रास्ते भर उनमे से एक मित्र दुसरे को लगातार टोकता रहा, उसे बात बात पर समझाने का प्रयास करता रहा. इस से दोनों के बीच में बहस भी हो गयी, बात बढ़ते बढ़ते एक मित्र ने दुसरे को थप्पड़ जड़ दिया, दुसरे मित्र को इस घटना से बहूत पीड़ा हुई और उसने गंगा के किनारे रेत पर तत्काल लिख दिया- “आज मेरे साथ दुनिया का सबसे बड़ा छल हुआ, जिस मित्र को अपने भाई से भी ज्यादा मानता था उसी ने आज घर से इतनी दूर मेरे ऊपर हाथ उठाया”. यात्रा के दौरान दोनों मित्रों के बीच बातचीत बंद रही. खैर, दोनों मित्र स्नान करने पहुंचे. घाट पर पहला मित्र (जिसने मारा था), किनारे पर ही स्नान कर रहा था, जबकि दूसरा मित्र (जिसने मार खाई थी), वह थोडा आगे निकल गया नहाने के लिए. संयोग बस आगे कीचड़ रुपी दलदल था और दूसरा मित्र डूबने लगा, पहले मित्र ने आव देखा न ताव और दुसरे मित्र को तमाम प्रयास से किनारे पर खींचने में सफल रहा. इस घटना के बाद दुसरे मित्र ने पास पड़े पत्थर पर खुरच-खुरच कर लिखा- “आज मेरे साथ मेरे जीवन की सबसे अच्छी बात हुई, कि जिस मित्र को मै बुरा-भला कहता रहा, आज उसी ने मेरी जान बचाई.” … एक तीसरा व्यक्ति जो काफी समय से दोनों के साथ था, उसने दुसरे मित्र से पूछा कि- जब तुमको तुम्हारे मित्र ने मारा तो तुमने इस घटना को रेत पर लिख कर व्यक्त किया, जबकि उसने जब तुम्हे बचाया तो तुमने उसे पत्थर पर लिखा, क्यों? … दुसरे मित्र का बहुत सरल जवाब था- “कोई तुम्हारे साथ बुरा करे तो, उसे रेत पर लिखो और भूल जाओ, पर तुम्हारे साथ यदि कोई अच्छा करे तो उसे पत्थर पर लिखो ताकि इतिहास भी उसे मिटा न सके”. यह कहानी सुनते हुए बब्बर जी ने कहा कि- “इसी प्रकार का व्यवहार किसी भी रिश्ते की नींव साबित होती है.” दूसरों के बुराई को भूलने की कोशिश जबकि दूसरों को अच्छाई को स्थाई रूप से याद रखने का प्रयास.
३. इसी सन्दर्भ में एक दूसरी कहानी उन्होंने सुनायी- “एक व्यक्ति अपने जीवन से काफी दुखी था, उसने भगवान् की दिलो-जान से पूजा की और भगवान के प्रकट होने पर उसने “जीवन में सुखी रहने का वरदान माँगा”. भगवान ने उसे दो थैले (बैग) दिए और उस से कहा कि वह एक थैला अपने आगे लटका ले और उसे जो भी अपने स्वयं के अन्दर कमी दिखे, उस कमी को आगे के थैले में डालता रहे और उसे बार बार खोलकर देखता रहे. वहीँ भगवान ने दुसरे थैले को पीठ पर लटकाने का आदेश देते हुए कहा कि इस थैले में तुम दूसरों की बुराइयां डालते रहना और इसे खोल कर देखने की जरूरत भी नहीं है. … काफी समय बाद वह आदमी और भी दुखी हो गया, भगवान ने प्रकट होकर देखा तो दो थैले उस व्यक्ति के आगे और पीछे लगे हुए थे, और आगे वाला थैला काफी भारी लग रहा था. भगवान ने उस व्यक्ति से पूछा- आगे वाले थैले में तुमने क्या रखा है तो व्यक्ति ने जवाब दिया- “आगे वाले में मै दूसरों की बुराइयां डालता रहता हूँ. तो भगवान ने फिर उससे पूछा तो फिर आगे वाले थैले को तुम बार बार देखते भी होगे. व्यक्ति ने कहा कि – हाँ. फिर पीछे वाले थैले की तरफ भगवान ने इशारा करते हुए पूछा कि- यह इतना हल्का क्यों है, तो व्यक्ति ने कहा कि मेरे अन्दर बुराइयां कहाँ हैं?, जो एक- दो थी, वह मैंने दाल दी है और उनकी तरफ मै देखता भी नहीं…. तो भगवान ने उसे पुनः बताते हुए कहा कि- “फिर तो तुम कभी सुखी हो ही नहीं सकते क्योंकि- जो व्यक्ति अपनी कमी नहीं देखता है और सिर्फ दूसरों की कमियाँ देखते रहता है, वह न सिर्फ दूसरों की कमियाँ देखता है, बल्कि बार बार देखने से वह सारी कमियाँ उसके स्वयं के अन्दर प्रवेश कर जाती है, जबकि वह अपनी कमियों को कई बार तो देखना भी नहीं चाहता, और यदि एक-दो की तरफ कोई ध्यान दिलाता है तो वह पीछे वाले थैले में डालकर भूल जाता है.” … भगवान ने उस इंसान को पुनः समझाते हुए कहा कि अपनी कमियों को देखो और बार बार देखो ताकि तुम उन्हें सुधार सको जबकि दूसरों की कमियों को मत देखो और देखो भी तो उसे पीछे वाले थैले में डालकर भूल जाओ., यही सुखी होने का मंत्र है. कबीर दास ने भी कहा है -
“बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलया कोय.
जो दिल खोज आपना, मुझसा बुरा न कोय.”
Bauddhik vilasita and Lok katha in Hindi