Sunday 30 November 2014

News Channels in Today's Era

by on 06:02
News Channels in Today's Era

 

ब्रेकिंग:- प्रधानमंत्री ने 'मक्खी' जाति की बुराई करते हुए 'मधुमक्खी' को श्रेष्ठ बताया, उसके डंक मारने को प्रमोट करके हिंसा को बढ़ावा दिया, जिससे साबित होता है कि वह शांति के पक्षधर नहीं हैं.
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सौजन्य से- सबसे तेज, साच को आंच नहीं, ना काहू से दोस्त..., आपको रखे पीछे ... इत्यादि-इत्यादि न्यूज.

News Channels in Today's Era, analysis in hindi.

पडोसी बदले नहीं जा सकते, इसलिए ... You can change friends but not neighbours!

by on 05:17
अमेरिका के महाशक्ति बनने को लेकर पिछली सदी में कई देशों ने ईर्ष्या का रोग पाला है लेकिन इसके साथ यह भी एक कड़वा सच है कि वह सभी देश कहीं न कहीं नेस्तनाबूत होते चले गए, अपनी हस्ती खोते चले गए और अमेरिका जस का तस बना रहा. यही नहीं, उसकी ताकत लगातार बढ़ती ही चली जा रही है. कुछ तो बात है, जो एशियाई देश पकड़ नहीं पा रहे हैं या पकड़ना चाहते ही नहीं हैं. जानना दिलचस्प होगा कि अमेरिका की वैश्विक सक्रियता उसके अपने महाद्वीप से बाहर बहुत ज्यादा रहती है, विशेषकर एशिया, यूरोप और अफ्रीका में. वैश्विक शक्ति बनने के लिए उसने अपने इर्द-गिर्द कुछ इस प्रकार का जाल बुना है, जिसे तोडना तो दूर, एशियाई देश छू भी नहीं पाते हैं. अमेरिका का सिर्फ नाम ही नहीं है 'संयुक्त राज्य अमेरिका' बल्कि इस नाम की संयुक्त सार्थकता उसने अपनी राजनीति में व्यवहारिक रूप से समाहित की है, वह भी आज नहीं, बहुत पहले से. जब कुछ विश्लेषक कहते हैं कि २१वीं सदी एशिया की है, भारत की है या चीन की है तो इस बात पर बड़ी जोर की हंसी आना स्वाभाविक ही है. जी हाँ! यह बात सुनकर किसी अंधभक्त को बड़ी तेज मिर्ची लग सकती है, लेकिन यह सच है कि एशिया, विशेषकर भारतीय उप-महाद्वीप बारूद के ढेर पर खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, उस बारूद को अक्सर ही बाहर-भीतर के लोगों द्वारा चिंगारियां दिखाने की कोशिशें भी जारी हैं. परमाणु शक्ति-संपन्न तीन बड़े राष्ट्र चीन, भारत और पाकिस्तान, जो वैश्विक राजनीति में गलत सही कारणों के साथ चर्चा में भी बने रहते हैं और कुछ हद तक दखल भी रखते हैं, उनके आपसी सम्बन्ध अत्यंत उलझे हुए एवं अस्पष्ट हैं.

जरा याद कीजिये चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हालिया भारत-दौरे को जब चीनी राष्ट्राध्यक्ष अहमदाबाद में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ झूला झूल रहे थे और चीनी सैनिक भारतीय सीमा में कबड्डी खेलने पर उतारू हो गए. हाल ही में संपन्न हुई १८वीं सार्क शिखर समिट पर गौर कीजिये, जब पूरा विश्व मोदी और शरीफ के हाथ मिलने-मिलाने पर चर्चा कर रहा था, बजाय की इस सम्मलेन की चुनौतियों, योजनाओं पर चर्चा करने के. इस सम्मलेन में भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने पहले के भाषणों की तरह जब लच्छेदार भाषण दिया, दिलों को मिलाने की खूब वकालत की, सार्क देशों की सीमाओं को खोलने की वकालत की तब उस पर टिप्पणी करते हुए मेरे गुरु ने कहा कि पहले जुबां तो खोलें, सीमाएं फिर तो खुलेंगी. उनका मतलब साफ़ था कि भारत को वैश्विक राजनीति की जिम्मेवारियों को समझते हुए बड़ा दिल करना चाहिए था. एक और बात जो बड़ी चर्चा में रही वह नेपाली प्रधानमंत्री का भारत और पाकिस्तान को अपने मतभेद भुलाने का उपदेश देना था. वैश्विक शक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहे शक्तिशाली देश के लिए इससे शुभ लक्षण और क्या हो सकता था भला. कई कार्टूनों में मजाक में यह बात लिखी गयी कि किसी की न सुनने वाले प्रधानमंत्री पर आरोप झूठे हैं, क्योंकि वह काठमांडू की सुनते हैं. खैर, जैसा कि होना था यह सम्मलेन हाथ मिलाने, न मिलाने, पत्रिका पढ़ने की बातों तक सीमित रह गया. इसके बावजूद कि भारत की काबिल विदेश मंत्री यह मानती और कहती हैं कि कूटनीति में कभी फुलस्टॉप नहीं होता. प्रश्न जरूर उठता है कि काबिल विदेश मंत्री की सलाहों की इस तरीके से अनदेखी कैसे हो पा रही है. काठमांडू में हमारा अड़ियल रवैया पूरे विश्व ने देखा. क्या सच में हम इस रास्ते से वैश्विक महाशक्ति का दर्ज पा जायेंगे.

जब सम्मेलनों की चर्चा चल रही है तो ब्रिस्बेन में हुए आर्थिक महाशक्तियों के ग्रुप जी-२० की चर्चा न करना नाइंसाफी होगी. जैसा कि हमेशा होता आया है, बड़े सम्मलेन अपने मूल उद्देश्यों को पूरित करें न करें राजनीतिक उद्देश्य कार्यान्वयन में जरूर लाये जाते हैं. जिस प्रकार काठमांडू में नवाज शरीफ को अलग-थलग करने की कोशिशें हुईं, उसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को अलग थलग करने की कोशिश की गयी. लेकिन सार्क सम्मलेन और जी-२० में हुई राजनीति में एक बारीक फर्क पर आप गौर कीजिये. एक तरफ रूस के राष्ट्रपति को ऑस्ट्रेलिया समेत पश्चिमी देशों ने एक सूर में लताड़ा और कनाडा के प्रधानमंत्री हार्पर ने रूसी राष्ट्रपति को यहाँ तक कह दिया कि 'मैं आपसे हाथ मिलाऊंगा, लेकिन आप यूक्रेन से बाहर निकलिए'. निश्चित रूप से इस राजनीति के पीछे अमेरिका का ही होमवर्क था. दूसरी ओर भारत के प्रधानमंत्री को नेपाल जैसे छोटे राष्ट्र ने उपदेश दे दिया कि उन्हें पाकिस्तानी शरीफ से हाथ मिलाना चाहिए. और पूरे वैश्विक मीडिया में शरीफ के प्रति सहानुभूति गयी तो भारतीय पक्ष का नकारात्मक अड़ियल रवैया ही सामने आया. यही नहीं, किसी सार्क देश ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत का साथ भी नहीं दिया. प्रश्न बड़ी बेरहमी से उठाया जा सकता है कि भारत के किस पडोसी के साथ अच्छे सम्बन्ध हैं? अभी हाल ही में भूटान के राजा जिग्मे खेसर ने बयान दिया था कि भारत में उनका सत्कार ठीक ढंग से नहीं किया गया. वहीं नेपाल में चीन जिस प्रकार से अपनी घुसपैठ बढ़ा रहा है, उसकी काट भारत के पास यथार्थरूप में है नहीं. हाँ! भाषणों में हम चाहे जो कह लें, मुंह ही तो है. श्रीलंका के साथ समुद्री विवाद और चीन से उसकी निकटता हमें लगातार परेशान कर रही है. भारत की या कहें कि मोदी की विदेश-नीति की प्रशंसा करने वाले महानुभावों की बुद्धि पर तरस आता है, क्योंकि वह मैडिसन स्कूवेयर पर बड़ी सभा और मोदी-मोदी के नारों को कूटनीति समझते हैं अथवा वह फिजी के समुद्री तट पर मोदी की इंस्टग्रामी फोटो को दूरगामी नीति का परिणाम मानते हैं या आस्ट्रेलिया में मोदी-एक्सप्रेस चलाने वाली मार्केटिंग को वह देशहित में मानते हैं. माफ़ कीजियेगा, लेकिन यह सारे काम तो बॉलीवुड का हीरो ऋतिक रोशन भी करता है, शाहरुख़ भी नाच गाकर मनोरंजन करता है और भीड़ भी हूटिंग करती है... यो, यो ....!!

More-books-click-hereहमें बड़े ही स्पष्ट रूप से समझना होगा कि अमेरिका के अपने पडोसी देशों के साथ सम्बन्ध बड़े प्रगाढ़ हैं, वह चाहे कनाडा हो, बहामास हो, जमैका, कोस्टा रिका, पनामा, अरूबा या फिर मैक्सिको, बरमूडा ही क्यों न हो. गौर करने वाली बात है कि यदि अमेरिका भी कनाडा के साथ सीमा-विवाद में उलझा होता तो क्या वह वैश्विक ताकत बन पाता. कई देशों ने अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों की परवाह न करते हुए वैश्विक शक्ति बनने की कोशिश की, लेकिन उनकी औकात कुछेक दशकों से ज्यादा नहीं टिक पायी. चाहे वह जर्मनी हो या फिर रूस ही क्यों न हो. चीन भी आगे बढ़ने की कोशिश जरूर कर रहा है, लेकिन वैश्विक राजनीति के जानकार जानते हैं कि उसके अपने पड़ोसियों से तनावपूर्ण सम्बन्ध उसे वैश्विक राजनीति का पुरोधा कभी नहीं बनने देंगे. वह पडोसी चाहे भारत हो, जापान हो या वियतनाम ही क्यों न हो.

स्पष्ट है कि जिस रास्ते पर भारत, चीन, पाकिस्तान इत्यादि राष्ट्र चल रहे हैं, उस रास्ते पर कुछेक दशकों की कौन बात करे, कुछेक सदियों तक की स्थिति भी एशिया के अनुकूल नहीं बन पायेगी. अमेरिकी बड़ी सरलता से एशियाई मूल के लोगों आसमान पर चढ़ाकर कहता है कि २१वीं सदी एशिया की सदी है, ताकि एशियाई मानव-संशाधन उसे अपनी सेवाएं प्रस्तुत करता रहे और एशियाई नेता आपस में भिड़ते रहें. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री एवं महान कूटनीतिज्ञ अटल बिहारी बाजपेयी का कहा यह तथ्य कहावत में ही रह जाए कि मित्र तो बदले जा सकते हैं, लेकिन पडोसी नहीं, इसलिए पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध बेहतर करना जरूरी है. आप भी इन एशियाई नेताओं की तरह खुशफहमी में बने रहिये कि अगली सदी, अगले दशक आप ही के हैं. शायद हम नागरिकों के भी हज़ारों मित्र होंगे, फेसबुक पर तो होंगे ही, लेकिन चूँकि हम एशिया के हैं, इसलिए हम अपने पड़ोसियों को नजरअंदाज कर देते होंगे. ठीक कहा या नहीं, जरूर सोचिये.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

You can change friends but not neighbours, so make strong relations with neighbours. Article in Hindi by Mithilesh on foreigh policy of India, China, Pakistan and Asian countries.

ऑनलाइन मार्केटिंग से कमाई एवं सावधानियां - Earning through Online Marketing and Precautions

by on 01:27

कई मित्रों ने फेसबुक पर, कई ने फोन करके मुझे पूछा कि फेसबुक से कमाई कैसे होगी. आखिर उनका काफी सारा समय इस प्लेटफॉर्म पर यूँही व्यतीत हो जाता है. जो कुछ मैंने उन्हें अलग-अलग बताया, उसको आपके सामने यहाँ रखता हूँ-


१. कंटेंट (Content is king) : यह सिर्फ फेसबुक के लिए नहीं, बल्कि पूरे इंटरनेट व्यवसाय के लिए सत्य है. यदि आप इंटरनेट के किसी भी माध्यम से पैसा कमाना चाहते हैं, तो आपको अपने कंटेंट की प्रस्तुति को वजनदार रखना होगा. ओरिजिनल (original) रहे तो अच्छा, यदि न भी रहे तो उसकी प्रस्तुति(presentation) निश्चित रूप से अलग रहे. इसके साथ आपके कंटेंट में सम्बंधित तस्वीरें, लिंक्स (Links), सूत्रवाक्य (quotes) इसका वजन बढ़ाने के काम आते हैं. अब एक अच्छा कंटेंट, हेडिंग के साथ तैयार करके आप फेसबुक पर डाल सकते हैं. वैसे बेहतर यह रहता है कि यह कंटेंट आप किसी ब्लॉग (Blog) पर डालें और उससे भी बेहतर रहेगा यदि आप किसी सीएमएस वेबसाइट (CMS Website) पर डालकर फेसबुक पर उसका लिंक और परिचय भर दें. फिर अच्छे कंटेंट की चाह में आपकी वेबसाइट पर फेसबुक से ट्रैफिक आ सकता है. अपनी प्रोफाइल के अतिरिक्त आप ग्रुप (fb groups) का सहारा ले सकते हैं, जो एक बड़ा सोर्स है ट्रैफिक डायवर्ट करने का. पेज का पेड प्रमोशन भी कई मामलों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

२. अफिलिएट प्रोग्राम (Affiliate Program): यदि आपने कंटेंट के मामले में समझदारी दिखा दी है तो फिर आगे का रास्ता बहुत मुश्किल नहीं. अधिकाँश लोग यहीं चूक जाते हैं. अगले स्टेप में आपको कुछ सम्बंधित अफिलिएट प्रोग्राम ढूंढने की जरूरत है. इसमें कुछ की लिस्ट मैं नीचे दूंगा. लेकिन अर्निंग के लिए सबसे ज्यादा गूगल एडसेंस इस्तेमाल किया जाता है. और यह सबसे विश्वसनीय होने के साथ-साथ स्पैम-फ्री (Spam-free) भी है. अधिकाँश अफिलिएट प्रोग्राम अविश्वसनीय होने के साथ स्पैम के अड्डे (Spammers) भी हैं, जो आपके पाठक को भ्रमित एवं परेशान करने में कसर नहीं छोड़ते हैं. फिर भी कुछ प्रोग्राम आप और इस्तेमाल कर सकते हैं. अफिलिएट प्रोग्राम में साइनअप करने के बाद अपनी डिटेल भरनी होती है, अपने ब्लॉग/ वेबसाइट के बारे में डिटेल भरनी होती है. गूगल एडसेंस यहाँ बहुत सख्त है, यदि आपका कंटेंट उसकी पॉलिसी के हिसाब से नहीं है तो यह आपके प्रयास को निष्फल कर देगा.(हिंदी को यह सपोर्ट नहीं करता है अभी, लेकिन अकाउंट अप्रूव होने के बाद आप विज्ञापन हिंदी वेबसाइट पर डाल सकते हैं).  अफिलिएट अकाउंट अप्रूव होने के बाद आपको अपने बैंक अकाउंट की जानकारी देनी होती है, फिर एक निश्चित राशि आपके अफिलिएट अकाउंट में जमा होने पर वह राशि आपके बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर दी जाती है.

More-books-click-hereकुछ महत्वपूर्ण अफिलिएट प्रोग्राम हैं:



  1. https://www.google.com/adsense/

  2. https://www.flipkart.com/affiliate/signup

  3. https://affiliate-program.amazon.in/gp/associates/join/landing/main.html

  4. http://www.cj.com/

  5. http://www.affiliatefuture.co.uk/

  6. http://www.paidonresults.com/affiliates-sign-up.html

  7. https://www.apple.com/in/itunes/affiliates/

  8. http://www.omgpm.com/india/


सावधानी (Precautions):



  1. जल्दबाजी करने वाले बहुत जल्दी निराश होकर मैदान से बाहर हो जाते हैं. आपको इस मार्किट को समझने और कुछ कमाई के लेवल तक पहुँचने के लिए 6 महीने से 1 साल तक आराम से लग जाएंगे. वह भी तब जब आप प्रत्येक दिन 2 घंटे से ज्यादा समय देंगे. इसलिए जल्दी है तो यह काम शुरू ही न करें.

  2. कंटेंट कॉपी, पेस्ट करके आप अपनी मेहनत ही जाया करेंगे, इसका कोई फायदा नहीं. न तो आपका पाठक-वर्ग बनेगा, न ही इंटरनेट पर इसे कोई रैंकिंग मिलेगी. बल्कि आपकी वेबसाइट या ब्लॉग की साख ख़राब ही होगी.

  3. थोड़ा बहुत तकनीकि समझ बढ़ाने की कोशिश फायदेमंद रहेगी इस श्रेणी में. जैसे किसी वेबसाइट को मैनेज कैसे किया जाय, ऑनपेज एसईओ क्या होता है, टैग, लेवल, इमेज ऑल्ट टेक्स्ट इत्यादि समझने पर बेहतर परिणाम आएंगे. (Get Knowledge)

  4. कभी इस तरह की ग़लतफ़हमी में न फंसे कि यहाँ क्लिक करने से, वहां क्लिक करने से, मेल करने से आप पैसे कमा लेंगे. (Stay away from spammers)

  5. साथ में कमाने के लिए कहीं भी पेड मेम्बरशिप नहीं लें. कई वेबसाइट इस तरह का झांसा देती हैं कि आप यदि इतने डॉलर की मेम्बरशिप लेंगे तो उतना कमा लेंगे. यह बिलकुल फ्रॉड है, झूठा जाल है आपको फंसाने के लिए.

  6. ट्रैफिक बढ़ाने के लिए आप फेसबुक की तरह के दुसरे सोशल नेटवर्क का भी सावधानी से इस्तेमाल कर सकते हैं. जैसे ट्विटर, स्टंबलउपॉन, गूगल प्लस आदि.

  7. बाकि सीरियस होने पर यदि आपको और जानकारी चाहिए, तो आप मुझे कभी भी संपर्क कर सकते हैं. My email ID is: mithilesh2020@gmail.com; Call at: +91- 9990089080


-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
How to earn through facebook, guide/ information in hindi. Earning through Online Marketing and Precautions.

Precaution on internet market; how to earn on internet

[caption id="" align="alignnone" width="721"]Social Media Consultant Social Media Consultancy[/caption]

Wednesday 26 November 2014

वेबसाइट, ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया, कीमत एवं सावधानियां - Blogging, CMS, Website, Promotion, Price and Support Article in Hindi

by on 14:21


  1. You want to make a Website?




  2. You already own a website, but having a lot of issues, related?




  3. Price Confusion?




  4. Social Media, Blogging, CMS, Static Website Confusion, then this article is for you in Hindi, by Mithilesh.




वेबसाइट क्यों? (वृहत्तर विजिटिंग कार्ड): शुरूआती स्तर पर वेबसाइट को आप एक तरह का विजिटिंग कार्ड मान सकते हैं, जो आपकी अनुपस्थिति में भी आपका या आपके पेशे का वृहद परिचय सामने वाले व्यक्ति को देगा. जब आप किसी से मिलते हैं और उसको अपना विजिटिंग कार्ड देते हैं, तो उसमें आपके बारे में आपका फोन न., मेल और पता होता हैं. यदि उसी कार्ड में आपकी वेबसाइट लिखी हैं तो सम्बंधित व्यक्ति आपके बारे में काफी कुछ जान कर आपसे अवश्य भी प्रभावित हो जायेगा. अपनी वेबसाइट के बारे में आप सामने वाले व्यक्ति को फोन द्वारा एक शब्द में बता सकते हैं.

smo-zmuब्लॉग/ फेसबुक/ ट्विटर एवं वेबसाइट में भिन्नता: सबसे बड़ी भिन्नता इसके प्रोटोकॉल को लेकर है. निश्चित रूप से यह सभी माध्यम बड़े ही उपयोगी हैं, किन्तु सभी के लिए इनकी उपलब्धता समान होने के कारण, आपकी विशिष्टता कायम नहीं रह पाती है. इसके अतिरिक्त आप इन सभी को अपने विजिटिंग कार्ड पर छापने में कठिनाई महसूस करेंगे. मार्केटिंग की दृष्टि से भी यह बहुत उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इन माध्यमों पर (विशेषकर सोशल मीडिया पर) ट्रैफिक बहुत जल्दी आता है और आकर चला भी जाता हैं. बल्कि कई लोग सोशल प्लेटफॉर्म का ट्रैफिक मोड़कर अपनी वेबसाइट पर लाते हैं, जो एक समझदारी भरा निर्णय है. सोशल मीडिया को आप यदि कोई मार्केटप्लेस (सड़क) मान लें, तो वेबसाइट उस मार्केटप्लेस में स्थित आपकी दूकान है, और सामान तो तभी बिकेगा जब ग्राहक आपकी दूकान में आएगा. यदि ऑडिएंस को ग्राहक मान लें तो वेबसाइट आपकी दूकान है, जहाँ ग्राहक आपके सामान देखकर खरीदने को प्रेरित होगा, जबकि बाहर कन्फ़्यूजिंग-स्टेज होती है. इसके अतिरिक्त ब्लॉग या फ्री प्लेटफॉर्म्स में आपको बहुत ही सीमित डिज़ाइन की सुविधा मिलती है, जो निश्चय ही एक आकर्षक एवं इंटरैक्टिव वेबसाइट से बहुत पीछे होती है. परन्तु यदि आप पैसे खर्च नहीं करना चाहते हैं अथवा आप को बहुत ज्यादे प्रचार-प्रसार की आवश्यकता नहीं है, तो बिलकुल शुरूआती स्टेज के लिए ब्लॉग या फ्री प्लेटफॉर्म भी एक अच्छा माध्यम होता है.

profile-zmu-web-servicesडायनामिक, स्टेटिक, सीएमएस (वेबसाइट के प्रकार): स्टेटिक वेबसाइट, एचटीएमएल की साधारण कोडिंग से बनाया जाता है, जिसमें परिवर्तन करना आम-जनमानस के लिए मुश्किल होता है, क्योंकि इसे कोडिंग, डिजायनिंग, एफटीपी की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, जो कि किसी जानकार के लिए ही मुफीद होता है. डायनामिक वेबसाइट यदि कस्टमाइज़्ड (पीएचपी/ एएसपी/ डॉटनेट में) बनी है तो शुरू में काम अच्छा ही चलता है, लेकिन यदि सर्विस देने वाली कंपनी पुरानी और मजबूत नहीं है तो दिक्कत आनी तय है. छोटी कंपनियों अथवा फ्रीलांसरों से कस्टमाइज़्ड डायनामिक वेबसाइट बनवाना अंततः नुक्सान का सौदा साबित होता है, छोटी-छोटी दिक्कतें बहुत इरिटेट करती हैं और आपका काफी समय एवं धन खर्च होता है, फिर भी कमियां रह ही जाती हैं. इसके अलावा यदि आप कंपनी या डेवलपर बीच में या बाद में भी चेंज करते हैं तो आपका पिछला सारा काम बर्बाद ही समझो, क्योंकि हर एक डेवलपर का अपना काम करने का तरीका होता है, जोकि निश्चित रूप से स्टैण्डर्ड नहीं होता है. इसके अतिरिक्त आप यदि सीएमएस (कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम) के साथ जाते हैं तो आपको खर्च, सुविधाएं और ग्लोबल स्टैण्डर्ड साथ में मिलते हैं, और ऊपर स्टेटिक या कस्टमाइज़्ड डायनामिक वेबसाइट की समस्याएं हल हो जाती हैं. यही नहीं, आपको इनके लिए तमाम सपोर्ट बहुत ही आसानी से उपलब्ध हो जाता है. वर्डप्रेस, जुमला, द्रुपल इत्यादि पॉपुलर सीएमएस की श्रेणी में आते हैं.

google-adwords-by-zmu-web-servicesगूगल, एसईओ, एडवर्ड्स, प्रमोशन: मेरे प्रोफेशनल कैरियर के दौरान जिस एक शब्द के बारे में सबसे कन्फ़्यूजिंग क़्वैरी आयी है, वह गूगल सर्च और अपनी वेबसाइट के प्रमोशन को लेकर है. साधारण सर्च इंजिन ऑप्टिमाइजेशन, आप वेबसाइट बनाते समय, कंटेंट भरते समय भी कर सकते हैं, जिसमें टाइटल सही करना, कंटेंट, इमेज की सही जगह प्लेसिंग होती है, वहीं यदि आप गूगल सर्च में टॉप पर दिखना चाहते हैं या आपको किसी ने सपना दिखाया है, तो आपको सावधान हो जाना चाहिए. यह एक उलझाऊ फिल्ड है, खासकर वेबसाइट की शुरुआत करने वालों के लिए. कीवर्ड, डेंसिटी, लिंक-बिल्डिंग का बहुत ही फ्राड कारोबार मार्किट में उपलब्ध है, जिस से कस्टमर बहुत ही दुखी हैं. इसके लिए आपको निश्चय ही बड़े लेवल पर प्लानिंग और खर्च दोनों करना पड़ता है. इससे बेहतर यदि आप गूगल के पेड-एडवरटाइजिंग (एडवर्ड्स) की ओर जाते हैं तो यह कम खर्च में आपको बेहतर परिणाम दे सकता है. मेरे कई ग्राहक फेसबुक पर भी अपने प्रोडक्ट की अनपेड और पेड दोनों माध्यमों से मार्केटिंग कराकर काफी खुश हुए हैं.

पैसे का खर्च और साधारण हिसाब-किताब: वेबसाइट के सन्दर्भ में मार्किट में यह सबसे गन्दा और भ्रम पैदा करने वाला क्षेत्र बन गया है. वेबसाइट बनवाने की इच्छा रखने वाले ग्राहक के मन में निन्यानवे रूपये से लेकर लाखों रूपये का फिगर दिमाग में बना हुआ है और वह इनके बीच अंतर समझ पाने में अधिकांश बार विफल हो जाता है. इसके लिए आपको स्टेप-बाय-स्टेप बताने का प्रयास कर रहा हूँ-

  • डोमेन-रजिस्ट्रेशन: इसके कई प्रकार के एक्सटेन्सन मौजूद हैं. डॉट कॉम, डॉट इन, डॉट नेट ... इत्यादि. साधारण रूप में इसकी कीमत पांच - छः सौ के आस पास domain-name-registration-zmuहोती है. कई कंपनियां अपने डोमेन बेचने के लिए तमाम ऑफर भी देती हैं, जो निन्यानवे रूपये तक का होता है (इस डोमेन के टीवी पर प्रचार को लेकर भी कई ग्राहक कीमत के मामले में कन्फ्यूज हो जाते हैं, जबकि यह शुरूआती स्टेज है). हालाँकि सस्ता डोमेन देने पर इसमें कई बार उस कंपनी का प्रतिबन्ध भी होता है और अगली साल रिन्यूवल पर वह आपसे काफी ज्यादा पैसा चार्ज कर लेती हैं. बिगरॉक, गोडैडी इत्यादि कंपनियां इस क्षेत्र में कार्य कर रही हैं.

  • वेब होस्टिंग/ स्पेस: इसमें भी डोमेन की तरह ही कन्फ्यूज स्टेज है, परन्तु साधारण वेबसाइट के लिए आपको दो हजार रूपये सालाना में बढ़िया शेयर्ड होस्टिंग मिल जाएगी, जिसमें आपको बढ़िया सपोर्ट, बैंडविड्थ और अच्छा भला मेल सर्वर मिल जायेगा. हालाँकि इससे सस्ती भी होस्टिंग देने का दावा करती हैं कंपनियां, लेकिन फिर आपको उनके पीछे दौड़ना पड़ेगा. स्टैण्डर्ड प्राइस की बात करें तो याहू.कॉम की डोमेन-होस्टिंग ३,५०० और बिगरॉक.इन की ३,००० रूपये सालाना है (१ वेबसाइट, शेयर्ड होस्टिंग). तमाम ऑफर इसमें भी समय-समय पर आते रहते हैं.

  • free-quote-for-website-designवेब डिज़ाइनर, डेवलपर को हायर करना: यदि आप रेडीमेड वेबसाइट-बिल्डर की तरफ नहीं जाते हैं तो आपको किसी कंपनी या फ्रीलांसर को हायर करना पड़ेगा. यहाँ आप जरूर देखें कि वह कंपनी अथवा फ्रीलांसर कम से कम चार-पांच सालों से इंडस्ट्री में काम कर रहा है कि नहीं. चेक करने का बढ़िया तरीका उसके द्वारा किये गए काम होते हैं. उसके कुछेक क्लायन्टों से बात करने में आप हिचकिचाएं नहीं. और यहाँ ध्यान रहे कि आप 'सीएमएस' को ही प्रिफर करें. जहाँ तक कीमत की बात है, साधारण वेबसाइट के लिए यह पांच हज़ार से लेकर पचास हज़ार तक हो सकता है. आप वेब डिज़ाइनर का काम, परफेक्शन, उसकी नॉलेज, सपोर्ट की व्यवस्था और पिछले काम का स्तर देखकर उसकी कीमत और दी जा रही सुविधाओं के बारे में कम्पेयर करें. कोशिश करें कि एक से अधिक वेब डिजायनरों को अपने पैमाने पर रखें, इससे आप फीचर-वाइज तुलना कर पाएंगे. हाँ! किसी अन्य व्यवसाय की भांति वेब डिजायनर का व्यवहार-अध्ययन भी भविष्य में आपको काफी सहूलियत दे सकता है.


-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

किसी प्रकार की असुविधा होने पर, मुझे किसी भी समय संपर्क करें. मेरा फोन न. 9990089080 है: और मेरी मेल है: mithilesh2020@gmail.com

Great-CMS-Websites-7-years-experience-delhi-company-wordpress-technologyBlogging, CMS, Website, Promotion, Price and Support Article in Hindi by Mithilesh, havingh 7+ years experience in Website Designing, Development and SEO, SMO and Brand Promotion.

Sunday 23 November 2014

China, Pakistan and Indian Policy

by on 06:35
National Security Advisor Ajit Dobhal China and Pakistan

डोभाल ने कहा कि चीन, पाकिस्तान को आर्थिक तौर पर भारत के प्रति निर्भर करने की आवश्यकता है। अगर देश की विकास दर आठ-नौ फीसद हो जाए तो दुनिया का कोई देश हमारी ओर आंख उठाकर नहीं देख सकता। लेकिन इसके बावजूद हमें सेना को शक्तिशाली करना होगा। ‪#‎NationFirst‬ ‪#‎Security‬ ‪#‎Defence‬ ‪#‎Economy‬

China, Pakistan and Indian Policy mentioning in Hindi

... क्यों आएं युवा आपके पास! Youth and Writers, Article by Mithilesh in Modern age perspective!

by on 00:46
पिछले दिनों देवबंद की साहित्यिक भूमि पर गया. अवसर था महान साहित्यकार, देशभक्त स्व. डॉ. महेन्द्रपाल काम्बोज की पहली पुण्यतिथि का. इस महान विभूति के जीवित रहते सिर्फ एक बार मिलने का अवसर तब मिला जब काम्बोज जी के मित्र डॉ. विनोद बब्बर द्वारा लिखित किताब-विमोचन का समारोह आयोजित हुआ था. आप उस कार्यक्रम में संचालक की भूमिका में थे. एक श्रेष्ठ मंच संचालक, जिसकी दृष्टि सभागार के हर एक कोने से परिचित थी और हर एक कोना भी उनके सञ्चालन निर्देश का मानो इंतज़ार कर रहा था. चमकता हुआ लालाट, सौम्यता, वक्तृत्व-शैली और उनकी सरलता ने एक नजर में मुझे अपने प्रभाव में ले लिया. सच कहूँ, तो उस कुछ घंटे के कार्यक्रम में आधे से ज्यादा समय डॉ.काम्बोज का प्रभामंडल मुझ पर हावी रहा.

खैर, ऐसा कई लोगों के साथ होता है, कई प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व मिलते हैं, बिछड़ते हैं और उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है. संयोग से उनके देहावसान के कुछ महीनों बाद उनके सुपुत्र ने मुझसे संपर्क करके अपने पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व को संरक्षित करने के लिए वेबसाइट बनवाने हेतु मुझसे संपर्क किया तो मेरे सामने उनकी धुंधली पड़ती यादों को सहेजने का अवसर भी मिला. उनकी पहली पुण्यतिथि पर इस वेबसाइट का उद्घाटन उनके मित्रों एवं सम्बन्धियों द्वारा देवबंद में किया गया. लेकिन मुख्य बात इसके बाद की है जो आपसे ज़िक्र करना चाहता हूँ. इस पुण्य-तिथि के लिए डॉ.काम्बोज के परम मित्र और हमारे गुरु डॉ.विनोद बब्बर के अलावा नागरी लिपि परिषद जैसी महत्वपूर्ण संस्था के बड़े विद्वान के साथ मैं भी गाडी में बैठा हुआ था. दिल्ली से देवबंद का रास्ता लगभग ३ घंटे के आस पास है, तो इन ३ घंटों के दौरान कई मुद्दों पर महानुभावों की चर्चा भी सुनने को मिलती रही. युवाओं, उनकी साहित्यिक जागरूकता पर भी कई प्रश्न और उत्तर होते रहे. दिल्ली से देवबंद जाने के दौरान मैं भी युवाओं की साहित्यिक उदासीनता के प्रति थोड़ा निराश था, क्योंकि इससे पहले भी कई लोग इस आसान प्रश्न को उठाते ही रहते हैं.

कई दिनों, महीनों और सालों से इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की कोशिश करता रहा था, लेकिन देवबंद की साहित्यिक धरती पर, स्व. काम्बोज जी की पहली पुण्यतिथि के कार्यक्रम ने इन समस्त सवालों की पोल खोल दी. डॉ.कांबोज जी के तमाम शिष्य, उनके आस पास के युवक थे, जो एक से बढ़कर एक कविताएं कह रहे थे, अपने गुरु के प्रति श्रद्धांजलि दे रहे थे, नम्र थे, सजग से और इन सबसे बढ़कर संवेदनशील थे. सभी के हृदय से यह भाव बारम्बार मुख पर आ रहा था कि उन्हें तो कलम पकड़ने का ढंग भी नहीं था, लेकिन डॉ. काम्बोज ने उन्हें हमेशा प्रेरित किया, आगे बढ़ाया, प्रोत्साहित किया. यहाँ खुद को साहित्य-जगत का पुरोधा समझने वाले, युवकों की उदासीनता की शिकायत करते रहने वाले बड़े साहित्यकारों को दर्पण के सामने खड़ा होने की जरूरत है. यूं भी साहित्य की दो परिभाषाएं सर्वाधिक प्रचलित हैं. पहली 'साहित्य समाज का दर्पण है और दूसरी 'सबको साथ लेकर चलने वाला'. युवकों को नालायक, बदमिजाज, संस्कृतिविहीन और जाने क्या-क्या बताने वाले स्वनामधन्य साहित्यकार अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को इन दो परिभाषाओं की कसौटी पर कसने के लिए तैयार हैं क्या?

कृतित्व से जहाँ समाज में घट रही घटनाओं का विभिन्न विधाओं में, प्रचलित माध्यमों के द्वारा प्रकाशन है, जिससे समाज को सहज रूप से दर्पण की भांति अपनी तस्वीर दिख सके और अपनी कमियों का आंकलन कर वह उसमें सुधार कर सके. एक तरफ अधिकांश साहित्यकारों को यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि समाज में कितनी तेजी से बदलाव आया है, रिश्ते-नातों की परिभाषाएं कहाँ से कहाँ तक पहुँच गयी हैं, तो वह साहित्य के नाम पर अपने कभी के पुराने अनुभव थोपते रहते हैं. जिन साहित्यकारों को थोड़ी बहुत आधुनिक परिप्रेक्ष्य, समाज की समझ भी है, उनके साहित्य में आत्म-प्रवंचना, स्व-दैनन्दिनी अथवा चाटुकारिता का पुट साफ़ झलकता है. क्या यही पढ़ने के लिए, यही समझने के लिए आप युवाओं को अपने पास बुलाना चाहते हैं? इस पैरा की पहली लाइन में मैंने माध्यमों की बात भी की है. बदलते तकनीकि युग में ८० फीसदी से ज्यादा साहित्यकार, उन्हीं पुराने माध्यमों की रट लगाये हुए हैं. उनके लिए वेबसाइट जैसे शब्द अनजान हैं, अधसुने हैं या फिर भ्रमित करने वाले हैं. जबकि युवा पीढ़ी के मामले में यही अनुपात बिलकुल उल्टा है. ८० फीसदी से ज्यादा युवा वेबसाइट के माध्यम से ही संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं. एक बड़ा गैप. अब समझना होगा कि एक ही कविता, एक ही वक्तव्य विभिन्न सभाओं में सुनाने वाले कथित 'साहित्यकारों' का कितना प्रभाव इन युवकों पर पड़ेगा, यह अपने आप समझ में आ जाने वाली बात है.

More-books-click-hereदूसरी बात 'व्यक्तित्व' की न ही करें तो उचित रहेगा. सम्मान के लिए गुटबाजी, थैली (पुड़िया/ नकद) के लिए मारामारी, नाम का लालच, साथी कवियों / लेखकों को हर मौके बेमौके नीचा दिखाना, शिष्य के नाम पर युवाओं/ युवतियों का दैहिक, आर्थिक शोषण करना, अपने परिवार तक को न संभाल पाना (बहुतायत में), शराब और दूसरी तमाम बुराइयों की लत पकड़ लेना इत्यादि ढेरों सुन्दर गुणों का दिव्यदर्शन आपको आज के साहित्यकारों में सुलभता से हो जायेगा. नाम की भूख, पैसे की भूख, पद की भूख .... भूख ही भूख!! यही साहित्यकार का व्यक्तित्व है क्या? इसी के बल पर आप युवाओं को अपने पास बुलाते हैं? अरे आप याद करिये मुंशी प्रेमचंद को, निराला को और आधुनिक जगत में स्व. डॉ. महेंद्र पाल काम्बोज को. उस डॉ.काम्बोज को, जो अपने अंतु-लाखा जैसे खंड-काव्य में ग्रामीण-चरित्रों की बात करते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि उसे पदमश्री, बुकर प्राइज या राष्ट्रपति पुरस्कार मिलेगा या नहीं. गावों को भारत की आत्मा कहा गया है. कोई बताएगा कि भारत की आत्मा पर कितने प्रमाणित ग्रन्थ आ रहे हैं? अथवा पुराने ग्रंथों का नवीनीकरण भी हो रहा है या नहीं? डॉ.काम्बोज ने अपने आस पास के युवकों को प्रेरित किया, क्योंकि वह जानते थे कि वह अब बुजुर्ग हो चुके हैं और आने वाला समय इन्हीं युवाओं का है. नए ज़माने का साहित्य वही दे सकते हैं. उन्हें किसी प्रकार का विशेष 'भ्रम' नहीं था कि वह ही दुनिया को समझ रहे हैं, यह युवक तो मुर्ख हैं, इन्हें क्या पता! अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के माध्यम से उन्होंने साहित्य की दोनों परिभाषाओं को सार्थक किया है. समाज का दर्पण भी आपने प्रस्तुत किया और सबको साथ लेकर भी आप चले. साहित्यिक रूप से उनको सबल बनाया, सिर्फ उन्हें अपने पीछे-पीछे घुमाने वाला 'चेला' नहीं बनाया. इसलिए मरने के बाद भी आपके शिष्यत्व के लिए मेरे जैसे नालायक युवकों की आँखों में आंसू हैं. आपको नमन है 'युगपुरुष'!

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Youth and Writers, articles by Mithilesh in modern age perspective, in Hindi.

Friday 21 November 2014

Islam Musalman Politics in India

by on 06:40
Islam-Musalman-politics-in-India

 

इमाम की इस शाही राजनीति का मूल केंद्र मीडिया है. बुख़ारी उन छवियों का राजनीतिकरण करते हैं जो इस धारणा पर टिकी हैं कि हिन्दुस्तानी मुसलमान एक ऐसा समुदाय है जो जड़ है, पुरातनपंथी है और जिसकी राजनीती पर सिर्फ और सिर्फ उनका क़ब्ज़ा है.
-BBC Hindi (previous status's link)
भारत का मुसलमान, इन ठेकेदारों द्वारा कब तक मुर्ख बनेगा ????

नवाज़ शरीफ़ को दस्तारबंदी में बुलाने से अहमद बुख़ारी का यह कदम, कई हलकों में, हिन्दुस्तानी मुसलमानों को एक बार फिर पाकिस्तान के विचार से जोड़ने के तौर पर देखा जाएगा. उनके वक्तव्य से यह सन्देश भी निकलता लगता है कि जैसे कि आज भी पाकिस्तान, भारतीय मुसलमानों के लिए राजनीतिक प्रेरणा हो...
- BBC Hindi Analysis (Read here: http://goo.gl/A0Wmji)

Islam Musalman Politics in India, Imam, Shahi Imam Bukhari, Imam, Musalman, Islam, Politics, Rajniti, Muslim

अनाथों का नाथ बनें; सीखें बिगड़ैल से... Orphan, Orphanages and Civil Society!

by on 04:34
कई बार लोग, जिन्हें बिगड़ैल, बद्तमीज और ऐसी ही अन्य संज्ञाओं से नवाजते हैं, वह दुनिया को कुछ ऐसी सीख दे जाते हैं, जिसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती. बात इस बार मायानगरी से है. एक तरफ हिंदी फिल्में पूरे विश्व में भारत की एक खास पहचान बना चुकी हैं, वहीं देश में जिन दो चीजों के प्रति, गैर-परंपरागत रूप से सर्वाधिक आकर्षण है, वह निश्चित रूप से क्रिकेट और बॉलीवुड ही है. आज कल के शहरी और देहाती दोनों प्रकार के अधिकांश युवक या तो बड़े क्रिकेटर बनने का सपना देखते हैं अथवा किसी एक्टिंग क्लास में हीरो बनने का प्रयास दिख जाना सामान्य बात है. क्रिकेट में इन युवकों के आदर्श सचिन तेंदुलकर होते हैं, वहीं हीरोगिरी दिखाने के शौकीनों के सलमान खान. जी हाँ! खबर भी इन्हीं साहिबान की है. माचो मैन, मोस्ट एलिजिबल बैचलर, लेडी-किलर, दोस्तों का दोस्त, दुश्मनों का दुश्मन इत्यादि तमाम उपनाम इन्हें इस मायानगरी से मिले हैं. इनके कार्यों में तमाम हिट फिल्मों के अतिरिक्त किसी को भी थप्पड़ लगा देना, महिलाओं की बेइज्जती करना, गैर-कानूनी रूप से काले हिरणों का शिकार करना जैसे तमाम विवाद शामिल रहे हैं. आगे परिचय बढ़ाते हुए इनके बारे, इनकी समझ के बारे में राजनीति के लोग भी लोहा मानते हैं. आम चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी के साथ इनके पतंग उड़ाने को लेकर कड़ा विवाद उत्पन्न हो गया था, लेकिन विवाद और सलमान खान एक दुसरे के पूरक कहे ही जाते हैं, तो इसमें कोई नयी बात है नहीं.

पिछले दिनों से सलमान खान लगातार मीडिया की सुर्खियां बटोर रहे हैं और संयोग से इसका कारण सकारात्मक है. फूटपाथ पर मरी हुई माँ के पास एक छः महीने की बच्ची रो रही थी, जिसे सलमान खान के परिवार ने सहारा दिया. बिना इमोशनल सीन में घुसे आप इस बात पर भी गौर कीजिये कि इस बच्ची को पूरी कानूनी प्रक्रिया के बाद गोद लिया गया और उसके लालन-पालन में सलमान खान ने उसी सोशल स्टेटस को अपनाया, जो शायद उनके अपने परिवार के बच्चों को मिला है. दुनिया ने उनकी शादी की रस्म को देखा ही, समझा ही. इस बारे में अख़बारों में, चैनलों में खूब बातें कही गयीं, सुनीं गयीं, लेकिन कहीं भी इसके मानवीय पहलू पर चर्चा सुनने का अवसर नहीं मिला. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा देखिये कि कुछ लोग इस पूरे प्रकरण की चर्चा भाग्य के रूप में करते मिले कि उस फूटपाथ की लड़की की कितनी सुन्दर किस्मत है कि आज वह लाखों की गाड़ी पर चल रही है, करोड़ों के महलों में रह रही है. पूरी दुनिया की अजब हालत हो गयी है कि वह हर रिश्ते को अर्थ के तराजू में लाकर खड़ा कर देती है. उसके लिए संवेदना का मोल भी चंद सिक्के हो गए हैं. इस अर्थहीन, अंतहीन, निरर्थक, भाग्यवादी और लालची चर्चा ने इस पूरे उदाहरण को बहुत ही गलत तरीके से पेश किया है. नचनिया कह कर बुद्धिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों के बीच अपमानित किया जाने वाला बॉलीवुड और इसके बिगड़ैल कहे जाने वाले सलमान खान ने अपने इस कृत्य से बुद्धिजीवियों के गाल पर करारा तमाचा जड़ा है. थप्पड़ लगाने का अभ्यास तो उनको पहले ही था, लेकिन उनका यह तमाचा पूरे समाज पर पड़ा है. समाज के ठेकेदारों को यह बात समझ लेनी चाहिए.

More-books-click-here२०१३ में आयी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष में २० लाख बच्चे अनाथ हैं. कमोबेश, देश के सरकारी कर्मचारियों की संख्या भी इतनी ही है. राजनेता, अभिनेता, व्यापारी इत्यादि सक्षम लोगों का वर्ग छोड़ भी दें तो यह आंकड़ा शर्मिंदा करने वाला ही है. देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जो सलमान खान की तरह एक-एक हाथ बढ़ाएं तो अनाथ होने का अभिशाप देश से २४ घंटे के भीतर समाप्त हो सकता है. लेकिन नहीं! यह हमारी जिम्मेवारी नहीं है, यह तो सरकार करेगी! किसी 'स्वच्छता-अभियान', 'आदर्श गावं अभियान' की तरह 'अनाथ-अभियान' चलाएगी, फिर सभी ५४३ सांसद एक-एक बच्चे को गोद लेकर फोटो खिंचायेंगे और बाद में उन लड़कों का भी पता नहीं चलेगा. एक और वाकया याद आ रहा है. एक दंपत्ति हैं, ईश्वर ने उन्हें धन-धान्य से परिपूर्ण किया है, लेकिन बिचारे संतानसुख से वंचित हैं वह. कभी उस दंपत्ति के मन में भी किसी को गोद लेने की इच्छा जगी होगी, तो वह अपने से छोटी जाति के गरीब बच्चे को शहर लाये. पढ़ाया लिखाया भी बिचारे को, लेकिन जब वह जवान हुआ तो उसके साथ इसलिए रिश्ता खत्म कर दिया, कि वह उनकी संपत्ति में हिस्सेदार न बन जाए. मतलब साफ़ है, उन्होंने उस बच्चे को कभी अपनाया ही नहीं, बल्कि दूसरी भाषा में कहा जाय तो उन्होंने उसे नौकर ही समझा. यह सिर्फ एक उदाहरण नहीं है, बल्कि आपको गोद लेने के नाम पर ऐसे तमाम वाकये नजर आ जायेंगे, जहाँ हमारा सभ्य समाज इनका शोषण करने में जरा भी कोताही नहीं करता है.

अनाथालय के नाम पर बच्चों से नशीली दवाओं का कारोबार कराना, भीख मांगने के लिए देश के बच्चों को विवश करना, उनके शारीरिक अंगों का व्यापार करना इत्यादि कुकृत्य बेहद आम हैं. शर्म आनी चाहिए, हमें खुद को सभ्य कहते हुए. हमसे अच्छा तो वह बिगड़ैल बच्चा है, जो किसी के भी गाल पर थप्पड़ लगा देता है, लेकिन किसी की आत्मा, जिस पर ज़िन्दगी भर थप्पड़ पड़ते, उसको उसने बचा लिया. एक की ही सही! आपसे भी तो एक की ही जिम्मेवारी लेने की अपेक्षा करता है देश का अनाथ! आप भी तो उसी परमात्मा के अंश हैं न, उसी नाथ की कृपादृष्टि से धनवान बने हैं, बड़े बने हैं, योग्यता हासिल की है, फिर क्या विवशता है इन बेसहारों के सर को छाँव देने में. स्वयं विचार करें !

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Orphan, Orphanages and Civil Society, article by Mithilesh in Hindi, related with Salman and Arpita Khan relations.

Wednesday 19 November 2014

ट्रेन का टाइम ... Train Timing, Social Poem by Mithilesh

by on 04:59
बेटा, आज तो रुक जा
अभी तो आया है, अब जा रहा है
माँ बोलीं
पिछली बार भी तू न रुका था
तब मेरा मन खूब दुखा था

उन्हें लगा, बुरा न लग जाए
बोलीं-
तुझे भी कितना काम है,
एक पल ना आराम है
और फिर बहु भी शहर में अकेली है
पोता बदमाश, पोती अलबेली है

अरे सुन-
उसको भी तो गाँव ले आ
उसकी जड़ों से उसको मिला
उसके दादा उसकी फ़ोटो सहलाते हैं
मिलने को उससे रोज तड़प जाते हैं

कहते हैं-
छोटी बहु भी घर नहीं आयी
मायके से वापसी की टिकट कटवाई
देख न पाया छोटे पोते को
कहते हुए, आँखें डबडबाई

थोड़े अमरुद ले जा,
निम्बू के आचार बहू बना देगी
ये सरसों का शुद्ध तेल है,
पोते की मालिश वह करेगी

सूरज ढल रहा था
मैं माँ को सुन रहा था,
जी किया सुनता जाऊं
लेकिन-
ट्रेन का टाइम हो रहा था।
ट्रेन का टाइम हो रहा था।

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Train Timing, Social Poem by Mithilesh

Sunday 16 November 2014

अति का भला न ... Ati ka Bhala n - Political Article by Mithilesh

by on 20:40
यूं तो प्रत्येक साहित्य में काफी कुछ होता है सीखने को, और जब वह साहित्य कबीर जैसे स्पष्टवादी संत के मुख से प्रस्फुटित हुआ हो, तो फिर क्या कहने! कबीर के दोहे पढ़ने पर प्रतीत होता है कि एक ही दोहे में एक ही बात को दो, तीन या उससे ज्यादा उदाहरण देकर सिद्ध किया गया है. न कोई क्लिष्टता, न कोई गूढ़ शब्द, लेकिन गूढ़तम भावार्थ. उनके एक दोहे को पढ़कर वर्तमान राजनीति के सन्दर्भ में 'अति' शब्द पर विचार करने की इच्छा हुई. पहले उनके दोहे को स्मरण करना उचित होगा, जिसमें कबीरदास बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि-

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।


भारत भूमि की यह खासियत रही है कि यहाँ हर प्रकार के महापुरुषों के दर्शन होते रहते हैं. आप कहेंगे कि महापुरुषों के भी प्रकार होते हैं क्या? जी हाँ! एक सिर्फ नाम के महापुरुष होते हैं, दुसरे प्रकार के वे महापुरुष होते हैं, जिन पर महापुरुषत्व थोपा गया होता है. तीसरे प्रकार के महापुरुष, श्रेष्ठ आत्म-प्रवंचक होते हैं. आज कल एक अन्य प्रकार के महापुरुषों का बड़ा जोर है, जिन्हें 'मार्केटिंग महापुरुष' भी कहा जा सकता है. एक और प्रकार के महापुरुष ध्यान में आते हैं, जिन्हें 'खास महापुरुष' भी कहा जा सकता है और यह किसी विशेष उद्देश्य हेतु निर्मित किये जाते हैं, उसके बाद इनके महापुरुषत्व पर ग्रहण लग जाता है. यह बताना उचित होगा कि उपरोक्त वर्णित 'महापुरुषों' को लोकहित, मर्यादा इत्यादि से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है. वह मर्यादा जिसको निभाकर राम, मर्यादा पुरुषोत्तम बने, वह लोकहित जिसके लिए कृष्ण के मुख से गीता-उद्घोष हुआ और दाधीच जैसे महर्षि ने अपना शरीर बलिदान कर दिया.

मतलब साफ़ है कि आज कल महापुरुष 'ब्रांडिंग' के द्वारा बनाये और बिगाड़े जाते हैं. जी हाँ! और इस कार्य के लिए कई बड़ी मार्केटिंग कंपनियां कतार में खड़ी रहती हैं. वह आपके उठने, बैठने से लेकर चलने, मुलाकात करने की कुछ ऐसी तस्वीरें गढ़ती हैं कि क्या कहने? भारत में २०१४ के आम चुनाव से पहले बड़ी चर्चाएं हुईं कि अमुक पार्टी ने या अमुक नेता ने इस या उस कंपनी को ब्रांडिंग के लिए ५०० करोड़, ५००० करोड़ का ठेका दिया. लेकिन यहाँ फिर कबीरदास की 'अति..." वाली वाणी याद आ जाती है. आधुनिक युग में थोड़ा बहुत तो एडजस्ट हो जाता है, लेकिन 'अति' नुकसानदायक ही होती है, यह लोकसभा के परिणाम से फिर सिद्ध हो गया था. इसी कड़ी में आज के समय में कथित रूप से भारत की विदेशों में छवि चमकाने और डंका बजवाने का बड़ा ज़ोर चल रहा है. कभी-कभी तो लगता है कि कबीरदास की 'अति...' वाली वाणी ऐसी ही परिस्थिति के लिए तो नहीं बनी है. वर्तमान में भारतीय प्रधानमंत्री के लिए विश्वविजयी, अश्वमेघ यज्ञ करने वाला और न जाने क्या-क्या संज्ञाएं प्रयोग में लाई जा रही हैं. कही उनके नाम से ट्रेन चल रही है तो कहीं रेस्टोरेंट खुल रहे हैं. खैर, यह किसी की व्यक्तिगत श्रद्धा भी हो सकती है, मार्केटिंग भी हो सकती है. लेकिन प्रश्न उठता है कि भारत को इन सब गतिविधियों से क्या हासिल होगा? भारतीय जनमानस का जीवन-स्तर किस प्रकार सुधरेगा? ऐसा नहीं है कि सिर्फ वर्तमान में ही ऐसा व्यक्तित्व दिखा है, बल्कि पहले भी ऐसे तमाम व्यक्ति और व्यक्तित्व विश्व-स्तर पर ब्रांडिंग करते रहे हैं. कई लोग इस बात को नकारात्मक कहेंगे, लेकिन एकाध और भारतीय ब्रांडों की चर्चा सामयिक होगी. आपको ब्रांडिंग से सम्बंधित रविंद्रनाथ टैगोर की बात बताता हूँ. बड़े नाम थे, बड़ा व्यक्तित्व था, नोबेल पुरस्कार से सम्मान प्राप्त थे. एक बार वह जापान की किसी यूनिवर्सिटी में बड़ी-बड़ी बातें कह रहे थे, अच्छी बातें, सुन्दर बातें. वहां के एक छात्र ने उठकर सीधे-सीधे पूछा यदि आपके पास इतनी अच्छी बातें हैं, आप का देश इतना महान है तो वहां भूखे-नंगे क्यों हैं? उसे तीसरी दुनिया का देश क्यों माना जाता है? इस बात का जवाब नहीं था इस भारतीय ब्रांड के पास.
स्वामी विवेकानंद का भारतीय समाज में बड़ा योगदान है, लेकिन यह सन्दर्भ उनके उभार के दिनों का है. शिकागो धर्म-सम्मलेन से स्वामीजी विश्वविख्यात हो चुके थे. लेकिन इस प्रश्न ने उनका भी पीछा नहीं छोड़ा, जिसके बात उन्होंने विदेश-प्रवास करना छोड़कर भारत में भूखों को भोजन कराना बेहतर समझा और अपना सम्पूर्ण जीवन गरीबों, पिछड़ों की सेवा में अर्पित कर दिया और कहा 'नर सेवा, नारायण सेवा है'. महात्मा गांधी को भी बड़ा वैश्विक ब्रांड माना जाता है, लेकिन इतिहास को खंगालने पर स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेज उन्हें अपनी उँगलियों पर ही घुमाते रहे. इंग्लैण्ड में हुए गोलमेज सम्मलेन से वह खाली हाथ तो लौटे ही, भारत पाकिस्तान का विभाजन भी उनकी बड़ी भूलों में शामिल था. यह वैश्विक राजनीति चढ़ाकर उतारने में बड़ी सिद्धस्त है. पहले खूब चढ़ाती है, फिर ऐसा गिराती है कि पानी तक नहीं मिलता है. आज़ादी के बाद बड़े भारतीय वैश्विक नेता कहे जाने वाले पंडित नेहरू की चर्चा किये बिना यह सूची अधूरी ही रहेगी. हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे के बाद हमारी अस्मिता की जो दुर्दशा हुई, उससे हम आज तक मुक्त नहीं हो पाये हैं. बड़े-बुजुर्ग भी छोटों को समझाते हुए कहते हैं कि अपने घर को ठीक करो पहले, बाद में बाहर डींगे मारना, और राजनीति का भी यही सिद्धांत है, यह बात वर्तमान में भारतीय नेतृत्व को समझ आ जानी चाहिए.

महंगे कुर्ते, महंगा चश्मा पहनने से भारत की छवि नहीं बदल जाएगी. विश्व के नागरिकों को भारत की स्थिति के बारे में ठीक से पता है, और वह बस परिस्थिति का फायदा उठाने की फिराक में ही हैं. हो-हल्ला करने से बचना चाहिए, यह नादानों का काम है. ढोल पीटने की 'अतिवादिता' कहीं से लाभकारी नहीं है. उद्यम करना चाहिए, लोगों को सशक्त करना चाहिए, इसी में भारतवर्ष की असल गरिमा है. हमारे चेहरे की बजाय हमारा कार्य हमारी पहचान बने, इस बात का प्रयास हो. वर्तमान सरकार का हनीमून पीरियड समाप्त हो चूका है, उसे विदेशी टूर के प्रति आकर्षण पैदा करने से बाज आना चाहिए. साधारण और उद्देश्यपरक यात्रा, लो-प्रोफाइल दिखने वाली यात्रा लाभ पहुंचाती है, यह बात राजनीति और कूटनीति समझने वाले नीतिज्ञ ठीक मानते हैं. यदि नहीं, तो फिर 'अति' का परिणाम भी इस नेतृत्व को समझ लेना चाहिए. 'भूखे-नंगों' का प्रश्न कल भी था, आज भी है. अशिक्षा, स्वास्थ्य-समस्याएं, क्षेत्रीय समस्याएं, आर्थिक समस्याएं, रोजगार हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं, इस पर ध्यान कब आएगा? कुछ लोग कहेंगे कि प्रधानमंत्री बने उन्हें चंद दिनों ही तो हुए हैं. जवाब में कहा जा सकता है कि वह प्रधानमंत्री बेशक आज बने हैं, लेकिन उनकी उम्र ६० से ज्यादा है. क्या वह इस प्रश्न का जवाब देंगे? या छवि चमकाने की अतिवादिता में ही उलझे रहेंगे?

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Ati ka Bhala n bolna, ati ki bhali n chup. ati ka bhala n barasna, ati ki bhali n dhoop... Hindi, Political Article by Mithilesh

संत न छोड़े संतई... Sant Na Chhode Santai, Article by Mithilesh

by on 04:32
कबीर दास का यह प्रसिद्ध दोहा सज्जन व्यक्तियों के दृढ चरित्र की बेहद सुन्दर व्याख्या करता है. यह कहना अनुचित न होगा कि भारत जैसे देश में, जहाँ 'संत' शब्द का प्रयोग बहुधा धार्मिक अर्थों में होता है, वहां यह दोहा अपनी महत्ता खो चुका है. सामान्य जन की बात क्या की जाय. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आने वाली पीढ़ियों को जब कभी आधुनिक संतों की कानूनी कहानी सुनाई जाएगी तो वह 'संत' और 'संतई' के साथ 'गुंडई' शब्दों को समानार्थी ही समझेगा. हाल ही में हरियाणा के कथित संत की चर्चा बड़े जोरों पर है. एक तरफ हाई कोर्ट के आदेश के बाद उन महोदय की गिरफ्तारी के लिए उनके आश्रम में पुलिस, कमांडो व सीआरपीएफ की टुकडिय़ों का जमावड़ा है, रात में ठिठुरती ठंड के बीच श्रद्धालु व पुलिस के जवान अपने मोर्चों पर तैनात हैं, वहीं दूसरी ओर संविधान को चुनौती देते उनके श्रद्धालु मीडिया के माध्यम से प्रशासन को संदेश दे रहे हैं कि अगर प्रशासन चाहे तो संत को वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से आश्रम से ही कोर्ट में पेश किया जा सकता है, लेकिन वे गिरफ़्तारी नहीं देंगे. वाह जी! क्या बात है, एक तो संत और उनकी संतई, ऊपर से उनके संत-प्रवृत्ति के श्रद्धालु. क्या संविधान, क्या कोर्ट, क्या प्रशासन! सभी को धत्ता बताते हुए इन 'संत' नामक महाशय ने कानून के सामने चुनौती पेश कर दी है, और कानून के लम्बे-लम्बे हाथ अँधेरे में तीर चला रहे हैं, समझौते की बाट जोहते फिर रहे हैं.

Maharshi-Dadhichi-Ticketप्रश्न विचारणीय होगा कि भारत जैसे महान देश, जहाँ दाधीच जैसे संत ने अपना शरीर ही लोकहित की खातिर बलिदान कर दिया था, वहां लोकहित को झटकने की परंपरा इन कथित 'संतों' द्वारा महिमामंडित क्यों की जा रही है. बात सिर्फ एक संत की ही नहीं है, बल्कि इस तरह के संतों में अनेक नाम सम्मिलित हैं. ईश्वर को अपना 'दोस्त' बताने वाले एक और संत, जो राजस्थान की जेल में हवा खा रहे हैं, ने भी अपनी गिरफ़्तारी के पहले और बाद में खूब हंगामा करवाया. काले धन के ऊपर शोर मचाने वाले एक और योगाचार्य ने पिछली सरकार के कार्यकाल में बड़ा शोर मचाया, उसके बाद उन संत महोदय एवं उनकी संतई में विश्वास रखने वालों पर आधी रात को सरकारी डंडों का तुषारापात हुआ, और उनको महिलाओं के वेश में निकलना पड़ा. उसके बाद उन्होंने अपनी 'सेना' बनाने का भी संतई वाला विचार प्रकट किया था, जिसकी कड़ी आलोचना होने के बाद वह लोकतान्त्रिक तरीके से अपना विरोध प्रकट करने के लिए राजी हुए. खैर, उन्होंने उसके बाद संघर्ष किया, और कहा जाता है कि उनके प्रयासों का भी नयी सरकार के गठन में योगदान रहा है. एकाध और संतों जिन पर बलात्कार, हत्या के मुकदद्मे हुए, अपने श्रद्धालुओं को भड़काकर गिरफ़्तारी से बचने की भरपूर कोशिश करते रहे हैं, कानून के पालन में सरदर्द बनते रहे हैं.

धर्मभीरु देश में, धर्म के नाम पर व्यापार करने वालों की संख्या भी बहुतायत में मौजूद है. हर एक सम्प्रदाय के नाम पर, विचार के नाम पर इन 'संत' महोदयों की दूकान हर जगह खुली मिल जाएगी. आम जनमानस तो इनके जाल में स्वार्थ की खातिर, डर से, अंधविश्वास से फंस ही जाता है, लेकिन सरकारी अधिकारी, न्यायपालिका से जुड़े लोग, मीडियाकर्मी भी अपने गलत हित साधने की खातिर इनके महिमामंडन में कोई कसर नहीं रखते हैं. कई अफसरों, नेताओं को इन गुंडों, माफ़ कीजियेगा कथित 'संतों' के चरणों में लोट-पोट करते देखा गया है. कभी वोट की खातिर, कभी काला धन सफ़ेद करने की खातिर, कभी विरोधियों को पस्त करने की गरज से. यह एक बहुत बड़ा कारण है कि यह लोग लोकतंत्र और संविधान को अपने आगे कुछ नहीं समझते हैं और एक के बाद एक आपराधिक कृत्य करने से भी गुरेज नहीं करते हैं, यहाँ तक कि न्यायालय की अवमानना भी इनके दायें-बाएं हाथ का खेल होता है. बेहद तार्किक बात है कि जिस वोट की खातिर हरियाणा की सरकार, वर्तमान विवाद के हल में टालमटोल कर रही है, उस ढीलेपन से जनता के मन में कानून की इज़्ज़त दो कौड़ी की हो जाएगी. लेकिन उन रहनुमाओं को इसकी फिक्र कब रही है, जो आज वाह फिक्रमंद होंगे!

प्रश्न सिर्फ कानूनी भी नहीं, बल्कि भारत जैसे धार्मिक देश में जिस प्रकार धर्म की प्रतिष्ठा को यह लोग तार-तार करते जा रहे हैं, वह चिंतनीय और निंदनीय तो है ही, इसके साथ वाह दंडनीय भी है. अभी एक समुदाय के सन्यासी ने अपने फेसबुक प्रोफाइल पर इस बात की गर्व से 'पुष्टि' की है कि "वह समलिंगी (गे) है. आपको सुनने में जरा अजीब लगेगा, किन्तु यह सत्य है. हमारे गुरुवर ने उसकी पोस्ट पर कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि- "सच स्वीकारना अच्छी बात है. लेकिन सबसे पहले संन्यासी के वस्त्र उतारो। अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करो या न करो - भगवे की प्रतिष्ठा धूमिल न करें." कितनी सटीक टिप्पणी है. आज जरूरत इसी बात की है कि समाज इन अपराधियों, गुंडों, नालायकों से खुलकर कहे कि वह अपना धार्मिक चोला उतार दे. आखिर धर्म की आड़ लेकर ही तो यह लोग संतई और गुंडई को मिक्स कर देते हैं. जब तक समाज, प्रशासन इस तरह के कृत्यों के प्रति सख्त नहीं होगा तब तक इस समस्या का दूसरा समाधान हो भी नहीं सकता. इसी प्रक्रिया में कई बार राजनैतिक विरोधी सचमुच के संतों को भी परेशान करते हैं, लेकिन सच्चे संत परेशान होने के बावजूद लोकहित, लोकाचार को हानि पहुँचाने वाले किसी कृत्य को समर्थन नहीं देते हैं, चन्दन की ही भांति अपने शरीर पर सर्प लिपटने के बावजूद वह अपनी शीतलता का त्याग नहीं करते हैं. संत की परिभाषा भी तो यही है-

"संत न छोड़े संतई, कोटिक मिले असंत."


Sant Na Chhode Santai, Article by Mithilesh on Religious leaders in India, in Hindi.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

... नाम जिसका है 'जटायु' - Poem on Jatayu by Mithilesh

by on 01:14
बूढा, निःशब्द घायल,Jatayu-Maharana-Shivdan-Singh
कुछ कर न पाने की बेबशी में आहत सा
पर कट गए, वह गिर गया
उस घाव पर गाढ़ा रुधिर जम गया

क्षत-विक्षत हो गए अंग
पड़ गए शिथिल प्रत्यंग
घुटने झुके, कंधे झुके
पर गर्व से सीना औ माथा तन गया

दुर्नीति से वह ना डरा
सामर्थ्य संग वह भिड़ गया
नारी की रक्षा करने को
वह प्राण अपने तज गया

वह कर्मयोगी, नीति ज्ञानी
धर्म-रक्षक, स्वाभिमानी
बन शूर हो गया युग-युगों तक दीर्घायु
मन में बसाओ, नाम जिसका है 'जटायु'

(महाराणा प्रताप के वंशज, वर्तमान महाराणा शिवदान सिंह जी को समर्पित)
Poem on Jatayu by Mithilesh in Hindi.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Friday 14 November 2014

Safai Abhiyan by PM Narendra Modi

by on 06:49
Safai Abhiyan by PM Narendra Modi

तारकोल की चिकनी और कई फुट मोटी सीमेंटेड सड़कों को साफ़ करते हुए पोज देना, देशवासियों के साथ सफाई-अभियान का भी भद्दा मजाक उड़ाना है।

Safai Abhiyan by PM Narendra Modi

Wednesday 5 November 2014

स्वास्थ्य सेवाओं का वर्तमान स्वरुप एवं स्वच्छता अभियान - Health is Wealth, but... !

by on 20:10
भारतीय संस्कृति में जिन महत्वपूर्ण सुखों की बात की गयी है, उन सभी में स्वास्थ्य को सर्वोपरि माना गया है. हम, आप अक्सर इस वाक्य 'पहला सुख निरोगी काया' को सुनते रहते हैं, पर आपको देश के स्वास्थ्य पर नजर दौड़ाने के बाद इस सूत्रवाक्य के उल्टा चरित्र ही देखने को मिलेगा. व्यक्तियों के स्वास्थ्य की बात करें, नेताओं के स्वास्थ्य की बात करें अथवा पेट फुलाये आध्यात्मिक आरामपरस्त कथित 'संतों' की बात करें या फिर आप प्रशासन की बात ही कर लीजिये, स्वास्थ्य के प्रति हमारी अनदेखी, लापरवाही हमें तीसरी दुनिया का देश साबित करती है. पिछले दिनों अपनी माताजी को देश के सबसे बड़े मेडिकल इंस्टीट्यूट 'एम्स' में ले जाना पड़ा, उनको हृदय विशेषज्ञ के पास ले जाना था. 'एम्स' जैसी बड़ी, कथित रूप से 'विश्वस्तरीय' संस्था के गेट पर पहुँचते ही आपको अव्यवस्था का अंदाजा होना शुरू हो जाएगा. बेतरतीब ट्रैफिक, मुख्य द्वार के बाहर ढेरों रेहड़ी वालों का जमावड़ा, पार्किंग की भारी असुविधा और कम प्रशिक्षित किसी प्राइवेट सिक्युरिटी कंपनी के ठेके पर 'व्यवस्था' सँभालते गार्ड आपको इस संस्थान के विश्वस्तरीय होने का अहसास कतई नहीं दिला पाएंगे. असंवेदनशील लोग, देश में ज्यादा जनसंख्या को इस अव्यवस्था के लिए जिम्मेवार ठहराने में जरा भी देर नहीं लगाएंगे, लेकिन प्रश्न यहाँ उठता है कि पूरे देश में एक-एक गाँव को आदर्श गाँव का बनाने का उपक्रम करने वाले हमारे सांसद और यह व्यवस्था क्या देश भर में एक सरकारी अस्पताल को मॉडल नहीं बना सकती है, जो वास्तव में विश्व-स्तरीय हो. क्या दिल्ली के 'एम्स' जिस पर कई बार हमने नाज करने में कोताही नहीं की है, वहां इस प्रकार की अव्यवस्था देश भर के अस्पतालों की दुर्दशा बताने के लिए पर्याप्त नहीं है. यह तो शुरुआत भर है, आगे हम बढ़ते गए और किसी रेलवे स्टेशन की तरह लम्बी लाइनों में लगे लोग और आपस में कभी-कभी भीड़ रहे नागरिकों पर भी आप दया और झूठी सहानुभूति दिखाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते. व्यवस्था संभाल रहे गार्ड, चूँकि गार्ड प्राइवेट कंपनी के और कम प्रशिक्षित हैं, इसलिए वह कभी गप्पें मारते हैं तो कभी मरीजों और उनके परिजनों में विवाद होने पर यथासंभव निपटाने की कोशिश भी वही करते हैं. यही नहीं, कुछ गार्ड्स को कुछ मरीजों से पैसे लेकर उनको लाइन में आगे लगाकर या उनकी पर्ची आगे भी बढ़ाते हैं, जिससे कई बार विवाद उत्पन्न हो जाता है. खैर, जैसे तैसे सुबह छः बजे से पर्ची कटाने के लिए लाइन में हम भी लगे थे और हमारा नंबर तीन बजे आया, तब तक यहाँ, वहां हम यायावर की भांति भटकते रहे, क्योंकि प्रतीक्षा हाल में घुसते ही आपको कुम्भ मेले की याद आ जाएगी, और ....!!

हमारा नंबर चूँकि 21 था, इसलिए हमसे पहले के 19 लोगों को डॉक्टर साहब देख चुके थे, इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर हमारी दृष्टि टिकी थी कि अचानक डॉक्टर साहब गोल हो गए और आधे घंटे के बाद पधारे. बाद में पता चला कि 'बिचारे' किसी इमरजेंसी केस को देखने 'आपरेशन-थियेटर' में गए थे. फिर आते ही 20 नंबर के मरीज को देखते ही उस पर भड़क उठे, मैं आपरेशन नहीं करूँगा, तुमसे रिपोर्ट मंगाई थी... .!! मरीज तो मरीज, उसके चक्कर में डॉक्टर साहब भी चिड़चिड़े हो गए. खैर, हमारा नंबर आया, हमारी तरफ दृष्टि उठकर उन्होंने एक बार देखा और हमारा कार्ड देखने लगे. हमारी माताजी को पहले से निर्देश था कि वह ब्लड-प्रेसर का चार्ट बनाकर लाएं, वह अपने झोले से वह चार्ट निकाल ही रही थीं कि डॉक्टर साहब उसे देखे बिना बोले कि माताजी का हार्ट कमजोर है, दवा ज़िन्दगी भर चलेगी. माताजी चूँकि साड़ी पहनती हैं, अतः स्टील की थाली वाली, मरीज-कुर्सी से उठकर अपना पल्लू ठीक करने लगीं, तब तक अटेंडेंट ने उनको लगभग धक्का देते हुए बोला कि बाहर निकल कर साड़ी ठीक कीजियेगा, दूसरों को आने दीजिये. दरवाजे के बाहर किसी पुराने सिनेमा की खिड़की जैसा दृश्य था, वह भी ऐसा जैसे 'ब्लैक' में टिकटें बिक रही हों. क्या करता, बचते-बचाते माता जी को बाहर निकालकर घर लाया.
इस बीच सुबह छः बजे के बाद हमें 'एम्स' परिसर को भी देखने का अवसर मिला, जहाँ कुछ एरिया साफ़-सुथरे भी हैं, लेकिन फिर भी जगह-जगह कूड़ा फैले देखना अपने आप में एक दुःखद अनुभव था. कुछ टॉयलेट की हालत इतनी बुरी थी (इस ब्लॉग में फोटो संलग्न हैं), जो किसी चौराहे पर पब्लिक टॉयलेट की याद ताजा कर रही थी. आज जब पूरा देश साफ़-सफाई के अभियान में 'फोटो-खिंचाने' पर जोर दे रहा है, बड़े वैश्विक नेता बन चुके महानुभाव हमारे प्रधानमंत्री हैं, बढ़िया और ईमानदार माने जाने वाले डॉक्टर हमारे स्वास्थ्य मंत्री हैं, ऐसे में दिल्ली जैसे शहर के केंद्र में 'एम्स' जैसे परिसरों की फोटो 'ट्विटर' पर लोग क्यों नहीं अपलोड कर रहे हैं, यह बड़ा अजीब था. दुनिया भर में सफाई का दिखावा करने वाले नेता, अभिनेता, अधिकारी कहाँ हैं. हमारे गुरुवर, जो राष्ट्र-किंकर पत्रिका के यशस्वी संपादक भी हैं, उनका एक लेख है "सफाई अभियान नहीं, बल्कि हमारी आदत होनी चाहिए". इस लेख में दिखावे पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है. गन्दगी के दृश्य को जब मैं अपने कैमरे में कैद कर रहा था तो हमारी बुजुर्ग माताजी ने इस सन्दर्भ में हमसे पूछा, तो मैं आदतन प्रशासन की बुराई करने लगा, तो उन्होंने सबसे पहले मुझे टोका कि तुम फोटो तो खिंच रहे हो, लेकिन तुमने उस गन्दगी पर थूका क्यों? फिर उन्होंने मुझे दिन भर जनता द्वारा फैलाई जा रही गन्दगी की तरफ ध्यान दिलाया. यहाँ तक कि प्रतीक्षालय में कुर्सियों के नीचे बिस्किट के पैकेट, टॉफी के रैपर, संतरे के छिलके पड़े हुए थे (ब्लॉग में फोटो संलग्न हैं). मैं शर्मिंदा था, क्योंकि दूसरों की तरह हम भी तो नागरिक ही हैं.
हमारे देश में, जहाँ 'पहला सुख निरोगी काया' कहा जाता है और जहाँ महात्मा गांधी जैसे वैश्विक नेता ने 'स्वच्छता' को स्वतंत्रता से भी जरूरी बताया है, वहां के तथाकथित सबसे सुदृढ़ मेडिकल इंस्टीट्यूट की इस हालत ने हमारी व्यवस्था की परत-दर-परत उधेड़ डाली. फिर अखबारों में स्वास्थ्य को लेकर तमाम वह आंकड़े सच नजर आने लगे, जिसमें भ्रूण-हत्या, नकली दवाइयों का कारोबार, मनुष्यों के अंगों का अवैध व्यापार, हॉस्पिटल्स के घोटाले, डॉक्टरों की भारी कमी, आपातकाल में मरने वाले मरीजों की भारी संख्या का ज़िक्र होता हैं. फिर वह सारे अभियान भी दिखावा प्रतीत लगने लगे, जिसमें भारत की छवि किसी महंगे 'कुर्ते' की तरह प्रदर्शित किया जाता हैं, लाखों के चश्मे पहनकर देश की जनता को सुखी देखा जाता हैं, नौकरशाहों की चापलूसी में पड़कर देश की खुशहाली का अंदाजा लगाया जाता हैं. जरूरत फिर उसी 'निरोगी काया' के मन्त्र को सार्थक करने की है, और यह किसी फोटो-खिंचाउ अभियान से नहीं होगा, बल्कि इसे हमें अपनी आदत में शुमार करना होगा. यदि देश के भाग्य विधाता और देशवासी इस तथ्य को समझ पाएंगे तो ही हम सफाई, स्वच्छता और स्वास्थ्य के मामले में 'तीसरी दुनिया के देश' की श्रेणी से बाहर निकल पाएंगे और गर्व से उस वैदिक मंत्र को सार्थकता से दुहरा पाएंगे, जो कहता है -

"सर्वे सुखिनः भवन्तु, सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् |"


शुभकामनाओं सहित,
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली. (Article on Health is Wealth by Mithilesh, Real analysis of Medical Services in India)

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Monday 3 November 2014

दादी तुम रहती क्यों दूर ... Bal Kavita by Mithilesh

by on 05:32

दादी - दादी मुझे पढ़ाओ,
ढेरों फिर तुम बात बताओ
खेलो दिन और रात मेरे संग
करूँगा तुमको जी भर के तंग


 

मम्मी सुबह जगाती है,
फिर मुझको नहलाती है,
रोता हूँ मैं जी भर लेकिन
दया उसे नहीं आती है.


 

Buy-Related-Subject-Book-beछोटा हूँ मैं घर में सबसे
बड़ी बड़ी किताबें हैं
करना चाहूँ बात मैं सबसे
ढेरों पास में बातें हैं


 

मम्मी, काकी करतीं काम,
खाना वही बनाती हैं
कंप्यूटर पर करतीं खिट-पिट
टीवी दिखा, सुलाती हैं


 

काका, पापा के आने पर
पास में उनके जाता हूँ
कहते हैं वह थके बहुत हैं
मन मसोस रह जाता हूँ


 

दादी तुम रहती क्यों दूर
समझ नहीं यह पाता हूँ
गर्मी की छुट्टी में ही क्यों
गाँव तुम्हारे आता हूँ.


 

वहां थे आयुष और अनुकल्प
दिल्ली में नहीं कोई विकल्प
साथ रहो या साथ ले चलो
दादी मानो यह संकल्प.


 

शुभकामनाओं सहित,
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली. (Bal Kavita by Mithilesh)

[caption id="attachment_228" align="alignnone" width="960"]Aaryansh-Dadi-Grand-Mother-Smt.-Meera-Devi आर्यांश अपनी दादी के साथ (Aaryansh with His Grandmother Smt. Meera Devi)[/caption]

Sunday 2 November 2014

काला धन, शेषनाग और प्रधान सेवक! - Black Money and Prime Minister Modi

by on 03:25
वह री खूबसूरती! बड़ा सुखद आश्चर्य होता है राजनेताओं की चतुराई देखकर. हंसी आती है जनता की बेबशी पर, और लोकतंत्र का व्यवसाय करने वाले ठेकेदारों पर क्रोध का आना जाना तो लगा ही रहता है. जिस काले धन के मुद्दे को योग ऋषि से लेकर विपक्षी पार्टी के भीष्म पितामह ने जोर शोर से उठाया, उसे लपक कर भारत के प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी पांच साल के लिए सुरक्षित कर ली. इस बात पर लोग खुश भी हुए और होना भी चाहिए, लेकिन प्रधानमंत्री ने रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' में जनता को बड़े ही भारतीय अंदाज में बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की. न सिर्फ बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की बल्कि बेहद खूबसूरती से इस काले धन के मुद्दे को डस्टबिन में भी पहुंचा दिया. जरा उनके शब्दों पर गौर कीजिये- देश के बाहर गया गरीबों का कालाधन वापस जरूर आएगा. आगे बोलते हुए श्री मोदी ने कहा, "जहां तक काले धन का सवाल है, आप मुझ पर भरोसा कीजिये, यह मेरे लिए आर्टिकल ऑफ़ फेथ है, मेरे देशवासियों, भारत के गरीब का पैसा जो बाहर गया वो पाई पाई वापस आएगी." इसके आगे बोलते हुए पीएम ने पूरे मुद्दे पर बेहद खूबसूरती से पानी फेरते हुए कहा कि विदेशों में कितना कालाधन जमा है, इसके बारे में किसी को पता नहीं है. वाह जी! तो यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हीं श्री मोदी ने चुनावों के पहले अपने चुनावी भाषणों में कहा था कि वह काल धन लाएंगे और काले धन की मात्रा इतनी ज्यादा है कि हर भारतीय को घर बैठे १५ - १५ लाख रूपये मिल जायेंगे. लेकिन इस मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने कहा, "आज तक किसी को पता नहीं है, ना मुझे, ना सरकार को, ना आपको कि कितना धन देश के बाहर है. बस समझदार को इशारा ही काफी है, बुद्धिजीवी तो उनके इस इशारे को समझ ही गए होंगे. यहाँ भी इन बड़बोले प्रधानमंत्री की बात रुकी नहीं, बल्कि आगे उन्होंने काले धन की मात्रा निर्धारित करते हुए कहा कि विदेशों में काल धन चाहे ५ रूपये हों, ५ सौ हों, ५ हजार हों या .... !!

modi-with-hatखैर, विपक्षी नेता भी कौन सा मुंह दिखाने लायक हैं. उन्होंने भी प्रधानमंत्री को झूठा करार देते हुए जनता से सार्वजनिक माफ़ी मांगने की वकालत करने में देरी नहीं की. लेकिन इस बीच काले धन के मसले पर जिस प्रकार हो हल्ला मचा है, यह शायद भारत में सबसे चर्चित शब्द बन गया है. यह हो-हल्ला कोई आज नहीं मच रहा है, बल्कि पिछले कई सालों से इसे बेहद बारीकी से सुलगाया गया है. इसके तमाम आंकड़ों पर, काले धनिकों पर खूब चर्चाएं हुईं हैं, सरकारें तक बदल गयीं हैं, यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है इसकी असलियत और इसका उद्गम-स्थल. कोई मुर्ख ही होगा, जो यह दावा करेगा कि काला धन उत्पन्न होने की दशा और दिशा में रंच मात्र भी परिवर्तन आया है. सब कुछ यथावत है. हाँ! काले धन पर हुए तमाम आन्दोलनों, अभियानों में अरबों रूपयों का काला धन जरूर खप गया है, इसकी जांच पर तमाम आयोगों ने खूब लीपा-पोती की है, अखबार के तमाम पेज इस मुद्दे पर खूब रंगे गए हैं, लेकिन मुद्दा जस का तस. वस्तुतः काला धन, बड़े व्यवसाय, भ्रष्टाचार, मनी लांड्रिंग, चुनाव-खर्च, सट्टेबाजी, ब्लैकमेलिंग, लाल-फीताशाही इत्यादि इतने घुले मिले शब्द हैं, जिनके निहितार्थ एक-दुसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं. और इन शब्दों की महिमा तो देखिये कि खुद को देश का प्रधान सेवक कहने वाले, लेकिन अपने ही दल में हिटलर की तरह व्यवहार करने वाले व्यक्ति ने भी आज हार स्वीकार कर ली, कि मुझे भी कुछ नहीं पता. वाह रे काला धन! तेरी महिमा अपरम्पार है. हमारे देश के सुपरमैन सरीखे नेता, जो उत्तराखंड की त्रासदी से कई हजार गुजरातियों को बचा ले जाते हैं, विश्व के सबसे बड़े दादा बराक ओबामा से 'केम छो' बुलवा लेते हैं. अपनी पार्टी के भीष्म को नाक रगड़ने पर मजबूर कर देते हैं, कांग्रेस का पूरे देश से सफाया करने के अभियान को दौड़ा देते हैं, लेकिन तेरे आगे वह भी नतमस्तक हैं. हे काले धन! कहीं तू कालिया नाग तो नहीं है, या फिर शेष नाग, जिस पर सम्पूर्ण पृथ्वी टिकी हुई है. शायद हाँ! तू शेषनाग ही है शायद, और कम से कम भारतीय व्यवस्था तो तुझ पर ही टिकी है, नहीं तो अपने प्रधान सेवक तुझसे भी अपनी सेवा जरूर करा लेते. तेरी सम्पूर्ण महिमा का वर्णन तो मैं नहीं कर सकता, लेकिन तेरी एकाध महिमा का दर्शन मुझे भी हुआ है, उस का वर्णन मैं करने की हिमाकत कर रहा हूँ, बुरा मत मानना. Read Books on "Corruption"
संयोग कहिया या दुर्योग, दिल्ली में अखबार उद्योग से कई वर्षों तक जुड़ा रहा हूँ. अभी भी कई पत्रकार मित्र हैं, जिनसे बात होती रहती है. लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले 'मीडिया उद्योग' की सच्चाई आप सुनेंगे तो आप इस विदेशों में जमा काले धन को एक पल के लिए भूल जायेंगे. एक तरफ अधिकांश छोटे अखबार, छोटे लोगों को पित्त पत्रकारिता के माध्यम से अपना शिकार बनाते हैं, तो दूसरी ओर बड़े मीडिया घराने पूरे देश में टैक्स चोरी का सबसे बड़ा केंद्र बन गए हैं. बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों की मदद करके यह उद्योग काला धन उत्पन्न करने का सबसे बड़ा ज्ञात श्रोत है, और यह बात कोई छिपी बात नहीं है. अधिकांश लोग इस तथ्य से अवगत भी हैं. और सिर्फ मीडिया घराने ही क्यों, तमाम प्रतिष्ठित इवेंट मैनेजर, ढोंगी प्रवचनकर्ता, एनजीओ का रेट काले धन उद्योग से बेहद गहराई से जुड़ा हुआ है. देश के प्रधानमंत्री को बेशक यह hindi-library-books-pustakalay-bookसच्चाइयाँ पता नहीं हों, लेकिन उनके ही गृह राज्य गुजरात के एक बड़े धार्मिक सम्प्रदाय द्वारा काले धन के लेन-देन का खुला खेल किस प्रकार चलता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. उस सम्प्रदाय के मंदिर पूरे विश्व में हैं, और आप उनको यहाँ भारत में दान दीजिये फिर कुछ प्रतिशत काटकर वह रकम आप विदेश में उनकी ही संस्था से ले लीजिये. जो टैक्स सरकार के खाते में जाना चाहिए, उसे इस प्रकार के बड़े मगरमच्छ निगल जाते हैं, इस बात को कौन नहीं जानता है. प्रधानमंत्री जी, आपको सच में पता नहीं है या आप जान समझकर आँखें बंद कर लेना चाहते हैं, यह तो आप ही जानें लेकिन आप यह जान लीजिये कि देश की जिस आम जनता ने आपको अपने सर आँखों पर बिठाया है, वह इतनी मुर्ख भी नहीं है. आज कई उद्योगपतियों के कार्यक्रमों में आप जाते हैं और वह बड़ी सहजता से, तस्वीरों में, आपकी गरिमा के खिलाफ आपकी पीठ पर हाथ रख देते हैं, वह देश की असली टैक्सपेयर नहीं है. टैक्सपेयर तो वह जनता है, जिन्हें यह सभी उद्योगपति 'कंज्यूमर' कह कर इंसान होने का हक़ छीन लेते हैं. साबुन, तेल, आटा, चावल, सब्जी, पेट्रोल सहित रोजमर्रा की चीजों पर भरी टैक्स लगाकर देश की तिजोरी भरती है, और उस तिजोरी के दम पर ही देश चलता है. यह बड़े लोग तो सिर्फ काले धन जमा करते हैं. बेशक आप न मानें, लेकिन आप जानते जरूर हैं. यह ठीक है कि राजनीति की तमाम मजबूरियाँ होती हैं, लेकिन इस भ्रष्टाचार की जड़ को सुखाने के लिए आपने कुछ भी तो नहीं किया है अब तक. एक व्यक्ति पर हाथ नहीं डाला, एक व्यक्ति जेल में नहीं गया, एक रूपया तक नहीं आया. टैक्स चोरी की एक ठोस कवायद नहीं हुई, फिर किस मुंह से आप खुद को जनता का प्रधान सेवक कहते हैं, यह आपको स्वयं सोचना चाहिए. हाँ! जनता का ध्यान भटकाने में आपका कोई जवाब नहीं, कभी सफाई के नाम पर तो कभी काले धन के नाम पर. हे जननायक! आप यह भी तो सोचिये कि गंदगी फैलती क्यों है, काला धन उत्पन्न कैसे होता है? क्यों उत्पन्न होता है. कुछ तो कीजिये! अब तक जो हुआ सो हुआ, अब काला धन न बने, भ्रष्टाचार न हो, उसको तो रोकने की कवायद शुरू कीजिये, नहीं तो हमारे गुरुवर कहते हैं कि इतिहास के किसी कूड़ेदान में जाने के लिए अपनी मनः स्थिति भी तैयार कर लीजिये. फिर छोड़ दीजिये, जननायक का तमगा, जनसेवक का तमगा और गर्व से कहिये कि आप भी 'उनकी' ही भांति शासक हैं, नेता हैं. वही नेता, जिनके मुंह भी देशवासी सुबह उठकर देखना पसंद नहीं करते हैं. आप समझ रहे हैं न!

(लेखक को अपने विचारों से जरूर अवगत कराएं)

शुभकामनाओं सहित,
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Saturday 1 November 2014

भारतीय समाज की कथित 'आधुनिकता' एवं कामकाजी महिलाएं - Modern India and Working Women

by on 12:12
कुछ ही दिनों पहले की बात है, जब विश्व की सबसे बड़ी आई टी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ से किसी ने प्रश्न किया कि योग्यता में बराबर होने के बावजूद महिलाओं के मेहनताने उनके पुरुष समकक्षों से कमतर क्यों हैं? संयोग से यह सीईओ साहब भारतीय मूल के ही हैं, और भारतीय मूल के व्यक्ति शास्त्रों को बड़े मनोयोग से पढ़ते हैं. तो उन महाशय ने तपाक से जवाब दिया कि महिलाएं कर्म करें और सेलरी की चिंता छोड़ दें! प्रतिक्रिया स्वरुप बवाल होना ही था, और हंगामा इतना हुआ कि इन महाशय को सार्वजनिक माफ़ी तक मांगनी पड़ी. खैर! यह तो एक बात हुई, लेकिन इस हंगामे ने मुझे महिलाओं की स्थिति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया, विशेषकर आज के भारतीय परिदृश्य में. चूँकि हमारा देश पुरातनपंथी और रूढ़िवादी रहा है, यहाँ महिलाओं को लेकर अनेक आंदोलन चले हैं, उनके अधिकारों के लिए, उनके सम्मान के लिए हर स्तर पर कार्य भी हुए हैं, लेकिन फिर भी महिला अधिकारों के सन्दर्भ में हमारे देश को निचले पायदान पर ही रखा जाता है. हालाँकि, देश की आज़ादी को लेकर हम प्लेटिनम जुबली मनाने को तैयार हैं, लेकिन महिलाओं की दशा पर चिंतन करने का समय हमारे पास कम है. यह स्थिति तब है, जब देश विदेश में जिन भारतीयों ने झंडे गाड़े हैं, उनमें महिलाओं की संख्या कहीं से कमतर नहीं है. चाहे कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, किरण बेदी, मैरीकॉम जैसी एक क्षेत्र में बुलंदी छूने वाली महिला प्रतिभाओं की बात करें या इंदिरा नूयी, चंदा कोचर, सावित्री जिंदल जैसी व्यवसायी महिलाओं की बात करें या फिर राजनीति के क्षेत्र में सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी जैसी हस्तियों की बात कर लें, यह सूची बढ़ती ही जाती है. यदि कुछ नहीं बढ़ता है तो वह हमारे देश की सामान्य महिलाओं का जीवन स्तर. यदि कुछ नहीं बदलता है तो वह है हमारे समाज की वही रूढ़िवादी सोच, जो औरतों को माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ की तरह काम करने भर का अधिकार देते हैं. उन जैसों की नजर में वह अपने अधिकारों को मांग नहीं सकती हैं, उन पर विचार नहीं कर सकती हैं अथवा उसके लिए लड़ाई नहीं लड़ सकती हैं.

एक नजर में देखने पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति में पहले की अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है, अब वह उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, नौकरियां कर रही हैं, आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बन रही हैं. लेकिन बारीकी से देखने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह सफलता प्रतीकात्मक स्तर पर ही है, और जो कुछ प्रतीकात्मक भी है, उसके लिए भी उन महिलाओं को कई जगह भारी कीमत तक चुकानी पड़ रही है. प्रश्न यहाँ उठता है और उठना भी चाहिए कि आखिर हमारा समाज और समाज के कथित पढ़े-लिखे लोग, कामकाजी महिलाओं को प्रोत्साहित क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या हमारी सामाजिक संरचना अभी तक इस वैश्विक बदलाव को स्वीकार नहीं कर पायी है? क्या इस नकारात्मक परिदृश्य में महिलाओं की भी भूमिका है? यदि हाँ! तो क्या और उसका समरस हल क्या है?

Buy-Related-Subject-Bookहालाँकि इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने से पहले हमें अपनी सामाजिक संरचना की मूलभूत बातों पर पुनर्दृष्टि जरूर डालनी होगी, क्योंकि हजारों सालों की सोच को कुछ दशकों में बदल पाना निश्चय ही कठिन अवधारणा है. स्त्रियों को अब तक पति की सेवा करने और बच्चों को सँभालने की मशीन ही समझा जाता रहा है, और सिर्फ मशीन ही नहीं, बल्कि उसे अधिकारविहीन भी समझा जाता रहा है. हालाँकि, समय के साथ यह सोच इतनी जरूर बदली है कि अब हमारा संविधान और समाज दोनों स्त्रियों को अधिकारयुक्त मानने लगा है. अब हर घर की लडकियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं. नौकरी करने का प्रयत्न भी करती हैं, लेकिन उसके बाद .... .... !!!

सारी समस्या उसके बाद उत्पन्न होनी शुरू हो जाती है. रूढ़िवादी और अतिवादी स्वभाव वालों की हम बात नहीं करते, क्योंकि उनकी संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है और उनके विचार भी विकासशील हो रहे हैं. हम बात करते हैं आधुनिक और पढ़ी लिखी जमात की. शादी के बाद सन्तानोत्पत्ती होते ही नौकरीपेशा महिला को अपनी नौकरी का बलिदान करना ही पड़ता है. भारत में ऐसा ९० फीसदी मामलों में होता है, शेष दस फीसदी मामलों में दम्पत्तियों के बीच तनाव की स्थिति बन जाती है. शुरुआत में कुछ लोग जरूर डे-बोर्डिंग / क्रेच को प्राथमिकता देने की सोचते हैं, लेकिन भारत में यह संस्कृति पनप ही नहीं पायी है, और शायद उस रूप में विस्तारित होगी भी नहीं. क्योंकि भारत में बच्चों को न सिर्फ उस परिवार का बल्कि देश का भविष्य तक कहा और माना जाता है. अब यह सोचने वाली बात है कि भारत जैसे भावना - प्रधान देश में बच्चों का लालन-पालन किसी नौकर या प्रोफेशनल के हाथ में कैसे दिया जा सकता है. यह ठीक है कि बच्चों के निर्माण की सर्वाधिक सफल और प्रमाणित प्रक्रिया हमारे देश की संयुक्त परिवार व्यवस्था रही है, लेकिन इस संस्था के लगातार टूटन ने हमारे देश की औरतों पर सबसे ज्यादा कहर ढाया है.

आधुनिकता और अर्थ के साथ स्वाभिमान की कुछ ऐसी मजबूरी है कि देश में पढ़ी लिखी महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं, लेकिन नौकरी करते ही उन्हें अपना परिवार, अपने बच्चों का भविष्य, संस्कार और रिश्ते तार-तार होते नजर आते हैं. जिद्द करके यदि वह शुरूआती कुछ दिनों तक नौकरी करती भी है तो उसे घर के दुसरे कामों के अतिरिक्त बच्चों के पालन का अतिरिक्त दबाव सहन करना पड़ता है. इस दबाव के फलस्वरूप डिप्रेशन समेत अनेक बीमारियां कम उम्र में ही महिलाओं को जकड लेती हैं. यदि फिर भी जैसे-तैसे, अपनों का विरोध करके, लड़ कर वह अपनी जॉब जारी भी रखती है तो कुछ सालों के बाद पता लगता है कि उसका बच्चा उस से काफी दूर चला गया है. टीवी, कंप्यूटर से लगाव के कारण वह मशीन बन गया है, तो माँ के समय न दे पाने के कारण वह इंसानी भावनाओं और संवेदनाओं से भी वंचित रह गया है. आखिर कोई स्त्री कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाय, लेकिन भारतीय माताओं और विदेशी मदर्स में इतना अंतर तो रहेगा ही कि उसे अपने पुत्र से सबसे ज्यादा लगाव होगा, किसी डे बोर्डिंग अथवा क्रेच से अधिक.

इन परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर, औरतों के लिए नौकरी कर पाना काफी मुश्किल हो जाता है. इस के साथ यह बताना मुनासिब होगा कि समाज के साथ, पुरुषों के साथ औरतों की सोच भी कामकाजी नहीं हो पायी है. मैं व्यक्तिगत रूप से कई ऐसी पढ़ी लिखी महिलाओं को जानता हूँ, जिनका अपना घरेलु व्यवसाय है, वह आसानी से अपने पति का हाथ बंटा सकती हैं, जिस से उनका घर भी बचा रहेगा और वह कामकाजी भी बनी रह पाएंगी, लेकिन उन पर बाहर काम करने का, स्वच्छंदता का भूत जाने क्यों सवार रहता है? मतलब यदि वह काम करेंगी तो कहीं बाहर, नहीं तो वह घर बैठकर टीवी और किट्टी में समय ही निकलेंगी. हालाँकि बदली हुई परिस्थिति में यह सबसे सुगम हल है कि पढ़ी लिखी औरतें स्व-उद्योगों के सहारे अपने व्यक्तित्व को निखारें, अपने पति के या घरेलु व्यवसाय में अपनी आर्थिक सम्पन्नता का रास्ता ढूंढने का प्रयत्न करें. यदि हम एक Maa-Mother-Bharat-Maaक्षेत्र की ही बात करें तो, आज के समय में जब सूचना प्रौद्योगिकी में भारत अपने झंडे गाड़ रहा है, तो इसको लेकर तमाम स्वरोजगार की संभावनाएं भी उत्पन्न हुई हैं. घर बैठकर छोटे रोजगार के अवसरों जैसे- टाइपिंग, डेटा एंट्री से लेकर व्यापक अवसरों जैसे- बिजनेस कंसल्टिंग, बड़े प्रोजेक्ट्स की कोडिंग तक का काम घर बैठकर ही किया जा सकता है. कई बड़ी कंपनियां घर बैठकर फ्रीलांस करने की सुविधा देती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि सूचना प्रोद्योगिकी में ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे पढ़ी लिखी लडकियां घर बैठकर एक कंप्यूटर के सहारे कर नहीं सकती हैं. यदि काम करने में कोई समस्या आती है तो यूट्यूब, गूगल जैसी सुविधाओं से बेहद आसानी से वह स्टेप-बाई-स्टेप सीख सकती हैं. इसके अतिरिक्त, जिस सॉफ्टवेयर में दिक्कत आती है, वह सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी हर वक्त तैयार रहती है सपोर्ट देने के लिए. पर मुझे बड़ा अजीब लगता है, जब अपने समकक्ष कई लड़कियों को बहाने बनाकर काम से भागते देखता हूँ. शायद, वह भी उसी सोच की शिकार हैं जिसमें पैसा कमाने के लिए पति होता है और वह बच्चे सँभालने की खानापूर्ति करने के लिए. खानापूर्ति शब्द इसलिए मुझे इस्तेमाल करना पड़ रहा है क्योंकि आज कल की लड़की घरेलु हो या कामकाजी, बच्चे को टीवी के सहारे ही छोड़ देती हैं, या स्कूल अथवा ट्यूशन के सहारे छोड़कर खुश हो लेते हैं. हालाँकि यहाँ, पुरुष-वर्ग को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती, क्योंकि एकल परिवार में उनके पास अपनी बीवी के साथ वीकेंड पर मूवी देखने का समय जरूर होता है, लेकिन अपने छोटे बच्चे के साथ शाम को पार्क में घूमना उन्हें समय की बर्बादी लगता है. काश! संयुक्त परिवार में यह युवा रहते और उनके माँ-बाप उनके कान खींचते रहते. उनको थोड़ा बुरा जरूर लगता, थोड़ा कष्ट भी होता, लेकिन खुद उनका भविष्य और उनकी अगली पीढ़ी का भविष्य अपेक्षाकृत अच्छा बनता.
ईमानदारी से देखा जाए तो आज के भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति बेहद उलझी हुई नजर आती है. कई बार इसके लिए समाज की सोच जिम्मेवार होती है तो कई बार खुद महिलाओं की मानसिकता इसका कारण होती है. लेकिन भारतीय समाज का विस्तृत चिंतन करने पर इसके दो हल नजर आते हैं, जिसको परिमार्जित किया जा सकता है. ऊपर की पंक्तियों में संयुक्त परिवार और स्व-रोजगार का वर्णन इसी भारतीय संवेदना को ध्यान में रखकर किया गया है. उम्मीद है, समाज के साथ प्रत्येक व्यक्ति इस समस्या को विकराल बनने से पहले व्यक्तिगत रुचि लेकर इस समस्या पर अध्ययन करेगा एवं इसका बहुआयामी हल देने का प्रयत्न करेगा. इन्हीं शब्दों के साथ, आप से विदा लेते हुए आपकी प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन की उम्मीद करता हूँ.

शुभकामनाओं सहित,
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Modern India and Working Women, Article by Mithilesh.

 

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