Wednesday 23 September 2015

मीडिया की संकुचित, दूषित भूमिका

by on 12:22
 
Media reporting and content analysis, hindi article about journalism, indian channelsयूं तो मीडिया द्वारा दोषपूर्ण, सनसनीखेज रिपोर्टिंग और पक्षपाती रवैये की खबर आती ही रहती है, लेकिन जब किसी विधानसभा या लोकसभा का चुनाव सामने हो तो यह अपने चरम पर होता है. 2014 के आम चुनाव में हमने स्पष्ट देखा कि तमाम मीडिया घराने और पत्रकार किस प्रकार विशेष पार्टी या नेता का पक्ष लेने में दिलचस्पी ले रहे हैं, मसलन कोई चैनल या रिपोर्ट कांग्रेसभक्त था तो कोई भाजपाई मानसिकता का. खैर, वह समय गुजर गया और अब जब बिहार विधानसभा का चर्चित चुनाव घोषित हो चुका है तो कमोबेश वैसी ही स्थिति, बल्कि उससे भी बदतर स्थिति सामने आती दिखाई दे रही है. कुछ हालिया उदाहरणों और नामी पत्रकारों की बात की जाय तो आज तक के पुण्य प्रसून बाजपेयी का नाम लेना उचित रहेगा. यह वही बाजपेयी साहब हैं, जो किसी मुद्दे पर सामने बैठ जाएं तो नख से सर तक के बाल उधेड़ डालते हैं और काफी सधे हुए अंदाज में एंकरिंग करने के लिए भी खासे मशहूर हैं. पुण्य प्रसून जी के इसी अंदाज से उनके हज़ारों प्रशंसक हैं, जो उन्हें देखना और सुनना चाहते हैं. लेकिन, बिहार चुनाव से सम्बंधित एक बड़े नेता का इंटरव्यू करते समय अपने चैनल पर जिस प्रकार से पुण्य प्रसून जी ने उस नेता को खुला मैदान दिया, उसकी जबरदस्त ढंग से आलोचना हो रही है. ऐसा लगा, मानो उस नेता के पक्ष में खड़े होकर पुण्य प्रसून साहब उसे मुद्दे दर मुद्दे याद दिला रहे थे और वह नेताजी अपने विशेष अंदाज में इंटरव्यू की जगह अपना भाषण प्रस्तुत कर रहे थे. पुण्य प्रसून बाजपेयी के कैरियर में तब भी प्रश्न उठा था, जब उन्होंने दिल्ली के बड़े और नवेले नेता के इंटरव्यू को 'क्रन्तिकारी, बहुत ही क्रन्तिकारी' कहकर उत्साहित किया था. खैर, इस कड़ी से थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो हम पहुँचते हैं मशहूर पत्रकार राजदीप सरदेसाई की ओर. जी हाँ! आप इनके बारे में भी सुन ही चुके होंगे. यह वही पत्रकार महोदय है, जिनकी अमेरिका में कुछ उत्साही प्रशंसकों ने धुनाई कर दी थी, क्योंकि वह गलत जगह पर लोगों को गलत तरीके से उकसा रहे थे. खैर, हिंसा की आलोचना होनी ही चाहिए, लेकिन राजदीप सरदेसाई एक बार फिर चर्चा में आये हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को ओपन-लेटर लिखकर. सरदेसाई साहब ने सोचा होगा कि आम तौर पर मुख्यमंत्री किसी बात का जवाब देते नहीं हैं और मैं आरोप लगाकर अपनी टीआरपी बढ़ाऊंगा और निकल लूंगा.maharashtra-CM-Devendra-Fadnavis-written-open-letter-to-Sardesai-shock-Words-slap-news-in-hindi लेकिन, यह महोदय तब बुरी तरह घिर गए जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने तमाम मुद्दों पर स्पष्ट जवाब देते हुए राजदीप सरदेसाई को ही कठघरे में ला खड़ा किया. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि पर्यूषण पर्व पर मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का आदेश उनकी सरकार ने नहीं दिया था, बल्कि 2004 में कांग्रेस सरकार ने पर्यूषण-पर्व के दौरान दो दिन कत्लखाने बंद रखने का फैसला किया था और मुंबई को लेकर ऐसे निर्णय पर 1994 से अमल किया जा रहा है, मगर आश्चर्य है कि हमारे सत्ता में आने से पहले आप में से किसी ने आपत्ति नहीं जताई. यानी पहले की सरकार कितनी भी भ्रष्ट रही हो, उसकी ढोंगी एवं कथित धर्मनिरपेक्षता आपके विचारों से मेल खाती थी, इसलिए आपको आक्षेप नहीं था. मुख्यमंत्री ने अपने विस्तृत जवाब में आगे लिखा कि आम तौर पर मैं वरिष्ठ पत्रकारों के सार्वजनिक पत्रों का जवाब नहीं देता, लेकिन आपका पत्र पढ़ने के बाद सोचा कि अगर जवाब नहीं दिया तो 'गोबल्स नीति' सफल हो सकती है. आपका पत्र "सही जानकारी न लेकर सरकार को फटकारने" की शानदार मिसाल है. मुख्यमंत्री यहीं नहीं रुके, बल्कि पत्रकार महाशय को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा कि 'आपने मुझे 2010 में देखा है, ऐसा कहा है, पर मैं तो patrakarita, fake journalism, hindi article by mithileshआपको 2000 से देख और सुन रहा हूँ. एक साहसी पत्रकार कालांतर में "निजी एजेंडे" और विशिष्ट "वैचारिक निष्ठा" से अभिभूत होकर किस तरह बेहद पक्षपाती हो सकता है यह देखना वेदनापूर्ण है'. राज्य सरकार के नाम पर कई अच्छे कामों की मुहर लगने के बावजूद आप अपनी मर्जी से 3 मुद्‌दे चुनकर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहते हैं.
असल सवाल यही है भी कि एक स्थापित पत्रकार हर तरह से जनता की राय को प्रभावित करने की ताकत रखता है, वह कइयों का आदर्श होता है, लेकिन जब वह आधी अधूरी जानकारी और पक्षपात या निहित स्वार्थों के कारण पत्रकारिता की कलम को कमजोर करता है, तो उसे जवाबतलब क्यों नहीं किया जाना चाहिए. क्या न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स असोशिएशन या ब्रॉडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन और दूसरी ऐसी संस्थाएं इस पर कोई नियामक लागू नहीं कर सकती हैं. कोई कानूनी न सही, सार्वजनिक आलोचना ही कर दी जाती, जिससे गलत या पक्षपात करने वालों पर कुछ तो दबाव पड़ता. इस कड़ी में सिर्फ पुण्य प्रसून बाजपेयी या राजदीप सरदेसाई ही हों, ऐसा नहीं है, बल्कि ज़ी न्यूज के मैनेजिंग एडिटर सुधीर चौधरी भी इस मामले में बेशक बदनाम हैं और उन पर भाजपा के प्रति अति झुकाव का मुद्दा उठाया ही जाता रहा है. इसी सन्दर्भ में, अब इण्डिया न्यूज में जा चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम साहब को बिहार चुनाव पर ही चर्चा करते हुए जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पक्षपाती होने का आरोप लगाया तो मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, हालाँकि पुराने रिकॉर्ड मैंने नहीं देखे हैं, लेकिन उस वक्त ऐसा लगा मानो अमित शाह थोड़े अतिवादी होकर किसी पुरानी यादों में बह गए थे, जिससे बचा जा सकता था. खैर, उनका कुछ तो अनुभव रहा होगा अन्यथा कोई राष्ट्रीय नेता पत्रकारों से पंगे क्यों लेगा भला? इस कड़ी में यह तो सिर्फ चंद नाम हैं, वरना सच्चाई तो यह है कि पत्रकारिता में 'विशेष निष्ठा' रखने का आरोप अब बेहद आम हो गया है. सिर्फ पत्रकार ही क्यों, बल्कि चैनल मालिकों पर भी आरोप लगने की विधिवत शुरुआत हो चुकी है.
वह तो भला हो सोशल मीडिया का, कि आज के समय में मेन स्ट्रीम मीडिया सहित अनेक ख़बरों का पोस्टमार्टम करने में इसके यूजर्स देरी नहीं करते हैं और इसी चीरफाड़ से घबड़ाकर एक और पत्रकार ने सोशल मीडिया पर 'गाली गलौच और गुंडागर्दी' का बेहद बचकाना और स्वार्थप्रेरित आरोप लगाने का रवैया अख्तियार किया है. वह पत्रकार हैं एनडीटीवी के रविश कुमार जी और संयोग से उनके भी हज़ारों लोग फैन हैं, क्योंकि वह गहराई में जाकर पत्रकारिता करने में यकीन करते हैं. लेकिन, हालिया मामलों में उन्होंने सोशल मीडिया को बेवजह और आधारहीन मुद्दों पर निशाना बनाने की कोशिश की है और उसका कारण यही है कि सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी रिपोर्टिंग को भी पक्षपाती बताते हुए पोस्टमार्टम कर दियाMedia reporting and content analysis, hindi article about journalism, ravish kumar था. क्या रविश कुमार बताएँगे कि आज किस चैनल पर गाली-गलौच (... अब तो मारपीट भी) नहीं हो रही है, तो क्या वह चैनल छोड़कर भी घर बैठ जायेंगे? प्राइम टाइम पर तो कोई भी चैनल लगा ले, वहां चिल्ल-पों के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता हैं. रविश जैसे पत्रकारों को यह समझना ही होगा कि विशेष विचारधारा के प्रति व्यक्तिगत लगाव रखना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन पत्रकारिता करते समय न केवल उसे मिक्स कर देना, बल्कि उसको अपने ऊपर पूरी तरह हावी कर लेना अपने दर्शकों और पाठकों के प्रति पूरी तरह से अन्याय ही है. इस संकुचन का ही परिणाम है कि अब मीडिया पर लोगों का भरोसा लगातार कम होता जा रहा है. पक्षपात, अधूरी मेहनत के अतिरिक्त, बाजारवाद की अतिवादिता, चैनल मालिकों की घोर व्यावसायिकता, सनसनीखेज टीआरपी विषयक कंटेंट (उदाहरणार्थ: इन्द्राणी-शीना रिपोर्टिंग) भी महत्वपूर्ण कारक हैं मीडिया के बदनाम और अविश्वसनीय होने के, जिन से निपटने की सबसे ज्यादा जिम्मेवारी बड़े और जिम्मेवार पत्रकारों की ही है. दुखद यही है कि जिनके कन्धों पर सबसे ज्यादा जिम्मेवारी है, वही कंधे बदनाम हो रहे हैं... और लगातार यह प्रक्रिया संक्रामक रोग की तरह बढ़ती ही जा रही हैं. हमाम में नंगों की तरह ... !!
 
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Monday 14 September 2015

बेस्ट अवार्ड

by on 11:16
Hindi short story based on Awards and Audience, laghu kathaदेश के बड़े न्यूज चैनल द्वारा घोषित यह अपनी तरह का पहला पुरस्कार था, इसलिए युवा गिरीश बेहद उत्साहित था. आखिर हिंदी सेवा के नाम पर पुराने धुरंधर और उनके जुगाड़ू चेले तमाम पुरस्कारों पर कब्ज़ा जमाये बैठे थे और वैसे भी 'ब्लॉगिंग' जैसे फिल्ड का साहित्य की दुनिया में क्या काम! हालाँकि, बदलते समय में ऑनलाइन दुनिया में गिरीश 25 साल की उम्र में ही जाना माना नाम बन गया था और उसके ब्लॉग पर न केवल भारी संख्या में विजिटर आते थे, बल्कि हिंदी में लिखने के कारण 'सब्सक्राइबर्स' की संख्या भी बढ़ती ही जा रही थी. न्यूज चैनल की वेबसाइट पर हिंदी दिवस के अवसर पर उसने 'देश के सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर्स' के लिए तत्काल आवेदन करते हुए अपने ब्लॉग की स्पेसिफिकेशन भी लिख दी, मसलन यूजर फ्रेंडली इंटरफेस, टेक्निकली एफिशिएंट, ऑनलाइन ब्लॉगर कम्युनिटियों द्वारा बेस्ट रैंकिंग, राजनीतिक सामाजिक मुद्दों पर अनवरत लेखन इत्यादि...
अब उसे बेसब्री से उस दिन का इन्तेजार था, जब विजेता ब्लॉगर्स के चयन की घोषणा होने वाली थी. .. उसकी इस बेचैनी को उसकी पत्नी ने भी भांप लिया और अति उत्सुकता से बचने हेतु उसने गिरीश से कहा कि आप तो इंटरनेट पर अपने क्षेत्र में बहुत आगे हैं, इन अवार्ड्स से कहीं आगे...
यद्यपि गिरीश भी अब तक इस तरह के अवार्ड्स को ज्यादा तवज्जो नहीं देता था, क्योंकि इसमें चापलूसी, गुटबाजी इत्यादि कलाओं से वह नफरत सी करता था. ...
मगर जाने इस बार क्या बात थी कि वह अपनी उत्सुकता पर नियंत्रण रखने में विफल साबित हो रहा था.
तभी गिरीश की मोबाइल की घंटी बज उठी... झारखण्ड से कोई युवा था.
सर, मैंने नेट पर आपका हिंदी सम्मेलन और उसके प्रसार पर लेख पढ़ा, ... सर मैं भी हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ!गिरीश, एक पल को अवार्ड के बारे में भूलकर फोन पर तल्लीनताHindi short story based on Awards and Audience से समझाता चला गया कि ऑनलाइन माध्यमों में ब्लॉग कैसे बनाया जाय, अपने ब्लॉग को सोशल मीडिया और सर्च इंजिनों से कैसे जोड़ा जाए... किस प्रकार हिंदी सुधारने के लिए ऑनलाइन एप्लीकेशनों का प्रयोग किया जाय ...
फोन रखते ही गिरीश अपनी पत्नी को मुस्कुराते देखकर प्रश्नवाचक नजरों से देखने लगा!
पत्नी ने उसके बोलने का इन्तेजार किये वगैर कहा कि 'आपका बेस्ट अवार्ड कौन है? वह पाठक जो आपसे फोन पर बात कर रहा था या वह जिसका आप इन्तेजार कर रहे हैं?'
मेरा पाठक! बरबस ही गिरीश के मुंह से निकला... !!
और दोनों एक दुसरे को देखकर हंस पड़े...
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
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Friday 11 September 2015

पब्लिक प्लेस पर … (लघुकथा)

by on 11:09
स्टेशन पर मेट्रो के रूकते ही दो लड़कियां चढ़ीं और भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए कोने में खड़ी हो गयीं. एक उनमें फ्रिक्वेंट इंग्लिश में गिटपिट करने लगी तो दूसरी रूक-रूक कर हिंग्लिश में जवाब दे रही थी. बगल में गिरीश खड़ा था, जो रोमांचवश उनकी बातें सुनने लगा. एक बॉस की तरह इंटरव्यू ले रही थी तो दूसरी शायद फ्रेशर थी. अपॉरचुनिटी, इनोवेशन .. सेल्स .. वेबसाइट ... और ऐसी ही शब्दावलियों के साथ मेट्रो की भीड़भाड़ में इंटरव्यू देने वाली लड़की असहज महसूस कर रही थी, मगर उसकी सीनियर धड़ाधड़ प्रश्न किये जा रही थी.
बी कम्फर्टेबल! आय हैव टू सबमिट माय फीडबैक ... सीनियर ने कहा!
येस मैम, बट कैन आई ... ऑफिस में ... अगर .. आप
बी रिलैक्स, एंड आय हैव टू यूटिलाइज माय टाइम . ..
देखते देखते जब गिरीश से नहीं रहा गया तो उसने कह ही दिया, मैडम पब्लिक प्लेस पर इंटरव्यू, वह भी ऑफिशियल लेने की कोई नयी रिसर्च है क्या?
दिस इस नन ऑफ यूअर बिजनेस ... सीनियर ने बेरूखी से कहा!
नहीं जी, मेरा बिजनेस है ... कपड़े की दुकान है, गिरीश ने जानबूझकर छेड़ा.
इससे पहले कि सीनियर कुछ कहती, जूनियर ने हस्तक्षेप किया
कहाँ पर है आपकी दुकान... ?
जी, तिलक नगर में ... मुस्कराते हुए गिरीश ने जवाब दिया तो सीनियर मैडम को गुस्सा आ गया और उसने जूनियर की ओर देखते हुए अपना डिसीजन सुना ही दिया - 'यू आर रिजेक्टेड फ्रॉम दी कंपनी' ... और तुनकते हुए मेट्रो के दुसरे डिब्बे की ओर बढ़ गयी.
उसके जाने के बाद गिरीश ने जूनियर से कहा 'दैट कंपनी इज़ नॉट एलिजिबल फॉर यू, प्रॉबेबली ...'
और दोनों हंस पड़े.
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
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Thursday 10 September 2015

बहन कहने वाले हैं मुझे... (लघुकथा)

by on 09:56
छोटे ऑफिस में नयी आयी थी वह, थोड़ी शर्मीली भी. फ्रेशर्स को किसी ऑफिस में किस सिचुएशन से गुजरना पड़ता है, यह बात नेहा को जल्द ही पता चल गयी थी. उसकी सीनियर रजनी पहले तो उससे ठीक से पेश आयी लेकिन कुछ ही समय बाद उसका व्यवहार रूखा होने लगा. इसके विपरीत नेहा के मेहनती स्वभाव को ऑफिस में पसंद किया जाने लगा. उसे जो नहीं समझ आता था, वह दीदी- दीदी कहकर रजनी से भी पूछ कर सीखने का प्रयत्न करने लगी. उधर रजनी के मन में ईर्ष्या अपना आकार बढ़ाने लगी, जिसे नेहा के साथ-साथ उसके बॉस ने भी महसूस कर लिया. उसने सोचा कि दोनों को बुलाकर सामंजस्य बनाने का प्रयास करना चाहिए. अपने संक्षिप्त लेक्चर में बॉस ने दोनों को बताया कि उन्हें आपस में मिल जुलकर रहना चाहिए, तभी ऑफिस का कार्य ठीक प्रकार से हो सकेगा. नेहा ने सहज भाव से कहा कि रजनी उसकी बड़ी बहन जैसी ही हैं!
'बहन कहने वाले हैं मेरे पास ...'
मुझे और बहनों की जरूरत नहीं है! यह कहकर रजनी गुस्से में केबिन से बाहर अपनी सीट पर आ गयी.
ईर्ष्या और क्रोध का यह रूप देखकर नेहा के साथ उसके बॉस भी अवाक भी रह गए. हालात को समझते हुए उन्होंने कठोर निर्णय लिया और रजनी की मेल पर 1 महीने का नोटिस- पीरियड आ गया.
मेल देखते ही उसे सांप सूंघ गया, मगर ईर्ष्या कब गुस्से के रास्ते अहम तक पहुँच गयी, यह उसकी समझ में आता तो वह बहन बनने से इंकार ही क्यों करती भला! मेल में वह कभी नोटिस तो कभी अपने रिज्यूम फोल्डर को पलटने लगी ... आगे का सफर जो उसे तय करना था. मन-मस्तिष्क उसका यह प्रश्न भी पूछ रहा था कि अगर दूसरी जगह भी उसे 'बहन' कहने वाली मिल गयी तो ...
 
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Wednesday 9 September 2015

सम्मेलनों, दिवसों से काफी आगे है हिंदी

by on 12:13
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, logo, iconदसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के सन्दर्भ में दो केंद्रीय मंत्रियों के बयान आये हैं जो अलग होने के बावजूद एक दिशा में ही दिखते हैं. पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाषा पर जोर रहेगा न कि साहित्य पर. यह बयान कुछ हद तक कन्फ्यूज करने वाला था, क्योंकि भाषा और साहित्य एक दुसरे के पूरक ही माने जाते रहे हैं. इस बयान से उत्पन्न संदेह तब दूर हो जाता है, जब विदेश राज्यमंत्री और पूर्व जनरल वी.के.सिंह का बयान आता है. केंद्रीय मंत्री ने कहा, 'पहले के नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों में साहित्य और साहित्यकारों पर जोर होता था. लोग आते थे, लड़ते थे, आलोचना करते थे और वह खत्म हो जाता था. विदेश राज्यमंत्री यहीं नहीं रुके, आगे की परतें खोलते हुए उन्होंने नहले पर दहला मारा कि इस दौरान लेखक और साहित्यकार खाना खाने के लिए आते थे और शराब पीकर अपनी किताब का पाठ करते थे. अपने बयान में आगे जोड़ते हुए सिंह ने कहा कि इस बार के आयोजन में 'वैसे लेखकों' को निमंत्रण ही नहीं भेजा गया है. अब सुषमा स्वराज के बयान और जनरल वी.के.सिंह का बयान एक क्रम में हैं या नहीं, इसका फैसला हम सबके स्वविवेक के ऊपर ही छोड़ देना चाहिए, मगर मूल प्रश्न यह है कि 'साहित्य' और 'साहित्यकारों' के ऊपर इस हद तक की कड़ी और 'जूतामार' टिप्पणी करने की जरूरत क्यों पड़ी, वह भी तब जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 10 से 12 सितंबर तक 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें भारत और 27 अन्य देशों से लगभग 2,000 प्रतिनिधियों के हिस्सा लेने की संभावना है. इसका उत्तर हम आगे की पंक्तियों में ढूंढने का प्रयत्न करेंगे, इससे पहले वी.के. सिंह के बयान पर एक स्वनामधन्य साहित्यकार की प्रतिक्रिया बतानाVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, sushma swaraj, vk singh आवश्यक है. आपसी बातचीत में, उन साहित्यकार महाशय ने तुरंत वी.के.सिंह की जन्मकुंडली निकाल ली और उसमें तमाम दोषों को गिना बैठे! वह यहीं नहीं रुके, बल्कि 'फौजियों' के बारे में टिप्पणी कर उठे कि 'इसीलिए सेना में रहे लोगों को किसी 'बौद्धिक' पद पर नहीं बिठाया जाना चाहिए. वह आगे न जाने क्या-क्या कहते कि हमने उन्हें टोक दिया कि 'क्या पूर्व जनरल ने वाकई असत्य बात कही है?' उन्होंने आग उगलते नेत्रों से मुझे देखा और चट कह उठे कि 'तुम्हारे जैसे लेखकों की वजह से ही लेखक-बिरादरी पर कोई भी ऊँगली उठा देता है, और ऐसे बयानों को उत्साहित करता है.' मैंने उन्हें तत्काल सफाई दी कि अभी तो हम दो चार लाइन लिख लेते हैं और मैं किसी साहित्यिक गुट में शामिल भी नहीं हूँ, न ही मुझे कोई हिंदी का जुगाड़ू अवार्ड प्राप्त हुआ है, साथ ही साथ मेरा सात - आठ साल का लेखकीय अनुभव भी आप गहराई वाले सुविज्ञों की तुलना में कुछ भी नहीं है, इसलिए हे सामाजिक दर्पण रुपी साहित्यकार महोदय! आपके इस आरोप के लायक मैं हूँ ही कहाँ? मेरा इतना कहना था कि मुंह बिजकाते वह तेजी से बाहर निकल गए. वैसे, उन जैसे अनेक महोदय आजकल नाराज दिख रहे हैं, जिनकी पीड़ा फेसबुक पर रुक-रुक कर निकल रही है कि आखिर उन जैसे महानतम साहित्यिक, सामाजिक, चारित्रिक, मानवीय गुणों के संवाहक, युवाओं को प्रेरित करने वाले मर्मज्ञों को विश्व हिंदी सम्मलेन में बुलाया क्यों नहीं गया?
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, hindi bloggerखैर, उनके जैसी पीड़ा, बल्कि उनसे भी ज्यादे पीड़ा को हम युवा लेखकों से ज्यादा कौन समझता है भला, क्योंकि युवा ब्लॉगर्स के रूप में हिंदी की सेवा थोड़े ही होती है, यूट्यूब पर हिंदी वीडियो बनाकर तमाम तकनीक की जानकारियों को आम भारतीयों तक पहुंचाना हिंदी की सेवा कैसे हो सकती है भला? गूगल, फेसबुक और ऐसी ही विश्व की बड़ी से बड़ी कंपनियां आज हिंदी में अपने उत्पादों को लाने के लिए मजबूर हैं तो इसमें युवाओं का योगदान क्योंकर माना जाए? एडसेंस से लेकर, तमाम अफिलिएट नेटवर्क से हिंदीभाषियों के लिए, सरकार की मदद के बिना रोजगार के एक बड़े क्षेत्र को आयाम देने में युवाओं का योगदान किधर से हो गया भला? ई- बुक के रूप में सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का कार्य भाषा-सेवा है क्या? नहीं, नहीं, नहीं ... यह सभी प्रयास मुख्यधारा के थोड़े ही हैं. मुख्यधारा के प्रयास तो यही साहित्यकार लोग करते हैं, जिनमें किसी की बत्तीस तो किसी की छत्तीस किताबें छपी हैं, भले ही उसका प्राक्कथन भी पढ़ने योग्य न हो! मुख्यधारा साहित्य और भाषा की उन्नति का श्रेय तो उन्हीं मठाधीशों को जाता है, जो तमाम सरकारी संस्थानों और पुरस्कारों के साथ सरकारी संशाधनों पर भी कुंडली मारकर बैठे हैं! जी हाँ! ये मठाधीश कभी इस हिंदी भवन तो कभी उस साहित्य अकादमी में 25 -25 लाख या उससे भी ज्यादा राशि के बड़े-बड़े कार्यक्रम कराते हैं और हिंदी को शिखर पर पहुँचाने में युग परिवर्तनकारी भूमिका का निर्वहन करते हैं. यह अलग बात है कि उनके कार्यक्रम में, उन्हीं के सर्कल के 40 - 50 लोग आते हैं, मगर इससे क्या हुआ, एक शेर ही सौ गीदड़ों पर भारी पड़ता है और इन कार्यक्रमों में आने वाले 40 -50 लोग, चार-पांच हजार के बराबर होते हैं. ऐसे ही अनेक कारण हैं, जिसके कारण इनका महिमा-मंडन अवर्णनीय हो जाता है.
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, hindi is our mother tongueजहाँ, तक विश्व हिंदी सम्मेलन का प्रश्न है तो प्रधानमंत्री के द्वारा इसका उद्घाटन होना यह बताता है कि सरकार की प्राथमिकता इस भाषा को लेकर कितनी गहराई तक है. यूं भी केंद्र सरकार हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर प्रयत्नशील है. इस कड़ी में महेश श्रीवास्तव द्वारा रचित दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी गान 'हिंदी का जयघोष गुँजाकर भारत माँ का मान बढ़ेगा' के शीर्षक वाली रचना में सभी पक्षों को संतुलित करने की कोशिश की गयी है, जिसमें अन्य भारतीय भाषाओँ को हिंदी की बहनें तो, युवा शक्ति और कंप्यूटर का ज़िक्र ऊर्जा के सन्दर्भ में सुन्दर ढंग से किया गया है. नागरिकों को देवनागरी के प्रयोग करने और हिंदी को लेकर हीन भावना से मुक्त होने की अपील सार्थक ही है. दिलचस्प यह है कि इस गान में भी साहित्य का ज़िक्र नहीं है. इसी कड़ी में, तीन दिवसीय सम्मेलन में होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा और बेहतर की जा सकती थी. विदेशों में हिंदी, प्रशासन, विज्ञान एवं संचार में हिंदी, विधि एवं न्याय क्षेत्र, बाल साहित्य, प्रकाशन, पत्रकारिता जैसे विषयों के अतिरिक्त 'ब्लॉगिंग शब्द (विषय) का न होना खटकता है. यह विषय अपने आप में दुसरे विषयों से ज्यादा नहीं तो बराबर महत्त्व अवश्य ही रखता है, और यह शब्द सिर्फ एक औपचारिकता भर नहीं हैं, जैसे कि उपरोक्त वर्णित तमाम विषय हैं, बल्कि 'ब्लॉगिंग' हिंदी को अर्थोपार्जन से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास बन रहा है. आखिर हिंदी इसीलिए तो पीछे हो रही है, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ने वाले वर्ग को धनार्जन का बड़ा मार्ग दिखता है. इस सन्दर्भ में देश के बड़े चैनल ABP न्यूज़ का प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसने इस सम्मलेन से पहले ही भारत के बेस्ट हिंदी ब्लॉगर्स को प्रोत्साहित करने का प्रयास करने का संकल्प लिया है. दैनिक जागरण जैसे बड़े हिंदी अख़बार को अगर कोई सरकारी नौकरशाह बारीकी से पढता होता तो उसे समझ आती कि यह अखबार भी 'जागरण जंक्शन ब्लॉग ' के नाम से अपने प्रिंट-एडिशन में परिवर्तन लाने की शुरुआत कर चुका है. ऐसे ही तमाम प्रयास होने शुरू हो गए हैं तो फिर दसवां विश्व हिंदी सम्मलेन इससे अछूता क्यों? हिंदी ब्लॉगिंग की वजह से ही आज हिंदी ऐसे सम्मेलनों और दिवसों की औपचारिकता से काफी आगे निकल चुकी है. इस सम्मलेन और इससे जुड़ेVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, bhopal pandal image कार्यक्रम निर्धारकों का एक यह भी कर्त्तव्य बनता था कि वह ऑक्सफ़ोर्ड जैसी विश्व-स्तरीय शब्दावलियों में आये परिवर्तन को भी समझने की कोशिश करता. हाल ही में अंग्रेजी भाषा में 1000 नए शब्दों को शामिल किया गया है, तो क्या हिंदी में इस तरह के प्रयास की आवश्यकता नहीं है जो भाषा के प्रवाह को बनाये रख सके. इस महत्वपूर्ण विषय का सम्मलेन में अलग सेशन न होना अपने अपने आप में चिंतनीय और दुख़द है. खैर, इन तथ्यों के साथ यह भी सत्य है कि सुधार प्रक्रिया धीरे-धीरे ही आगे बढ़ती है. इस सम्मलेन की और भी उपलब्धियां तो इसके समापन के बाद आंकलित की जाएँगी, किन्तु विदेश मंत्रियों के बयान ने साहित्यकारों को आइना जरूर दिखाया है. आइना यह दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजकों को भी है कि वह किस प्रकार दारूबाजी, गुटबाजी और चापलूसी से आगे इस सम्मेलन को ले जाते हैं, क्योंकि इन शब्दों को अब आधिकारिक ही माना जायेगा. सरकार से पूछा जायेगा कि अगर पिछले सम्मेलन दारूबाजी और गुटबाजी के कारण बर्बाद हो जाते थे तो इस सम्मेलन से क्या हासिल हुआ? देखने और समझने वाली असल बात यही है और इसका इन्तेजार आम-खास सभी को रहेगा... तथाकथित साहित्यकारों को भी, जिन पर सरकार ने खुल कर निशाना साधा है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर.
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Sunday 6 September 2015

ब्लॉगिंग अभिरूचि और डिजिटल इंडिया

by on 14:53
Blogging oppotunity in India and digital India initiative by Government, blog iconब्लॉगिंग दुनिया में एक जाना पहचाना और कमाऊ करियर ऑप्शन है तो भारत में भी यह बेहद तेजी से आगे बढ़ रहा है. हालाँकि, आज भी भारत में 'प्रोफेशनल ब्लॉगिंग' को वह दर्जा हासिल नहीं है जो उसे होना चाहिए. सरकारें जिस प्रकार 'डिजिटल इंडिया' पर जोर दे रही हैं, उससे हम समझ सकते हैं कि आने वाले दिनों में ब्लॉगिंग और इंटरनेट गतिविधियों की श्रृंखला और तेजी से बढ़ने वाली है. डिजिटल इंडिया भारत में ज्ञान समाज और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की स्थापना की दिशा में दूरदर्शी कदम सिद्ध हो सकता है लेकिन बिना अनुकूल माहौल, परिस्थतियों, मानसिकता और ढाँचे के इसकी कामयाबी संदिग्ध बनी रहेगी. दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजना के रास्ते में आने वाली रुकावटों की कोई कमी नहीं है और इनमें सबसे पहली समस्या बिजली को लेकर आने वाली है. बिडम्बना यह है कि भारत में इंटरनेट से कमाई अभी आमदनी का मुख्य श्रोत नहीं बन पायी है, जिसका कारण भी स्पष्ट है कि अभी देश में एक बड़े वर्ग तक इंटरनेट की पहुँच संभव नहीं हो सकी है. फेसबुक द्वारा चलाये जा रहे प्रोग्राम 'इंटरनेट डॉट ऑर्ग' की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि इससे 'नेट न्यूट्रलिटी' प्रभावित होगी, मगर यह समझना आवश्यक है कि तेजी से बढ़ते ज़माने से कदमताल करने के लिए भारत जैसे देशों को इंटरनेट के तेज प्रसार से जोड़ा जाना अति आवश्यक है. इसके आगे जिस दूसरी समस्या पर हम गौर करते हैं, वह है ब्लॉगिंग. लोगों को ब्लॉग लिखने के बारे में समझा पाना थोड़ा कम कठिन होता है, लेकिन यह समझा पाना अत्यंत मुश्किल कार्य है कि ब्लॉगिंग से पैसा भी कमाया जा सकता है. लोग बड़ी हैरत से यह प्रश्न करते हैं कि “क्या सचमुच ब्लॉगिंग से पैसे कमाया जा सकता है ??”
समस्या यही भी है कि हमारी रूटीन शिक्षा प्रणाली, मसलन इंजीनियरिंग, बीसीए, एमसीए या फिर ट्रेडिशनल कंप्यूटर इंस्टिट्यूट इत्यादि में ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया इत्यादि से सम्बंधित जानकारी दी ही नहीं जाती है और थोड़ी बहुत इधर-उधर से जानकारी प्राप्त करके ग्रेजुएट युवा इस बारे में कन्फ्यूज रहते हैं. भारत में अधिकांश लोग ब्लॉगिंग की ताकत और उसकी कमाई के पोटेंशियल से अनजान हैं. इस सम्बन्ध में आपसे एक वाकया शेयर करना चाहूंगा. अपने एक मित्र के यहाँ काफी समय बाद गया तो सामान्य बातचीत के बाद उसके पिता ने मुंह बनाते हुए बताया कि उनका छोटा बेटा भी कम्प्यूटर इंजीनियरिंग कर रहा है. मैंने कहा, यह तो अच्छी बात है और फिर कम्प्यूटर की पढाई और जानकारी तो आजकल अनिवार्य सी बनती जा रही है. उनका तत्काल कहना था कि अब तो कम्प्यूटर इंडस्ट्री 'सैचुरेट' हो गयी है. मैंने उनसे कहा कि अंकल, कम्प्यूटर मार्किट जॉब के लिहाज से चाहे जैसी हो, मगर यदि लड़का थोड़ा भी इनोवेटिव है, सोचने विचरने वाला है तो इस फिल्ड में असीमित संभावनाएं हैं. फिर मैंने उनको ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया के साथ साथ यह भी बताया कि किस प्रकार हज़ारों लाखों लोग, एक कांसेप्ट, एक वेबसाइट या ब्लॉग से अपनी पहचान दुनिया भर में बनाये हुए हैं. हालाँकि, बदलाव की प्रक्रिया अब चल रही है और लोगों को बताना पड़ेगा कि ब्लॉगिंग के रूप में, उनके पास ना केवल समाज को बदलने और शिक्षित करने का अवसर है बल्कि उनके पास अपने लिए नाम और धन कमाने का भी पर्याप्त अवसर है. वे अपने लिए और दूसरों के लिए भी पैसे कमाने के नए रास्ते खोलने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं. किसी भी विषय में अपना ब्लॉग शुरू करें, जिसमें आप जानकारी ऑफर कर सकते हैं. यदि आपको लिखना पसंद नहीं है तो वीडियो ब्लॉगिंग एक बेहतर ऑप्शन के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. Digital India and blogging articleब्लॉगिंग के बारे में मोटिवेट करने का सबसे अच्छा तरीका, उन्हें पैसे को लेकर आशान्वित करने का होता है.जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं, पैसा सबसे बड़े उत्प्रेरकों में से एक है, क्योंकि सबको पैसे की जरुरत होती है. ब्लॉगिंग मजेदार और दिलचस्प होती है जिसमें लोगों को पढ़ने और नॉलेज प्राप्त करने के हज़ारों अवसर उपलब्ध होते हैं और यदि लोगों को यह पता चले कि ब्लॉगिंग से पैसे भी कमाए जा सकते हैं तो यह निश्चित रूप से उनके उत्साह को बढ़ा देगा. यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि भारत के कई प्रोफेसनल ब्लॉगर्स केवल ब्लॉगिंग से ही हर महीने लाखों की कमाई कर लेते हैं, जो किसी दुसरे पेशेवर के दो से तीन साल तक की कमाई के बराबर या उससे ज्यादा भी होता है. इसके अतिरिक्त, तमाम कंपनियां भी ब्लॉगिंग को गंभीरता से ले रही हैं. आप किसी भी कंपनी की वेबसाइट पर जाएँ, चाहे ट्विटर, फेसबुक, गूगल या कोई और उसका ब्लॉग और रेगुलर अपडेट आपको अवश्य ही दिख जायेगा. इसी वजह से, अब तमाम दूसरी कंपनियां भी ब्लॉगिंग को गंभीरता से ले रही हैं, और अपने व्यापर बढ़ाने के प्रयास में वे प्रोफेशनल ब्लॉगर्स के साथ भी जुड़ रही हैं. मार्केटिंग के महत्व को समझते हुए ज्यादातर कंपनियां ब्लॉगिंग के सम्बन्ध में 'यूजर इंगेजमेंट' और 'बाउंस बैक' से बचने के लिए अब अलग से बजट तैयार कर रही हैं. वास्तव में, उनमें से कई प्रेस कॉन्फ्रेंस के अतिरिक्त ब्लॉगर्स के लिए एक अलग कार्यक्रम भी रखने लगे हैं. ब्लॉगिंग के बढ़ते हुए प्रभाव को समझने के लिए हमें ब्लॉगअड्डा (BlogAdda) और इंडीब्लोगर (Indiblogger) जैसे फोरम्स की ओर देखना चाहिए, जो भारतीय ब्लॉगर्स के लिए एक कम्युनिटी बनाने में कड़ी मेहनत कर रहे हैं और साथ ही वे कॉर्पोरेशन्स को भारतीय ब्लॉगर्स के साथ जोड़ने के लिए भी काम कर रहे हैं.
बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य में हमें इंटरनेट से सम्बंधित कार्यों के प्रति और भी गंभीर हो जाना चाहिए, क्योंकि आने वाले समय में ऐसा कोई क्षेत्र शायद ही बचे, जो इसके प्रभाव और व्यापकता से अछूता रहे. जहाँ तक बात डिजिटल इण्डिया जैसे प्रोग्राम्स की है तो तमाम विसंगतियों के बारे में हमें समझ लेना चाहिए कि डिजिटल इंडिया का सफल क्रियान्वयन कोई असंभव कार्य भी नहीं है. एस्तोनिया जैसे छोटे से देश ने, जो सन् 2007 में भीषण साइबर हमले का शिकार हुआ था, अपने आपको सफलतापूर्वक एक डिजिटल राष्ट्र में बदलकर दिखा दिया है. उस साइबर हमले ने एस्तोनिया के समूचे आर्थिक, प्रशासनिक और कारोबारी तंत्र को कई दिन के लिए ठप्प कर दिया था, लेकिन उस देश ने एक संकल्प लिया और उसे पूरा करने का साहस दिखाया. अनेक पश्चिमी देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को नोटों के प्रयोग से मुक्ति दिलाने का लक्ष्य बनाया है. स्वीडन और डेनमार्क कैशलेश समाज में बदलने जा रहे हैं जहाँ धन के भुगतान और लेनदेन में या तो प्लास्टिक कार्डों का प्रयोग होगा या फिर ऑनलाइन माध्यमों का और वे अपने लक्ष्य के बहुत करीब पहुँच भी चुके हैं. साफ़ है कि देर-सबेर यह सुविधाएं हमारे देश में आएँगी ही, बल्कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में जल्द से जल्द आने के लिए तैयार हैं. तो फिर भारतीय ही देर क्यों करें, अपनी कलम उठाएं और उन तमाम समस्याओं और उसके निराकरण के बारे में सवा अरब आबादी को रूबरू कराएं. और इसका प्लेटफॉर्म बनेगा ब्लॉगिंग. जी हाँ! ब्लॉगिंग और डिजिटल इंडिया के सम्मिश्रण से न केवल हमारा देश सूचना प्रोद्योगिकी का सही इस्तेमाल कर पायेगा, बल्कि धन कमाने और रोजगार पैदा करने का भी एक बड़ा क्षेत्र बन सकेगा. आप यह जरूर सोचेंगे कि इस लेख में ब्लॉगिंग और डिजिटल इंडिया के बारे में काफी कुछ कहा गया है मगर 'कमाई' कैसे होगी? आप निश्चिन्त रहिये और अगर आप ब्लॉगिंग के बारे में खुद की रुचि जगाने में सफल हो गए तो फिर इस डाली को कस कर पकडे रहिये, क्योंकि आप यदि लगातार ब्लॉगिंग करते रहे तो खुद समझ जायेंगे कि गूगल एडसेंस, अफिलिएट मार्केटिंग और सोशल मीडिया का नेटवर्क किस तरह कार्य करता है और किस प्रकार बड़ी और स्थायी कमाई के साथ 'स्वतंत्र कमाई' का रास्ता खोलता है. और फिर काम जब राष्ट्रभाषा हिंदी और मातृभाषा में हो तो दिल और दिमाग एक साथ कार्य करते हैं, जिससे शानदार परिणाम आने निश्चित हो जाते हैं. मेरे दुसरे लेखों में इस बारे में ज़िक्र है और होता रहेगा, तब तक के लिए ढेरों शुभकामनाएं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर.
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Saturday 5 September 2015

उन्हें बारम्बार प्रणाम...

by on 09:45
पत्नी, प्रिये, अर्धांगिनी 
और धर्मपत्नी

जीवन संतुलन, उत्थान
और सृष्टि की कथा- 

सुख दुःख, संयोग वियोग 
और रुचि अरूचि में 

बंध, प्रबंध, सम्बन्ध
और समर्पण भी

दिन रात, सुबह शाम 
और हर क्षण में 

(प्रिय पत्नी के जन्मदिवस पर रचित दो पंक्तियाँ)


Wednesday 2 September 2015

लीडरशिप 

by on 12:30
मित्रों के समूह में लीडरशिप पर ज़ोरदार चर्चा चल रही थी. कोई लीडर्स में उद्देश्य के क्लियर होने की बात कर रहा था तो कोई उसकी डायनामिक पर्सनालिटी को लीडरशिप के लिए आवश्यक बता रहा था. 
इसके अलावा भी समर्थकों का हजूम, पैसे की पॉवर, अच्छा वक्ता, हाजिरजवाब जैसे अनेक गुण गिनाये गए, बल्कि कई लोगों ने तो आधुनिक काल में दबंगई को भी जरूरी बताया. हर कोई एक से बढ़कर एक खूबियों की बातें कर रहा था, मगर कोने की चेयर पर बैठा राजीव सबको सुन रहा था और उसे अपनी डायरी में नोट करता जा रहा था. 
अरे तू भी कुछ बोल राजीव! यह मोंटी का स्वर था.
'लीडरशिप इज़ एन एक्स्ट्रा क्वालिटी', राजीव का स्वर साफ़ और स्पष्ट था.
मतलब?
तो? सबने एक साथ बोला.
तो, लीडर जिस जगह हैं पहले उस काम को बेहतर तरीके से करना शुरू करते हैं और उस कार्य को बेहतर तरीके से करने के लिए दूसरों को प्रेरित भी करते हैं, यही तो लीडरशिप है. मतलब, जो काम करना हम जानते हैं, उसके लिए दूसरों को प्रेरित करना ही तो लीडरशिप है!
और यह प्रेरित करना हमारी 'एक्स्ट्रा क्वालिटी' ही तो है. 
शायद नहीं! क्योंकि जो अपने काम से पीछा छुड़ाता रहता है, वह तमाम चोंचलों के बाद भी अपनों को सच्चाई से प्रेरित नहीं कर सकता है और कुछ ईंटों के बाद ही उसका झूठा महल भरभरा कर गिरने लगता है. उन ईंटों को बचाने के लिए ही भ्रष्टाचार, अपराध, छल, स्वार्थ का साथ ले लेता है और अपनों को दूर धकेल देता है... एक सूर में राजीव ने कह डाला!
चलो चलो, कैंटीन चलते हैं, माहौल को हल्का करने की गरज से मोंटी ने कहा. 
हाँ! हाँ ... और मित्रों का समूह कैंटीन की ओर चल पड़ा, मगर सामान्यतः ऐसी बैठकों के बाद ठहाकों और हल्केपन की बजाय एक गंभीरता व्याप्त थी और लीडर बनने को उत्सुक लड़के सोचने में लगे थे कि वह कौन-कौन से कार्य बेहतर तरीके से कर सकते हैं, क्योंकि 'लीडरशिप इज एन एक्स्ट्रा क्वालिटी'.

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Tuesday 1 September 2015

कॉर्पोरेट सहानुभूति

by on 08:00
कैरियर के लिहाज से बेहद सफल थी मेहनाज और उससे भी मजबूत था उसका नेटवर्क. मीडियाकर्मी, कॉर्पोरेट पर्सनालिटीज, नेता और लॉबिस्ट से उसके गहरे संपर्क थे. कहना मुश्किल था कि उससे जुड़े लोग उसकी अथाह दौलत के पीछे थे या उससे लगाव रखते थे. खैर, जो भी हो उसकी ज़िन्दगी सरपट दौड़ती जा रही थी.
इस बीच उसके परिवार में किसी की हत्या हो गयी और शक की सुई घुमी मेहनाज़ पर.
गिरफ्तारी के बाद शक यकीन में तब्दील होने लगा और चूँकि मामला हाई प्रोफाइल था, इसलिए मीडिया में मेहनाज़ के पास्ट की परतें खुलने लगीं. एक के बाद एक लगातार चार शादियां, होटलों में छापों के दौरान कॉल गर्ल के रूप में पकड़ा जाना, सरकारी अधिकारियों के साथ अंतरंग संबंधों की पड़ताल होने लगी. जाहिर था, ऊंचाइयां छूने के लिए मेहनाज़ ने अनेक मर्यादाओं को कुचल डाला था. मामला कुछ यूं चला कि मेहनाज़ का बचाव मुश्किल होता जा रहा था.
अगले ही दिन, एक बड़े पत्रकार का इंटरव्यू छपा जिसमें मेहनाज़ की ज़िन्दगी पर उन महाशय ने प्रकाश डालते हुए कहा कि मेहनाज़ के बचपन में उसका शोषण हुआ था, इसलिए उसकी मानसिक दशा कुंठा का शिकार हो सकती है. 
उसी दिन शाम को एक बड़े चैनल पर एक अन्य प्रभावशाली व्यक्ति कह रहे थे कि मेहनाज़ के पिता, बचपन में उसको बेरहमी से पीटा करते थे!
इन ट्वीस्ट से मीडिया की टीआरपी जहाँ आसमान छूने लगी, वहीं मेहनाज़ के प्रति 'सहानुभूति' का बीजारोपण होने लगा... या फिर किया जाने लगा... कॉर्पोरेट अंदाज में!!
 
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