Tuesday 13 May 2014

मोदी को रोकने की बात ही क्यों - Negative Politics

by on 17:27
कई बार मन में प्रश्न उठता है कि राजनीति क्या नकारात्मकता का ही नाम है या इसके द्वारा कुछ सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं. कुछ नेता राजनीति को समाज-सुधार और बढ़िया प्रशासन का ही एक घटक मानते हैं. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब यही नेता बजाय एक बड़ी लाइन खींचने के, एक-दुसरे पर छींटाकसी करने को अपना राजनैतिक आधार मानने लगते हैं. ताजा मामला राजनीति के केंद्र-बिंदु बने नरेंद्र मोदी का है. उनके तमाम विरोधी अपने राजनैतिक हमलों में उनकी साम्प्रदायिक छवि को उभारते रहे हैं. इसमें कोई बुराई भी नहीं है. आपत्ति तो तब होती है, जब इसी नकारात्मकता को आधार बनाकर वोट मांगे जाते हैं. आखिर इसे आम जनता को मुर्ख बनाने का प्रयास नहीं माना जाये तो और क्या माना जाए, क्योंकि राजनीति में आये हुए तमाम नेता आखिर राजनीति में इसलिए ही तो आते हैं, क्योंकि वह जनता की बेहतरी के लिए कार्य कर सकें. और कोई भी कार्य उनकी अपनी क्षमता से ही होगा, न कि मोदी या दूसरों की बुराई करके. आज कल यह चलन हो गया है कि मोदी की बुराई करो, और वोट मांग लो. नेताओं की मानसिकता कुछ यूं हो गयी है कि चुनाव जीतने का एक ही मंत्र है, और वह है 'मोदी-विरोध'.

हमें मोदी या किसी और से कोई लगाव नहीं है, उन्होंने जो गलत किया है, उसके लिए अदालतें, जनता और ईश्वर हैं, लेकिन हमें इस बात पर भी आपत्ति है कि मोदी का नाम बार-बार लेकर आम जनता को मायावती, प्रकाश करात, मुलायम सिंह या दुसरे नेता जनता को मुर्ख बनाएं. हाँ, लोकतंत्र में उनको हक़ है वोट मांगने का, लेकिन अपनी अच्छी योजनाओं के बल पर. वह अपना प्रशासनिक खाका लेकर जनता के पास जाएं, और उससे वोट मांगे. जहाँ तक बात तीसरे मोर्चे के नेताओं की है, तो उसकी कहानी तो इंदिरा गांधी के ज़माने से स्पष्ट है. जिस प्रकार मोरारजी देसाई की सरकार के खिलाफ प्रधानमंत्री पद के लिए ही चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी में बगावत कर दी थी, उसकी अगली कड़ी विश्व्नाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की महत्वाकांक्षा के रूप में सामने आयी. इससे आगे बढ़ें तो, एच. डी. देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल की महत्वाकांक्षा पूरा देश देख ही चूका है. वर्त्तमान हालात में भी, तीसरे मोर्चे में जितने दल हैं, उतने ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार. अब 'एक अनार, और सौ बीमार' वाली स्थिति से भला कब, किसका कल्याण हुआ है. और जो भी दल तीसरे मोर्चे के गठन का उपक्रम कर रहे हैं, उनमें से अधिकांशतः कांग्रेस के भागीदार रह चुके हैं, और कई तो अब भी कांग्रेसी भ्रष्टाचार में शामिल हैं. मसलन, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की ही बहुजन समाजवादी पार्टी.

बेहतर होगा, यह सभी नेता हिटलरशाही, परिवारवाद, भ्रष्टाचार से मुक्त होकर पहले अपने ही दल में लोकतंत्र की स्थापना करें, अन्यथा देश इन पर कैसे भरोसा करेगा. उदाहरण के लिए, मुलायम सिंह की सपा में ही, वह खुद, उनके भाई, उनके बेटे, भतीजे, बहु और पता नहीं कौन-कौन कब्ज़ा जमाये हुए हैं. अब वह भला देश को परिवारवाद से मुक्त कराने की बात किस मुंह से करते हैं. मायावती की पार्टी में भी उनके सामने उनके नेता बैठ तक नहीं सकते हैं. कथित तौर पर वह सभी को अपने पावं छूने तक के लिए मजबूर करती रही हैं. माक्सवादी पार्टी के प्रकाश करात और उनके सहयोगियों द्वारा पश्चिम बंगाल में उद्योग कितना चौपट हो चूका है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. अब यह नेता किस तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं, यह वही जानें. मोदी को यदि रोकना ही उनका मकसद है तो वह खुलकर कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन कर सकते हैं. अन्यथा जनता पुराने अनुभव देखकर सजग हो जायेगी और चुनाव में सिर्फ मोदी-विरोध के नाम पर वोट बटोरना मुश्किल हो जायेगा. अब तो आम चुनाव संपन्न हो चुके हैं, और सभी नेता परिणाम की प्रतीक्षा में रत हैं. १६ मई को उन नेताओं को करारा झटका लगेगा, जिन्होंने सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति की है. आखिर लोकतंत्र की ख़ूबसूरती भी तो यही है कि समय-समय पर सभी को सबक मिलता रहे.

– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Negative politics by Indian leaders.

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