शुरुआत में जब नयी नयी 'समझ' की कोंपलें फूट रही थीं, तब ऐसी कई बातें थीं जो दिमाग के बहुत ऊपर से निकल जाती थीं. भारत जैसे देश में चूँकि चुनाव होते ही रहते हैं, कभी लोकसभा, कभी विधानसभा, कभी ग्राम-पंचायत और इनके बीच में भी तमाम दुसरे चुनाव. इन चुनावों में एक कॉमन बात यह सुनने को मिलती रहती थी कि अमुक पार्टी या अमुक उम्मीदवार ने 'लाशों पर राजनीति' करने की कोशिश की है. नहीं समझ आती थीं तब ये बातें... और ... ऐसा पहला अनुभव तब हुआ, जब मेरे गाँव में ग्राम पंचायत का चुनाव हुआ. यह 1995 के आस पास का समय था, जब मेरी उम्र 10 साल की थी... बड़े उत्साह से गाँव के प्राइमरी स्कूल पर मैं भी जमा रहा था कि शाम को तकरीबन चार बजे भगदड़ सी मची और ... प्रधान पद के एक उम्मीदवार को अपने खून से सने पेट को पकड़े गिरते हुए देखा. दो चार और खून से लथपथ लोग दिखे ... जल्द ही लाठियां और बांस हवा में लहराने लगे थे. डर के मारे मैं भागते
हुए घर आया और तब मेरा बालमन यही सोच रहा था कि कहीं मेरी मम्मी और चाची तो वोट देने नहीं गयी हैं. मेरे पहुँचने के थोड़ी देर बाद एक प्रत्याशी का समर्थक भी रोते हुए मेरे घर पहुँच गया और गिड़गिड़ाते हुए बोला कि 'उ सहबुआ, दतुअन काटे आला छूरी कई आदमीं के भोंक देले बा, अब पुलिस के कई गो गाड़ी आ गइल बाड़ी सन, चल के वोट दे द लो ए रमेशर भइया... कइसहूं जिता द लो... बाद में ए ससुरन के देख लिहल जाइ'... जीवन में पहली घटना का ऐसा प्रभाव होता है कि आज 20 साल बाद भी उस घटना का चित्र हूबहू याद आता है. हालाँकि, उसके बाद तो लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में 'लाशों पर राजनीति' की खबरें देखना सुनना आम बात हो गयी. हाँ! जैसे-जैसे चुनाव और राजनीति बड़े होते गए, गाँव की 'छुरियों' का स्वरुप भी बंदूकें, एके-47, बम, दंगे, रासायनिक हथियार और परमाणु हथियारों तक में परिवर्तित होता गया. इसी कड़ी में प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, जिसका अध्ययन वैश्विक राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है. इन दो युद्धों, विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र संघ में कई देश अक्सर अपनी राजनीति को साधने के लिए मोहरे के रूप में कई देशों को आगे बढ़ाते रहे हैं. बेशक, वह मोहरा कुर्बान हो जाय, देश बर्बाद हो जाय! थोड़ा और स्पष्ट करें तो, विश्व में आज के समय में 'सीरिया संकट' सबसे बड़े संकट के रूप में दिख रहा है. लाखों की संख्या में शरणार्थी समस्या और उस पर अरब देशों का विपरीत रूख, अमेरिका रूस इत्यादि की अस्पष्ट नीतियां देखने के बाद, लगभग महीने भर तक यह समस्या मुझे ठीक से समझ ही नहीं आयी कि आखिर 'सीरिया संकट' की जड़ में है क्या? संयुक्त राष्ट्र की महासभा में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में कहा कि इस्लामिक स्टेट चरमपंथियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में 'सीरिया की सरकार' की मदद न करना एक बड़ी भूल है, तब इस संकट के पीछे की हवाओं को समझने में मदद मिली. अब इसी के साथ जरा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का बयान भी देख लीजिये, और राजनीति के मोहरों को समझने की कोशिश कीजिये. ओबामा ने महासभा में कहा कि सीरिया संघर्ष को समाप्त करने के लिए अमरीका, रूस और ईरान समेत किसी भी देश के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार है, लेकिन ज़रूरत यह है कि बशर अल असद से सत्ता का कामयाब हस्तांतरण हो.... मतलब, सीरिया में लाखों लोग जान गँवा चुके हैं, करोड़ों बेघर हो चुके हैं, 40 लाख से ज्यादा लोग पलायन कर चुके हैं ... और विश्व की दो सबसे बड़ी महाशक्तियां एक राष्ट्र-प्रमुख को हटाने और बनाये रखने पर राजनीति की चालें चल रही हैं.. कारण चाहे जो भी हो, क्या फर्क पड़ता है... मौत तो बेगुनाहों की हो ही रही है! और चूँकि, मामला दो महाशक्तियों के वर्चस्व का है, इसलिए विश्व के दुसरे देश भी सीरिया मामले पर कन्फ्यूजन में हैं. जाहिर है, इस्लामिक स्टेट को बढ़ावा देना, सीरिया को अस्थिर करना और उसके जरिये अपने हित साधने की कुटिल राजनीति चली जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे लादेन को बढ़ावा दिया गया था, या भारत में भिंडरवाले को बढ़ावा दिया गया था, या फिर पाकिस्तान में हाफीज़ सईद, हक्कानी गुट और दुसरे आतंकी समूहों को बढ़ावा दिया जा रहा है.





जाहिर है, पूरे कश्मीर और अपने काफ़िर-नियमों के तहत पूरी दुनिया पर हक़ ज़माने की मंशा वाला पाकिस्तान अपने देश और पीओके के नागरिकों के जीवन-स्तर को नरक से भी बदतर बना चुका है, लेकिन सवाल वही है कि यह बात किसे पता नहीं है? यह बात तो खुद पाकिस्तान के ही कई बुद्धिजीवियों द्वारा समय-समय पर कही जाती रही है कि पाकिस्तान कश्मीर तो मांग रहा है, लेकिन पहले वह पाकिस्तान को ही संभाल कर और उसका विकास करके दिखाए! स्पष्ट है कि चर्चा चाहे जम्मू कश्मीर की हो या 'पाक अधिकृत कश्मीर' की, इस मुद्दे पर भारत की उलझनें बढ़ेंगी ही. पहले भारत इस तरह की चर्चाओं को अनदेखा करता रहा है, यहाँ तक कि कई युद्धों में सीधी हार के बाद भी कश्मीर पर लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने बातचीत में 'इग्नोर' करने वाला रूख ही अपनाया. यहाँ तक कि अटल बिहारी बाजपेयी ने भी इस मुद्दे को ज्यादे हवा नहीं दी, लेकिन ग्राउंड पर सभी सरकारों ने जबरदस्त ढंग से कार्य किया और आतंक को पूरी तरह से काबू भी किया. बातचीत की इसी 'इग्नोरेंस नीति' का ही परिणाम है कि आज भारत एक महाशक्ति के रूप में खड़ा हो रहा है. भारत में मोदी का बड़ा उभार हुआ है तो एक बात यह भी सच है कि पुरानी नीतियों और उसके प्रभावों का हस्तांतरण नए राजनीतिक प्रशासकों को ठीक ढंग से नहीं हो पाया. मोदी इससे पहले एक प्रदेश के नेता रहे हैं तो भाजपा के अन्य वरिष्ठ चिंतक, पुराने नेता साइड किए जा चुके हैं और मोदी की 'अति मजबूत' छवि से सुषमा, राजनाथ जैसे धुरंधर भी कुछ कह पाने की स्थिति में
नहीं हैं. नौकरशाह बिचारे कितना कर सकेंगे, क्योंकि उनका एक निश्चित दायरा होता है जो 'सेलरी और प्रमोशन' से जुड़ा होता है. वह अक्सर वही कहते और करते हैं, जिससे उनके आका खुश हों. इसका बड़ा उदाहरण तब मिला, जब ग्रुप-4 के देशों के साथ मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट के लिए लॉबिंग करने का प्रयास किया. अब उन्हें किसी ने बताया नहीं कि सुरक्षा परिषद के लिए भारत का विरोध तो खुले तौर पर सिर्फ पाकिस्तान ही करता आ रहा है, लेकिन जर्मनी, जापान और ब्राजील के कई विरोधी हैं. इसकी आलोचना खुद को 'ब्रेन डेड' घोषित करने वाले यशवंत सिन्हा ने तुरंत की. यूं भी, संयुक्त राष्ट्र संघ फोटो खिंचाने भर का मंच ही तो है, अन्यथा कौन देश इस संस्था की बात कब मान रहा है? चीन अपनी मनमर्जी कर रहा है दक्षिणी चीन सागर और हिन्द महासागर में... रूस यूक्रेन में अपनी कर रहा है... तो अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान में अपनी चलाई और जमकर चलायी. सीरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ 'बिचारा' बना तमाशा देख रहा है और थोड़ी बहुत 'चैरिटी' कर रहा है. इज़रायल से लेकर तमाम अन्य देश इस संस्था को 'टोकन' भर ही मानते हैं. सोचने वाली बात है कि अगर संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर पर कोई प्रस्ताव पास ही कर दिया तो क्या भारत या पाकिस्तान उसे मानने को बाध्य होंगे? कतई नहीं...!! मुझे यह भी नहीं लगता है कि विश्लेषक इस तर्क से असहमत होंगे कि भारत की पावर वगैर सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बने ही काफी तेजी से आगे बढ़ रही है. हाँ! एक टैग मिले तो बढ़िया ही है, लेकिन यह टैग इतना बड़ा नहीं है कि उसके लिए फालतू के चोंचले किये जाएँ. ऐसे में कश्मीर मुद्दे पर बेवजह के होहल्ले से परहेज किया जाना चाहिए और बच, बचाके कुछ दशकों तक अपने विकास को रफ़्तार देना चाहिए.. ताकि हम पाकिस्तान जैसे देश से युद्ध की रेंज से काफी आगे निकल जाएँ. इस बात का यह कतई मतलब नहीं है कि हम पाकिस्तान के उकसावे पर कुछ नहीं करें, बल्कि पाकिस्तान के उकसावे के लिए पूरी तरह तैयार रहना और ईंट का जवाब पत्थर से देना ही होगा, लेकिन वगैर शोर शराबा किये .. !! अगर हम शोर शराबा करने लग जाएँ तो पाकिस्तान सहित चीन का मंतव्य ही पूरा करेंगे और खामख्वाह अपनी उलझनें ही बढ़ाएंगे. उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर पिछली 70 साल की नीतियों का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही केंद्र सरकार आगे की नीतियां बनाएंगी. हाल फिलहाल इसमें किसी बड़े बदलाव की आवश्यकता नहीं नजर आती है. हाँ! मोदी बिजनेस और घरेलु मोर्चे पर अपना प्रबंधन खूब दिखाएँ, इसमें उनको महारत भी है, लेकिन विदेश नीति पर कम से कम अगले पांच साल धैर्य बरता जाना आवश्यक है. समय की यही मांग है.


Hindi article on world politics, analysis of India Pakistan relations by Mithilesh
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