Friday 31 October 2014

देश के लौह-पुरुष एवं लौह-महिला की चारित्रिक समानताएं - Lauh Purush, Lauh Mahila

by on 02:26
आज ३१ अक्टूबर को देश के दो महापुरुषों को याद करने का सुअवसर है. आज़ादी के समय जहाँ देशवासियों ने सरदार वल्ल्भभाई पटेल का लौह चरित्र देखा, वहीं आज़ाद भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत की सुरक्षा को लेकर हर वह कदम उठाया, जो आज के समय भी प्रासंगिक है, और हमेशा रहेगा. देश के भीतर तमाम नेता हुए हैं, हैं और आगे भी होते रहेंगे लेकिन कुछ एक चरित्र पक्षपात से हटकर, राजनीति से हटकर प्रेरणा देते हैं, देशभक्ति का एक मानदंड तय करते हैं और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों की अनदेखी कर पाना इतिहास के लिए भी संभव नहीं हो पाता है. अब देखिए ना, इस बात को विडम्बना कहा जाय या कुछ और कि देश को किसी प्रकाश स्तम्भ की भांति अँधेरे में रास्ता दिखाने वाले लौह-पुरुष को पिछली कांग्रेस की सरकारों ने अनदेखा कर दिया था, तो ठीक इसी रास्ते पर चलते हुए कथित राष्ट्रवादी सरकार भी देश की लौह महिला की अनदेखी पर उतर आयी है.

sardar-patel-indira-gandhiसरदार पटेल ने अंग्रेजी गुलामियत से पीड़ित, शोषित, बिखरे भारत को किसी योद्धा की भांति एकजुट किया, तो इंदिरा गांधी ने दुर्गा का रूप धारण करके गरीबी, भूखमरी, अशिक्षित भारत में गौरव का भाव जगाया. लेकिन देश के वर्तमान भाग्य विधाताओं को इस तथ्य को समझने की फुर्सत कहाँ है. बस वह इन महान नायकों की लौह प्रतिमाएं बनाकर संतुष्ट हो जाते हैं, वह इनके महान चारित्रिक गुणों को तो छू भी नहीं पाते हैं. देशभक्ति और देशवासियों की रक्षा के जो मूल्य सरदार पटेल और इंदिरा गांधी ने स्थापित किये हैं, उसे पिछली सरकार और वर्तमान सरकार ने समझा ही नहीं हैं, उस रास्ते पर चलने की बात शुरू ही कहाँ होती है. पिछली सरकार को तो भारत की जनता ने बड़ी बुरी बिदाई या कहें कि श्रद्धांजलि दे चुकी है, इसलिए उसकी बात क्या की जाय, लेकिन वर्तमान सरकार भी सीमा-सुरक्षा के मुद्दे पर कुछ ख़ास करती नहीं दिख रही है. सरदार पटेल की जयंती और श्रीमती गांधी की पुण्य-तिथि पर आज उनको पूरा देश याद कर रहा है, इन जननायकों को श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा है, तो ऐसे उपयुक्त समय में यह बताना उचित होगा कि इन दोनों नेताओं की छवि अपने आप में निर्विवाद रही थी. देशहित की खातिर इन्होने योगेश्वर श्रीकृष्ण की भांति न सिर्फ राजनीति की, बल्कि जरूरत पड़ने पर सुदर्शन-चक्र उठाने से भी यह नहीं चूके.
Buy-Related-Subject-Bookएक दूसरी खास बात इन दोनों के चरित्रों में और समझ आती है कि कर्मपथ पर चलते हुए इन्हें अपनों के द्वारा सर्वाधिक विरोध का सामना करना पड़ा. राजनीति कहें या कुछ और लेकिन आज़ादी के बाद देश की अधिकांश प्रांतीय समितियां, प्रधानमंत्री के पद के लिए सरदार पटेल के पक्ष में थीं, लेकिन उन पर जवाहरलाल नेहरू को वरीयता मिली. इसी के सामानांतर इंदिरा गांधी को भी उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठों ने पार्टी तक से निकाल दिया, लेकिन उनके भीतर मौजूद लौहतत्व ने उन्हें इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों तक पहुंचा दिया. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीता में जिस कर्मयोग की व्याख्या योगेश्वर श्रीकृष्ण ने की है, उसका अक्षरशः पालन इन दोनों लौह-व्यक्तित्वों ने किया है. हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतों का विलय करने में सरदार पटेल ने मोह का त्याग कर दिया और अपने प्रिय नेता नेहरू तक से नाराजगी मोल ली. वहीं इंदिरा गांधी ने भी आपरेशन ब्लू स्टार को देश के लिए जरूरी माना और उनके चारित्रिक बल को देखिये कि एक विशेष कौम के खिलाफ हो जाने के बावजूद उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा से उस कौम के लोगों को अलग नहीं किया. दोनों महानायकों के काल में कुछ साल का फर्क जरूर रहा हो, लेकिन देशभक्ति की खातिर एक्शन लेने में दोनों का जवाब नहीं. तमाम ऐतिहासिक कहानियाँ दोनों के चरित्र से जुडी हुईं हैं, और हम सब उसे जानते भी हैं. उनको जानने में हमसे कोई गलती नहीं होती है, लेकिन समस्या तब आती है, जब हम उनके द्वारा किये गए कार्यों और दिखाए गए रास्तों को मानते नहीं हैं. आम जनमानस को तो इन महापुरुषों से सीख लेनी ही चाहिए, लेकिन विशेषरूप से राजनेताओं को राजनीति का उद्देश इन लौह-चरित्रों से सीखने की आवश्यकता है.

कटुता के इस दौर में सरदार पटेल का राजनैतिक जीवन बेहद व्यवहारिक हो जाता है.तमाम मतभिन्नताओं के बावजूद उन्होंने  पंडित नेहरू से जिस प्रकार सामंजस्य बनाये रखा, उस चरित्र को, सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमा बनाने का दावा करने वाले नेतृत्व को सीखना चाहिए. लौह पुरुष की बात चल रही है तो कथित राष्ट्रवादी नेतृत्व को भाजपा के लौह-पुरुष कहे जाने वाले भीष्म की अनदेखी पर भी अपना रूख साफ़ करना चाहिए. ठीक यही स्थिति इंदिरा गांधी के समर्थकों पर भी लागू होती है. उनके समय भी कांग्रेस पार्टी धरातल में जा चुकी थी, लेकिन उन्होंने किस प्रकार उसे पुनर्जीवन दिया, यह अध्ययन का विषय है. देश में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है, और खासकर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में तो यह जनमानस का प्राण होता है. यदि देश में विपक्ष नहीं है तो इसके लिए इंदिरा गांधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी कहलाने वाले कितने जिम्मेवार हैं, इस बात पर उन्हें मंथन करना चाहिए, और यदि इंदिरा गांधी की गरिमा को वह कायम न रख पाएं तो दूसरों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए. आखिर यह दोनों महापुरुष पूरे देश के गौरव हैं, लेकिन इनका गौरव हम तभी रख पाएंगे जब देश की खातिर, देशवासियों की खातिर प्रत्येक लालच, भय से मुक्त होकर, विरोधियों के साथ तालमेल बनाकर आगे बढ़ें. इसी में इन महान व्यक्तित्वों की श्रद्धांजलि भी होगी, और देश का कल्याण भी.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Wednesday 29 October 2014

समरसता का महापर्व 'छठ-पूजा' - Chhath Mahaparv

by on 03:45
भारतवर्ष को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो उसे निश्चित रूप से ही 'त्यौहारों का देश' कह कर सम्बोधित किया जायेगा. यदि जनवरी महीने से शुरू करें तो गुरु गोविन्द सिंह जयंती, मकर संक्रांति, पोंगल के बाद फ़रवरी में बसंत पंचमी, रविदास जयंती, महाशिवरात्रि का बड़ा त्यौहार आता है. फिर एक-एक करके, होली, रामनवमी, वैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, ओणम, दीपावली, गोवर्धन के रास्ते छठ महापर्व के बाद भी यह सिलसिला लगातार आगे बढ़ता जाता है. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में त्यौहारों के ऊपर लगातार लिखा जाता है, कई राष्ट्रीय पत्रिकाओं के त्यौहार विशेषांकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ सामजिक संरचनाओं को मजबूती देने में त्यौहारों की अहम भूमिका बताई जाती है. अपनी रोजमर्रा की जीवनचर्या में भागते-दौड़ते मनुष्य को त्यौहार रस से भर देते हैं और उनको यह एहसास दिलाते हैं, उसे सचेत करते हैं कि इस मशीनी युग में वह मशीन न बनें, बल्कि अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने गाँव-मोहल्ले के प्रति, अपने समाज के प्रति वह मेलजोल रखें, साझी संस्कृति के विकास में अपना योगदान करें.


book-pustak-child-books-bachchon-ki-pustak    भारतीय व्यवस्था में जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण माने गए हैं, ठीक उसी प्रकार इन के कार्यों से सम्बंधित चार मुख्यतः त्यौहार रक्षाबंधन, विजयादशमी, दीपावली और होली की मान्यता है. हालांकि आधुनिक काल में इस ऐतिहासिक व्याख्या की कोई ख़ास अहमियत नहीं है, बल्कि अहमियत इस बात की ज्यादा है कि त्यौहार अपने उद्देश्य को पूरा कर पा रहे हैं अथवा नहीं. अपने पिछले लेखों में मैंने कई बार कहा है कि त्यौहारों की भूमिका लोक-संस्कृति के विकास में सबसे महत्वपूर्ण होती है, इसके साथ इस बात का भी ज़िक्र करने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ऊपर वर्णित त्यौहारों में अधिकांशतः एक सरकारी छुट्टी से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं. आधुनिक जीवन-शैली और संयुक्त परिवारों के टूटन के दौर में हमारे पास खुद के लिए वक्त नहीं है, अपनी धर्मपत्नी के लिए वक्त नहीं है, अपने बच्चों के लिए वक्त नहीं हैं, अपने माँ-बाप, चाचा-चाची और परिवार के दुसरे सदस्यों की कौन बात करे. खैर, इन वास्तुस्थितियों के अनेक कारण हैं, और उस मुद्दे पर चर्चा गाहे-बगाहे होती रहती हैं. लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि त्यौहारों का अपना उद्देश्य सीमित होता जा रहा है. हालाँकि उपरोक्त वर्णित व्याख्याएं 'छठ-महापर्व' पर अपना नकारात्मक प्रभाव कतई नहीं छोड़ पाईं हैं. हालाँकि त्यौहारों की तुलना करना थोड़ी अजीब बात होगी, लेकिन शोध की दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो आश्चर्य से कहना पड़ता है कि दुसरे त्यौहार जहाँ अपनी अहमियत को खोते जा रहे हैं, वहीँ छठ महापर्व का बेहद तेजी से देश और विदेश तक में प्रसार हो रहा है.

डूबते सूर्य को अर्घ्य देने वाली एकमात्र ज्ञात परंपरा वाली छठ पूजा की महिमा सर्वव्यापी हो चुकी है. हालाँकि शुरुआत में यह त्यौहार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में ही मनाया जाता रहा है. आज सुबह की एक घटना आप सभी से साझा करना चाहूंगा. प्रत्येक दिन की भांति आज भी अपने बच्चे को सुबह मैं स्कूल छोड़ने पहुँच गया. संयोग से मुझे याद नहीं था कि छठ पूजा के कारण आज उसकी छुट्टी है, तो स्कूल के गेट पर नोटिस लगी थी छुट्टी की, अतः मैं लौटने लगा. इस बीच मेरा ध्यान आस पास के कुछ वरिष्ठ लोगों पर चला गया, जो बड़बड़ा रहे थे कि भाई! वोट की पॉलिटिक्स है, दिल्ली में भी इनकी संख्या ५० लाख से ज्यादा हो गयी है, इसलिए हर नेता इनकी चापलूसी में लगा है, दिल्ली में भी छठ पूजा पर छुट्टी घोषित हो गयी है. थोड़ा अजीब तो लगा फिर विचारमग्न होकर मैं देशभर की स्थितियों पर इस त्यौहार के सन्दर्भ में सोचने लगा. भारत जैसे देश में, मुंबई जैसे आधुनिक शहर में पिछले दिनों जिस प्रकार छठ पूजा का भारी विरोध किया गया, उसने कइयों के रोंगटे खड़े कर दिए थे. अपने प्रदेश में रोजी-रोजगार की व्यवस्था न होने के कारण वह व्यक्ति पलायन करता है, लेकिन अपने देश में भी वह व्यक्ति त्यौहार नहीं मना सकता, सम्मान से जी नहीं सकता, इस बात ने देश भर में छठ पूजा को लेकर भारी उत्सुकता पैदा कर दी. बिहार, यूपी या किसी भी राज्य के लोग हों, जब भी किसी भारतीय पर अपनी संस्कृति को लेकर जरा भी आंच आती है, वह बेहद सजग होकर और भी तीव्र गति से आगे बढ़ता है. chhath-pooja

इसके साथ यह भी ऐतिहासिक सच है कि जो यात्रा करते हैं, वह विकास करते हैं. जो एक जगह जम जाते हैं, वह जड़ हो जाते हैं. गुलामी के काल में हमारे पूर्वजों को अंग्रेजों ने गुलाम बनाकर दुसरे देशों में भेजा था, लेकिन अब वह उन देशों की रीढ़ बन चुके हैं, ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं. बल्कि कुछ देशों में तो वह राष्ट्र-प्रमुख के पद तक पहुँच चुके हैं. यही हाल अपने देश में पिछड़े और विकसित राज्यों की मानसिकता को लेकर है. एक जगह के लोग, दुसरे राज्य के कमजोर लोगों को अपने पास बैठाना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि कमजोर व्यक्ति हर तरह का कार्य करने को तत्पर रहता है, और इस कारण स्थानीय व्यक्ति को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है. मेहनती लोग तो मुकाबला करते हैं, लेकिन आलसी लोगों की मानसिकता का फायदा राज ठाकरे जैसे राजनेता अच्छे से उठाना जानते हैं. संयोग कहिये या कुछ और, लेकिन पिछले दशकों में छठ-पूजा 'पिछड़े-लोगों', पिछड़े राज्यों की अस्मिता का प्रतीक बन गयी. मुद्दे का राजनीतिकरण होने से इसका प्रचार-प्रसार तो खूब हुआ लेकिन इस त्यौहार की असली अहमियत हम समझ नहीं पाये. दुःख की बात यह है कि तमाम कुटिल लोग, छठ-पर्व के नाम पर लाखों की लूट करते हैं, वोटर्स का सौदा करते हैं. दिल्ली, मुंबई हो या रायपुर, भोपाल अथवा कोई अन्य शहर हो, छठ पूजा के नाम पर व्यावसायिकता खूब फल-फूल रही है.

chhath_puja2    इसके राजनीतिकरण से अलग हटकर सोचें तो इस पर्व पर जिस प्रकार का सामजिक एकत्रीकरण होता है, वह किसी और दशा में दुर्लभ है. मैं अपनी बात करूँ तो मेरे गाँव में छठ पूजा पर देश और विदेश तक रहने वाले लोग एकत्र होते हैं और गाँव के तालाब के किनारे शाम को चार घंटे से ज्यादा समय भी देते हैं. अपने सर पर छठ पूजा की सामग्री और प्रसाद से भरी टोकरी लेकर घाट पर जाने का आनंद अनुपम होता है. संस्कृति की छटा इस समरस त्यौहार के माध्यम से न सिर्फ देश में बल्कि देश से बाहर रहने वाले भारतीयों को जोड़ने में किया जा सकता है. इसके साथ इस त्यौहार की मूल भावना जो मैं समझता हूँ, वह यही है कि गिरते को भी सहारा दो, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से डूबते सूरज की महिमा को छठ पूजा के माध्यम से हम स्वीकार करते हैं. क्योंकि जो गिरेगा, वही उठेगा, जो डूबेगा, वही उगेगा. जो संघर्ष करेगा, वही आगे होगा. जो ठहर जाएगा, वह मृत हो जाएगा. आइये, राजनीति से दूर हटकर इस पर्व की महिमा को आत्मसात करें और बोलें- "जय छठ मइया की".

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Chhath Mahaparv, Article by Mithilesh

Sunday 26 October 2014

जम्मू कश्मीर विलय दिवस का औचित्य '२६ अक्टूबर' - Jammu Kashmir Vilay Diwas

by on 00:32
पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक गोष्ठी में जाने का अवसर मिला, जिसे जम्मू कश्मीर पीपल्स फोरम नामक एक संस्था ने आयोजित किया था. सभा में जम्मू कश्मीर विषय के विद्वान, सरकारी अधिकारी एवं सेना के रिटायर्ड उच्चाधिकारी भी सम्मिलित थे. गोष्ठी में राष्ट्रवादियों का समूह था तो इस राज्य के इतिहास से लेकर आधुनिक परिदृश्यों पर व्यापक चर्चा हुई, कई नई बातें जानने, सुनने को मिली जो निश्चित रूप से हमारी उस धारणा से अलग था, जो हम मीडिया के माध्यम से या अनधिकृत पुस्तकों से ग्रहण करते आये हैं. जैसा कि हम सभी को ज्ञात है कि २६ अक्टूबर १९४७ को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरी सिंह ने भारत में पूर्ण विलय के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया था, और तभी से ही यह भारत का अभिन्न अंग बन चुका है. तो फिर प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर आज़ादी के बाद से ही कश्मीर क्षेत्र को विवादित क्यों बताया जा रहा है? साथ में इस क्षेत्र को लेकर पाकिस्तान इतना संवेदनशील क्यों है? सिर्फ पाकिस्तान ही क्यों, पश्चिम के देश भी जाने अनजाने, छुपे रूप में पाकिस्तान को उकसाते ही रहते हैं. यहाँ तक कि पाकिस्तान की वैश्विक छवि एक आतंकवादी देश की होने के बावजूद कोई भी पश्चिमी देश इस मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव नहीं बनाता है. यह स्थिति तब है जब भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन चुका है और अधिकांश देशों के राजनैतिक, आर्थिक हित भारत से जुड़े हुए हैं. चीन जो हमारा पारम्परिक प्रतिद्वंदी या शत्रु कह लें, है, उसका रोल तो पाकिस्तान को उकसाने में है ही.

Buy-Related-Subject-Bookइतिहास के आईने में देखने पर पता चलता है कि अंग्रेजी शासन के अंतिम गवर्नर लार्ड माउंटबेटन के समय के पहले से ही अंग्रेजों ने भारत पाकिस्तान बनाने की जो चाल चली थी, उस समय ही अंग्रेज प्रशासकों ने कश्मीर के अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व को रेखांकित करते हुए इस बात को मान लिया था कि पाकिस्तान का अस्तित्व में रहना और कश्मीर का उस में विलय होना पश्चिम के हित में रहेगा. इसलिए कश्मीर का विलय पाकिस्तान में कराने के लिए अंग्रेजों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से पर कब्ज़ा किया है, उस समेत कश्मीर की भौगोलिक सीमाओं का अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व कहीं ज्यादा होता. अन्य कई देशों से सीमाओं के लगने के कारण इसके सामरिक महत्त्व का अंदाजा अंग्रेजों को भी था. उस समय के अंग्रेज प्रशासक यह भी समझ चुके थे कि भविष्य में भारत उनके दबाव में कभी नहीं झुकेगा, जबकि पाकिस्तान अपनी आतंरिक बदहाली के कारण दबाव में आकर पश्चिम के देशों को रास्ता मुहैया कराता रहेगा. लेकिन जम्मू कश्मीर के महाराजा द्वारा, भारत में विलय करने के बाद माउंटबेटन परेशान हो गया. फिर पाकिस्तान द्वारा १९४७ में ही आक्रमण करके ४,००० वर्ग किलोमीटर से ज्यादा भूमि हथिया ली गयी. बाद में यह कब्ज़ा राजनैतिक कमजोरी के कारण बढ़कर काफी ज्यादा हो गया. जम्मू कश्मीर को लेकर कई लोगों के मन में यह भ्रम भी है कि जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे को लेकर गए. यह सच है कि पंडित नेहरू संयुक्त राष्ट्र में गए, लेकिन वह पाकिस्तानी सेना द्वारा कश्मीर में क़त्ल-ए-आम मचाने को लेकर पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने गए थे, न कि कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र को हस्तक्षेप का न्यौता देने. हाँ! राजनैतिक रूप से भूल यह जरूर हुई कि रेफरेंडम की बात को लेकर हम कहीं फंस गए, लेकिन यह बात पूरी तरह से भारत के लिए आंतरिक मुद्दा ही रही है. इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण बात है कि पाकिस्तान ने कभी भी कश्मीर पर अपना दावा नहीं किया, वह कर भी नहीं सकता है. बल्कि उसने कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की बात विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठायी है. हालाँकि सभी जानते हैं कि यह पाकिस्तान की दोहरी नीति ही है, लेकिन तकनीकी रूप से अपने कब्ज़े के कश्मीर को वह आज़ाद कश्मीर ही कहता है. इन सब प्रश्नों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट है कि कश्मीर के लिए सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि भारत को अस्थिर करने के लिए दूसरी वैश्विक ताकतें भी परदे के पीछे लगातार सक्रीय रही हैं, अन्यथा पाकिस्तान की इतनी क्षमता नहीं है कि वह ६० सालों से सीधा और छद्म युद्ध भारत से लड़ पाये. संतुष्टि की बात यह है कि राजनैतिक मोर्चों पर कमजोरी के बावजूद हम पाकिस्तान से सीधा युद्ध तो जीते ही हैं, छद्म युद्ध पर भी भारतीय सेना काबू पा चुकी है. अब कश्मीर से आतंकवाद लगभग समाप्त हो चूका है, लेकिन राज्य के २० फीसदी हिस्सों में अलगाववादी जरूर सक्रीय हैं. लेकिन यह अलगाववादी कहीं से भी राष्ट्रीय ताकतों पर भारी नहीं हैं. इसलिए आतंकवाद के दिनों में कश्मीर छोड़कर भारत के दुसरे हिस्सों की तरफ पलायन करने वाले लोगों में हिम्मत भरने की, उनके साथ खड़े होने की जरूरत है अब.

Buy-Related-Subject-Book-beइस कड़ी में यह बताना सामयिक होगा कि सेनाधिकारियों के मन में इस बात की टीस जरूर है कि पाकिस्तान से हर तरह की लड़ाई जीतने के बावजूद, उनके अधिकारियों, सैनिकों को मानवाधिकार के नाम पर न्यायालयों/ आयोगों के चक्कर काटने पड़े हैं, जबकि मूल कश्मीरियों की हत्या करने वाले, उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने, हिन्दुओं को घाटी से भगाने वालों के खिलाफ हर एक की जुबां बंद हो जाती है. आखिर इनके अधिकारों के लिए घाटी में आंदोलन क्यों नहीं होता, इनकी जायदाद पर कब्ज़ा करने वालों के खिलाफ कोर्ट में मामला दायर क्यों नहीं किया जाता, इन अलगाववादियों के खिलाफ मानवाधिकार हनन की कार्यवाही के लिए विभिन्न संस्थाएं दबाव क्यों नहीं बनातीं. इसके साथ में यह बात भी सच है कि कश्मीर को लेकर हम काफी हद तक ग़लतफ़हमी के शिकार रहे हैं. जरूरत है इन सब मुद्दों को लेकर देश भर में व्यापक जागरूकता फैलाने की. जम्मू कश्मीर को लेकर अंग्रेजों द्वारा साहित्य लिखे गए, तब निश्चित रूप से ही उसमें नकारात्मकता भरी थी, इसलिए इतिहास को खंगालने कर उस का देशहित में अध्ययन किये जाने की जरूरत है. जम्मू कश्मीर हर तरह से भारत का हिस्सा था, यदि कुछ विवाद है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान द्वारा कब्जाए क्षेत्र को लेकर है. हालांकि पिछले दशकों में आतंकवाद की पीड़ा झेल चुके कश्मीरी, विशेषकर हिन्दुओं के मन में निश्चय ही डर का माहौल है, और यह डर का माहौल तभी निकलेगा जब सभी भारतवासी तन, मन, धन से उनके साथ हर पल खड़े रहेंगे. आज़ादी के समय के हमारे पूर्वजों द्वारा जो किया जा सकता था, वह उन्होंने अपने प्रयास से किया, कई चुकें भी हुईं, किन्तु कश्मीर को लेकर राष्ट्र न कभी कमज़ोर पड़ा, न कभी पड़ेगा.
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Article by Mithilesh on Jammu Kashmir Vilay Diwas, 26 October

Wednesday 22 October 2014

पटाखों का करें विरोध, समृद्धि आएगी निर्विरोध - Boycott Crackers in Diwali

by on 05:12
अभी कल की ही खबर है कि आंध्रा के तटीय पूर्वी गोदावरी जिले के वकाटिप्पा गांव में एक पटाखा फैक्ट्री में हुए विस्फोट में 14 महिलाओं समेत 17 लोगों की मौत हो गई. काकीनाड़ा जिला मुख्यालय के समीप उप्पडा कोथापल्ली मंडल के वकाटिप्पा गांव में स्थित एक निजी फैक्ट्री में मजदूर काम कर रहे थे तभी दोपहर बाद अचानक यह विस्फोट हुआ. पुलिस के अनुसार, विस्फोट के समय कई मजदूर वहां काम कर रहे थे. एक दूसरी खबर देखिये, 'नियमों को ताक पर रखकर बिक रहे पटाखे', इस कारण दुर्घटनाओं की आशंका बढ़ी. एक और खबर के अनुसार, पुलिस ने दिवाली के सीजन में कई अवैध कारोबारियों को पटाखों के अवैध कारोबार में पकड़ा है. हालाँकि ये कुछ दिनों में बड़े आराम से छूट जायेंगे. लेकिन सवाल यह है कि दीपावली के समय लोगों में पटाखों को लेकर जो उन्माद रहता है, उस का फायदा गलत तरीके से कई कारोबारी उठाते हैं. वैसे भी हमारे देश में पटाखे बनाने को लेकर कोई ठोस नियम-कानून नहीं हैं, तो जिसको जिस प्रकार समझ आता है, पटाखे बनाकर अपना कारोबार करता है. किस तरह के पटाखें हों, उन पटाखों में कितनी मात्रा में बारूद हो, सुरक्षा के इंतजाम किस प्रकार के हों, प्रदूषण नियंत्रण के तय मानक क्या हों, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है. और इसके अभाव में लोगों के जान-माल को तो खतरा उत्पन्न होता ही है, पर्यावरण को गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि पटाखों की दुकानों के लिए सरकार ने कई तरह के नियम बना रखे हैं, जिनमें मुख्य शर्तें हैं-

  • -पटाखों की बिक्री बिजली के तारों के नीचे नहीं होगी.

  • -बिजली का ट्रांसफार्मर के पास दुकान नहीं होनी चाहिए.

  • -पैट्रोल पंप की दूरी कम से कम 50 फीट की दूरी होनी चाहिए.

  • -पास में रुई और कपड़ों का गोदाम नहीं होना चाहिए.

  • -दुकान के बाहर पानी और रेत की बाल्टियां रखी होनी चाहिए.

  • -कपड़े के शामियाने के नीचे दुकान नहीं लगनी चाहिए.

  • -बिजली के बल्ब व हेलोजन लाइटों का प्रयोग नहीं होना चाहिए.


crackers-fireworks-patakheअब इन नियम कानूनों में कितनों का पालन होता है, यह सबको पता है, नतीजा होता है भयानक दुर्घटना. इसके अतिरिक्त अरबों, खरबों की संपत्ति एक रात में जलकर स्वाहा हो जाती है, इस बात को भारत जैसे गरीब देश के सन्दर्भ में अनदेखा नहीं किया जा सकता है. पूरा विश्व भारतीय उप-महाद्वीप के देशों को तीसरी दुनिया के देश कह कर अपमानित करता है. भारत की गरीबी का हाल ही अमेरिकी अखबार में मजाक उड़ा था, जिसमें एक भारतीय किसान को अपनी गाय के साथ मंगल ग्रह पर पहुंचना दिखाया गया था. खैर उस अभद्र कार्टून का विरोध होना ही था और हुआ भी. लेकिन वह कार्टून भारत की गरीबी को रेखांकित कर ही गया. दीपावली के सन्दर्भ में गरीबी, अर्थव्यवस्था को छोड़ भी दें तो स्वास्थ्य दृष्टि से बच्चों और गरीबों के लिए यह दीपावली की रात सबसे बुरी रात साबित होती है. और इस का एकमात्र कारण पटाखों से निकला असीमित धुंआ और शोर होता है. विशेषकर शहरों में दमा और ह्रदय-रोग के कई मरीज परलोक सिधार जाते हैं. मैं अपनी बात करूँ तो पिछली दीपावली में मेरे ढाई साल के बच्चे को धुंए से एलर्जी हो गयी और उसको दीपावली की सुबह ही डाक्टर के पास लेकर जाना पड़ा. पिछली बार ही की दीपावली में गाँव में रहने वाले मेरे भांजे का हाथ जल गया था और न सिर्फ जला था बल्कि इतनी बुरी तरह से जला था कि उसके एक हाथ में पूरा छाला पड़ गया और वह मर्चेंट नेवी की जॉब खोते-खोते बचा. बहुत लोगों को अपनी आँखों में धुंए से, चिंगारियों से भारी दिक्कत हो जाती है.

पटाखों को लेकर न सिर्फ आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं हैं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी यह दीपावली के महत्त्व को कम करता जा रहा है. बच्चे तो बच्चे, युवकों में भी पटाखों को लेकर कुछ इस तरह की प्रतिद्वंदिता होती है कि दीपावली के दिन भाईचारे की बजाय शत्रुता उत्पन्न हो जाती है. मध्यम वर्गीय घरों के बच्चे तरह-तरह के पटाखों को देखकर उदास हो जाते हैं, उन्हें अपने घरवालों पर ही गुस्सा आता है. त्यौहार जो हमारे समाज में समरसता घोलने के लिए जाने जाते हैं, उन्हें दिखावे की इस प्रवृत्ति ने जहरीला बना दिया है. इस दीपावली पर उचित यही होगा कि खर्चीले पटाखों की बजाय हम परंपरागत दीयों की पंक्तियाँ जलाएं और इस दीपावली में भारतीय परंपरा को जीवित रखें. बहुत शुभकामनाएं. Boycott Crackers in Diwali, fireworks, Article, lekh by Mithilesh kumar singh

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Monday 20 October 2014

विधानसभा चुनाव परिणाम, सभी को सबक‏ - Maharashtra, Haryana Election Result Analysis

by on 07:37
अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं, तो यह स्पष्ट हो गया है कि देशवासियों ने सकारात्मक वोटिंग की थी. लोकसभा की ही भांति हरियाणा में जनता ने बहुत पहले से कांग्रेस के खिलाफ मन बना लिया था और इस कड़ी में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ठीक-ठाक छवि भी बेअसर रही. कहना उचित होगा कि केंद्र की पिछली मनमोहन-सोनिया सरकार की अलोकप्रियता का खामियाजा कांग्रेस को इन चुनावों में भी भुगतना पड़ा. और बहुत उम्मीद है कि कांग्रेस केंद्र की पूर्ववर्ती सरकार की बदनाम छवि से पार नहीं पा सकेगी, और आगे के चुनावों में भी उसे हार का मुंह देखना ही पड़ेगा. कांग्रेस की बुरी छवि का असर यहाँ तक है कि यदि कोई सहयोगी उसके साथ खड़ा है तो उसकी हार भी निश्चित ही है. कई लोगों को आश्चर्य हुआ होगा कि महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा, शिवसेना बातचीत करने का प्रयास कर ही रही थी, तो बिन मांगे शरद पवार की एनसीपी ने भाजपा को समर्थन देने का एलान कर दिया. इस कड़ी में कई कहानियाँ भी चल रही हैं, मसलन एनसीपी भ्रष्टाचार के आरोप में अपने नेताओं को बचाने का सौदा करना चाहती है, या शरद पवार शिवसेना की ताकत को कम करना चाहते हैं. लेकिन, इतना बड़ा और आत्मघाती कदम उठाने का परिणाम शरद पवार भी जानते होंगे, और वह यह भी जानते होंगे कि संघ भी कभी नहीं चाहेगा कि एनसीपी, भाजपा का गठबंधन हो. तो फिर क्यों? उत्तर यह है कि शरद पवार को भाजपा का साथ मिले न मिले, लेकिन भाजपा को समर्थन की घोषणा करके उन्होंने कांग्रेस की काली छाया से मुक्त होने का सफल प्रयास किया है.

amit-shah-devendra-fadnavisजरा चुनाव पहले की तस्वीर पर नजर डालिये, इधर भाजपा-शिवसेना का गठबंधन टूटा नहीं कि कांग्रेस और पवार का रिश्ता भी बिना एक पल की देरी किये खत्म हो गया, मानो शरद पवार, कांग्रेस से मुक्त होने के लिए कितने बेचैन थे. वह भी जानते हैं कि शिवसेना भाजपा की विचारधारा हिंदुत्व ही तो है. यह बात सौ फीसदी सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक कुशल प्रचारक हैं, कुशल प्रबंधन में माहिर हैं, लेकिन इन सब विशेषताओं से ऊपर कांग्रेस की जनमानस से नफ़रत सबसे ऊपर है. जरा सोशल मीडिया पर चलने वाले राहुल गांधी, कांग्रेस के चुटकुलों पर गौर कीजिये, लोग कांग्रेस को किसी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार ही नहीं हैं. और बहुत संभव है कि कांग्रेस को राजनीतिक अछूत मान लिया जाय. और सिर्फ केंद्र में ही क्यों, आप महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाड़ के उस बयान पर गौर करें, जब उन्होंने कहा कि यदि वह आदर्श घोटाले में सख्त रूख अपनाते तो महाराष्ट्र में पूरी कांग्रेस ही समाप्त हो जाती. सच तो यह है कि घोटाले, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, तुष्टिकरण के साथ ढेरों बुराइयां कांग्रेस में अपने चरम पर पहुँच चुकी थीं. हाँ! मोदी को इस बात के लिए धन्यवाद जरूर करना चाहिए कि उन्होंने न सिर्फ इन बुराइयों को मजबूती से जनता तक पहुँचाया, बल्कि खुद के रूप में एक सकारात्मक विकल्प भी पेश किया. जनता कांग्रेस के खिलाफ इस कदर है कि वह न सिर्फ उसे हरा रही है, बल्कि उससे विपक्ष का तमगा भी छिनती जा रही है. महाराष्ट्र में दूसरी बड़ी पार्टी के उद्धव ठाकरे की टीस शिवसेना के मुखपत्र में निकली, जिसमें उन्होंने कहा कि यदि भाजपा, शिवसेना साथ में लड़ते तो कांग्रेस और उसके सहयोगियों को २५ सीटें भी नसीब नहीं होतीं. उनकी बात में सच्चाई हो सकती है, लेकिन यह भी सच है कि गठबंधन तोड़ने के लिए वह भी कम जिम्मेवार नहीं हैं. हालाँकि भाजपा, शरद पवार से बहुत पहले से नजदीकियां बढ़ा रही थी और इसके केंद्र में अमित शाह और राज्य के देवेन्द्र फड़नवीस जैसे नेता शामिल थे. शिवसेना की नाराजगी का यह भी एक कारण थे, जिसके कारण उसने अपना रूख कड़ा किया. उसे यह तो उम्मीद थी ही कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन उसको यह उम्मीद नहीं थी कि शरद पवार की एनसीपी को इतनी सीटें मिल जाएँगी कि वह भाजपा को समर्थन दे सके.

खैर, राजनीति संभावनाओं का ही खेल है. शिवसेना की हैसियत कम करने की कोशिश भाजपा और एनसीपी दोनों बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं. लेकिन हिंदुत्व के समर्थक, महाराष्ट्र और विशेषकर मुंबई में शिवसेना को ज्यादा मुफीद पाते हैं. यह सच भी हो सकता है, लेकिन बाला साहेब ठाकरे की राजनीति से यहीं अलग हो जाती है उद्धव की राजनीति. अब जबकि एनसीपी ने खुलेआम भाजपा को समर्थन देने की घोषणा कर दी है और उसके इस एलान पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सरेआम अपनी ख़ुशी व्यक्त कर रहे हैं, तो उद्धव दबाव में आ चुके हैं. जबकि बाला साहेब, इस दबाव को झटककर विपक्ष में बैठना और संघर्ष करना पसंद करते, क्योंकि वह जानते थे कि बेमेल विचारधारा की राजनीति टिकाऊ नहीं होती है. भाजपा और एनसीपी दो बिलकुल विपरीत विचारधारा की पार्टियां हैं और यदि वह मिलते हैं तो यह शिवसेना के लिए आक्सीजन का काम करती. उदाहरण के लिए, आपको दिल्ली विधानसभा की याद दिलाना चाहूंगा. आपको याद होंगे राजनीति के क्षितिज पर चमकने वाले अरविन्द केजरीवाल. कांग्रेस के ८ विधायक कितनी जल्दी जाकर दिल्ली के उप-राज्यपाल को अपना समर्थन-पत्र सौंप आये. केजरीवाल भी लालच में फंस गए, और फिर आगे की कहानी सबको पता है. उद्दव में जरा भी राजनीतिक समझ होती तो वह एनसीपी और भाजपा की शादी पर चुटकी लेते और खुद विपक्ष में बैठ कर मराठी राजनीति को धार देते. लोगों में सहानुभूति की भावना भी जागती और उनकी त्यागी राजनेता की छवि भी बनती.

sharad-pawar-rajnath-singhइस चुनाव में एक और बात जो खुलकर सामने आयी है, वह है मोदी की सक्रियता. जिस प्रकार से देश के प्रधानमंत्री ने भारी समुद्री तूफ़ान  'हुदहुद' पीड़ितों की अनदेखी करके इन राज्यों में चुनाव प्रचार किया, वह अभूतपूर्व था. कई लोगों ने मोदी की अति-सक्रियता की आलोचना भी की. महाराष्ट्र के परिणाम से मोदी की साख धूमिल नहीं हुई है तो उसे चोट जरूर पहुंची है, क्योंकि एनसीपी का समर्थन ले तो भाजपा के लिए कुआं, और शिवसेना से समर्थन ले तो खाई. लेकिन अमित शाह जैसे जल्दबाज नेता और विदर्भ के समर्थक देवेन्द्र फड़नवीस जैसे नेताओं को अपने प्रधानमंत्री की साख की फ़िक्र नहीं है, वह तो जैसे-तैसे सरकार बना लेना चाहते हैं, बस! भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके अमित शाह पर यहीं शक हो जाता है क़ि उन्हें पार्टी की विचारधारा की समझ भी है या नहीं, क्योंकि एनसीपी जैसी पार्टियां हिंदुत्व के लिए विष का कार्य करेंगी, यह सबको पता है. हरियाणा में तो मोदी सीधे मुख्यमंत्री तय कर देंगे, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना फड़नवीस के नाम पर आसानी से नहीं मानेगी. नितिन गडकरी एक अच्छे विकल्प जरूर होते, किन्तु केंद्र में वह एकमात्र संघ के करीबी बचे हैं, जो मोदी सरकार पर बारीक निगाह रखे हुए है, इसलिए संघ गडकरी को केंद्र में ही सक्रीय रखना चाहेगा. शिवसेना दिवंगत नेता गोपीनाथ की पुत्री पर दांव खेलना चाहेगी, लेकिन उसका बिलकुल अनुभवहीन होना इस रास्ते में बाधा उत्पन्न करेगा. देखना दिलचस्प होगा कि महाराष्ट्र की समस्या को कैसे सुलझाते हैं राजनाथ सिंह, क्योंकि राजनाथ को मातोश्री भेजने का एक ही मतलब है कि मोदी और अमित शाह महाराष्ट्र से पार पाने में विफल रहे हैं. इन चुनाव परिणामों ने विश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस, राज ठाकरे की मनसे को लगभग अप्रासंगिक बना दिया है, विशेषकर राज ठाकरे की हालत बहुत ख़राब हो गयी है. अब तो वह सम्मानजनक हालत में शिवसेना तक में लौटने का रास्ता भी नहीं ढूंढ पाएंगे. वोटरों ने बहुत सोच - समझकर प्रत्येक राजनीतिक दल को सीख दी है और यह स्पष्ट कर दिया है कि लोकतंत्र की चाभी उसी के हाथों में रहेगी, न कि किसी मोदी या अमित शाह के हाथों में और न ही किसी मातोश्री के हाथ में. लोकतंत्र की इस ताकत को प्रणाम करने के साथ आप सबको धनतेरस, दीपावली, भैयादूज की कोटि-कोटि शुभकामनाएं. Article on Maharashtra, Haryana Election Result Analysis 2014
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Friday 17 October 2014

हल ढूंढ लो 'कुटुंब' भारतीय आस्था में - Suicide Poem

by on 01:51
suicideकुछ तो हुआ होगा
जो 'संकल्प' टूट गया
कुछ तो छुटा होगा
जो 'स्नेह' लुट गया

पितृ उसके नामचीन गीतकार हैं,
फिर भी उसके ये भला संस्कार हैं
रह गयी कमी कहाँ ये भी सोचो तुम जरा
सूखने पर साख के 'जड़' को तुम देखो जरा

कर लो फिर चाहे 'इस और उस' की 'लाख' बातें,
लेकिन बताना हल्के हुए क्यों रिश्ते-नाते.
आखिर भला ये सोच आयी है कहाँ से,
संघर्ष बिन सब भागने लगे इस जहाँ से

आखिर पढ़ाई आ रही किस काम में,
बन 'भ्रष्ट' वो फंस जाए जब जंजाल में
हाँ! कहता हूँ कि दोष है व्यवस्था में
हल ढूंढ लो 'कुटुंब' भारतीय आस्था में
– "मिथिलेश", उत्तम नगर, नई दिल्ली.

 

(नामचीन गीतकार संतोष आनंद के बहु-बेटे की ख़ुदकुशी की मार्मिक घटना पर मिथिलेश का दर्द उपरोक्त पंक्तियों में बाहर आया)
Professionals Suicide Poem, based on Indian environment, by mithilesh

Thursday 16 October 2014

पुस्तक - समीक्षा "नया सवेरा" - Naya Savera, Book by - Trilok Singh Thakurela

by on 10:16
त्रिलोक सिंह ठकुरेला एक जाने माने साहित्यकार हैं. उनके द्वारा प्रकाशित रचनायें मैंने पहले पढ़ी थीं, जिनमें कुण्डलिया कानन प्रमुख है. संयोग से उनकी राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किताब 'नया सवेरा' को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ था. ठकुरेला जी की यह किताब हाथ लगते ही पन्ने पलटते गए और एक के बाद एक, कुल २८ बाल - कविताएँ, मुझे २८ वर्ष पीछे मेरे बालपन में लेकर चले गए. बिलकुल वही भाव जो मेरी दादी मुझे सुनाया करती थीं, और ठीक वही सीख जो बालपन में मेरी माँ मुझे दिया करती थीं. शुरूआती कक्षाओं में जो मेरे आचार्य ने जिज्ञासा उत्पन्न की थी, 'अंतरिक्ष की सैर', जैसी कविताओं ने उसे पुनर्जीवित कर दिया. यूं तो देशभक्ति की भावना किस भारतीय में नहीं होगी, किन्तु मेरे घर में मेरा पापा, मेरे चाचा आर्मी से सेवानिवृत्त हुए हैं, तो सैनिक, सीमा, लड़ाई बचपन से मेरे लिए सुपरिचित शब्द रहे हैं. 'वर दो, लड़ने जाऊँगा' जैसी कविता ने उस देशभक्ति की भावना और पिता की सुनाई कठिन कहानियों की लड़ियाँ पेश कर दीं. इस किताब की अन्य खूबियों के साथ, सरल और सटीक चित्र देकर ठकुरेला जी ने बच्चों के मनोविज्ञान को समझने में सफलता पायी है, ऐसा प्रतीत होता है.

सुबह जागने और साधारण सीख के अध्यायों से लेकर, तितली, रेल, चिड़ियाघर की सरल जानकारी और पेड़, उपवन के फूल, देश हमारा, मैया मैं भी कृष्ण बनूँगा आदि कविताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति को बड़े सटीक और सहज स्वरुप में प्रस्तुत करने का श्रेय ठकुरेला जी को जाता है. एक और बात जो मुझे इस किताब में अच्छी लगी, वह इसका आकार है. कुल ३२ पृष्ठों में इस किताब को समेटकर आपने निश्चित रूप से 'गागर में सागर' भरने का प्रयास किया है. बाज़ार में या ऑनलाइन माध्यमों पर उपलब्ध साहित्यों की बात करें या टेलीविजन पर आने वाले बाल-धारावाहिकों की तरफ दृष्टिपात करें, उसकी भाषा, बच्चों पर उसके द्विअर्थी वाक्यों का असर सही प्रकार से नहीं पड़ता है. ऐसी स्थिति में यह किताब बच्चों के लिए सही कंटेंट न होने की निराशा को कुछ हद तक ही सही, दूर करती है. मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि ठकुरेला जी इस प्रकार की असरकारी रचनाओं से समाज को लाभ पहुंचते रहेंगे. इसके साथ सरकार में उच्च पदों पर बैठे शिक्षण के कर्ताधर्ताओं का ध्यान इस पुस्तक की तरफ आकृष्ट करना चाहूंगा कि इस तरह की पुस्तकों को पाठ्यक्रम में शामिल करना हर प्रकार से, सभी के लिए हितकर साबित होगा. हमारे समाज में नैतिकता का बहुत ऊँचा मानदंड स्थापित रहा है. वर्तमान में जो कुछ गिरावट आयी है, उसे "नया सवेरा" जैसे साहित्य और 'त्रिलोक सिंह ठकुरेला' जैसे साहित्यकारों द्वारा नयी दिशा मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है.

Naya Savera Book - Trilok Singh Thakurela

शुभकामनाओं सहित -

- मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली-११००५९
(उप-संपादक, राष्ट्र किंकर साप्ताहिक समाचार-पत्र)

Naya Savera, Book by Trilok singh Thakurela

पॉलिटिकल सुपरमैन - Political Superman

by on 08:42

  जनता, विशेषकर भारतीय जनता पर कभी कभी शोध करने का मन करता है. इसके साथ में भारतीय राजनीतिक चरित्र पर भी शोध करना, लगातार शोध करना अवांछनीय नहीं होगा. आखिर इतिहास कितना पुराना है. यह वाक्य इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि जबसे लिखित इतिहास मौजूद है तभी से शायद राजनीति भी अस्तित्व में हैं. और तब से ही राजनीति का चरित्र भी एक सा ही रहा है. सत्ता, सत्ता और सिर्फ सत्ता. इस सत्ता के लिए जनता का लगातार इस्तेमाल, अलग-अलग वादे, अलग व्यक्तित्व और अलग नजरिये का लुभावना जाल. इस जाल में बार-बार फंसती और बिलखती जनता. बार-बार फंसने के बावजूद भी नयी उम्मीदों पर भरोसे को तैयार दिखती जनता. शायद उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं रहता रहा होगा. लोकतंत्र में भी सत्ता के बारे में फैसले से दूर क्यों रही है जनता, इस बाबत कोई निश्चित बात नहीं कही जा सकती है. लेकिन विस्तृत अध्ययन करने पर यह बात साफ़ हो जाती है कि भारतीय जनता एक सुपरमैन की चाहत में हमेशा दिखती रही है. और कुछ चतुर लोग साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करके चुनावी राजनीति में सुपरमैन की तरह दिख जाते हैं.


  फिर पांच साल तक वह बेशक चरित्रहीन क्यों न रहे. फिर अगली बार भी कोई इसी तरह का सुपरमैन आता है और पांच साल तक उसका कारवां यूंही चलता जाता है. इसी कड़ी में कभी कोई साधारण सुपरमैन आता है, तो कभी एक्स्ट्रा-आर्डिनरी सुपरमैन. कभी चुनाव से पूर्व का सुपरमैन ज्यादा भ्रष्टाचारी हो जाता है तो कभी अत्यंत असहिष्णु. और इसी तरह लोकतंत्र की गाड़ी रुक-रुक कर, फंस-फंस कर, अटक-अटक कर चलती रहती है और जनता की उम्मीदें, वास्तविकता से परे अपनी उड़ान भरती रहती हैं. यहाँ इस तथ्य पर ध्यान देना बेहद जरूरी है कि आखिर बार-बार जनता धोखा क्यों खाती है.


 

   क्यों उनके जैसे लोगों के बीच में से कोई उठकर उन्हीं को बेवक़ूफ़ बना देता है. इसका जवाब वास्तविकता से हटकर सोचना है. इसका कारण यह है कि मै बेशक बेईमान रहूँ, परन्तु सामने वाला ईमानदार दिखना चाहिए. मुझे अपने अंदर कोई सुधार नहीं चाहिए, मुझे दुनिया की प्रत्येक सुविधाएं चाहिए, मेरे भ्रष्टाचार पर कोई भी पारदर्शिता का दबाव नहीं होना चाहिए... परन्तु इसके विपरीत हम नेताओं में यह सारी ईमानदारी ढूंढते हैं. कैसे, सम्भव है यह. यह हमें खुद भी सोचना चाहिए. अपनी पत्नी से हम वफादारी नहीं कर सकते, तो हम नेताओं से वफादारी की उम्मीदें कैसे कर सकते हैं. हम अपने बच्चों को सही पाठ सिखा नहीं पाते, न आदर्शात्मक रूप से न ही अपने व्यवहार से. हमारी इसी दोहरी मानसिकता का फायदा उठाते हैं हमारे ही लोग. हम अपने मन, वचन और कर्म में समानता नहीं रख पाते तो हमारे नेता भला कैसे रखें और क्यों रखें. क्यों वह अपने सुख का त्याग करें, जब हम ही दोहरी सोच के मारे हुए हैं. विचार करे स्वयं ही, यह जनता, यह लोग, जिन्हें लोकतंत्र का भगवान कहा जाता है.


Political Superman

Tuesday 14 October 2014

धृतराष्ट्र और उसका दुर्योधन - Dhritrashtra and Duryodhana

by on 11:36
आज कलम उठाते ही जाने क्यूँ धृतराष्ट्र का चरित्र ध्यान में आ गया. फिर धृतराष्ट्र-चरित्र में दुर्योधन का ध्यान भी प्रथम क्रम में ही सामने आया. ऐतिहासिक रूप से देखा जाय तो धृतराष्ट्र को याद करने के और भी कई कारण हैं, जैसे अपने अंधत्व के बावजूद उनका एक वीर योद्धा होना और कुशल राजनीतिज्ञ होना अपने आप में बेमिसाल था. फिर ऐसा क्या कारण था कि उनकी पहचान कलुषित दुर्योधन के पिता के रूप में ही ज्यादा है. कलुषित दुर्योधन इसलिए क्योंकि अपने भाइयों को विषपान, द्रौपदी अपमान और उससे आगे बढ़कर अपने कुल का सर्वनाश करने का मुख्य जिम्मेवार वही दिखा. होनहार वीरवान के होत चीकने पात की उलटी तर्ज पर दुर्योधन की दुष्टता की झलक उसके बचपन से ही दिखने लगी थी और इस बात से धृतराष्ट्र भी भली-भांति परिचित थे. फिर आखिर उन्होंने उसी को अपना उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय क्यों लिया? क्या सिर्फ इसलिए कि वह उनका पुत्र था? तटस्थ रूप से देखने पर प्रतीत होगा कि सिर्फ ऐसा नहीं था, हाँ इस कारण उनका झुकाव  इस तरफ जरूर हुआ होगा. लेकिन मुख्य कारण उनकी अपनी महत्वाकांक्षा रही होगी और महत्वाकांक्षा भी क्या बल्कि इसे स्वयं को ज्यादा योग्य साबित करने का अहम् कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त होगा. अंधत्व होने के बावजूद धृतराष्ट्र ने इस सच को सम्पूर्ण जीवन भर स्वीकार नहीं किया और वह अपने आपको पांडु, विदुर और खुद भीष्म से ज्यादा महान और योग्य होने का अहसास दिलाते रहे.

स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति अपनी किसी एक अयोग्यता या कमी को स्वीकार नहीं कर पाये तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति के दुसरे गुणों का भी लोप हो जाता है, यही धृतराष्ट्र के साथ भी हुआ.  इसके साथ यह भी सच है कि एक असफल व्यक्ति अथवा शासक जो स्वयं की अयोग्यता को नहीं मानता है और खुद में सुधार नहीं करता है, वह योग्य व्यक्तियों को अपने आस-पास देखना और महसूस करना भी स्वीकार नहीं करता है. धृतराष्ट्र के पास उनके अंधत्व का कोई ईलाज नहीं था और यही कारण था कि वह स्वयं से ज्यादा योग्य व धार्मिक गांधारी, विदुर और भीष्म की सलाह को अपने पूरे जीवन में अनदेखा करते रहे और उनकी सलाहों के विपरीत चलते रहे, युधिष्टिर और उनके चार भाइयों की तो बात ही क्या की जाय. इस क्रम में अपने से भी अयोग्य़, अधर्मी दुर्योधन, शकुनि इत्यादि का साथ और सलाह उन्हें पसंद आती रही. इस पूरे विवरण का तात्पर्य वही निकलता है जो आजकल के नेताओं के व्यवहार में साफ़ झलकता है कि वह चापलूसों से घिरे रहना पसंद करने लगे हैं. मतलब साफ़ है कि आजकल के नेतागण भी धृतराष्ट्र की ही भांति समस्याओं से निपट नहीं पाते हैं और अपनी अयोग्यता स्वीकार कर उसे सुधारने की कवायद करना सबके बस की बात भला कहाँ होती है? यह बात सिर्फ नेताओं पर ही लागू हो, ऐसा भी नहीं है, बल्कि आज के समय में क्या एक सामान्य अधिकारी क्या एक पुजारी, क्या एक व्यापारी और क्या एक कर्मचारी सभी एक तरफ से अपनी अयोग्यता और असफलता को सुधारने की बजाय उसको छुपाने के लिए चापलूसी और चापलूसों की शरण में हैं. लेकिन इन समस्त कवायदों का परिणाम देखना उतना ही आवश्यक है, जितना धृतराष्ट्र को महाभारत काल में  देखना चाहिए था. अन्यथा तब जैसे कुरुराष्ट्र और कुरुवंश की बर्बादी हुई थी, ठीक वैसे ही चापलूसों द्वारा दिग्भ्रमित संस्थानों, संगठनों और सरकारों के साथ-साथ राज्यों और अंततः देश का पतन सुनिश्चित है. यदि इस समस्या से कोई संस्थान उबरने की चाहत और नीयत रखता है तो उसे अयोग्यता, असफलता, सुधार की प्रक्रिया से गुजरना ही होगा अन्यथा उसे चापलूसों की फ़ौज पर निर्भर होना ही पड़ेगा और फिर जब वह खुद अयोग्य है, विधर्मी है, अहंकारी है और सुधार की प्रक्रिया से कोसों दूर है तो धृतराष्ट्र ही की भांति अपने झूठे-सच्चे साम्राज्य के भ्रमजाल को कायम रखने के लिए उसे चापलूस या चापलूसों की फ़ौज खड़ी करनी ही पड़ेगी, जो उसको शेखचिल्ली के सपने दिखाते रहेंगे. हालाँकि कुछ लोग इन सब चीजों को व्यवहारिकता का नाम देते हैं, लेकिन ऐसे महानुभावों को याद रखना चाहिए कि पानी स्वभावतः ऊपर से नीचे ही आता है. और मनुष्य का स्वभाव व्यवहारिक रूप से पतन की ओर ही जाता है, जबकि प्रगति के लिए और वह भी धार्मिक सार्थकता युक्त विकास के लिए तो जतन करने ही पड़ते हैं.

प्रमाण सहित सिद्ध, तमाम उदाहरण और व्याख्यान युक्त हमारा इतिहास कहता है कि स्वयं आगे बढ़ने और संस्थाओं को स्थाई ऊंचाई पर ले जाने के लिए नियम बड़े ही सरल हैं, और वह यह हैं कि मन, वचन और कर्म में समानता लायी जाए. आज के सन्दर्भ में कहें तो साफ़ नीयत और सच्चे अनुशासन के तालमेल से, खुद की भलाई भी हो और आपसे जुड़े लोगों की भलाई भी हो. उदाहरणार्थ यदि आप एक कंपनी चलाते हैं और आपको विकास करने की धुन सवार है तो आपको खुद योग्य होना होगा, अपनी गलतियों को मानने और उनका सुधार करने को तत्पर रहते हुए अपनी सांस्थानिक क्षमता बढ़ानी होगी. फिर आप आराम से चापलूसों से बचते हुए अपने संस्थान की प्रगति कर पाएंगे और धृतराष्ट्र के विपरीत अपना योग्य उत्तराधिकारी चुनने में सक्षम भी हो पाएंगे. और इस तरह की प्रगति स्थायी होगी, क्योंकि इसमें आपके कर्मचारियों का भविष्य भी सुरक्षित रहेगा, आपसे जुड़े पार्टनर्स का विश्वास भी आपके प्रति बना रहेगा और आपके एंड-यूजर, यानि उपभोक्ता को भी आपसे संतुष्टि मिलेगी. वहीँ दूसरी तरह यदि आप खुद काम से जी चुराएंगे तो आपको एक मायाजाल बनाना ही पड़ेगा, जिसमें चापलूसों की महत्ता बढ़ेगी और आपसे जुड़े हुए समस्त लोग अंततः गर्त में होंगे. और हाँ! आप भी तब गर्त में ही होंगे. तब न आपकी वास्तविक कीमत रहेगी और न ही आपसे जुड़े लोगों की. साहित्य में इसे ही 'पानी' कहा गया है. इसको आप साख, जुबान कुछ भी कह सकते हैं. इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता है और समझाता भी है. वह तो हम ही हैं जो अपने आँखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर कहते हैं कि कितना अन्धकार है. धृतराष्ट्र तो जन्मांध था, लेकिन 'अंधत्व' से हम सब पीड़ित क्यों हैं, इस यक्ष प्रश्न का हल हमें ही ढूँढना होगा. २०१४ का आम चुनाव बीत चूका है, हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनाव के नतीजे भी आ जायेंगे, आगे भी चुनाव होंगे, लेकिन ,इस चुनावी लोकतंत्र में इसी कसौटी पर आपको वोटिंग-मशीन का बटन भी दबाते रहना होगा. देखना होगा जनता को उम्मीदवारों की सार्थकता को भी और उनसे जुड़े लोगों की सार्थकता को भी. अन्यथा मिथ्याचार और भ्रमजाल में आप भी धृतराष्ट्र ही की भांति 'दुर्योधन' ही का चुनाव कर बैठेंगे. सच कहा न!

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Dhritrashtra and Duryodhana analysis in today's view, in hindi.

लोक-संस्कृति का संवाहक है संयुक्त परिवार ! - festivals and family

by on 09:50
त्यौहारों का मौसम अपने शबाब पर है. नवरात्रों, दशहरा के बाद दीपावली के पावन पर्व का हम स्वागत कर रहे हैं. इस बात में दो राय नहीं है कि त्यौहार हमारे जीवन में न सिर्फ सजीवता लाते हैं, बल्कि मनुष्य को सामाजिक बनाने में इन त्यौहारों की बड़ी भूमिका होती है. और यही त्यौहार जब सामाजिक स्वीकृति के बाद घर-घर में प्रवेश कर जाते हैं, तो संस्कृति का निर्माण होता है. मन में बड़ा रोचक प्रश्न उठता है कि संस्कृति आखिर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक किस प्रकार जाती है. एक सदी से दूसरी सदी तक किस प्रकार ये त्यौहार अपना सफर तय करते हैं? क्या लोक-संस्कृति को भी किसी मानव की जीवन-यात्रा की तरह ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है? तब तो निश्चय ही इन त्यौहारों और लोक-संस्कृति का स्वरुप भी बदलता होगा? कालांतर में इन बदलावों का मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर एक नजर डालना सामयिक होगा.
उपरोक्त कथनों की गहराई में जाने के लिए मैं स्वामी विवेकानंद से लेकर आज के भारतीय प्रधानमंत्री तक, उन तमाम तेजस्वी महानुभावों का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने विदेशी धरती पर भारत को गौरवान्वित करने का प्रयास किया है. सभी महान भारतीय, विदेशी धरती पर उस भारतीय मंत्र का बड़े गौरव से ज़िक्र करते हैं, जो कहता है कि 'सम्पूर्ण विश्व हमारा परिवार है'. जी हाँ! मैं 'वसुधैव कुटुंबकम' की ही बात करता हूँ. यदि किसी भारतीय की मंशा पर कोई प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है, तो वह तत्काल इस मंत्र को उच्चारित करता है.

लेकिन बड़े आश्चर्य का विषय है कि विदेशों में इस मंत्र का बार-बार और लगातार गुणगान करने के बावजूद भारत में इस मंत्र को न कोई बोलता है, न कोई सुनता है, न कोई मानता है. यदि आपको विश्वास नहीं है इस कथन पर तो पिछले दस सालों से छप रहे पत्र-पत्रिकाओं को खंगाल लीजिये. उसमें इस कथन का प्रयोग आपको नहीं मिलेगा. यदा कदा मिल भी गया तो वह विदेशी उद्धरण से सम्बंधित होगा. कुटुंब, यानि परिवार क्या है, जरा इस बात पर फिर से विचार कीजिये. शिक्षण की भाषा में कहा गया है कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला उसका परिवार ही है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो, न सिर्फ प्रथम पाठशाला बल्कि व्यक्ति के पूरे जीवन की सबसे सशक्त पाठशाला है हमारा 'भारतीय परिवार'. जरा शब्दों पर गौर करें, मैंने प्रयोग किया है 'भारतीय परिवार' और भारतीय परिवार का एक ही मतलब है 'संयुक्त परिवार'. निश्चित रूप से इसी संयुक्त परिवार की भावना को आधार मानकर, और इस संस्था के द्वारा निर्मित भारतीयों पर विश्वास करके ही हमारे पूर्वजों ने 'वसुधैव कुटुंबकम' का मंत्र दिया होगा. उन्हें विश्वास था कि संयुक्त परिवार का जो मजबूत स्तम्भ, उन्होंने बनाया है, वह व्यक्ति निर्माण के लिए सर्वोत्तम विकल्प है. यह सर्वोत्तम क्यों है और इसकी वैज्ञानिकता क्या है, इसके बारे में आगे चर्चा करेंगे लेकिन इससे पहले आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि साथ रहने वाले न्यूक्लियर पति-पत्नी के लिए इस दिवाली का मतलब क्या होगा? सामान्यतः दिन में वह किसी मल्टीप्लेक्स में एक मूवी देखने जायेंगे, फिर कहीं रेस्टोरेंट में डिनर कर लेंगे, या घर पर पिज़्ज़ा आर्डर कर लेंगे. हाँ! एकाध मोमबत्तियां भी जला लेंगे. यदि उनका बेटा छोटा है, तो शाम को डर-डरकर एकाध फुलझड़ियाँ जला लेगा और यदि बेटा बड़ा है तो अपने दोस्तों के साथ या फेसबुक पर ....! तथाकथित 'न्यूक्लियर फेमिली' में यही स्थिति, प्रत्येक त्यौहार में बरकार रहती है, एक सामान्य 'हॉलिडे' की तरह. जरा विचार कीजिये! क्या यही मतलब है इन त्यौहारों का! क्या इसी रास्ते से बच्चों में संस्कार पनपेगा? क्या इसी रास्ते से पति-पत्नी का आपसी सम्बन्ध मजबूत होगा? क्या इसी रास्ते से समाज में समरसता आएगी? नहीं! नहीं! नहीं!

यहाँ स्पष्ट करना उचित रहेगा कि यह स्थिति आपके, हमारे चारो तरफ पनप रही है, जिसे लोक-संस्कृति तो कतई नहीं कहा जा सकता है, हाँ! कुसंस्कृति या मशीनी संस्कृति जरूर कह सकते हैं इसे. यह एक बड़ा कारण है कि आज के समय मनाये जाने वाले त्यौहारों से लोक का लोप हो गया है. अब की बार जो दिवाली मना रहे होंगे आप, उसमें न तो कुम्हार के बनाये दिए होंगे, न धुनिये का धुना रुई होगा, न किसान द्वारा उत्पादित सरसों का तेल होगा, न ग्वाले द्वारा निकाला गया देशी घी होगा. इसके बदले होंगे चाइनीज झालर, रेडीमेड नकली मिठाइयां, और देशी घी की पूड़ियों के बदले होगा, बासी और सड़ा हुआ पिज़्ज़ा. सच पूछिये तो 'न्यूक्लियर फेमिली' का कांसेप्ट न सिर्फ हमारे त्यौहारों की अहमियत समाप्त कर रहा है बल्कि हमारे समाज की रीढ़ को खोखला करता जा रहा है, लगातार ! इसके विपरीत आप कुछ बचे हुए संयुक्त परिवार के अवशेषों का ही अध्ययन कर लीजिये. वहां इस दीपावली में घर के मुखिया ने अपने छोटे भाइयों, बेटे-बेटियों को फोन कर दिया होगा कि दीपावली पर सभी को घर की पूजा में सम्मिलित होना है. न चाहते हुए भी आधुनिक किस्म के सदस्य वहां पहुंचेंगे, पूजा में सम्मिलित भी होंगे. एक-दुसरे से मिलेंगे, उनसे बातें करेंगे. दादा- दादी, चाचा- चाची, काका- काकी से औपचारिकता ही सही, लेकिन हाल-चाल पूछेंगे. पड़ोस के ताऊ को भी पूजा की मिठाई देने के बहाने मिल आएंगे, दो बातें सीख पाएंगे. अपने मोहल्ले से मेलजोल बढ़ाने को सज्ज हो पाएंगे. इन भारतीय परिवारों के छोटे बच्चे जो निश्छल हैं, बड़ों के बीच तनाव से बेखबर, वह भी घर के इस माहौल को देखकर आनंदित होंगे और लोक संस्कृति के संवहन की जिम्मेवारी जाने-अनजाने अपने ऊपर लेने को तत्पर होंगे. संयुक्त परिवार में त्यौहार के दृश्य का यह वर्णन आपको थोड़ा अटपटा लग सकता है, लेकिन आज के टूटन के इस दौर में यही सत्य है, शायद सुनने में कड़वा लगे. इसके साथ यह भी सत्य है कि संयुक्त परिवार या भारतीय परिवार अपनी बुरी हालत में भी तथाकथित न्यूक्लियर फेमिली से लाख गुना बेहतर है.

हालाँकि, संयुक्त परिवार के आलोचक भी कम नहीं हैं, इसकी कमियां एक-एक करके वह बता देंगे, जिनमें कई कमियां सच भी हो सकती हैं, मसलन, संयुक्त परिवार में तमाम आर्थिक कठिनाइयाँ हैं, तो नेतृत्व को लेकर टकराहट होती हैं, विकास अवरुद्ध हो जाता है. लेकिन हमें यह समझना पड़ेगा कि इन सभी कमियों को दूर किया जा सकता है. यूनान, रोम सब इस जहाँ से मिट गए और हम भारतीय बचे हैं, तो इसके मूल में हमारी मानव-निर्माण की प्रथम पाठशाला ही है. हिन्दू धर्म के युगों के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग में आखिर संयुक्त परिवार ही तो रहे हैं, जिनके कंधे पर सवार होकर हमारी संस्कृति यहाँ तक पहुंची है. ज्ञात इतिहास में भी आज़ादी के पहले तक हमारी व्यवस्था यही भारतीय पारिवारिक व्यवस्था ही तो थी. अब जब अमेरिका, ब्रिटेन समेत तमाम विकसित देश मानव-निर्माण की प्रक्रिया में असफल होकर हमारे भारतीय दर्शन की तरफ देख रहे हैं, तो हम क्षणिक लिप्सा में फंसकर, संकुचित स्वार्थ की खातिर समाज को तोड़ रहे हैं, एकल परिवार जैसी विकृति फैलाकर भारतीय लोक-संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं. आखिर, भारतीय दर्शन हमारा लोक-व्यवहार ही तो है.
वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाय तो बच्चे की सीखने की उम्र १४ साल तक मानी गई है. १४ साल तक उसके चरित्र, बुद्धि का निर्माण ९० फीसदी तक हो चूका होता है. अब जरा इसको दुसरे नजरिये से देखें. एक युवक, युवती की शादी और संतानोत्पत्ति सामान्यतः २५ से ३५ साल के बीच में संपन्न हो जाती है. यह समय कैरियर के लिहाज से बड़े उथल-पुथल का समय होता है. युवक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से कड़े संघर्ष करता है इस वक्त. समय की कमी होती है, अनुभव की कमी होती है, धन की कमी होती है इस दौरान. अपनी संतान के लिए एकल-दंपत्ति के पास बिलकुल समय नहीं होता है. वह या तो नौकर के सहारे या बोर्डिंग स्कूल के सहारे, कंप्यूटर और टीवी के सहारे अपने बच्चे का पोषण करते हैं. जरा सोचिये! ऐसे पालन-पोषण से उस बच्चे की संवेदना बचेगी क्या? समस्त सुख-सुविधाएं, व्यवस्थाएं मानव-निर्माण से बढ़कर हैं क्या? हम इसकी क्या कीमत चूका रहे हैं? भारतीयता से दूर क्यों भाग रहे हैं हम? इस दीपावली को इस यक्ष प्रश्न पर विचार करना सामयिक होगा. और इस दीपावली को आप इस बात की कोशिश भी करें की यह त्यौहार आपके अपने परिवार के अधिकांश सदस्यों के बीच मनाया जाय. तभी हम भी अपनी महान लोक-संस्कृति को अगली पीढ़ी को सौंप पाएंगे, अन्यथा .... !

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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गुजरात : विकास एवं संस्कृति का संगम - Gujarat Trip

by on 09:47
पिछले दिनों गुजरात की बड़ी चर्चा सुनने को मिली. यूं तो स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, सरदार पटेल के गृह-राज्य गुजरात की चर्चा बहुत पहले से संपन्न राज्य के रूप में होती रही है, लेकिन इस राज्य की मार्केटिंग जिस तरह से पिछले दशक में हुई, वह निश्चित रूप से बेमिसाल है. किसी हॉलीवुड फिल्म की तरह गुजरात का प्रचार-प्रसार किया गया. दावे किये गए कि विकास का माहौल वहां सबसे अनुकूल है, तो टूरिज्म को लेकर इस बात को साबित भी किया गया. क्या देशी, क्या विदेशी, जो भी उद्योगपति, अभिनेता या सामान्य जन वहां गया, गुजरात की तारीफ़ करने से खुद को रोक नहीं सका. कई बुद्धिजीवी इस बात से काफी खिन्न दिखते हैं कि गुजरात की सम्पन्नता का श्रेय कोई एक बात भला कैसे ले सकता है. इन बुद्धिजीवियों की यह खिन्नता कुछ हद तक यथार्थ भी हो सकती है, लेकिन इस बात से भला कौन इंकार कर सकता है कि विकास की रफ़्तार एक बार तो शायद गति पकड़ भी ले, लेकिन उस गति को लगातार १२ सालों से ज्यादा कायम रखना अपने आप में बड़ी उपलब्धि है. यदि ऐसा नहीं होता तो, कुछ समय तक देश में सबसे आगे रहने वाला शहर कोलकाता, इतनी बुरी तरह बर्बाद और बदहाल नहीं होता. अभी भी विकसित राज्यों में गिना जाने वाला पंजाब, बिजली और कानून व्यवस्था की बुरी हालत से नहीं जूझ रहा होता. इसके विपरीत मात्र १० साल पहले जंगलराज की खातिर बदनाम रहा बिहार, इन दस सालों में सकारात्मक माहौल तैयार करने में असफल रहता. कुछ हद तक ही सही, लेकिन सुशासन बाबू कहे जाने वाले समाजवादी ने बदलाव तो किया ही है. इसी पैमाने पर हम गुजरात के शेर कहे जाने वाले राष्ट्रवादी नेता को भी श्रेय दे ही सकते हैं.

गुजरात की जब हम बात करते हैं तो २४ घंटे निर्बाध बिजली, अच्छी सड़कें, अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था, लालफीताशाही पर लगाम, एक हद तक ही सही, लेकिन है. व्यापार के लिए आकर्षित करने वाली मार्केटिंग, घुमक्क्डों के लिए साबरमती एवं अन्य तीर्थस्थानों का विकास, साफ़ सुथरी परिवहन व्यवस्था इस राज्य को देश के अन्य राज्यों से कई फर्लांग आगे खड़ा करती है. लेकिन इन सब व्यवस्थाओं के अतिरिक्त भी गुजरात का सकारात्मक चेहरा मुझे अपनी यात्रा के दौरान दिखा, जो कि उसके मानव-संशाधन के बारे में है, और यह उसकी सम्पन्नता का सर्वाधिक विशेष कारण भी है. लेकिन, इसकी चर्चा करने से पहले जरा एक नजर आप उत्तर प्रदेश, बिहार और दुसरे पिछड़े राज्यों पर डालें. बदहाल लोग, दूसरी जगह पलायन करते लोग, एक-दुसरे की टांग खींचते लोग, मेहनत की बजाय गप्पबाजी को अपना पेशा बना चुके लोग और ऐसी ही अन्य समस्याओं से दो-चार होते हुए अपराधी बनते लोग. इन बीमार राज्यों में रह रहे व्यक्तियों के पास खाली समय भरपूर है, लेकिन उसका प्रयोग यह लोग चुनावी राजनीति की चर्चा में नष्ट कर देते हैं. ये सभी समस्याएं और समाज को टुकड़ों के रूप में बाँट चुकी जातिवादी राजनीति ने इन बीमार प्रदेशों को आईसीयू में पहुंचा दिया है. और सिर्फ राजनीति ही क्यों, परिवार नामक संस्था तो कुढ़न, जलन और आपसी लड़ाई का अखाड़ा बन चुकी है, तो सामाजिक संस्थाएं, मंदिर इत्यादि बुराइयों का दूसरा अड्डा बन चुके हैं. वहां, न तो संस्कार मिलता है बच्चों को, न बड़ों को शांति मिलती है. हाँ! लूटमार, नशा, निम्न-स्तरीय राजनीति जरूर देखने को मिल जाती है. अब आप प्रश्न करेंगे कि क्या यह सभी समस्याएं गुजरात में नहीं हैं, तो मैं एक शब्द में कहूँगा, "नहीं". एक बार ऊपर के पैरा को आप फिर पढ़ें और फिर प्रश्न करें कि गुजरात इतना संपन्न क्यों हैं, तो आपको यही जवाब मिलेगा कि वहां के लोग सुबह उठने के बाद अपने पशुओं का दूध निकालने में लग जाते हैं, फिर पी.जे.कूरियन द्वारा स्थापित अमूल डेयरी के लिए पूरी वैज्ञानिक विधि से दूध इकठ्ठा करने में लग जाते हैं. यहाँ, यह बताना आवश्यक है कि सहकारिता के सिद्धांत से यह पूरी व्यवस्था गांव से शुरू होकर आगे तक जाती है. जिस गाँव पोगलू में मैं गया था, वहां सुबह बच्चे घरों में पढ़ रहे थे. औरतें काम में लगी थीं, दर्जी गाँव में ही कपड़ा सिल रहा था. दिन में हम एक नर्सिंग स्कूल के कार्यक्रम में गए, तो देखा बच्चे बेहद अनुशासित होकर बात सुन रहे थे, कह रहे थे. सच कहूँ, तो मुझे कोई निठल्ला दिखा नहीं. शाम होते ही, उस छोटे से गाँव के मंदिर में आरती शुरू हो गयी, और कई सारे बच्चे उसमें बिना किसी भेदभाव के इकठ्ठे हो गए. मंदिर के प्रांगण में गाँव के लोग, आते रहे और कुछ समय पुजारी जी के साथ बिता कर, कुछ चर्चा कर के जाते भी रहे. कहने का मतलब यह कि हर एक वहां एक दुसरे के समय के साथ खुद के समय की क़द्र करने के प्रति सचेत नजर आ रहा था.

जीवन के जो चार पुरुषार्थ बताये गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, उसमें से पहले तीन को पूरा करते देखा मैंने गुजरात के लोगों को. उत्तर प्रदेश एवं बिहार के बॉर्डर, बलिया में पैदा हुआ लड़का और दिल्ली में कई सालों से रहने के कारण, यह मेरे लिए निश्चित रूप से आश्चर्य का विषय था. लेकिन प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता भला कब होती है. कुछ बातें, खटकने वाली भी थीं, मसलन ५ दिनों में इस राज्य में हिंदी की उपेक्षा देखने के बाद मेरे मन में टीस उठ रही थी. साइन-बोर्ड, बातचीत, लेखन की भाषा पूरी तरह से गुजराती और कुछ अंग्रेजी थी. ऐसा प्रतीत होता है कि वहां योजनाबद्ध तरीके से हिंदी के ऊपर प्रहार किया गया हो. वहां के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों से बातचीत करने पर यह स्पष्ट था कि पिछले दस सालों के दौरान वहां का नेतृत्व इसके लिए जिम्मेवार रहा है. इसी सन्दर्भ में यह कहना उचित होगा कि भारत के प्रधानमंत्री अभी अमेरिका की यात्रा (सितम्बर २०१४) पर हैं, और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में ही दिया है. इस भाषण में कई गलतियां भी मीडिया ने पकड़ी हैं. हिंदी के प्रति अचेत लोगों को इस वाकये से सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि विश्व-पटल पर भारत की पहचान हिंदी ही है. इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी कम नजर आयी, विशेषकर लड़कियों में. औसत से भी कम वजन वाली लडकियां आप को वहां हर जगह दिख जाएंगी. हालाँकि 'मद्यपान' सरकारी रूप से वहां प्रतिबंधित है, लेकिन इस पेय की कालाबाजारी वहां जोरों से है, बिना किसी ख़ास रोक-टोक के, सिर्फ सरकार को टैक्स नहीं मिलता.

सांस्कृतिक पर्व 'गरबा' की चर्चा किये बिना गुजरात की चर्चा पूरी नहीं होती है. लेकिन दुःख की बात यह है कि गरबा के वर्तमान स्वरुप से वहां के स्थानीय प्रबुद्ध जन नाखुश दिखे. हों भी क्यों नहीं, आखिर संस्कृति में अपसंस्कृति घुल जाने से किसे पीड़ा नहीं होगी. यह 'अपसंस्कृति' का जहर सिर्फ गुजराती 'गरबा' में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में घर कर गया है. हाँ! अंतर इतना जरूर है कि गुजरात के प्रबुद्ध इस बात पर चिंतित हैं, तो उत्तर प्रदेश के समाजवादी इस 'अपसंस्कृति' को बच्चों की भूल बता देते हैं. अंतर यह भी है कि गांधी के इस राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ने पर कार्रवाई होती है, तो दुसरे हिंदी भाषी राज्यों के नेता और संस्थाएं बेतुके बयान देकर पल्ला झाड़ लेती हैं. पिछले ही दिनों केरल के राज्यपाल से हटने वाली, दिल्ली की एक पूर्व मुख्यमंत्री ने कानून व्यवस्था के बारे में कहा था कि यह बाहर के लोगों के आने से बिगड़ जाती है. यहाँ यह बताना लाजमी रहेगा कि गुजरात में भी पूरे देश से लोग जाकर रोजी कमा रहे हैं. अतः बहानेबाजी से दूर हटकर राजनीतिज्ञों को, सामाजिक संस्थाओं को, धार्मिक संस्थाओं को एवं व्यक्तियों को पूरे देश के सन्दर्भ में गुजरात से सीख लेनी होगी, क्योंकि यह शायद भारतीय के सबसे नजदीक है, और हमारी ही संस्कृति है, जिसे अन्य राज्य पीछे छोड़ चुके हैं. समय मिलने पर आप भी जरूर जाइये गुजरात में, लेकिन सिर्फ शहर और दो चार पार्क घूमकर चले मत आइयेगा, बल्कि कुछेक दिन गुजराती गाँवों में जरूर गुजरिएगा, लोगों की कार्यप्रणाली को सीखिएगा, डेयरी उद्योग को देखिएगा. और तब आप दूसरों को भी कह सकेंगे कि 'कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में'!
मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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Monday 13 October 2014

देश के कानून से ऊपर नहीं है कोई - Indian Law

by on 17:22
dlf-kp-singh     भारत देश में विभिन्न प्रकार के लोग और समूह पाये जाते हैं और इसी के हिसाब से उनकी मानसिकता भी बदली रहती है. लेकिन इस बीच एक बात बड़ी कॉमन नजर आती है और वह है इन सभी के मन में देश के कानून से खुद को ऊपर समझने की लत. गांव में पान की दूकान या चाय की दुकान पर बैठा हुआ छुटभैया नेता हो या देश में बड़े कॉर्पोरेट समूह के धनाढ्य के तौर पर पहचान रखने वाला व्यवसायी, सभी देश के कानून के ऊपर खुद को समझते ही नहीं हैं, बल्कि उनके मन में प्रत्येक परिस्थिति में सब कुछ 'मैनेज' कर लेने की नीयत भी होती है और वह इस सिलसिले में अपनी जुगत भी भिड़ाते रहते हैं. आखिर कानून में कहीं तो झोल है, जो इस प्रकार की मानसिकता आम-ओ-ख़ास सभी में विकसित हो जाती है. यह अलग बात है कि जब कानून अपनी पर उतरता है तब आम की तो बात ही क्या की जाय, बड़े से बड़े ख़ास इस चक्की में पिस जाते हैं. इस बड़े लोकतान्त्रिक देश में, आबादी के अनुपात के हिसाब से प्रशासनिक ढाँचे में बड़ी खामियां मौजूद हैं. इन्हीं खामियों का फायदा उठाकर धूर्त व्यवसायी येन, केन प्रकारेण धन और सत्ता के केंद्र में आने में सफल हो जाते हैं, और भारतीय जनता को धत्ता बताने की कोशिश में लग जाते हैं.

हाल ही में डीएलएफ जैसी बड़ी कंपनी के ऊपर शेयर बाज़ार में कारोबार पर बाजार नियामक संस्था सेबी ने प्रतिबन्ध लगाया है. इस कंपनी के ऊपर निवेशकों से जानकारी छुपाने का आरोप लगाते हुए इनके निदेशकों को भी प्रतिबंधित किया गया है. यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि डीएलएफ कंपनी सोनिया गांधी के दामाद रोबर्ट वाड्रा से कथित सौदे को लेकर बड़ी चर्चित रही है. पर इस कड़ी में सिर्फ डीएलएफ के केपी सिंह ही नहीं हैं, बल्कि जेल में बंद सहारा के मुखिया सुब्रत रॉय सहारा जैसे व्यवसायी भी हैं. सहारा के साथ-साथ रिलायंस समूह को स्पेक्ट्रम घोटालों और विजय माल्या इत्यादि को कर्मचारियों के साथ धोखाधड़ी करने जैसे आरोपों का सामना करना पड़ा है. विजय माल्या ने तो सांसदों के घर पर प्रभावित करने की माशा से 'महँगी शराब' तक भिजवा दी थी. और भी कई बड़े बिजनेसमैन अपने कार्यों को साधने की खातिर अधिकारियों समेत, नेताओं और न्यायाधीशों तक को प्रभावित करने की कोशिश खुले तौर पर करते रहे हैं. जहाँ तक बात डीएलएफ समूह की है, तो बच्चा-बच्चा जानता है कि हरियाणा में इस कंपनी ने किस प्रकार अकूत सम्पत्ती हासिल की है. इसी प्रकार सहारा समूह के मुखिया तो न्यायालय की नाफरमानी करने के आरोप के चलते जेल में बंद हैं. डीएलएफ या सहारा ऐसे पहले औद्योगिक घराने नहीं हैं, जिन पर इस तरह के मामले दर्ज हुए हैं, लेकिन अपनी गलतियों से वह इस तरह के पहले औद्योगिक घराने जरूर बन गए हैं, जो सीधे तौर पर कानून की नाफरमानी करने वाला प्रतीत हो रहा है. हालाँकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि औद्योगिक समूहों को लक्षित करने में राजनैतिक उद्देश्य भी हो सकते हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें कानून का पालन करने में संयम तो दिखाना ही चाहिए. इसके साथ सरकार और न्यायपालिका को अपराधियों को दंड जरूर देना चाहिए, लेकिन इससे पहले इस बात की कड़ी व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी धूर्त या तेज व्यक्ति आम जनमानस के पैसों अथवा उसकी भावनाओं के साथ सीधा खिलवाड़ नहीं कर सके.

यदि डीएलएफ या सहारा जैसी कंपनी ने निवेशकों के पैसों के साथ कोई धोखाधड़ी की भी है तो यह प्रश्न उस सेबी से ही पूछा जाना चाहिए कि वह बिना किसी ठोस गारंटी के ऐसा कैसे कर पायी, और सेबी के अधिकारी आखिर कोई धोखाधड़ी हो जाने के बाद क्यों जागते हैं. और डीएलएफ समूह कोई आज से तो कारोबार कर नहीं रहा है तो फिर उस पर आज से पहले प्रश्न क्यों नहीं पूछे गए? क्या इस समस्त प्रकरण में खुद 'सेबी' भी शक के दायरे में नहीं है? उन सभी अधिकारियों पर भी कड़ी कारर्वाई होनी चाहिए, जिन्होंने डीएलएफ को नियमों में ढील दी होगी. जनता का पैसा आईपीओ के रास्ते करने वाली कंपनी पर आखिर ढिलाई कैसे की जा सकती है. बाद में प्रतिबन्ध लगाने पर भी नुक्सान निवेशकों को ही तो होता है. इसके साथ इन बातों से कौन इंकार कर सकता है कि सरकारी अधिकारी चंद पैसों में गलत सही कारोबारियों को आगे बढ़ने में खुली मदद करते हैं. औद्योगिक घरानों को भी चाहिए कि वह अपनी साथ के साथ-साथ निवेशकों के पैसों का पूरा पूरा हिसाब दें और खुद को देश के कानूनों से ऊपर समझने की जिद्द भी छोड़ दें. इसी में खुद उनकी भी भलाई है, उनके निवेशकों की भी भलाई है और बड़े समूह से जुड़े कर्मचारियों का भविष्य भी इसी में सुरक्षित रहेगा. प्रश्न को आगे तक ले जाने पर हम देखते हैं कि कानून को ठेंगा दिखाने में सिर्फ उद्योगपति ही नहीं, बल्कि धर्माधिकारी भी पीछे नहीं हैं. कई पाखंडी विभिन्न आरोपों में जेल की हवा भी खा रहे हैं. गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गलत सही काम करने के लिए शुरुआत में कानून की कमजोरी का फायदा उठाया जाता है, और फंसने पर सफेदपोश बड़ी आसानी से, वोट की खातिर इन सभी का बचाव करते हैं. जरूरत है कानून की व्यवस्था को दुरुस्त करने की, ताकि कोई भी आम या ख़ास कानून के दायरे में ही रहे. क़ानून के दायरे से बाहर जाते ही उसको सरकार का भय हो. तभी आम जनमानस के शोषण में कमी आएगी और हम कह सकेंगे कि देश में "कानून का राज है".

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Indian law and industrialists, article by mithilesh in hindi.

Sunday 12 October 2014

खेलों पर एकाधिकार और भ्रष्टाचार - Sports in India

by on 17:11
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अब से पहले देश में एकमात्र खेल क्रिकेट ही था, जिसकी चमक-दमक लोगों को प्रभावित करती थी. न सिर्फ आम लोगों को, बल्कि व्यवसायियों और उनके पीछे-पीछे अपराधियों, सट्टेबाजों को भी सक्रीय होने का भरपूर मौका मिला. देश की गरिमा और इज़्ज़त के साथ साथ खिलाडियों को भी इस खेल ने बदनाम किया. फिर भी कुछ हद तक बात नियंत्रण में रही. लेकिन खेल के सबसे व्यवसायिक संस्करण आईपीएल के आने के बाद तो इस खेल में हर प्रकार की गन्दगी मिलने लगी.

पिछले दिनों एक चर्चित समाचार चैनल ने क्रिकेट के आईपीएल में फिक्सिंग पर बड़े खुलासे का दावा करते हुए कहा था कि इस अपराध में क्रिकेट से जुड़ा हर बड़ा नाम शामिल है. मसलन शरद पवार, एन.श्रीनिवासन, ललित मोदी, विजय माल्या और खिलाडियों की तो खैर बात ही क्या है. लेकिन हम कहते हैं कि यह कोई खुलासा नहीं है, बल्कि यह पहले से ही जगजाहिर है. क्रिकेट के खेल में जिस प्रकार से पैसों की बरसात हो रही है और उसको लगातार महिमामंडित किया जा रहा है, उसने प्रत्येक उद्यमी/ व्यवसायी और अपराधी को इसके प्रति एक भारी आकर्षण प्रदान किया है. सट्टेबाजी, स्पॉट-फिक्सिंग, जैसे तमाम दूसरे शब्दों का जन्मदाता है यह खेल. इससे बड़ी बात यह है कि राजनीति, प्रशासन जैसे दूसरे क्षेत्रों में जहाँ पारदर्शिता की बात जोर-शोर से उठ रही है, वहीं क्रिकेट में चुपचाप एक ख़ास वर्ग द्वारा नियंत्रण करने का बड़ा षड़यंत्र पिछले कई सालों से बेहद संगठित रूप से चलाया जा रहा है. भारत की जनता तो हमेशा की तरह अपने खिलाडियों के बदन पर तिरंगा लिपटा देखकर खुश हो जाती है और भारत माता की जय के नारे लगने लगते हैं. उसे क्या पता, उसकी इसी भावना को पैसे में बदल कर अपनी जेबें गरम करने की साजिश लम्बे समय से चल रही है. सबसे पहले प्रश्न उठता है क्रिकेटीय संस्था के नियंत्रण पर. जब क्रिकेट के नियंत्रण बोर्ड के नाम में 'भारत' शब्द जुड़ा हुआ है और तिरंगे का वह और उसके खिलाड़ी इस्तेमाल करते हैं तब इस बात का कोई तुक नहीं है कि इसका व्यवसायिक इस्तेमाल हो और इस पर सरकार का सीधा नियंत्रण न हो. समय-समय पर आखिर कैसे कुछ गुट इस संस्था पर कब्ज़ा जमा कर बैठ जाते हैं. कभी जगमोहन डालमिया का ग्रुप तो कभी शरद पवार का गैंग. कभी ललित मोदी हावी हो जाते हैं तो कभी ई.श्रीनिवासन का सिक्का चलता है. कोई जांच नहीं, कोई आरटीआई कानून लागू नहीं होता है इन पर. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि 'मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड' की तरह ही 'भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड' है, जिसका 'शरीयत-कानून' की तरह अपना 'क्रिकेटीय-कानून' है. और इन पर भी भारत-राष्ट्र के दुसरे कानून लागू नहीं होते हैं. क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता का आपराधिक दोहन करने के लिए 'इन्डियन प्रीमियर लीग' का गठन हुआ और आपको जानकार आश्चर्य होगा कि भारत में यह विचार इस बोर्ड का भी नहीं था. भारत में यह विचार मीडिया मुग़ल कहे जाने वाले, ज़ी-ग्रुप के सुभाष चंद्रा के माध्यम से सामने आया जब उन्होंने 'आईसीएल', यानि इंडियन क्रिकेट लीग के नाम से इसके दोहन की कोशिश शुरू की. बीसीसीआई के ठेकेदार उनकी इस कोशिश पर भड़क उठे और आईसीएल को रोकने की तमाम जायज-नाजायज कोशिशें तब की गयीं. आईसीएल में खेलने वाले खिलाड़ियों को भारतीय टीम से निकालने की कोशिश भी तब हुई और विदेश के क्रिकेट बोर्डों पर भी अपने खिलाड़ियों को आईसीएल से दूर रहने के लिए भारी दबाव बनाया गया. आखिर, बीसीसीआई अपने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को दुसरे के दरवाजे पर कैसे जाने देती. तब आनन-फानन में गठन हुआ 'आईपीएल' का और शुरू हुआ क्रिकेट में अब तक का सबसे घटिया, व्यवसायिक और अनैतिक दोहन. इस शुद्ध व्यवसायिक दोहन ने अपराध से डी-कंपनी, शराब व्यवसाय से विजय माल्या, बॉलीवुड से कम समय में धनवान बने अभिनेता, राजनीति से शशि थरूर जैसे कई नामों को अपनी तरफ खींचा. देश की जनता जिन खिलाडियों को अपनी शान समझती थी, वह गाजर-मूली और शराब की ही तरह बाजार में बिकते दिखे और सिर्फ उनकी क्रिकेट की कला ही नहीं बिकी बल्कि बिका उनका ईमान, बिकी उनकी नैतिकता और बिक गयी उनकी देशभक्ति भी. तमाम जुआड़ी जैसे गावं के चौराहे पर पकडे जाते हैं, और तमाम वेश्याएं जैसे किसी रेड-लाइट एरिया से पकड़ी जाती हैं, ठीक वैसे ही सट्टेबाज और सुंदरियों के घालमेल से इस खेल के व्यवसायीकरण पर मुहर लग गयी. मुहर 'आईपीएल' के अपराधीकरण पर भी अब लग चुकी है. लेकिन मजबूर है देश का कानून, क्योंकि क्रिकेट के पास उसका अपना 'शरीयत-कानून' है और वह देश के तमाम कानूनों से ऊपर है. आखिर क्रिकेट को देश में 'धर्म' का दर्जा यूंही नहीं मिला हुआ है.

व्यावसायिकता की बात क्रिकेट से आगे बढ़ते हुए अब कबड्डी, और फिर फूटबाल तक जा पहुंची है. आईपीएल की ही तर्ज पर इन खेलों का दोहन करने की रणनीति सज चुकी है. खैर, इन खेलों में क्या होगा यह तो आगे की बात है, लेकिन यहाँ यह प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर इन खेलों पर कुछ घराने और प्रभावशाली लोग अपना एकाधिकार किस प्रकार करते जा रहे हैं. क्या सरकार द्वारा इन खेलों के प्रति गंभीर रवैये के साथ कानून बनाया गया है या छोड़ दिया गया है इन्हें छुट्टे सांड की तरह- हरे भरे खेतों में चरने के लिए. निश्चय ही ये सांड खेतों को बर्बाद करके रख देंगे. भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी तो होगी ही, दूसरे गैरकानूनी धंधे भी फलेंगे, फूलेंगे. और इस भ्रम में आप कतई न रहे कि इससे आम खिलाडियों को कुछ लाभ होगा! वह तो बस सट्टेबाजों के हाथ का खिलौना बनकर रह जायेंगे. चीयर लीडर, चमक-दमक, व्यवसाय सब होगा यहाँ, नही होगा तो खेल और खेल-भावना. लेकिन इन खेलों के कथित प्रशासक और दलाल यह बात ठीक तरह से समझ लें कि अब तक चुप बैठी यह भोली सी दिखने वाली जनता कहीं इस पूरे खेल का वैसा ही हाल न कर दे, जैसा लोकसभा चुनाव में राजनीति का हुआ है. आखिर अदालतों में भी, जनता की अदालत से बड़ी दूसरी अदालत कौन है? और अब इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि जनता इन अनैतिक व्यवसायियों और छिपे अपराधियों पर अपना निर्णय कब तक सुनाती है.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Sports in India are in bad condition. Cricket, kabaddi, Football became totally profession.

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