


असल सवाल यही है भी कि एक स्थापित पत्रकार हर तरह से जनता की राय को प्रभावित करने की ताकत रखता है, वह कइयों का आदर्श होता है, लेकिन जब वह आधी अधूरी जानकारी और पक्षपात या निहित स्वार्थों के कारण पत्रकारिता की कलम को कमजोर करता है, तो उसे जवाबतलब क्यों नहीं किया जाना चाहिए. क्या न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स असोशिएशन या ब्रॉडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन और दूसरी ऐसी संस्थाएं इस पर कोई नियामक लागू नहीं कर सकती हैं. कोई कानूनी न सही, सार्वजनिक आलोचना ही कर दी जाती, जिससे गलत या पक्षपात करने वालों पर कुछ तो दबाव पड़ता. इस कड़ी में सिर्फ पुण्य प्रसून बाजपेयी या राजदीप सरदेसाई ही हों, ऐसा नहीं है, बल्कि ज़ी न्यूज के मैनेजिंग एडिटर सुधीर चौधरी भी इस मामले में बेशक बदनाम हैं और उन पर भाजपा के प्रति अति झुकाव का मुद्दा उठाया ही जाता रहा है. इसी सन्दर्भ में, अब इण्डिया न्यूज में जा चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम साहब को बिहार चुनाव पर ही चर्चा करते हुए जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पक्षपाती होने का आरोप लगाया तो मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, हालाँकि पुराने रिकॉर्ड मैंने नहीं देखे हैं, लेकिन उस वक्त ऐसा लगा मानो अमित शाह थोड़े अतिवादी होकर किसी पुरानी यादों में बह गए थे, जिससे बचा जा सकता था. खैर, उनका कुछ तो अनुभव रहा होगा अन्यथा कोई राष्ट्रीय नेता पत्रकारों से पंगे क्यों लेगा भला? इस कड़ी में यह तो सिर्फ चंद नाम हैं, वरना सच्चाई तो यह है कि पत्रकारिता में 'विशेष निष्ठा' रखने का आरोप अब बेहद आम हो गया है. सिर्फ पत्रकार ही क्यों, बल्कि चैनल मालिकों पर भी आरोप लगने की विधिवत शुरुआत हो चुकी है.
वह तो भला हो सोशल मीडिया का, कि आज के समय में मेन स्ट्रीम मीडिया सहित अनेक ख़बरों का पोस्टमार्टम करने में इसके यूजर्स देरी नहीं करते हैं और इसी चीरफाड़ से घबड़ाकर एक और पत्रकार ने सोशल मीडिया पर 'गाली गलौच और गुंडागर्दी' का बेहद बचकाना और स्वार्थप्रेरित आरोप लगाने का रवैया अख्तियार किया है. वह पत्रकार हैं एनडीटीवी के रविश कुमार जी और संयोग से उनके भी हज़ारों लोग फैन हैं, क्योंकि वह गहराई में जाकर पत्रकारिता करने में यकीन करते हैं. लेकिन, हालिया मामलों में उन्होंने सोशल मीडिया को बेवजह और आधारहीन मुद्दों पर निशाना बनाने की कोशिश की है और उसका कारण यही है कि सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी रिपोर्टिंग को भी पक्षपाती बताते हुए पोस्टमार्टम कर दिया
था. क्या रविश कुमार बताएँगे कि आज किस चैनल पर गाली-गलौच (... अब तो मारपीट भी) नहीं हो रही है, तो क्या वह चैनल छोड़कर भी घर बैठ जायेंगे? प्राइम टाइम पर तो कोई भी चैनल लगा ले, वहां चिल्ल-पों के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता हैं. रविश जैसे पत्रकारों को यह समझना ही होगा कि विशेष विचारधारा के प्रति व्यक्तिगत लगाव रखना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन पत्रकारिता करते समय न केवल उसे मिक्स कर देना, बल्कि उसको अपने ऊपर पूरी तरह हावी कर लेना अपने दर्शकों और पाठकों के प्रति पूरी तरह से अन्याय ही है. इस संकुचन का ही परिणाम है कि अब मीडिया पर लोगों का भरोसा लगातार कम होता जा रहा है. पक्षपात, अधूरी मेहनत के अतिरिक्त, बाजारवाद की अतिवादिता, चैनल मालिकों की घोर व्यावसायिकता, सनसनीखेज टीआरपी विषयक कंटेंट (उदाहरणार्थ: इन्द्राणी-शीना रिपोर्टिंग) भी महत्वपूर्ण कारक हैं मीडिया के बदनाम और अविश्वसनीय होने के, जिन से निपटने की सबसे ज्यादा जिम्मेवारी बड़े और जिम्मेवार पत्रकारों की ही है. दुखद यही है कि जिनके कन्धों पर सबसे ज्यादा जिम्मेवारी है, वही कंधे बदनाम हो रहे हैं... और लगातार यह प्रक्रिया संक्रामक रोग की तरह बढ़ती ही जा रही हैं. हमाम में नंगों की तरह ... !!

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