Monday 29 June 2015

समाजवादी कार्यकर्ताओं की ज़मीनी राजनीति

by on 07:32
उत्तर प्रदेश का नाम कानून व्यवस्था के लिहाज से हमेशा ही 'अति' प्रशंसनीय रहा है. गुंडा, गुंडई, दादागिरी जैसे शब्द उत्तर प्रदेश की जनता के लिए आम शब्द जैसे प्रतीत होते हैं. हालाँकि, राजनीति में गुंडा फैक्टर इस्तेमाल करना भारतीय राजनेताओं के लिए कोई नई बात नहीं है, किंतु अन्य जगह यह बहुधा ऊपरी स्तर पर ही होता है, जिससे आम जनता को कोई विशेष मतलब नहीं होता है. परंतु उत्तर प्रदेश के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता कुछ ज्यादे ही समाजवादी किस्म के हैं, इसलिए बड़े और छोटे में भेद नहीं करते, बल्कि सबको समान रूप से दुखी किया करते हैं. यह बात सिर्फ हम ही नहीं कह रहे हैं, बल्कि तमाम आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. इसी अपराध को लेकर अमिताभ बच्चन ने एक बार समाजवादी पार्टी के लिए विज्ञापन किया था कि 'यूपी में है दम, क्योंकि जुर्म यहाँ हैं कम'! इस विज्ञापन को लेकर जैसी छीछालेदर अमिताभ बच्चन की मची, उसे वह आज तक नहीं भूले होंगे. उस चुनाव में समाजवादी पार्टी बुरी तरह से परास्त हुई थी. यह अलग बात है कि जातिवादी तिकड़मों और बेहतर विकल्प होने के अभाव में समाजवादी पार्टी ने सत्ता हासिल की, जिसमें युावा अखिलेश यादव का चुनाव प्रचार भी शामिल था. हालाँकि, सपा की जीत पर विश्लेषकों को आश्चर्यमिश्रित दुःख अवश्य हुआ होगा. अपराध की पुष्टि यूं तो कई एजेंसियां करती रही हैं, किन्तु यदि खुद पार्टी का प्रमुख नेता ही यदि अपनी ही पार्टी के नेताओं को गुंडा और जनता को परेशान करने वाला कहे तो ऐसी स्थिति को 'जनता को मुर्ख बनाने' की कला के अतिरिक्त और क्या कहा जाय. विदेशी पढाई कर लौटे और बड़ी उम्मीदों के साथ उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठे अखिलेश यादव कई सालों के बाद अगर यही अनुभव जुटा पाये हैं कि उनकी पार्टी के नेता गुंडे हैं और ज़मीन कब्ज़ा करने के साथ थाने की राजनीति में बड़ी दिलचस्पी लेते हैं, तो इसे उनकी नादानी समझी जाय अथवा इक्कीसवी सदी में जनता को नादान समझने की सोच! जी हाँ! उत्तर प्रदेश का यह अनुभव तो अधिकांश बाशिंदों को था ही, लेकिन इसकी सार्वजानिक स्वीकारोक्ति, वह भी एक कार्यरत मुख्यमंत्री के मुंह से, हमारी व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है. याद दिलाना उचित होता कि यह वही अखिलेश यादव हैं, जिन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय की खुलेआम आलोचना की थी, जिसमें माननीय कोर्ट ने जनता के पैसे से नेताओं को अपना धुआंधार विज्ञापन करने पर सख्ती से निर्देश जारी किये थे. तब कड़ी टिप्पणी करते हुए उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री ने कहा था कि 'सुप्रीम कोर्ट हमें यह भी बता दे कि हमारा पहनावा क्या हो'! सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था के निर्णयों पर बारीक निगाह रखने वाले और उसका विरोध करने का साहस रखने वाले अखिलेश यादव, भला अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यवहार से अनजान कैसे बने रहे? या फिर यदि उनको इसके बारे में जानकारी थी तो उन्होंने इसे नियंत्रित करने के लिए क्या कदम उठाये? इससे भी आगे बढ़कर कहा जाय तो अब जब उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की असलियत पता चल गयी है तो वह इन्हें अनुशासित करने के लिए अब भी क्या कदम उठाने वाले हैं? यदि इन्हें नियंत्रित करने के लिए मुख्यमंत्री ठोस कदम नहीं उठाते हैं तो भला यह कैसे समझा जाय कि उनकी बातों में गंभीरता है और वह वास्तव में उत्तर प्रदेश में कानून का राज स्थापित करना चाहते हैं. वैसे यह पूरी बात अखिलेश यादव ने आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ में कही है. ऐसे में उनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को अनुशासित सिर्फ चुनाव तक ही करना चाहते हैं, फिर अगले चुनावों तक गुंडई करने की खुली छूट दे देंगे! वैसे, जिस प्रदेश में पत्रकारों पर घोर अत्याचार हो रहे हों, ज़िंदा जलने की घटनाएं सामने आ रही हों और खुद अखिलेश सरकार के मंत्री इसमें फंसे हों, तो भला ऐसे एकाध बयान देने के अतिरिक्त वह कर भी क्या सकते हैं. आखिर, अपनी झेंप भी तो मिटानी है. यह गुण निश्चित रूप से उन्होंने अपने पिता एवं चतुर राजनेता मुलायम सिंह यादव से हासिल किये होंगे. वह भी अपने कार्यकर्ताओं की बद्तमीजियों को सार्वजनिक रूप से डांट देते हैं, जबकि बाद में वह यह कहने से भी गुरेज नहीं करते हैं कि 'बच्चों से जवानी में गलतियां' हो जाती हैं.'  सिर्फ मुलायम सिंह यादव ही क्यों, उनकी पार्टी का इतिहास भी मायावती के 'झूला फ़ाड़ कांड' के रास्ते से होकर गुजरा है और प्रदेश के तमाम बाहुबलियों की शरण स्थली बना रहा है. ऐसे में अखिलेश यादव का यह कहना बेमानी ही है कि उनकी पार्टी पर दूसरों की तुलना में ज्यादा जिम्मेदारी है. अब कार्यकर्ता थाने की राजनीति छोड़ दें. अब सपाईयो को ज्यादा पढऩे-लिखने की भी जरूरत है, जिससे कि गांव से लेकर शहर के कोने तक समाजवादी सिद्धांत जनता तक पहुंच सकें. हमको सत्ता में शीर्ष पर रहने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है. आखिर, अब समाजवादी कार्यकर्त्ता कितनी मेहनत करें भला! रात दिन मेहनत कर करके इन्होंने पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में अपना नाम कमाया है. समाजवादी सिद्धांत को गाँव गाँव तक ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाया है. आखिर, पत्रकारों के जलने से लेकर, जमींन कब्जाने और थाने की राजनीति करने की स्वीकृति खुद मुख्यमंत्री ने ही कर ली है. ऐसे में उत्तर प्रदेश में कानून के राज पर भला किसे शक हो सकता है. आज 21वीं शदी, जब दुनिया चाँद को लांघकर मंगल और उससे आगे जाने के मंसूबे बाँध रही है, ऐसे में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, अदद कानून के राज के लिए तरसें, यह शर्मनाक विषय है. अखिलेश यादव ने जिस 'थाने की राजनीति' का ज़िक्र किया है, उसमें आम जनता ही पिसती है और उसे दलाली के रूपयों से लेकर पक्षपात तक का शिकार बनने पर मजबूर किया जाता है. ज़रा मुख्यमंत्री के बयान 'थाने की राजनीति' और पुलिस पर एक पत्रकार द्वारा खुद को मंत्री के दबाव में जलाये जाने वाले आरोप पर गौर कीजिये, आपको बहुत कुछ समानता नजर आ जाएगी. जांच रिपोर्ट चाहे जो भी कहे, किन्तु मुख्यमंत्री के उदगार बहुत कुछ बताने के लिए अपने आप में पर्याप्त हैं. निराशा की बात यह है कि आने वाले सालों में भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कानून का राज कैसे स्थापित हो इसकी दिशा दिख नहीं रही है, ऐसे में जातिवादी दंश को झेलना उत्तर प्रदेश की जनता की मजबूरी बने रहने की सम्भावना ज्यादा दिखती है. हाँ! यदि जनता खुद चेते और जातिवादी राजनीति को ठोकर मार कर किनारे करे और योग्यता के आधार पर चुनावों में वोट करे तो तस्वीर अवश्य ही बदलेगी! पर यक्ष प्रश्न यही है कि क्या वाकई में जनता यह सोचेगी? 
samajwadi party politics in up and crime graph in state, hindi article by mithilesh

Saturday 27 June 2015

... सवालों की आबरू न रखिये !!

by on 07:21
तेरे हज़ार जवाबों से अच्छी मेरी ख़ामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली. यह एक शेर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के सवालों के बाद कहा था. यूपीए से 10 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह का देश की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के रास्ते पर ले जाने में बड़ा हाथ माना जाता रहा है, किन्तु इस सहित उनके दुसरे छिटपुट योगदानों से भी बढ़कर राजनीति की दुनिया में उनके द्वारा दिया गया अनोखा योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गया, जिसे विश्लेषकों द्वारा 'मौन' अथवा 'खामोश राजनीति' की संज्ञा दी गयी. उनकी ख़ामोशी के ऊपर अनेक चुटकुले बने तो घाघ नेताओं ने उनकी इस राजनीति को अपने लिए प्रेरणा मानने में भी देरी नहीं की. इस ख़ामोशी का आरोप अब देश के प्रखर वक्ताओं में शुमार वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लगा है. देश के राष्ट्रवादी विचारकों में शुमार के. एन. गोविंदाचार्य ने नरेंद्र मोदी को, हालिया समस्याओं पर इसी चुप्पी के लिए निशाने पर लिया है. गोविंदाचार्य ने ललित मोदी विवाद पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर चुटकी लेते हुए कहा कि लगता है कि प्रधानमंत्री अब चुप रहना सीख रहे हैं. मंत्रियों के इस्तीफे पर गोविंदाचार्य ने आगे कहा कि यह मसला ऐसा है, जिसमें प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों से इस्तीफा मांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़नी चाहिए बल्कि ये इस्तीफे खुद ही नैतिकता के आधार पर होने चाहिए. हालाँकि, नैतिकता के बारे में प्रश्न उठाना और राजनीतिक नेतृत्व से उसकी उम्मीद करना, आज के समय में अपने आप में एक बड़ा आश्चर्य है. वैसे, नैतिकता के आधार पर इस्तीफा न देने वालीं भाजपा की दो बड़ी नेत्रियों ने मानवता के पक्ष में बातें जरूर की हैं. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि उन्होंने मानवता के आधार पर ललित मोदी की मदद की, वहीं वसुंधरा राजे की ओर से भी बयान आ चुका है कि उन्होंने भी मानवता के नाते ही ललित मोदी के लिए एफिडेविट पर हस्ताक्षर किये थे, क्योंकि ललित मोदी की पत्नी मीनल राजस्थान की मुख्यमंत्री की दोस्त रही हैं. अब यदि मानवीय मूल्यों के इतने बड़े पैरोकारों से गोविंदाचार्य जैसे नेता नैतिकता के आधार पर इस्तीफा मांग रहे हैं तो यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि मानवता और नैतिकता मिलते-जुलते गुण माने जा सकते हैं. हालाँकि, ग्रामर के हिसाब से दोनों अलग हैं, लेकिन जो मानवता को धारण करेगा, वह भला नैतिकता को कैसे त्याग सकता है? वैसे भी, भारतवर्ष को देवभूमि का दर्जा दिया जाता रहा है और यदि देवभूमि पर मानवता और नैतिकता की बात नहीं होगी, तो मानवता बचेगी कैसे? एक व्यंग्यकार ने चुटकी ली कि कलियुग में इतनी मानवता भला पचेगी कैसे? खैर, यह तो एक समस्या हुई, किन्तु हमारे देश के प्रधानमंत्री के सामने कई समस्याएं एक साथ आ खड़ी हुई हैं. ललितगेट को छोड़ भी दें तो महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे के ऊपर गंभीर घोटाले के आरोप सामने आ रहे हैं. वैसे, कुछ ख़बरों में इसे भाजपा की आतंरिक राजनीति से भी प्रेरित बताया जा रहा है, जिसमें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस का नाम भी घसीटा जा रहा है. इस मामले में भी विपक्ष हमलावर रूख अपना रहा है और साथ ही साथ प्रधानमंत्री की मौन राजनीति भी जारी है. वैसे, यह उम्मीद करना कि हर छोटी बड़ी बात पर प्रधानमंत्री अपनी सफाई पेश करेंगे, थोड़ी अतिवादिता ही है, किन्तु इन दो बड़े विवादों पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा रहा है. हाँ! टीवी चैनलों पर जरूर कुछ भाजपा नेता अपनी सफाई प्रस्तुत करते दिख रहे हैं, लेकिन उनका कद मुद्दे के हिसाब से उपयुक्त नहीं है. सवाल इन दोनों मुद्दों का ही नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार, चुनी हुई दिल्ली सरकार के साथ भी विभिन्न मुद्दों पर लगातार उलझ रही है. अब इसके लिए चाहे जो सफाई पेश की जाय, किन्तु इसमें तालमेल की कमी तो है ही और केंद्र अपनी जिम्मेवारियों से भला कैसे बच सकता है. इन राजनीतिक मुद्दों को एक पल के लिए किनारे भी रख दें तो गोविंदाचार्य का वह कथन भी गौर करने लायक है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 'कई लोगों में यह मैसेज जा रहा है कि सरकार में टीम भावना कमजोर हो रही है. संस्थाओं को कमज़ोर किया जा रहा है. सरकार में बैठे लोग सीएजी का मखौल उड़ा रहे हैं और लोकपाल पर ढिलाई बरती जा रही है.' अब इन आरोपों में सच्चाई कितनी है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा किन्तु सरकार को यह समझना ही पड़ेगा कि लोकतंत्र में संवाद और विश्वास दोनो बेहद जरूरी हैं. सम्मान और संवाद प्रत्येक पक्ष से होना आवश्यक है और बिना इसके सरकार में जनता का भरोसा लगातार कम होता चला जायेगा, जो निश्चित रूप से लोकतंत्र के हित में नहीं माना जा सकता. हालाँकि, मोदी सरकार के पिछले एक साल के कामकाज पर ध्यान दिया जाय तो सरकार सरपट दौड़ती नजर आ रही है. विदेश नीति से लेकर, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट, बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट, जन-धन योजना, मेक इन इंडिया जैसी अनेक दूरदर्शी योजनाएं पेश की गयी हैं, और आगे भी डिजिटल इण्डिया समेत अनेक प्रोजेक्ट पेश होने हैं. इन नीतियों और कार्यों को लेकर अनेक वैश्विक संस्थानों ने भी मोदी सरकार में अपना विश्वास व्यक्त किया है. ऐसी स्थिति में यह बेहद आवश्यक है कि अपने कार्यकाल के पहले बड़े राजनीतिक संकट में नरेंद्र मोदी सामने आएं और अपना मौन तोड़ें. ऐसा भी नहीं है कि वह मात्र आरोपों के दम पर अपनी योग्य टीम पर अविश्वास करें और उनका इस्तीफा मांग लें, किन्तु जनता में अपना भरोसा कायम रखने के लिए उन्हें ठोस कदम तो उठाने ही होंगे. इन ठोस कदमों का प्रारूप क्या हो, यह तय करने में प्रधानमंत्री अपने आप में सक्षम हैं और अपनी सक्षमता उन्होंने अनेक अवसरों पर साबित भी की है. उम्मीद की जानी चाहिए कि ख़ामोशी के आरोपों को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री राजनीतिक आरोप- प्रत्यारोपों पर जनता के साथ सीधा संवाद करके नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण का उदाहरण पेश करेंगे, क्योंकि जनता तो सिर्फ नरेंद्र मोदी को जानती है, शायद इसीलिए उनकी ख़ामोशी पर इतना शोर-शराबा मच रहा है. बिडम्बना यह है कि ललित मोदी प्रकरण और पंकजा मुंडे प्रकरण पर शोर मचाने वाली कांग्रेस का दामन खुद ही संदेह के घेरे में हैं. ललित मोदी एक सामान्य बिजनेसमैन से क्रिकेट के बड़े व्यक्तित्व कांग्रेसी शासनकाल में ही बने और शशि थरूर की कोच्चि टीम का विवाद भी कांग्रेसी शासनकाल का ही नतीजा था. इसके अतिरिक्त पंकजा मुंडे के जिस टेंडर पर सवाल उठाया जा रहा है, शुरूआती खबरों में वह टेंडर भी कांग्रेस के ही नेता को मिला है. इसके अतिरिक्त खुद ललित मोदी ने प्रियंका गांधी और रोबर्ट वाड्रा से मिलने की बात ट्वीट की है, जिसे हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है. पिछली तमाम गलतियों से सीख लेते हुए जनता प्रधानमंत्री से यदि इतनी उम्मीद कर रही है कि भ्रष्टाचार के प्रत्येक मुद्दे पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई जाय, तो उसकी मांग नाजायज नहीं है. आखिर, देश के प्रधान चौकीदार होने की कसम नरेंद्र मोदी ने हर सभा में खाई है. 


Public needs action on corruption blame on bjp leaders, hindi article by mithilesh

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Thursday 25 June 2015

स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का क्रियान्वयन हो स्मार्ट

by on 21:45
नयी केंद्रीय सरकार की दूरदर्शी योजनाओं में एक और मील का पत्थर शामिल हो गया है. प्रधानमंत्री के अति महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट के रूप में दर्ज 'स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट' को निश्चित रूप से एक दूरदर्शी प्रोजेक्ट के रूप में देखा जा सकता है. गाँवों से पलायन करते लोगों की संख्या जिस प्रकार बड़े शहरों में बढ़ती जा रही है, उसने मेट्रो शहरों के इंफ्रास्ट्रक्चर को तहस-नहस करने की सीमा तक पहुंचा दिया है, ऐसे में इस योजना की आवश्यकता पर प्रश्न चिन्ह नहीं उठाया जा सकता. इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि काश इस योजना का जन्म 20 साल पहले हुआ होता, तो भारत का बुनियादी विकास अब तक बेहद मजबूत स्थिति में खड़ा होता. जिस तेजी से मात्र एक साल पूरा होने तक, प्रधानमंत्री ने 100 स्मार्ट सिटी, 500 अमृत शहर और 2022 तक 2 करोड़ घरों को बनाने का खाका तैयार कर लिया है, उसके लिए प्रधानमंत्री के साथ शहरी विकास मंत्रालय और उसके मंत्री भी बधाई के पात्र हैं. इस प्रोजेक्ट से अनेक क्षेत्रों को बृहद स्तर पर फायदा मिलने की उम्मीद जताई जा रही है. उद्योग मंडल पीएचडी चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज ने एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि बैंकों ने अपने फंसे कर्ज (एनपीए) को कम करने के लिये बड़ी संख्या में अटकी पड़ी परियोजनाओं का रास्ता साफ करने के लिये कमर कस ली है, इससे सड़क एवं परिवहन क्षेत्र को विशेष लाभ होने की उम्मीद है. गौरतलब है कि कोष तथा इक्विटी की कमी के कारण पिछले वित्त वर्ष में 3,500 किलोमीटर सड़क निर्माण के लक्ष्य से संबद्ध 33 सड़क परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ सकी थीं. सड़कों से आगे बढ़ते हैं तो 500 शहरों में शहरी सुधार और पुनरुद्धार के लिए अटल मिशन शुरू करने की घोषणा प्रधानमंत्री ने की है, जिसमें तक़रीबन पांच साल में 50,000 करोड़ रु.खर्च होंगे. कमजोर बुनियादी ढांचों के शिकार शहरों के लिए अमृत योजना, वास्तव में अमृत साबित हो सकती है, अगर इसमें राज्य सरकारों का मजबूत सहयोग मिला तो. आम जनमानस कि दृष्टि से देखें तो, वर्ष 2022 तक देश में सबको आवास उपलब्ध कराना सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनौती है. इस योजना पर सात साल में 3 लाख करोड़ रु. खर्च होने की बात कही गयी है, जिस पर बिचैलियों की भी निगाह जमी होगी. आवास योजना के तहत शहरों में झुग्गियों में रहने वालों एवं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 2 करोड़ अफॉर्डेबल हाउस बनाने का लक्ष्य रखा गया है, जो एक बड़ा लक्ष्य कहा जा सकता है. योजना की घोषणा के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेहद साफ़ दृष्टिकोण से अपनी बात रखी, जिससे योजना के प्रति उनकी गंभीरता का बोध होता है. इस पूरी योजना में, उनके भाषण का जो हिस्सा सबसे ज्यादा असरदार लगा, वह निश्चित रूप से भू-माफियाओं और बिल्डरों की छवि पर बात करना था. प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा कि गरीबों के पूरे जीवन भर की कमाई से कई प्रॉपर्टी डीलर खिलवाड़ कर जाते हैं, जबकि बड़े बिल्डर, तमाम प्रोजेक्ट की घोषणा तो कर देते हैं, लेकिन बुनियादी सुविधाएं डेवेलप करने की जरा भी ज़हमत नहीं उठाते. प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही है कि शहर की प्लानिंग यही बिल्डर्स तय कर देते हैं, जबकि इसकी प्लानिंग लोकल अथॉरिटीज की जिम्मेवारी होती है. तमाम सकारात्मक, नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देने के बाद प्रधानमंत्री की यह योजना मध्यवर्गीय शहरियों के जीवन स्तर में जबरदस्त उछाल ला सकती है, किन्तु मुख्य समस्या इसके कार्यान्वयन की है. हालाँकि, इसके कार्यान्वयन की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं की गयी है, पर यह तय है कि बिना पारदर्शी एक्जीक्यूशन के अधिकांश पैसा दलालों और बिचौलियों की जेब में चला जायेगा, और आम जनता को स्मार्ट सिटी के बजाय 'जर्जर सिटी' से ही संतोष करना पड़ेगा. समस्या इसी भ्रष्टाचारी लॉबिंग से निबटने की है, साथ ही साथ उन राज्य सरकारों से तालमेल इन प्रोजेक्ट्स की सफलता में अहम रोल निभाएगा, जिनमें भाजपा के अतिरिक्त दुसरे दलों की सरकारें हैं. शहरों के सौंदर्यीकरण के प्रयास पहले भी हुए हैं, किन्तु जिस प्रकार थोड़ी-बहुत अवैध कब्जे पर सीलिंग और तोड़फोड़ से ही राजनैतिक तूफ़ान खड़ा हो जाया करता है, उस हालत में इस प्रोजेक्ट के सफलतापूर्वक इम्प्लीमेंटेशन पर सवाल उठना लाजमी हो जाता है. देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होने ही हैं, ऐसे में मोदी सरकार के साथ सम्बंधित प्रदेश सरकार, वगैर वोट बैंक की परवाह किये, इन योजनाओं को और इन क्षेत्रों के साथ 'स्मार्ट- विलेज' की परिकल्पना की जाती तो देश की चालीस प्रतिशत ही नहीं, वरन 100 फीसदी आबादी को खुशहाल देखने का सपना साकार हो सकता था. अब तक अनदेखा रहे कृषि-क्षेत्र और कुटीर उद्योग क्षेत्र के स्मार्ट बने बिना आखिर, सम्पूर्ण भारत 'स्मार्ट' कैसे हो सकता है. लेकिन, इसके लिए यह तर्क भी दिया जा सकता है कि कार्य और योजनाएं एक-एक करके ही आगे बढ़ सकती हैं, जो कि उचित भी है. इसी में योजनाओं की सकारात्मकता भी होती है और वगैर किन्तु-परन्तु के पूरा होने की उम्मीद भी, क्योंकि एक-एक करके ही योजनाओं का स्मार्ट-क्रियान्वयन किया जा सकता है और स्मार्ट सिटी योजना के रूप में एक बड़ी योजना को कसौटी पर कसने का समय शुरू हो चूका है.

सख्ती से किस प्रकार लागू करती है, यह बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. हालाँकि, इस दूरदर्शी योजना को लागू करने की इच्छाशक्ति रखने वाले प्रधानमंत्री की फाइल में निश्चित तौर पर इन समस्याओं का उल्लेख होगा और हल निकलने की जद्दोजहद भी चल ही रही होगी. प्रत्येक शहरी और शहर में आने वाले लोग इन योजनाओं को लेकर बेहद आशान्वित हैं और उम्मीद यही की जानी चाहिए कि पहले के तमाम कार्यक्रमों की तरह यह योजना फुस्स नहीं होगी, बल्कि अपना लक्ष्य अवश्य ही प्राप्त करेगी. इसके अतिरिक्त इस योजना में यदि इस बात का भी प्रावधान होता कि शहरों की ओर पलायन करने वाले लोगों की संख्या में कमी आये, तो सोने पर सुहागा वाली बात होती. मतलब, यदि कृषि-क्षेत्र और कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन की रणनीति तय की जाती


Smart city projects needs smart execution also, hindi article by mithilesh2020

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Wednesday 24 June 2015

'ब्रेन डेड' का अर्थ आगे भी है...

by on 09:03
भाजपा की नयी सरकार के कई फैसले चर्चा में रहे हैं, किन्तु जिस प्रकार नरेंद्र मोदी ने बुजुर्ग नेताओं को किनारे लगाया, उसने देश में
एक नए सिरे से चर्चा छेड़ दी. कई वरिष्ठों के बाद इस पार पार्टी के सीनियर नेता रहे यशवंत सिन्हा ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को नजरअंदाज करने के लिए प्रधानमंत्री पर जबरदस्त तरीके से निशाना साधते हुए कहा कि 'जिन लोगों की उम्र 75 साल ज्यादा है, 26 मई 2014 को उन्हें ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया, जिनमें खुद पूर्व वित्त मंत्री भी शामिल हैं.' सिन्हा ने ये टिप्पणियां मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कीं. इससे पूर्व शत्रुघ्न सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी, लाल कृष्ण आडवाणी इत्यादि वरिष्ठ अपनी नाराजगी जता चुके हैं, लेकिन उनकी नाराजगी अप्रत्यक्ष रूप से ज्यादा थी. मोदी सरकार पर बुजुर्गों की अनदेखी करने और उनको 'ब्रेन डेड' करने की हद तक अनदेखा करने का आरोप लगाने वाले सिन्हा और उन जैसे वरिष्ठों का दर्द आसानी से समझा जा सकता है. आखिर, सत्ता और ताकत का मोह है ही ऐसा कि छुड़ाए नहीं छुटता है. सवाल यह है कि क्या वाकई नरेंद्र मोदी का यह फैसला इतना गलत है, कि उन पर इस हद तक आरोप चस्पा किये जाएँ. हिंदुत्व और परंपरा की सोच पर चलने वाली पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्षस्थ नेता क्या वाकई अपने बुजुर्गों का सम्मान करना भूल चूका है? क्या उसकी नजर में वरिष्ठों के अनुभव की कोई कीमत नहीं रह गयी है?  इस प्रश्न पर  चर्चा करने से पहले उम्र और जीवन के बारे चर्चित उन चार आश्रमों को उद्धृत करना उचित होगा जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के नाम से हिन्दू दर्शन में विख्यात हैं. कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे भारतीय बुजुर्ग इन सिद्धांतों को परे रखकर अपनी अगली पीढ़ी से सिर्फ श्रवण कुमार, रामचन्द्र या एकलव्य जैसी अपेक्षा पाल लेते हैं, जो वगैर किन्तु - परन्तु के उनके आदेश को शिरोधार्य करे और वन में चला जाय या अपना अंगूठा काट कर चरणों में डाल दे. पाठकों को यह बात जरा कड़वी लग सकती है, किन्तु पश्चिमी देशों के विकास और भारत के पिछड़ेपन के अनेक कारणों में यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है. इसका मतलब यह भी नहीं कि पश्चिमी नंगेपन का समर्थन किया जाय, बल्कि इसके बजाय नयी और पुरानी पीढ़ी में तालमेल करने का रास्ता, भारतीय संस्कृति के दायरे में ही ढूंढने की आवश्यकता है. थोड़ा और स्पष्ट किया जाय तो यह रास्ता हिन्दू दर्शन में वर्णित उपरोक्त चार आश्रमों में ही निहित दिख जाएगा. यह कोई पुरातन युग की बात भी नहीं कही जा रही है, बल्कि आज के युग में भी भारतीय मानसिकता इस सोच से निकल नहीं पायी है. सिर्फ राजनीति ही क्यों, आप परिवार जैसी प्रथम सामाजिक ईकाई में देख लीजिये. जिस घर में बुजुर्ग का हुक्म चलता है, उसके बेटे बेशक बाप बन चुके हों, लेकिन वह घर के फैसलों में अपने बाप के आगे कुछ भी बोल नहीं सकते. चूँकि यह सतयुग या त्रेतायुग तो है नहीं, इसलिए कई लड़के इस तालमेल की कमी से बागी हो जाते हैं और बुजुर्गों से तनाव पाल बैठते हैं जो कई बार अत्याचार में भी परिणित हो जाता है. इसके साथ यदि अनुभवी और ज्ञानी बुजुर्ग तालमेल और परिवर्तन के सिद्धांत पर ध्यान दें तो समस्या सुलझती
नजर आ जाएगी. गीता के सिद्धांत में भी परिवर्तन की महत्ता को स्पष्टतः रेखांकित किया गया है कि पेड़ की पुरानी पत्तियां गिरेंगी, तो नई पत्तियां आएँगी. ठीक वैसे ही, वरिष्ठ अपनी जगह खाली करेंगे तो युवा जिम्मेवारी निभाने को तत्पर होंगे, अन्यथा अगली पीढ़ी का नेतृत्वविहीन अथवा असंवेदनशील होना तय है. परिवार के साथ साथ राजनीति और जीवन के दुसरे क्षेत्रों में भी यह परिवर्तन का सिद्धांत लागू होता ही है. मोदी सरकार पर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी का आरोप लगाने वालों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि यदि नवगठित 'आयुष मंत्रालय' के मंत्री मुरली मनोहर जोशी होते, तो क्या मोदी उसी अंदाज में उनको निर्देश दे सकते थे, जिस प्रकार उन्होंने श्रीपद नाइक को निर्देशित किया और 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' के अवसर पर पूरे विश्व में एक विशाल कार्यक्रम का आयोजन हुआ. यदि शहरी विकास मंत्रालय के मंत्री वेंकैया नायडू की जगह लाल कृष्ण आडवाणी होते तो क्या 'स्मार्ट सिटी' पर प्रधानमंत्री की योजना परवान चढ़ पाती. सवाल यहाँ सिर्फ वरिष्ठता का ही नहीं है, बल्कि ताकत के संतुलन का भी है. जो राजनेता या बुजुर्ग अपने उभार के दिनों में ताकत के शीर्ष पर हों, वह भला अपने जूनियर के अंडर में संतुलित ढंग से कार्य किस प्रकार कर सकता है. इसी कड़ी में सन्यास के तहत आधुनिक युग में वन या वृद्धाश्रम भेजने की बात भी समाज के साथ घोर अन्याय ही है, किन्तु अति सक्रियता और सत्ता का मोह छोड़ देने की उम्मीद बुजुर्गों से की ही जानी चाहिए. इस कसौटी पर यदि नरेंद्र मोदी ने 75 से ज्यादे उम्र के राजनेताओं को मंत्रिपद नहीं दिया है तो उनकी आलोचना भला कहाँ से उचित है, क्योंकि उन्हें सिर्फ अगले चार पांच साल ही नहीं, बल्कि इससे ज्यादे समय की प्लानिंग करनी है. उनके द्वारा घोषित प्रोग्राम इस ओर इशारा भी करते हैं. आखिर, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी जैसे प्रोजेक्ट कुछ सालों में तो परवान चढ़ने वाले हैं नहीं, ऐसे में लम्बी दौड़ के कई राजनीतिक घोड़ों की आवश्यकता देश को है. ऐसा भी नहीं है कि मंत्री नहीं बने तो शत्रुघ्न सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी, लाल कृष्ण आडवाणी या यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का कैरियर समाप्त हो गया. यदि वह सक्रीय ही रहना चाहते हैं तो बजाय अपनी खुन्नस निकालने वाले बयान देने के वह किसी सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व कर सकते हैं, कोई राजनीतिक अकादमी खोल सकते हैं, कोई पुस्तक लिखकर देश के सामने मौजूद समस्याओं का हल प्रस्तुत कर सकते हैं अथवा सरकार को सकारात्मक सलाह ही दे सकते हैं. इसके कई उदाहरण भी सामने ही पड़े हैं, जैसे भाजपा से ही निष्काषित नेता के.एन.गोविंदाचार्य विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में अपनी सक्रियता रखते ही हैं. सुब्रमण्यम स्वामी जैसे नेता मंत्री नहीं बने हैं तो क्या उनके पोल खोल वाले प्रोग्राम बंद हो गए हैं. अब कोई बुजुर्ग मुख्य धारा की सत्ता पर अपना हक़ कब्र में लटकने तक जताता रहे तो उसे निश्चित रूप से सन्यास धर्म को याद दिलाना आवश्यक हो जाता है. यही प्रकृति का नियम है और इसका सामना सिर्फ भाजपा के वरिष्ठ नेता ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ी भी इसी समस्या से ग्रस्त रहेगी, इसलिए जरूरी है कि वर्तमान पीढ़ी की सोच कम से कम सन्यास धर्म की महत्ता को समझकर बदलाव की प्रक्रिया को आत्मसात करे. इसके अभाव में वर्तमान में असंतुलन होगा तो भविष्य को कुंठित होने से बचाया नहीं जा सकता है.



article on brain dead statement of senior bjp leader yashwant sinha in hindi

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Tuesday 23 June 2015

विकास और जातीय राजनीति के दोराहे पर बिहार

by on 08:02
बिहार विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बज चुकी है और तमाम राजनीतिक दलों ने कमर भी कस ली है. जब हम बिहार की राजनीति पर दृष्टिपात करते हैं तो क्या आम और क्या ख़ास, प्रत्येक आदमी सरकार बनाने और बिगाड़ने की बात सीना ठोक के कहता हुए, चाय और पान की दूकान के साथ बस, ट्रेन, ऑफिस या फूटपाथ हर जगह मिल जाता है. कहा तो यह भी जाता है कि यहाँ का बच्चा बच्चा राजनीति की एबीसीडी समझता है. पिछले दशकों में इस राजनीतिक जागरूकता का फायदा भी हुआ है, खासकर देश में आपातकाल लगाए जाने के समय जिस प्रकार का नेतृत्व बिहार ने पूरे देश को दिया, उसके लिए इस धरती को नमन किया जाना चाहिए. इसके उल्टा यह तर्क भी उतना ही सच है कि कालांतर में राजनीति की इतनी अधिकता होने लगी कि दुसरे सारे काम मसलन उद्योग-धंधे, शासन-प्रशासन इत्यादि ठप्प पड़ते चले गए. स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि यहाँ के लोग थोक के भाव, रोजी रोजगार के लिए बाहर निकलने को मजबूर हो गए. पश्चिम बंगाल, असम, पंजाब, दक्षिण भारत, दिल्ली इत्यादि क्षेत्रों में अपनी जन्मभूमि को छोड़कर निकलना निश्चित रूप से बिहारी लोगों के एक बड़े वर्ग को गहरे तक कचोट गया होगा. पर उनके सामने तत्कालीन 'जंगलराज' में लौट पाना मुमकिन भी कहाँ था. पिछले दिनों स्थिति इतनी ख़राब हो गयी थी कि अपहरण, फिरौती, गुंडई इत्यादि के लिए बिहार वैश्विक स्तर पर कुख्यात हो गया था. जनता के थोड़ा चेतने पर, स्थिति में कुछ सुधार होना शुरू ही हुआ था कि कमबख्त राजनीति ने फिर कुलबुलाना शुरू किया और उसके शिकार बने सुशासन बाबू के नाम से मशहूर नीतीश कुमार. दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि बिहार फिर से सुशासन की पटरी से उतरकर थोथी राजनीति और जंगलराज की ओर फिर बढ़ा तो उसके दोषी सुशासन बाबू ही माने जायेंगे. तमाम उठापटक के बावजूद यह बात भी सिद्ध है कि चुनाव जीतने के बाद भी, लालू और नीतीश का पुराना 'अहम' उन्हें साथ रहने नहीं देगा. यदि उन दोनों ने अपने इगो को किसी तरह समझा भी लिया तो, उनके तमाम प्रत्याशी, जिनको टिकट सिर्फ जीतने की क्षमता के आधार पर ही मिलने की सम्भावना है, सत्ता की बंदरबांट करते नजर आएंगे. अस्तित्व बचाने के लिए यह दोनों साथ जरूर आ गए हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि आगे क्या होने वाला है. चूँकि बिहार का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में नेता है, तो वह भी यह गणित बखूबी समझ ही रहे होंगे. इन दोनों से आगे बढ़ते हैं तो बिहार भाजपा में भी कम कलह नहीं दिखती है. क्या वरिष्ठ, क्या कनिष्ठ सभी कैमरे के सामने खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित करने में ज़रा भी देरी नहीं कर रहे हैं. हालाँकि, भाजपा में नरेंद्र मोदी की इतनी तो चलती ही है कि उनकी एक बात पर सब 'खामोश' हो जायेंगे, पर कोई सर्वमान्य प्रादेशिक नेता न होने की स्थिति में सर फुटव्वल की स्थिति बनी ही रहेगी. सबसे आश्चर्य की बात तब दिखी, जब केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की छोटी पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार बताया. हालाँकि, यह दावा भाजपा नेताओं की सहमति से ही किया गया लगता है, जिससे अमित शाह और मोदी एनडीए में शामिल दलों को दबाव में लाने की रणनीति बना रहे होंगे. इसका असर भी तुरंत ही सामने आया, जब अपेक्षाकृत बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने सपाट शब्दों में कहा कि उन सबके नेता नरेंद्र मोदी हैं और वह घोड़े, गधे, बकरी .. जिसे भी कहेंगे, उसे वह मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेंगे. हाल ही में बड़े कद के नेता बने मांझी के पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है, इसलिए भाजपा उन्हें जिस हाल में रखेगी, उन्हें वह स्वीकार होगा. हालाँकि, मांझी पर लालू की राजद ने कई बार डोरे डालने का प्रयास किया, किन्तु मांझी नीतीश कुमार की फितरत समझते हैं और वह यह जानते हैं कि एक बार बगावत कर लेने के बाद अब नीतीश के साथ उनका रहना संभव नहीं है. यहाँ तक कि इन नेताओं के बीच 'आम - लीची' तक का विवाद भी हो चूका है. इन हालातों में कागजों पर भाजपा बीस जरूर नजर आ रही है, किन्तु चुनाव मैदान में लड़े जाते हैं और वहां के समीकरण चुनाव के एक दिन पहले तक बनते बिगड़ते रहते है. यदि यादव, मुस्लिम और नीतीश का वोट बैंक एकजुट हो गया तो भाजपा-गठबंधन को नाकों चने चबाने को मजबूर होना पड़ सकता है, पर यदि यादव वोट बैंक में टूट हुई तो भाजपा का काम कुछ आसान जरूर हो जायेगा. राजद से हाल ही में अलग हुए बाहुबली नेता पप्पू यादव का भी कुछेक सीटों पर प्रभाव है, पर दो ध्रुवीय लड़ाई में छोटे नेता अक्सर गौण हो जाते हैं. बिहार के इस चुनाव में जो सबसे दुर्भाग्यशाली बात नजर आ रही है, वह वहां के जातीय राजनीति के चरम पर पहुँचने को लेकर है. इस चुनाव में जाति-विभाजन की जबरदस्त कोशिश प्रत्येक पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है, ऐसे में सुशासन के दावों और वादों का कमजोर होना निश्चित है. जनता ने यदि समझदारी से एकमुश्त वोटिंग करने की हसरत नहीं दिखाई और जातीय राजनीति में बंटकर वोटिंग हुई तो बिहार का नुकसान होना तय है. हालाँकि, तथाकथित जंगलराज की याद अभी बिहार की जनता के जेहन से धुंधली नहीं हुई होगी और न ही वह दर्द, जो पलायन को मजबूर बिहारी भुगतता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार में राजनीतिक उथल पुथल से हटकर स्थिर और विकासवादी सरकार आएगी, जो इगो के बजाय विकासवादी राजनीति करेगी और बिहार सुशासन के पथ पर मात्र चलने के बजाय सरपट दौड़ लगाएगा. इसी में बिहार, बिहारी और देश का हित निहित है. इस बात की जिम्मेदारी राजनीतिक नेता उठाने से तो रहे, क्योंकि उनके सामने एक ही लक्ष्य बचा रह गया है 'येन केन प्रकारेण' चुनाव जीतना. ऐसे में जनता को स्वयं ही जातिगत राजनीति और समीकरणों से हटकर सपाट वोटिंग करनी होगी, अन्यथा राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में बिहार फंसा ही रह जायेगा.


Hindi article on bihar assembly election by mithilesh2020

Monday 22 June 2015

छोटे बयान, बड़े नुकसान

by on 08:16
भारत की राजनीति में कई बड़बोले नेता हैं, जिनकी गंभीर बातों को भी मजाक बना दिया जाता है, किन्तु आम जनमानस के साथ विश्लेषकों को भी तब भारी आश्चर्य हुआ जब अनेक गंभीर और अपेक्षाकृत साफ़ छवि के नेताओं ने अपने बयानों से अपनी छवि ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कई बार बेवजह तो कई बार अधूरी जानकारी के कारण से तो कई बार राजनीतिक ईर्ष्या की वजह से गंभीर और संभावनाशील राजनेताओं की साख को गहरी चोट पहुंची है. इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं सीताराम येचुरी. किसी कम्युनिस्ट नेता का सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना साधारण बात नहीं है, लेकिन सीपीएम महासचिव येचुरी ट्विटर पर टॉप ट्रेंड कर रहे थे. आखिर, ट्विटर पर सीताराम येचुरी की जमकर आलोचना जो हो रही थी, क्योंकि येचुरी ने संभवतः राजनीतिक ईर्ष्या की वजह से योग पर विवादित टिप्पणी करने की गुस्ताखी कर दी थी. उनका कहना था कि योग का आसन कुत्तों की हरकत जैसा होता है. येचुरी की यह टिप्पणी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के संबंध में थी. कहने की जरूरत नहीं है कि सोशल मीडिया पर यह 'अवांछित कॉमेंट' जल्दी ही वायरल हो गया और येचुरी के खिलाफ कुछ ही घंटों में विपरीत माहौल बन गया. बताना उचित होगा कि येचुरी बहुत संयमित होकर अपनी बात रखते रहे हैं, किन्तु राजनीति में एक गलती ही पासा पलटने की कूवत रखती है, यह शायद वह भूल गए थे. आखिर, उन्होंने क्या सोचकर यह बयान दिया, यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन यदि वह अपने राजनीतिक विरोधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साध रहे थे, तो उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि पूरे विश्व में 193 देशों ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस में सक्रीय दिलचस्पी दिखाई, यहाँ तक की चीन में भी योग दिवस पर उत्साहपूर्ण माहौल बना रहा. अब येचुरी अपने बयान के लिए चाहे जो सफाई पेश करें, उनके आलोचक उनको दिग्विजय सिंह की कैटगरी में शामिल करने में तनिक भी देरी नहीं करेंगे.  ऐसा भी नहीं है कि बयान बाजीगरों के क्लब में येचुरी अकेले गंभीर नेता हैं, बल्कि आरएसएस से भाजपा में आये, प्रखर वक्ता माने जाने वाले राम माधव भी शायद पहली बार लूज कॉमेंट कर के फंस गए. योग दिवस के अवसर पर ही उन्होंने अधूरी जानकारी के सहारे भारत के उपराष्ट्रपति और राज्य सभा टीवी पर योग दिवस का विरोध करने का आरोप जड़ दिया. बाद में उनके दोनों दावे गलत निकले और उन सहित भाजपा और आयुष
मंत्रालय के मंत्री महोदय को सफाई देने सामने आना पड़ा. राममाधव के माफ़ी मांगने और अपने ट्वीट डिलीट करने के बावजूद अति उत्साह में दिए गए इस बयान का राजनीतिक नुक्सान कितना होगा, यह तो बाद में पता चलेगा, किन्तु एक साफ़ छवि के प्रखर नेता का विवादित होना निश्चित रूप से विश्लेषकों को भी खला होगा. यही हालत गोवा के मुख्यमंत्री रहे और वर्तमान में हमारे रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का भी है. सादा जीवन जीने के लिए मशहूर, साफ़ छवि के पर्रिकर बेहद शिक्षित और सौम्य राजनेता माने जाते हैं. उनकी काबिलियत देखते हुए ही प्रधानमंत्री ने उन्हें गोवा से नई दिल्ली बुलाकर रक्षा मंत्रालय का दायित्व सौंपा. बिचारे, अति उत्साह में आतंक से निपटने के लिए आतंक के इस्तेमाल की पैरवी कर बैठे. बयान की हर स्तर पर थू - थू हुई सो हुई, उनकी काबिलियत पर भी सवाल उठने लगे. विश्लेषकों ने तीखे शब्दों में आधारहीन बयान को लेकर प्रश्न किया कि बेवजह माहौल बिगाड़ने की ज़रूरत क्या थी? दावे हवाई, जवाब हवाई, मगर नुकसान हकीकत में करा बैठे पर्रिकर साहब. क्या वह यह सोचते हैं कि ऐसे बयानों का असर सिर्फ पाकिस्तान तक सीमित रहेगा और वह डर कर आतंकवाद बंद कर देगा ? क्या विश्व के अन्य देश इस बयान को प्रशंसा की नजर से देखेंगे? लगे हाथों पर्रिकर जी ने आलोचना से झल्लाकर यह एलान कर दिया कि वह मीडिया से छः महीने तक बात नहीं करेंगे. अब उन्हें कौन समझाए कि मीडिया का बायकाट करने के बजाय उन्हें अपनी जुबान को साधना सीखना होगा. इसी कड़ी में बेहद सफल आईपीएस महिला रहीं और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार रह चुकीं किरण बेदी का बयान भी कुछ कम दिलचस्प नहीं रहा. योग दिवस की सुबह जब योग-सत्र के बाद बरसात होने लगी तो उन्होंने झट से ट्वीट किया कि सामूहिक योग करने के कारण ही बरसात हो रही है. उनके इस बयान की सोशल मीडिया पर आलोचना होने के बाद उन्हें भी सफाई पेश करनी पड़ी. इस आलेख में यह दुहराना आवश्यक समझता हूँ कि सिर्फ उन राजनेताओं की बात यहाँ कही जा रही है, जो अपनी ठोस और गंभीर छवि रखते हैं, जबकि दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर, साक्षी महाराज, आज़म खान, जीतनराम मांझी इत्यादि जैसे बड़बोले नेताओं के बयानों के बारे में हम सब सुपरिचित हैं ही, जो चाय वाले से लेकर, आम लीची जैसे अनेक बयानों के लिए सुर्खियां बटोरते ही रहते हैं . अनाप शनाप बयानों के माहिर नेताओं में लालू, मुलायम, मुफ़्ती मोहम्मद जैसे नेता भी कहीं पीछे नहीं हैं, जो रेप जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कहते हैं कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं और जम्मू कश्मीर में सफल चुनाव के लिए पाकिस्तान और आतंकियों को धन्यवाद दे आते हैं. विचारणीय है कि आखिर नेताओं की ऐसी क्या मजबूरी होती है जो एक के बाद एक बयानों से वह अपनी विश्वसनीयता खोते जाते हैं. कुछ नेताओं का राजनीतिक राग तो समझ आता है, जिनका काम ही गलतबयानी करके राजनीतिक रोटियां सेंकना है, किन्तु गंभीर नेता आखिर किस जल्दबाजी में अपना नुक्सान कर बैठते हैं यह बात समझ से बाहर है. पहले की बात अलग थी जब जनता आज की बात को कल भूल जाती थी, आज का युग युवाओं का है और आज का युवा हर बात समझता भी है और कंप्यूटर मेमोरी के सहारे पूरा इतिहास याद भी रखता है और समय आने पर राजनेताओं की उलट बयानी को सामने खड़ा कर देता है. इसका सबसे सटीक उदाहरण भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को माना जा सकता है. आरएसएस के बेहद करीबी और भाजपा में वर्चस्व की हद तक अपना हस्तक्षेप रखने वाले पूर्व उप प्रधानमंत्री पाकिस्तान जाकर जिन्ना की तारीफ कर आये. उन्होंने बेशक अपनी ओर से मुसलमानों में अपनी स्वीकार्यता बढाकर प्रधानमंत्री बनने की चाल चली हो, किन्तु स्वभाव और अपने लम्बे राजनीतिक जीवन के विपरीत इस एक बयान ने उनके करियर को मटियामेट कर दिया. अपने समर्थकों में वह अलोकप्रिय हुए ही, साथ ही साथ राजनीतिक रूप से भी एक के बाद एक जंग हारते चले गए. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर उभार के पीछे आडवाणी का पराभव ही था. सवाल यहाँ सही या गलत का नहीं है, बल्कि अपनी छवि के विपरीत चलने और उलट बयानी का है. आप अपनी किस प्रकार की छवि गढ़ते हैं और बनी हुई छवि के साथ किस प्रकार तारतम्य बिठा पाते हैं, राजनीति में यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है अन्यथा छोटे बयान और बड़े नुकसान होने की सम्भावना सदैव बनी रहेगी. 



Little political statement with danger impact, hindi article by mithilesh2020

Saturday 20 June 2015

अंतर्राष्ट्रीय संतुलन की कसौटी पर योग

by on 06:45
सम्पूर्ण विश्व में योग से भला कौन परिचित नहीं होगा. यूं तो पहले ही अनेक योग गुरुओं, जिनमें बाबा रामदेव का नाम प्रमुख है, योग को जबरदस्त ढंग से प्रचारित और प्रसारित कर दिया था, लेकिन जिस ढंग से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रांडिंग की है, उसने प्रत्येक भारतीय की छाती 56 इंच की वास्तव में कर दी है. राष्ट्रीय स्तर पर भी योग को लेकर तमाम राजनीतिक दल अपने अपने हित देखते हुए विरोध या समर्थन कर रहे हैं, किन्तु इसको लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही राजनीति कुछ ज्यादा ही दिलचस्प दिखती है. आगे की चर्चा से पहले यह बात दोहराना आवश्यक है कि नरेंद्र मोदी ने बेहद सक्रियता से विश्व में भारत का मेक ओवर करने के इस अवसर को मजबूती से पकड़ लिया है. उनके पिछले चुनावी भाषणों में वह कहा करते थे कि 'कॉमनवेल्थ गेम्स' जैसे अवसर भारत को विश्व में मजबूत सम्मान दिला सकते थे, जो कांग्रेस सरकार के घोटाले से बदनुमे दाग में बदल गए. सच कहा जाय तो उन भाषणों में नरेंद्र मोदी की कसक दिखती थी और अब उनके सामने जब 'योग दिवस' के रूप में अवसर आया तो उन्होंने इसे हाथ से फिसलने नहीं दिया. जानना दिलचस्प होगा कि, जिस आनन-फानन में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' के रूप में 21 जून का समय घोषित किया, उससे कई भारतीयों को भी आश्चर्य हुआ. यह बात हम सब जानते ही हैं कि नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर उदय से पहले ही वह चर्चित अंतर्राष्ट्रीय हस्ती बन चुके थे. चुनाव के बाद तो उनके क्रियाकलापों की खबरें पूरे वैश्विक परिदृश्य पर ही छाई रहीं. ऐसे में उनकी महत्वाकांक्षा और अंतर्राष्ट्रीय छवि हासिल करने की चाहत को अमेरिकी नीतिज्ञों ने बेहद तेजी से पकड़ा. ज़रा गौर कीजिये, आनन-फानन में न सिर्फ उन पर लगाया गया प्रतिबन्ध हटाया गया, बल्कि बराक ओबामा ने तमाम आंकलनों को गलत साबित करते हुए 26 जनवरी पर भारत की मेजबानी तक कबूल की. इसके बाद भी ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनमें असैनिक परमाणु करार की उलझनों को दूर करना भी शामिल है, जिनसे साफ़ जाहिर होता है कि अमेरिका नरेंद्र मोदी को लेकर किस हद तक सजग था. ऐसे में, अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को बेहद जल्दी मान्यता मिलने को भी, भारत और नरेंद्र मोदी के प्रति अमेरिकी झुकाव की तेजी की ओर इंगित करना माना जा सकता है. इस कड़ी में, अमेरिकी झुकाव से चीन की नाराजगी को दूर करने की कोशिश भारत ने तुरंत की और 26 जनवरी के तुरंत बाद पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन का दौरा करके क्षेत्रीय संतुलन साधने की कोशिश भी की. समस्या तब दिखी जब भारत के पारम्परिक मित्र रहे रूस के राष्ट्रपति का, नरेंद्र मोदी प्रशासन द्वारा अनदेखा करने का दर्द सामने आया. जब उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंच की एक बैठक में बताया गया कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग के लिए अलग से मंत्रालय शुरू किया है तो उनका हैरानी भरा सवाल था, क्या मोदी स्वयं योग करते हैं? योग के लिए अलग से मंत्रालय पर संदेह जताते हुए पुतिन ने यह भी कहा कि आखिर हर कोई यह क्यों करेगा? पुतिन यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने खुद की तुलना मोदी से किये जाने को भी स्पष्ट शब्दों में नकार दिया, साथ ही साथ स्वयं और मोदी के बारे में कहा कि 'मैं सख्त नहीं हूं, बल्कि हमेशा समझौते करना चाहता हूं, जबकि उनका (मोदी) रुख कड़ा होता है.' अंतर्राष्ट्रीय राजनेताओं की बातें इतनी सरल नहीं होती हैं कि उसकी व्याख्या एक लाइन में कर दी जाएँ. ऐसे में पुतिन के योग दिवस के अवसर पर दिए इन बयानों के अर्थ निकलने की कोशिश लम्बे समय तक की जाती रहेगी. वैश्विक स्तर की राजनीति कितनी जटिल होती है, यह अपने एक साल कि कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने निश्चित रूप से महसूस कर लिया होगा. सवाल उभरता ही है कि क्या वैश्विक परिदृश्य में रूस जैसे बड़े और शक्तिशाली देश को अनदेखा किया जा सकता है, वह भी तब जब भारत में उसकी बेहद महत्वपूर्ण परियोजनाएं चल रही हों और वह आगे बढ़कर, वगैर प्रचार किये तमाम तकनीकि सहायता देने में संकोच न करता हो या फिर विश्व के दो बड़े ध्रुवों में संतुलन साधने में भारतीय प्रशासन से कहीं चूक हो रही है. इससे भी बड़ा, मगर सम्बंधित सवाल है कि क्या अमेरिकी दबाव में भारत ने रूस को अनदेखा करने की कोशिश की? योग की मूल परिभाषा ही 'संतुलन' के सिद्धांत पर टिकी है. जो 'संतुलित' है, वह योगी है. देखना दिलचस्प होगा कि विदेश नीति में दिलचस्पी रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री अमेरिका, रूस सहित विभिन्न देशों के साथ किन योगासनों का प्रयोग करते हैं. आम जनमानस के विपरीत सरकार के लिए यह कठिन परीक्षा की स्थिति है और रूसी राष्ट्रपति ने अपनी खुली राय व्यक्त करके इसे और दिलचस्प बना दिया है. खुद अपनी पार्टी में आडवाणी जैसे वरिष्ठों का विरोध झेल रहे और देश में विपक्षी पार्टियों के निशाने पर रहे प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय सक्रियता अब कई देशों को भी चुभेगी, यह लगभग तय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री इन सबके बीच संतुलन साधने में कामयाब रहेंगे और विवादों को काम करते हुए योग को पूरे विश्व में गुटबाजी का शिकार होने से बचाने में सफल रहेंगे. यही तो सार्थकता है, योग की, और अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की भी.
International politics on Yoga day and India's impact

Saturday 6 June 2015

व्यापारिक सम्बन्ध हों प्रगाढ़

by on 06:56

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूं तो कई देशों की हाई-प्रोफाइल यात्राएं कर चुके हैं, लेकिन हमारे महत्वपूर्ण पड़ोसी बांग्लादेश की यात्रा कई मायनों में ख़ास है. बांग्लादेश का भारतीय इतिहास में बेहद खास स्थान रहा है. इतिहास के आईने में देखा जाय तो आज़ादी के समय देश का विभाजन, फिर चीन से जंग हारना हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व पर जब एक प्रश्न चिन्ह बन चूका था, ऐसे में देश की आयरन लेडी कही जाने वालीं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश को आज़ाद कराने में सक्रिय भूमिका निभाकर हमारे राष्ट्रीय सम्मान की नींव मजबूत की. देखा जाय तो बांग्लादेश की मुक्ति के बाद ही भारत विश्व की बड़ी महाशक्तियों के साये से निकलकर बड़ी छलांग लगाने को तैयार हो सका. कुछ कड़वे अनुभवों को छोड़ दिया जाय तो बांग्लादेश के साथ भारत के सम्बन्ध मधुर ही रहे हैं. हालाँकि बांग्लादेश बनने के बाद, भारत के कई प्रधानमंत्रियों ने अपने इस महत्वपूर्ण पड़ोसी से उस तरह सम्बन्ध प्रगाढ़ नहीं किया जैसा उन्हें करना चाहिए था. अब विदेश नीति में बड़ी दिलचस्पी ले रहे प्रधानमंत्री मोदी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के साथ जब बांग्लादेश पहुंचे हैं, तो दो पड़ोसी देशों के अलावा चीन और पाकिस्तान की निगाह भी इस यात्रा पर टिक गयी होगी. इस पड़ोसी देश का महत्त्व इस तरीके से समझा जा सकता है कि भारतवर्ष के पड़ोसियों में एकमात्र बांग्लादेश ही ऐसा है, जिसकी सीधी सीमा चीन से नहीं लगती है. हालाँकि, हमारा पारम्परिक प्रतिद्वंदी चीन समुद्री रास्ते से बांग्लादेश के साथ व्यापार बढ़ाने और कूटनीतिक सम्बन्ध बनाने की काफी कोशिशें कर चूका है. पाकिस्तान भी अपने आईएसआई और आतंकी नेटवर्क के जरिये आतंकियों और जाली करेंसीज को बांग्लादेश के रास्ते भारत में एक्सपोर्ट करता रहा है. संबंधों की चाशनी में प्रधानमंत्री मोदी से इन मुद्दों पर बांग्लादेशी नेतृत्व के सामने बेबाकी से राय रखने की उम्मीद की जा सकती है. बांग्लादेश के साथ हमारी काफी बड़ी सीमा लगती है, ऐसे में दोनों देश के प्रधानमंत्रियों द्वारा किया गया भूमि समझौता महत्वपूर्ण हो जाता है. भारत की संसद पहले ही इसे मंजूरी दे चुकी है. अब जबकि लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट पर दोनों देशों ने दस्तखत कर दिए हैं, इस बाद की उम्मीद बढ़ जाती है कि बांग्लादेशी शरणार्थियों का अवैध आगमन, अवैध घुसपैठ और तस्करी भी रूकेगी. अगली कड़ी में सीमा विवाद सुलझाने के अलावा प्रधानमंत्री की यात्रा का मकसद बांग्लादेश में भारत के खिलाफ तैयार हुए माहौल को फीका करना भी रहेगा. दोनों देशों को इस यात्रा से द्विपक्षीय संबंधों के नयी ऊंचाइयों तक पहुंचने और आर्थिक एवं व्यापारिक संबंधों की संभावना के दोहन करने की उम्मीद है. प्रधानमंत्री मोदी के भव्य स्वागत की तैयारियां दोनों देशों के पारस्परिक महत्त्व को रेखांकित करता है. सड़कों पर मोदी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और इंदिरा गांधी के साथ बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के विशाल कटआउट्स लगे हैं. स्वागत की कड़ी में बांग्लादेश के लगभग सभी राजनीतिक दल एक सूर में बोल रहे हैं, लेकिन तीस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर बांग्लादेशियों में भावनात्मक विरोध भी है. जल का मुद्दा 21वीं सदी में बड़ा विकट मुद्दा बन चूका है. अपने देश में ही कई राज्य जल बंटवारे को लेकर आपस में भिड़ते रहते हैं. कर्णाटक- तमिलनाडु, दिल्ली हरियाणा जैसे राज्य जल विवाद को लेकर परेशान हैं. ऐसे में पड़ोसी देश से इस नाजुक मुद्दे को सुलझाने में कुछ और समय जरूर लग सकता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बांग्लादेश शेष मुद्दों पर भारत के हितों का ध्यान रखेगा, विशेषकर अपनी सीमा से आतंकियों की घुसपैठ पर. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ढाका दौरे से पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने बांग्लादेश को भारत का ‘सबसे अहम पड़ोसी’ बताया था, ऐसे में भारत की 'लुक-ईस्ट' की नीति में ढाका की अहमियत को समझा जा सकता है. व्यापारिक मोर्चे पर भारत के कुछ औद्योगिक घरानों ने प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान बांग्लादेश में निवेश करने की घोषणा जरूर की है, लेकिन भारत को अपने इस महत्वपूर्ण पड़ोसी से व्यापार बढ़ाने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, क्योंकि जैसे मोदी विकसित देशों से अपने यहाँ निवेश लाने की गुहार लगा रहे हैं, वैसे ही हमारे कमजोर पड़ोसी भी हमसे आशा लगाये बैठे हैं. इस आर्थिक युग में यदि हम उनके यहाँ व्यापार को बढ़ावा नहीं दे सकते, तो संबंधों में प्रगाढ़ता आना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है. इन तमाम मुद्दों पर ध्यान रखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री की यह यात्रा सकारात्मक शुरुआत से होते हुए वास्तविक प्रगाढ़ता की ओर बढ़ेगी और यह तभी मुमकिन है जब दोनों देश एक दुसरे के हितों का विशेष ध्यान रखने को प्रतिबद्ध होंगे. मजबूत ऐतिहासिक संबंधों के बावजूद भारतीय नेतृत्व को इस बात के लिए चिंतन करना ही होगा कि नेपाल, श्रीलंका, भूटान, वर्मा और बांग्लादेश जैसे देशों से उसके सम्बन्ध प्रगाढ़ता की उस बुलंदी को नहीं छू पाये हैं, जैसी प्रगाढ़ता अमेरिका और कनाडा के बीच या यूरोपीय यूनियनों के बीच देखने को मिल रही है. कहने को दक्षेस के रूप में संगठन मौजूद है, लेकिन यह संगठन महज खानापूर्ति का संगठन बन कर रह गया है. यदि हमारे पड़ोसी राष्ट्रों में से दो राष्ट्र भी मजबूती से भारत के साथ खड़े हो जाएँ तो कोई वजह नहीं कि वैश्विक मंच पर हम एक महाशक्ति के रूप में पहचाने जाने लगेंगे. किन्तु, समस्या यह है कि हम समृद्ध देशों के साथ कारोबार को बढ़ावा देने की गलत रणनीति अपनाये हुए हैं. समृद्ध देश हमारे साथ सिर्फ मुनाफाखोरी करने की प्रचलित रणनीति अपनाते आये हैं. इसके विपरीत यदि हम बांग्लादेश सहित दुसरे, कमजोर पड़ोसियों के साथ आर्थिक सम्बन्ध मजबूत करते हैं तो वह हमारे पीछे न सिर्फ खड़े होंगे, बल्कि हमारी कूटनीतिक छवि को स्पष्ट धार भी देंगे. पर समस्या यह है कि खुद हमारे देश में अभी करोड़ों लोग भूखे सोने को विवश हैं, ऐसे में इन गरीब देशों के साथ हम तालमेल कैसे कर सकते हैं, यह देखने वाली बात होगी. क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह ऐतिहासिक यात्रा प्रगाढ़ता को बढ़ाने वाली साबित होगी या महज खानापूर्ति और क्षणिक उद्देश्य ही इसका लक्ष्य बन पायेगा, यह प्रश्न भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है. 



Prime minister in Bangladesh tour, hindi article by mithilesh2020

Friday 5 June 2015

पर्यावरण असंतुलन की ओर

by on 07:31
5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में दुनिया भर में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है और उन सबका मकसद एक ही होता है, "धरती को बचाना।" संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद 1972 में यूनाइटेड नेशन जनरल असेंबली ने 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन का एकमात्र मकसद यही होता है कि आने वाली पीढ़ी पर्यावरण की रक्षा का महत्व समझ सके। सकारात्मक दृष्टि से देखा जाय तो सबसे ज्यादा वृक्षारोपण इसी दिन होते हैं। तमाम देशों में इस एक दिन लाखों पेड़ लगाये जाते हैं। जनसँख्या के लिहाज से बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक जनसंख्या में 9.6 बिलियन का इजाफा हो जायेगा, तब हमारे सामने पर्यावरण का गंभीर संकट आन खड़ा होगा। इससे सम्बंधित दूसरी सबसे बड़ी चिंता है ग्लोबल वॉर्मिंग की। इसकी वजह से हमारे पर्यावरण को बड़ा नुकसान हो रहा है, जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा। ग्लेश‍ियर्स के पिघलने की वजह से समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है और अगर हम पर्यावरण की रक्षा नहीं कर पाये तो दुनिया भर के हजारों द्वीप डूब जायेंगे। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ही अब हर साल गर्मी के मौसम में जरूरत से ज्यादा गर्मी पड़ने लगी है। वहीं वर्षा  पिछले कई सालों से औसत से कम होती जा रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग के एक नहीं हजारों कारण हैं, जिनमें सबसे बड़ा कारण बेतरतीब शहरीकरण और औद्योगिकीकरण है। इस सन्दर्भ में और ज्यादा से ज्यादा लोगों को पर्यावरण प्रेमी बनाने के लिये जागरूक करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता बचता नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने अपने आवासीय लॉन में कदम्‍ब का एक पौधा लगा कर प्रत्‍येक परिवार से आने वाली वर्षा ऋतु में एक पेड़ लगाने का आग्रह करते हुए कहा कि जैसे हम सांसारिक वस्‍तुओं को धारण करने में गर्व महसूस करते हैं, वैसे ही हमें परिवार द्वारा लगाए गए वृक्षों के लिए भी गर्व होना चाहिए। जागरूकता की दृष्टि से प्रधानमंत्री का यह कथन भी सर्वथा उपयुक्त है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रखना ही धरती पर प्रलयकारी स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने पौधे के निकट एक परंपरागत मटका भी रखा, जो जल संरक्षण का पारंपरिक तरीका है और इससे पौधे को नियमित जल आपूर्ति भी सुनिश्चित होती है। देखा जाय तो जल संरक्षण और वृक्षारोपण के बीच बेहद गहरा सम्बन्ध है और दोनों प्रक्रियाएं एक दुसरे की पूरक हैं। पूरे विश्व में जलपुरुष के नाम से विख्यात  और जल का नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले स्टॉकहोम पुरस्कार से सम्मानित राजेंद्र सिंह नदियों के पुनर्जीवन को पर्यावरण संतुलन से गहराई से जोड़ते हुए कहते हैं कि तमाम संस्थाओं और उद्योगों द्वारा नदी-क्षेत्र का अतिक्रमण घातक साबित हो रहा है।  जब तक इन तमाम समस्याओं से सीधे तरीके से नहीं निपटा जाता है, तब तक विश्व पर्यावरण दिवस का सही उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि तमाम वैश्विक संस्थाएं और नागरिक, अपने स्तर पर वृक्षारोपण, कचरे से परहेज, वायु प्रदूषण से परहेज करें और इस बारे में सरकारों द्वारा सख्त कानून न सिर्फ बनाएं जाएं, बल्कि लागू भी किये जाएँ। पिछले यूपीए सरकार के कार्यकाल में पर्यावरण मंत्रालय की एक मंत्री के ऊपर वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा किया गया एक कटाक्ष बड़ा चर्चित हुए था, जिसमें उन्होंने आम चुनाव से पूर्व, चुनावी सभा में कहते थे कि पर्यावरण के नाम पर तमाम उद्योगों पर तथाकथित 'जयंती - टैक्स' लगाकर उन्हें परेशान किया जाता है. इस सन्दर्भ में हमें एकतरफा सोच रखने से भी परहेज करनी होगी, क्योंकि यदि हमें बिजली चाहिए तो, नदियों के ऊपर बाँध बनाये ही जायेंगे। इसके साथ यदि हम सबको शहरी सुविधाएं चाहिए तो पर्यावरण असंतुलन की ओर बढ़ेगा ही। इस असंतुलन को किस प्रकार नियंत्रित किया जाय, इसी में समाज और सरकार का तालमेल मुख्य रोल निभाएगा।  स्पष्ट है कि हमें बिजली, पानी, एसी, वाहनों इत्यादि का बेहद सावधानी से उपयोग करना होगा, क्योंकि एक-एक व्यक्ति का योगदान पर्यावरण संतुलन पर बेहद प्रभावी असर छोड़ेगा। "बात अगर वैश्व‍िक संकट की हो तो भले ही किसी एक व्यक्त‍ि का निर्णय बहुत छोटा लगता है, लेकिन जब अरबों लोग एक ही मकसद से आगे बढ़ते हैं, तो बड़ा परिवर्तन आता है।" संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून की यह बात भले ही आपको छोटी लग रही हो, लेकिन बात जब पर्यावरण की आती है, तो ये दो लाइनें दो किताबों का रूप ले सकती हैं। "बात अगर वैश्व‍िक संकट की हो तो भले ही किसी एक व्यक्त‍ि का निर्णय बहुत छोटा लगता है, लेकिन जब अरबों लोग एक ही मकसद से आगे बढ़ते हैं, तो बड़ा परिवर्तन आता है।" संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून की यह बात भले ही आपको छोटी लग रही हो, लेकिन बात जब पर्यावरण की आती है, तो ये दो लाइनें दो किताबों का रूप ले सकती हैं। भारतीय संस्कृति में नदी, वृक्ष और प्रकृति का पहले से ही बेहद महत्वपूर्ण स्थान है, जरूरत बस अपने प्राचीन स्वरुप को आधुनिकता के लिहाज से ढालने भर की है, फिर शायद हमें पर्यावरण को लेकर डरने की आवश्यकता ही न पड़े।


World Environment Day, hindi article by mithilesh2020 in hindi

Thursday 4 June 2015

योग को भी खतरा है, लेकिन...

by on 08:04
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने आने के तुरंत बाद ही 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की तौर पर मनाने की पहल शुरु कर दी थी. प्रधानमंत्री की पहल पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के आयोजन की घोषणा कर दी. इस सन्दर्भ में योग दिवस की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निश्चित रूप से तारीफ़ की जानी चाहिए. अपने अगले प्रयास के तहत पीएम के साथ राजपथ पर योग करने के लिए और इस आयोजन को सफल बनाने के लिए विभिन्न मंत्रालयों से भी कहा गया है कि वे अपने यहां के अफसरों को इस वृहद कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कहें ताकि गिनीज बुक रिकॉर्ड उच्चतम स्तर पर बन सके. आम भारतीय की तरह सोचें तो, योग को लेकर पूरी दुनिया में जागरूकता बढे, वह भी भारत के प्रयासों से, इससे बेहतरीन बात भला क्या हो सकती है. पर मूल प्रश्न इससे हटकर है कि इन आयोजनों से भारत का आम जनमानस कितना लाभ उठा पाने में सक्षम हो पायेगा. भारतीय लोगों के स्वास्थ्य की ही बात की जाय तो स्थिति बेहद चिंतनीय बनी हुई है. आप किसी भी अस्पताल में चले जाइये, वहां छोटे से छोटे और बड़े रोगों से पीड़ित रोगी असहनीय पीड़ा में आपको दिख जायेंगे. हमारे प्राचीन योग की परंपरा पर यदि दृष्टि डाली जाय, तो महर्षि पतंजलि ने इस अद्भुत विद्या को आम जनमानस के लिए सुलभ बनाया, संकलित किया. परन्तु आज स्थिति बदल चुकी है, अब योग भी कार्पोरेट- कल्चर में घुलता जा रहा है और किसी मल्टी-नेशनल प्रोडक्ट की ही भांति इस पर वर्ग-विशेष का एकाधिकार होता जा रहा है. कार्पोरेट कल्चर में यूं तो कोई बुराई नहीं होती है, पर इसकी मुनाफाखोरी की लत, सही और गलत का अंतर मिटा देती है. कारपोरेट कर्मचारियों को स्पष्ट रूप से टारगेट दिया जाता है कि वह किसी भी तरह टर्न-ओवर के लक्ष्य को हासिल करें. इस लक्ष्य के लिए, उन्हें जो भी गलत, सही उपक्रम करने पड़ें, वह करें. आज जब पानी भी बिकने लगा है, ऐसे में प्रश्न उठना लाजमी है कि क्या योग पर भी आने वाले समय में धनाढ्यों और कार्पोरेट्स का एकाधिकार हो जायेगा. आखिर, इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि इस प्राचीन विद्या पर अपना टैग लगाकर विभिन्न कंपनियां इसका पेटेंट हासिल करने की कोशिश नहीं करेंगी. जब तक इन भारतीय बौद्धिक सम्पदाओं को एकाधिकार से बचाने की ठोस कोशिश नहीं की जाएगी, तब तक इसकी मार्केटिंग से आम जनमानस को भला कैसे लाभ होगा? बल्कि इससे भी मुनाफाखोरी करने की सम्भावना ही बढ़ेगी, जो भारतीय ऋषि परंपरा के सर्वथा विपरीत होगी. अमेरिका जैसे देश, जिसने हमारे अनेक बौद्धिक संशाधनों पर जबरदस्ती पेटेंट करा रखा है, उससे योग विद्या को बचाने की आवश्यकता भी महसूस करनी होगी, अन्यथा तेज बोलने वालों की भीड़ में अपनी आवाज नक्कारखाने में ही खो कर रह जाएगी. सिर्फ विदेश ही नहीं, बल्कि कई देशी योग गुरुओं पर भी योग का कारोबार करने का आरोप लगाया जा रहा है. ऐसे में योग जैसी भारतीय विद्या के व्यवसायीकरण से प्रश्न उपजना स्वाभाविक ही है. ऐसा भी नहीं है कि इसके सिर्फ नकारात्मक पहलु ही हों, बल्कि इसके सकारात्मक पहलु को देखा जाय तो व्यक्तियों में इसके प्रति जागरूकता बढ़ने से न केवल उनके शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार आया है, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य में भी गुणात्मक परिवर्तन दर्ज किया गया है. इसके साथ लाखों योग टीचरों को इस क्षेत्र में बड़ा रोजगार भी मिला है. इसी रोजगार की वैश्विक स्तर पर सम्भावना को हमारे प्रधानमंत्री ने भी न सिर्फ टटोला है, बल्कि विदेशों में अपने भाषण में उन्होंने विश्व को "योग - शिक्षक" एक्सपोर्ट करने की मजबूत वकालत भी की है. अनेक व्यक्तियों और कंपनियों ने अपने लिए योग शिक्षक हायर कर रखें हैं, जो उन्हें रोजमर्रा के तनाव से मुक्ति का रास्ता दिखाने के साथ साथ कई असाध्य रोगों में भी लाभ पहुंचा रहा है. इन तमाम बातों का ध्यान, निश्चित रूप से हमारे प्रधानमंत्री की दृष्टि में होगा. यह बात भी उतनी ही सत्य है कि जब दुनिया आगे बढ़ रही हो तब न तो रुका जा सकता है, और न ही पीछे देखा जा सकता है. बल्कि ऐसी स्थिति में आक्रामकता ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प साबित होती है. योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का ब्रांड-एम्बेसडर बनाने की ठान चुके प्रधानमंत्री अपने एक साल के कार्यकाल में अपनी सजगता और प्रतिभा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोहा मनवा चुके हैं, जिसमें नेपाल, यमन इत्यादि देशों की मदद में भारत को सबसे आगे खड़ा करना प्रमुख है. इस तरह से सोचा जाय तो प्रधानमंत्री के क़दमों पर विश्वास करने की वाजिब वजह दिखती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि व्यवस्था में इस प्रकार से सुधार आएगा जो देश के आम-ओ-खास, सभी नागरिकों को समान रूप से फायदा पहुंचाएगा, विशेषकर योग जैसा प्राचीन भारतीय ज्ञान. भारत के पास निश्चित रूप से बड़ी युवा फ़ौज है, जो निर्माण के साथ सेवा- क्षेत्र में तहलका मचाने को तैयार है. बस इन समस्त कवायदों को मुनाफाखोरों से बचाते हुए देश की सेवा में झोंक दिया जाय तो वह दिन दूर नहीं, जब वास्तव में भारतवर्ष विश्व का नेतृत्व करने में अगली कतार में खड़ा हो जायेगा. यदि विश्व गुरु का सम्मान योग के रास्ते मिले, तो यह हमारी प्राचीन परंपरा के लिए बेहद सम्मानजनक बात होगी. - मिथिलेश, नई दिल्ली.


International Yoga day and corporate patents, hindi article by mithilesh2020 

Wednesday 3 June 2015

दंगे क्यों और न्याय क्यों नहीं ?

by on 07:47
भारतवर्ष की यदि कोई सबसे बड़ी त्रासदी रही है तो वह है दंगों का एक लम्बा इतिहास. पूरे वैश्विक पटल पर यह भारतवर्ष की छवि को धूमिल लेकिन उससे भी ज्यादा कोफ़्त तब होती है जब न्याय व्यवस्था अपनी कछुआ चाल से पीड़ितों के ज़ख्मों को सूखने नहीं देती है. 84 के दंगों पर दिल्ली की एक अदालत ने कभी दिग्गज कांग्रेस नेता रहे जगदीश टाइटलर पर 1984 के सिख विरोधी दंगा मामले में गवाहों को प्रभावित करने का प्रयास करने के आरोपों पर सीबीआई से जवाब तलब किया है, जबकि इस मामले में सीबीआई ने मामला बंद करने की रिपोर्ट दायर की है. सुनवाई के दौरान दंगा पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता एच एस फुल्का ने अदालत को बताया कि टाइटलर ने कथित तौर पर इस मामले में मुख्य गवाह सुरेन्दर कुमार ग्रंथी के साथ सौदेबाजी की थी. इस केस से सम्बंधित यह बात भी सामने आयी कि जगदीश टाइटलर के पक्ष में बयान बदलने के लिए दबाव डाले गए. अब प्रश्न उठता है कि लगभग 30 साल बीत जाने के बाद भी जांच, सबूत इत्यादि की जरूरत भला कहाँ रह जाती है. राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण सीबीआई को 'तोता' की संज्ञा, माननीय उच्चतम न्यायालय दे ही चुका है. ऐसे में पीड़ितों को और अधिक परेशान करने की भला क्या जरूरत रह जाती है. क्यों नहीं इस केस को क्लोज करके पीड़ितों की न्यायिक-आशा पर विराम लगा दिया जाता है. आखिर, उनको यह बात तो पता चल जाएगी कि आम जनमानस को न्याय नहीं मिल सकता, जबकि रसूखदार व्यक्ति प्रत्येक स्थिति में कानून की पकड़ से बच निकलने में सक्षम हैं. यही बात कुछ दिन पहले मशहूर सिने-स्टार सलमान खान के केस में भी सामने आयी थी. 2002 में उन्होंने फूटपाथ पर सोये हुए गरीबों पर शराब के नशे में गाड़ी चढ़ा दी थी और कई साल के मुकदद्मे के बाद सेशन कोर्ट द्वारा 5 साल की सजा होने के बावजूद, उच्च न्यायालय के जज ने, बेहतरीन वकीलों के प्रयासों से देर शाम तक कार्य किया और सलमान खान को एक मिनट भी जेल के अंदर नहीं जाना पड़ा. बुद्धिजीवी इस मसले में अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह गए, किन्तु कुढ़ने और दुखी होने से भला न्याय मिलता है कहीं, जो सिक्ख दंगे के पीड़ितों को या हिट और रन के पीड़ितों को न्याय मिलेगा. न्यायिक व्यवस्था से अलग हटकर देखते हैं तो यह बात सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि गुलामी काल के सैकड़ों, हज़ारों दंगों के बाद आज़ादी के बाद के काल में भी दंगे क्यों होते रहे हैं. क्या इसके पीछे हमारी राजनीतिक सोच ही जिम्मेवार है या दुसरे सामाजिक मुद्दे भी इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं. धर्म के नाम पर लाखों क़त्ल-ए-आम के बाद देश का बंटवारा तक हो गया, लेकिन दंगों से हमें मुक्ति नहीं मिली. दुःख की बात तो यह है कि किसी सशक्त राजनैतिक या सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा इस प्रकार का बवंडर खड़ा ही नहीं हो पाया, या शायद करने का प्रयास ही समग्र रूप में नहीं किया गया. देश में अनगिनत दंगों में से सर्वाधिक चर्चित गोधरा में बंद ट्रेन में कारसेवकों को जलाने के कुकृत्य के बाद भड़के दंगों ने पूरे विश्व में भारत की छवि दागदार कर दी थी. यहाँ तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उन दंगों को 'राष्ट्रीय शर्म' तक की संज्ञा दे डाली थी. तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उन दंगों को लेकर कड़ा निशाना साधा जाता रहा और विश्व के कई देशों ने उनके अपने यहाँ आने पर रोक तक लगा रखी थी. हालाँकि, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें बाइज्जत बरी किया, जबकि नैतिक रूप से उन पर आज भी कई लोग ऊँगली उठाते रहते हैं. हालाँकि, नरेंद्र मोदी की एक बात के लिए खुलकर तारीफ़ करनी होगी कि 2002 के बाद उनके गृह राज्य में छोटा दंगा भी नहीं भड़का. इसके पीछे तमाम तर्क-कुतर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन हाल ही जब प्रधानमंत्री से एक मुस्लिम-प्रतिनिधिमंडल मिला तो उनके उदगार में सांप्रदायिक राजनीति से मुक्ति की हलकी झलक दिखाई दी. मुस्लिम नेताओं से मुलाकात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भरोसा दिया कि आधी रात में भी मदद के लिए उनके दरवाजे खुले हैं. शब-ए-बारात के मौके पर मुस्लिम नेताओं के प्रतिनिधिमंडल में 30 नेता शामिल थे. पीएम ने ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के मुख्य इमाम उमर अहमद इल्यासी के नेतृत्व में गए प्रतिनिधिमंडल के साथ लगभग सवा घंटे बातचीत की और उन्हें अपने हाथों से चाय भी पिलाई. इस दौरान बेहद सफाई से उन्होंने कहा कि वह सांप्रदायिक राजनीति करने में यकीन नहीं रखते हैं.
हालाँकि, उनके आरएसएस बैकग्राउंड के होने से कई लोग उन्हें शक की निगाहों से अब भी देखते हैं, पर देश यदि दंगों की राजनीति से मुक्ति पा जाता है, तो इसे एक युगांतरकारी घटना ही माना जाएगा. भले ही यह नरेंद्र मोदी के हाथों ही क्यों न हो. कड़े और प्रतिबद्ध राजनीतिक नेतृत्व के अलावा, देश में चुनाव सुधार पर भी कार्य किये जाने की विशेष जरूरत है. जब तक धर्म और जाति के आधार पर वोट लिए और दिए जाते रहेंगे, तब तक समाज में विभाजन बना रहेगा. चुनाव सुधार के अतिरिक्त विकास के मोर्चे पर जबरदस्त कार्य किये जाने की आवश्यकता है, जिससे धर्म और जाति के ठेकेदार देश की जनता को अपने लिए इस्तेमाल न कर सकें. इसके अतिरिक्त भी समय-समय पर तमाम आयोगों ने दंगों पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी हैं, उनका अध्ययन करके कारण और निवारण पर जब तक एक सर्वमान्य हल निकालकर उस पर सख्ती से अमल नहीं किया जायेगा, तब तक दंगों की आग से देश को मुक्ति मिलना संभव नहीं होगा. कभी सिक्ख दंगा, कभी गुजरात तो कभी मुजफ्फरनगर दंगा होता ही रहेगा और भारतवर्ष की महान संस्कृति इस आग में झुलसती ही रहेगी. उम्मीद करनी चाहिए कि एक तरफ हमारी न्याय-व्यवस्था पीड़ितों को जल्द से जल्द इन्साफ दे पाने में सक्षम हो पायेगी और दूसरी ओर हमारा देश दंगों की आग से मुक्ति पाने में, २१ वीं सदी में ही सफल हो जायेगा.
करने का कार्य करता रहा है,
Cause and solutions of riots in India and related justice, hindi article by mithilesh2020

Tuesday 2 June 2015

जन स्वास्थ्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ

by on 06:12
वर्तमान मैगी विवाद की चर्चा से पहले संजीदा फिल्मकार मधुर भंडारकर की सुपरहिट फिल्म 'कार्पोरेट' की चर्चा नही करना उचित नही होगा. इस फिल्म में बेहद साफ तरीके से दिखाया गया है कि किस प्रकार कार्पोरेट कंपनियाँ अपने ग़लत सही कार्यों को आगे बढ़ाने का कार्य संपादित करती हैं. संयोग से इस फिल्म में भी फूड प्रोडक्ट्स पर काम करने वाली कंपनियों को ही कहानी का आधार बनाया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि घूसखोरी से प्रॉजेक्ट कैसे पास किए जाते हैं, उसके बाद प्रतिद्वंदी को दबाने के लिए किस प्रकार मुद्दों को हाइलाइट करके दबाव बनाया जाता है. इसके बाद एनजीओ, नेताओं और इनवेस्टर्स का रोल भी बेहद स्पष्ट तरीके से दिखाया गया है, जिसमें जनता का कहीं रोल होता ही नही है. इस फिल्म को मैने २००६ में देखा था और करीब ९ साल बाद उपजे मैगी विवाद को हूबहू जुड़ा पाता हूँ. सच कहा जाय तो नेस्ले जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने खाद्य उत्पादों से खिलवाड़ करने का इतिहास पुराना है. भारत में जैसे जैसे संयुक्त परिवारों का विखंडन हुआ है और न्यूक्लियर फेमिली का चलन बढ़ा है, वैसे वैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रेडीमेड फूड-कारोबार भी दिन-दूना, रात चौगूना की गति से बढ़ा है. दुख की बात यह है कि अलग-अलग समय पर विभिन्न कंपनियाँ इस तरह की धोखेबाजी में पकड़ी जाती रही हैं, लेकिन कार्पोरेट फिल्म के क्लाइमेक्स की ही तरह, अंत में सब कुछ सेटल कर लिया जाता है. फिर मीडिया, जाँच-अधिकारी, नेता और आवाज़ उठाने वाले एनजीओ मैनेज कर लिए जाते हैं. आप कोल्ड-ड्रिंक, सॉफ्ट ड्रिंक, पिज़्ज़ा, बीफ, बर्गर या दूसरे किसी खाद्या उत्पाद का नाम ले लीजिए, सब पर ही विवाद उठ चुके हैं, लेकिन आप नज़रें घुमाकर अपने आसपास की दुकानों पर देख लीजिए, सभी प्रोडक्ट्स उसी रफ़्तार से, उसी अंदाज में बिक रहे हैं. यहाँ तक कि मैगी विवाद में फँसी नेस्ले के मिल्क पाउडर में इस विवाद के तुरंत बाद जिंदा लार्वा तक मिले हैं, पर परिणाम जस का तस. देश के बड़े सिने-स्टार, प्रसिद्ध खिलाड़ी वगैर किसी ज़िम्मेवारी के इसका प्रचार प्रसार करते हैं. हालाँकि मैगी विवाद को लेकर खाद्य व उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान ने विज्ञापन में काम करने वालों को नसीहत देते हुए कहा है कि किसी भी विज्ञापन को करने से पहले कलाकारों को यह भी पता करना चाहिए कि उत्पाद सही है कि नहीं. केंद्रीय मंत्री ने जाँच रिपोर्ट आने की बात कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है और ब्रांड अम्बेसडरो ने भी एक कान से बात सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया होगा. यह तो मैगी है, लेकिन शराब, सिगरेट और गुटखा तक जैसे हानिकारक उत्पादों के प्रोमोशन भी ए-श्रेणी के अभिनेता और अभिनेत्री ही तो करते हैं. मैगी के मामले में बिहार के मुजफ्फरपुर की एक अदालत ने विज्ञापन करने वाले अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, प्रीति जिंटा और नेस्ले के दो अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का पुलिस को निर्देश दिया है और इस संबंध में अमिताभ बच्चन का भी बड़ा सधा हुआ बयान सामने आया है. उन्होने खुद को निर्दोष बताते हुए कहा है कि अग्रीमेंट साइन करते समय उन्होने कंपनी के साथ एक क्लाज जोड़ दिया था, जिसके बाद कोई क़ानूनी विवाद होने की स्थिति में कंपनी उन्हें बचाएगी. निर्दोष तो खुद को मधुरी दीक्षित भी बता देंगी, जबकि मैगी के विज्ञापन में वह इस प्रोडक्ट के पौष्टिक होने के बारे में गारंटी तक ले लेती थीं. सवाल यह है कि जन स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में इतना ढीला-ढाला रवैया क्यों है? गाहे-बगाहे रामदेव के पतंजलि उत्पादों के बारे में भी आवाज़ उठाई जाती रही है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. सच बात तो यह है कि भारत की विशाल आबादी में फुड प्रोडक्ट्स की विशालतम खपत ने बड़े कार्पोरेट का ध्यान इस तरह खींचा है. दुनिया भर की फुड-चेंस अब आपको भारत के बड़े महानगरों में और छोटे शहरों में भी देखने को मिल जाएँगी. यदि कुछ नही मिलेगा, तो फुड नियामक और उससे संबंधित कड़े क़ानून. ले-देकर एक फुड इंस्पेक्टर भला क्या कर सकता है, उसको मैनेज करना नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियों के बायें हाथ का खेल है. ज़रूरत हर स्तर पर सुधार करने की है, जिसकी कोशिश न तो सरकार कर रही है और न ही समाज ही इस मामले में जागरूक हो रहा है. वह तो पिज़्ज़ा, बर्गर और मैगी की ओर अंधी दौड़ लगाए हुए है. यह अंधी दौड़ हमारे समाज को ही बीमार न कर दे, इस बात की चिंता हम सबको ही करनी होगी, अन्यथा, रामभरोसे तो दुनिया चल ही रही है.
Public health and multinational food companies, hindi article by mithilesh2020

Monday 1 June 2015

पानी रे पानी

by on 06:49

पानी की महत्ता से भला कौन परिचित नहीं. चाहे शहरों में रहने वाले धनाढ्य वर्ग के लोग हों अथवा गाँव में रहने वाले किसान, सबके जून के महीने में जब तड़तड़ाती हुई गर्मी पड़ रही हो, तो पानी की किल्लत की खबरें विभिन्न जगहों से आती हैं. कई बार यह खबरें दुखी कर देती हैं, तो कई बार इनमें से प्रेरणा का भी जन्म होता है. इसी प्रकार की एक खबर झारखण्ड से पढ़ने को मिली. देश के अन्य भागों की तरह झारखंड के गढ़वा में भी  भीषण गर्मी पड़ रही है. यहां के सगमा प्रखंड की पंचायत कटहर कलां का एक गांव है पश्चिम टोला. इस टोले की पंचायत ने पानी की किल्लत से निबटने के लिए रोज़ाना नहाने पर पाबंदी लगा दी है. इस गांव में उरांव आदिवासियों के 80 घर हैं, जबकि गाँव में क़रीब 300 लोग रहते हैं. पानी के लिए पूरे गांव की निर्भरता सिर्फ दो हैंडपंपों पर है. कभी यहाँ 19 कुएं थे लेकिन अब वो सारे सूखे पड़े हैं. गाँव के बाशिंदों में हो रही रोज की लड़ाई से से निपटने के लिए बुजुर्गों की पंचायत में फैसला हुआ कि लोगों को रोज़ नहाने से रोका जाए. पंचों ने अपने व्यवहारिक निर्णय में कहा कि पहले हर घर में पर्याप्त पानी पहुंच जाए, ग्रामीणों और मवेशियों को पानी मिलने लगे. इसके बाद ही नहाने की बारी आएगी. इसकी निगरानी के लिए बाक़ायदा एक कमेटी भी बना दी गयी, साथ ही साथ रोज़ नहाने की कोशिश करने पर आर्थिक दंड का प्रावधान भी कर दिया गया. देखा जाय तो इस प्रकार की खबरें, आने वाले समय में पानी की किल्लत को जबरदस्त तरीके से रेखांकित करती हैं.इसी सन्दर्भ में देश की राजधानी दिल्ली का ज़िक्र करना सामयिक होगा, जहाँ जल माफिया की सक्रियता अपने चरम पर है. पानी के टैंकरों के लिए विभिन्न कालोनियों में किस प्रकार से लोग लड़ते हैं, आपको इससे सम्बंधित दृश्य हर रोज कहीं न कहीं देखने को मिल जाएगा. इसके अतिरिक्त बोतलबंद पानी की कालाबाजारी किस तरह से जोर पकड़ रही है, यह बात कोई छुपी हुई नहीं है. बोतलबंद पानी से आम जनमानस पर न सिर्फ आर्थिक बोझ पड़ रहा है, बल्कि रसायनों के घालमेल से कई तरह की बीमारियां भी लोगों को जकड रही हैं. यह बात कई अध्ययनों में साबित भी हो चुकी है. पीने के पानी की समस्या से मुंह मोड़कर सरकार एक तरह से जल माफियाओं को प्रोत्साहन ही दे रही है, जिनको पानी की किल्लत से करोड़ों-अरबों बनाने का मौका मिल रहा है. जल-संरक्षण और नदियों के पुनर्जीवन के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले जलपुरुष राजेंद्र सिंह इस समस्या के खिलाफ पिछले तीस सालों से लड़ रहे हैं, लेकिन उनके उपायों और प्रयासों को लेकर जन-जागृति फैलाया जाना बाकी है. हालाँकि, इस बार केंद्र सरकार ने नदियों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन जब तक जल संरक्षण के विभिन्न उपाय, जल माफिया पर लगाम कसने के उपाय सहित दुसरे उपाय नहीं किये जाते हैं, तब तक झारखण्ड के गढवा जैसी समस्याएं सामने आती ही रहेंगी और हो सकता है कि जल को लेकर कोई बड़ा युद्ध ही हो जाय. शहरों में पीने के पानी से हटकर सोचा जाय तो, गाँव में किसान फसलों की सिंचाई के लिए आसमान की ओर देखते रह जाते हैं. इस समय धान के बीज खेतों में डाले जाने का समय है, किन्तु बरसात की अनहोनी आशा का संचार करेगी अथवा नहीं, इस बात पर कोई निश्चित बात नहीं कही जा सकती. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के शासनकाल में ही नदियों को जोड़ने की शुरुआत करने की कोशिश हुई, लेकिन वह योजना ठन्डे बस्ते में धुल फांक रही है. ऐसे में कहीं बाढ़, कहीं सूखा आना स्वाभाविक ही है. सरकार से हटकर यदि आम जनमानस में जागरूकता की बात की जाय तो यहाँ भी निराशा ही हाथ लगती है. पीने के पानी को छोटे-छोटे प्रयासों से हम कितना बचा सकते हैं, यह बात स्कूल के प्रोजेक्ट में बच्चे तक जानते हैं, लेकिन उस पर अमल शायद ही होता हो. किचेन में, बाथरूम में, गाड़ी धोने में हम सावधानी से पानी का प्रयोग कर जल की बचत अवश्य ही कर सकते हैं. शहरों में कई लोग अपने घर के बाहर पानी के पाइप लगाकर बाकायदा पानी बर्बाद करते हैं, जिसे देखकर गहरा दुःख होता है. जरूरत है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारी प्रयासों के साथ आम जनमानस भी पानी बचाने और उसका सदुपयोग करने की दिशा में आगे बढे, और झारखण्ड में गढवा के लोगों ने इस सन्दर्भ में सही उदाहरण पेश किया है.

लिए ही पानी एक समान रूप से आवश्यक है.
Water conservation article in hindi by mithilesh2020

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