Monday 20 January 2014

Arivind Kejriwal as a Politician

by on 10:00
Arivind Kejriwal as a Politician

 


अब केजरीवाल सरकार कैसे चलायें जब कोई सहयोग करने को ही तैयार न हो. इस स्थिति का आभाष केजरीवाल को भी हो चुका है. जरा सोचिये, सोमनाथ भारती यदि पुलिस के एसीपी रैंक के अधिकारी के हाथों बेइज्जत नहीं होते तो क्या तब भी यह धरना प्रदर्शन होता? बड़ा सीधा प्रश्न है. अब इस स्थिति में केजरीवाल के पास दो ही रास्ते थे. एक खुद को भी इस माहौल के अनुसार ढाल लें और फिर धीरे-धीरे वह परिवर्तन लेकर आयें, परन्तु यदि उन्हें तालमेल ही करना होता तो क्यों वह अपनी आईआरएस की नौकरी छोड़ते, क्यों ...



Arivind Kejriwal as a Politician, news in Hindi.

Sunday 19 January 2014

मोदी मन्त्र : योजना या लफ्फाजी - Modi mantra

by on 06:33
modi-mantra  नरेंद्र मोदी ने आखिरकार अपने वादों का पिटारा खोलकर एक कदम आगे बढ़ा दिया है. जिस प्रकार दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में राहुल गांधी ने जोरदार भाषण दिया, उसने भाजपाइयों के कान खड़े कर दिए थे. इसके साथ तालकटोरा स्टेडियम में ही राहुल गांधी को चुनाव प्रचार कमान देकर उन्हें कांग्रेस ने एक कदम आगे भी कर दिया था और प्रधानमंत्री घोषित नहीं करके उन्होंने राहुल गांधी को सुरक्षित भी कर लिया है. अभी तक चुनाव प्रचार में आगे चल रहे नरेंद्र मोदी भी राहुल गांधी के इस बदले रूप से सचेत हो गए और मात्र दो दिन बाद उन्होंने भारत के विकास के लिए रोडमैप पेश कर दिया. इस रोडमैप में उन्होंने बेहद बड़ी-बड़ी बातें रखीं, उससे भी आगे जाकर उन्होंने अमेरिका और जापान जैसे देशों के विकास जैसी तुलनात्मक योजनाओं का खुलासा रखकर आज के नए युवा की मानसिकता को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नरेंद्र मोदी यूँही भारत की दूसरी सबसे बड़ी और संघ-सिंचित भाजपा के शीर्ष पर नहीं पहुँच गए हैं. जो बात उनके भीतर है, उसमें सबसे ख़ास बात है कि वह सही मौके पर सही बात करते हैं. कई मामलों में उनकी वाणी वैद्य की तरह दिखती है, जो जनता की नब्ज पकड़ने में माहिर है.

परन्तु नरेंद्र मोदी के भाषण में जो बड़ी बातें कही गयी हैं, बात इससे आगे तक जाती है. हालांकि नरेंद्र मोदी एक जांचे और परखे नेता हैं और उनका सार्वजनिक जीवन भी गुजरात दंगों को छोड़कर बेदाग़ रहा है. परन्तु जब बात केंद्र की आती है तब मसला कुछ और हो जाता है. भारतीय शासन प्रणाली में जब राज्य कोई गलत कदम उठाता है तब उसके ऊपर केंद्र का अंकुश रहता है परन्तु केंद्र के मामले में ऐसा नहीं होता है. केंद्र में यदि कोई सरकार रहती है तब वह सीधे-सीधे पूरे देश के लिए जिम्मेवार होती है. और यहीं सवाल उठता है नरेंद्र मोदी के वादों पर. उन्होंने अपने भाषण में रक्षा नीति, विदेश नीति, अर्थ नीति से जुड़े मुद्दों पर कोई ख़ास राय नहीं रखी. नरेंद्र मोदी के शासन, प्रशासन पर तो उनके विरोधी भी कुछ ख़ास प्रश्न नहीं करते हैं, प्रश्न तो उनके रवैये को लेकर है. प्रश्न विकास से ज्यादा इस बात को लेकर है कि कश्मीर समस्या के बारे में उनका रवैया क्या होगा. प्रश्न यह भी है कि जिस प्रकार अमेरिका ने मोदी को वीजा देने से मना कर रखा है, उससे कहीं वह नाराज होकर अमेरिका के साथ सम्बन्धों को बिगाड़ेंगे तो नहीं. कहीं वह तानाशाह बनकर देश के ताने-बाने को ख़राब तो नहीं करेंगे. बेहतर होता यदि नरेंद्र मोदी बुलेट-ट्रेन, एम्स और बेहतर प्रबंधन संस्थानों के साथ इन मुद्दों पर भी आम जनता का दिल जीतने की कोशिश करते. नरेंद्र मोदी के इस भाषण में देश की ग्रामीण जनता का भी कोई खास जिक्र नहीं दिखा और इस बात पर आश्चर्य इसलिए भी होता है कि कहीं मोदी ने बिना योजना के दिल्ली के अरविन्द केजरीवाल की तरह सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें तो नहीं की.

जिस प्रकार दिल्ली अरविन्द केजरीवाल के शासन में अराजकता की ओर बढ़ रहा है, कहीं देश मोदी के नेतृत्व में वैसा तो नहीं हो जायेगा. इन सभी प्रश्नों का जवाब नरेंद्र मोदी को जरूर ही देना चाहिए. यह बात कहने में किसी पत्रकार को लाग-लपेट नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी के प्रति देश भर में एक भारी आकर्षण है, परन्तु क्या सिर्फ आकर्षण और बड़ी-बड़ी बातों से काम चल जायेगा. लोकतंत्र में कई लोग जिन प्रश्नों को उठा रहे हैं, मोदी उन पर भी सहृदयता से जवाब दें. भाजपा के सर्वोच्च नेता बन चुके मोदी को अपने बुजुर्ग और संरक्षण लाल कृष्ण आडवाणी की सीख पर भी ध्यान देना चाहिए, जिसमें वह उन्हें अति आत्म विश्वास से बचने की सलाह देते हैं. हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कांग्रेस महा भ्रष्टाचारी पार्टी है, परन्तु यह बात विचारणीय है कि वह इतनी गलत होने के बावजूद भी ६० साल तक शासन में कैसे रही. इस प्रश्न का उत्तर यही है कि सबको साथ लेकर चलने की कला राजनीति के लिए बेहद आवश्यक है. नरेंद्र मोदी वर्त्तमान नेताओं में निश्चित रूप से काफी योग्य दिखते हैं, परन्तु वह समस्त भारत को साथ लेकर कैसे चलेंगे, इस बाबत भी उनको अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए. यही लोकतंत्र है. अपनी बात भी रखिये, और दूसरों की बातों का सहृदयता से जवाब भी दीजिये. सुन रहे हैं न प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, मोदी जी.

Friday 17 January 2014

राहुल गांधी नए सोच वाले हो गए हैं! - Rahul Gandhi

by on 06:39
देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी के पिछले दस साल से नए चेहरे बने राहुल गांधी अब अपनी सोच को और भी नयापन दे रहे हैं. दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में चल रही कांग्रेस पार्टी की बैठक को अपने जोश और सोच से लबरेज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कांग्रेस पार्टी के युवराज ने. इस सन्दर्भ में एक कांग्रेसी नेता की पहले कही गयी एक टिप्पणी को उद्धृत करना उचित रहेगा. उन्होंने भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी पर कड़ा हमला बोलते हुए कहा था कि उन्होंने अपने आपको काफी पहले ओवरसेल कर दिया है. इस कड़ी में राहुल गांधी बिलकुल सही समय पर अपनी गति पकड़ रहे हैं. असली नेता वही होता है, जो चुनाव आते आते अपनी पूरी गति पकड़ ले, और मतदान के दिन बटन दबने तक अपनी गति बनाये रखे. हाँ, फिर बेशक वह मतदान के बाद अपनी गाड़ी पर ब्रेक क्यों न लगा दे.

अब जबकि २०१४ की दुंदुम्भी बज चुकी है, तब कांग्रेस पार्टी के १० साल पुराने परन्तु नए सोच वाले चिराग राहुल गांधी अपने तरकश से कई तीर निकाल रहे हैं. एक तरफ तो अपने भाषणों में वह परंपरा, कांग्रेस पार्टी की सोच और भारत के इतिहास की कड़ी दुहाई दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर वह विपक्ष की मार्केटिंग रणनीति को जनता के सामने उजागर करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. मार्केटिंग रणनीति का अधिकाधिक दुरूपयोग करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने गंजे को कंघी बेचने का पुराना मुहावरा भी इस्तेमाल कर डाला. वहीं दिल्ली में नयी नवेली आम आदमी पार्टी पर उन्होंने गंजों का हेयर कट करने को लेकर सधा हुआ व्यंग्य भी किया. खैर, यह राहुल गांधी का अधिकार है कि वह अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित करें, उन्हें चार्ज करें, परन्तु क्या यह बेहतर नहीं होता कि वह अपनी सरकार पर पिछले पांच साल तक बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का दबाव बनाये रखते.

जिस प्रकार राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं की बैठक में प्रधानमंत्री से देश की महिलाओं के लिए ९ की जगह १२ सिलेंडर की मांग की, तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि सिलेंडर पर सब्सिडी समाप्त करने के निर्णय पर वह सरकार पर अपना दबाव बनाते. जहाँ तक बात मार्केटिंग की है, तो राहुल गांधी की मार्केटिंग भी कुछ कम नहीं है. परन्तु जब देश घोटालों, भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा और सीमा-सुरक्षा के मुद्दों से बुरी तरह जूझ रहा हो तब कोई भी मार्केटिंग नकारात्मक हो जाती है. राहुल गांधी को यह बात खुले तौर पर पता होनी चाहिए कि मार्केटिंग में साख की अहम् भूमिका होती है. यदि किसी संगठन की साख पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए तो मार्केटिंग उसके लिए नकारात्मक भूमिका निभाती है. बेहतर होगा राहुल गांधी के लिए कि २०१४ के चुनाव में उनकी पार्टी का जो होगा, वह उनके पिछले पांच साल के कामों का ही परिणाम होगा. परन्तु उनकी पार्टी को देश की जरूरत है अभी, और जिस सोच, धर्म-निरपेक्षता की बात वह कर रहे हैं, उसकी भी जरूरत है देश को. परन्तु यह सिर्फ लफ्फाजी से नहीं होगा. अब कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को पारदर्शिता अपनानी ही होगी, क्योंकि अब सिर्फ विपक्ष ही नहीं, बल्कि भारतीय जनता उनसे जवाब मांग रही है. और लोकतंत्र में जनता भगवान होती है. सुन रहे हैं न राहुल बाबा.

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Rahul Gandhi leadership for congress

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