Wednesday 23 September 2015

मीडिया की संकुचित, दूषित भूमिका

 
Media reporting and content analysis, hindi article about journalism, indian channelsयूं तो मीडिया द्वारा दोषपूर्ण, सनसनीखेज रिपोर्टिंग और पक्षपाती रवैये की खबर आती ही रहती है, लेकिन जब किसी विधानसभा या लोकसभा का चुनाव सामने हो तो यह अपने चरम पर होता है. 2014 के आम चुनाव में हमने स्पष्ट देखा कि तमाम मीडिया घराने और पत्रकार किस प्रकार विशेष पार्टी या नेता का पक्ष लेने में दिलचस्पी ले रहे हैं, मसलन कोई चैनल या रिपोर्ट कांग्रेसभक्त था तो कोई भाजपाई मानसिकता का. खैर, वह समय गुजर गया और अब जब बिहार विधानसभा का चर्चित चुनाव घोषित हो चुका है तो कमोबेश वैसी ही स्थिति, बल्कि उससे भी बदतर स्थिति सामने आती दिखाई दे रही है. कुछ हालिया उदाहरणों और नामी पत्रकारों की बात की जाय तो आज तक के पुण्य प्रसून बाजपेयी का नाम लेना उचित रहेगा. यह वही बाजपेयी साहब हैं, जो किसी मुद्दे पर सामने बैठ जाएं तो नख से सर तक के बाल उधेड़ डालते हैं और काफी सधे हुए अंदाज में एंकरिंग करने के लिए भी खासे मशहूर हैं. पुण्य प्रसून जी के इसी अंदाज से उनके हज़ारों प्रशंसक हैं, जो उन्हें देखना और सुनना चाहते हैं. लेकिन, बिहार चुनाव से सम्बंधित एक बड़े नेता का इंटरव्यू करते समय अपने चैनल पर जिस प्रकार से पुण्य प्रसून जी ने उस नेता को खुला मैदान दिया, उसकी जबरदस्त ढंग से आलोचना हो रही है. ऐसा लगा, मानो उस नेता के पक्ष में खड़े होकर पुण्य प्रसून साहब उसे मुद्दे दर मुद्दे याद दिला रहे थे और वह नेताजी अपने विशेष अंदाज में इंटरव्यू की जगह अपना भाषण प्रस्तुत कर रहे थे. पुण्य प्रसून बाजपेयी के कैरियर में तब भी प्रश्न उठा था, जब उन्होंने दिल्ली के बड़े और नवेले नेता के इंटरव्यू को 'क्रन्तिकारी, बहुत ही क्रन्तिकारी' कहकर उत्साहित किया था. खैर, इस कड़ी से थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो हम पहुँचते हैं मशहूर पत्रकार राजदीप सरदेसाई की ओर. जी हाँ! आप इनके बारे में भी सुन ही चुके होंगे. यह वही पत्रकार महोदय है, जिनकी अमेरिका में कुछ उत्साही प्रशंसकों ने धुनाई कर दी थी, क्योंकि वह गलत जगह पर लोगों को गलत तरीके से उकसा रहे थे. खैर, हिंसा की आलोचना होनी ही चाहिए, लेकिन राजदीप सरदेसाई एक बार फिर चर्चा में आये हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को ओपन-लेटर लिखकर. सरदेसाई साहब ने सोचा होगा कि आम तौर पर मुख्यमंत्री किसी बात का जवाब देते नहीं हैं और मैं आरोप लगाकर अपनी टीआरपी बढ़ाऊंगा और निकल लूंगा.maharashtra-CM-Devendra-Fadnavis-written-open-letter-to-Sardesai-shock-Words-slap-news-in-hindi लेकिन, यह महोदय तब बुरी तरह घिर गए जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने तमाम मुद्दों पर स्पष्ट जवाब देते हुए राजदीप सरदेसाई को ही कठघरे में ला खड़ा किया. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि पर्यूषण पर्व पर मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का आदेश उनकी सरकार ने नहीं दिया था, बल्कि 2004 में कांग्रेस सरकार ने पर्यूषण-पर्व के दौरान दो दिन कत्लखाने बंद रखने का फैसला किया था और मुंबई को लेकर ऐसे निर्णय पर 1994 से अमल किया जा रहा है, मगर आश्चर्य है कि हमारे सत्ता में आने से पहले आप में से किसी ने आपत्ति नहीं जताई. यानी पहले की सरकार कितनी भी भ्रष्ट रही हो, उसकी ढोंगी एवं कथित धर्मनिरपेक्षता आपके विचारों से मेल खाती थी, इसलिए आपको आक्षेप नहीं था. मुख्यमंत्री ने अपने विस्तृत जवाब में आगे लिखा कि आम तौर पर मैं वरिष्ठ पत्रकारों के सार्वजनिक पत्रों का जवाब नहीं देता, लेकिन आपका पत्र पढ़ने के बाद सोचा कि अगर जवाब नहीं दिया तो 'गोबल्स नीति' सफल हो सकती है. आपका पत्र "सही जानकारी न लेकर सरकार को फटकारने" की शानदार मिसाल है. मुख्यमंत्री यहीं नहीं रुके, बल्कि पत्रकार महाशय को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा कि 'आपने मुझे 2010 में देखा है, ऐसा कहा है, पर मैं तो patrakarita, fake journalism, hindi article by mithileshआपको 2000 से देख और सुन रहा हूँ. एक साहसी पत्रकार कालांतर में "निजी एजेंडे" और विशिष्ट "वैचारिक निष्ठा" से अभिभूत होकर किस तरह बेहद पक्षपाती हो सकता है यह देखना वेदनापूर्ण है'. राज्य सरकार के नाम पर कई अच्छे कामों की मुहर लगने के बावजूद आप अपनी मर्जी से 3 मुद्‌दे चुनकर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहते हैं.
असल सवाल यही है भी कि एक स्थापित पत्रकार हर तरह से जनता की राय को प्रभावित करने की ताकत रखता है, वह कइयों का आदर्श होता है, लेकिन जब वह आधी अधूरी जानकारी और पक्षपात या निहित स्वार्थों के कारण पत्रकारिता की कलम को कमजोर करता है, तो उसे जवाबतलब क्यों नहीं किया जाना चाहिए. क्या न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स असोशिएशन या ब्रॉडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन और दूसरी ऐसी संस्थाएं इस पर कोई नियामक लागू नहीं कर सकती हैं. कोई कानूनी न सही, सार्वजनिक आलोचना ही कर दी जाती, जिससे गलत या पक्षपात करने वालों पर कुछ तो दबाव पड़ता. इस कड़ी में सिर्फ पुण्य प्रसून बाजपेयी या राजदीप सरदेसाई ही हों, ऐसा नहीं है, बल्कि ज़ी न्यूज के मैनेजिंग एडिटर सुधीर चौधरी भी इस मामले में बेशक बदनाम हैं और उन पर भाजपा के प्रति अति झुकाव का मुद्दा उठाया ही जाता रहा है. इसी सन्दर्भ में, अब इण्डिया न्यूज में जा चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम साहब को बिहार चुनाव पर ही चर्चा करते हुए जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पक्षपाती होने का आरोप लगाया तो मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, हालाँकि पुराने रिकॉर्ड मैंने नहीं देखे हैं, लेकिन उस वक्त ऐसा लगा मानो अमित शाह थोड़े अतिवादी होकर किसी पुरानी यादों में बह गए थे, जिससे बचा जा सकता था. खैर, उनका कुछ तो अनुभव रहा होगा अन्यथा कोई राष्ट्रीय नेता पत्रकारों से पंगे क्यों लेगा भला? इस कड़ी में यह तो सिर्फ चंद नाम हैं, वरना सच्चाई तो यह है कि पत्रकारिता में 'विशेष निष्ठा' रखने का आरोप अब बेहद आम हो गया है. सिर्फ पत्रकार ही क्यों, बल्कि चैनल मालिकों पर भी आरोप लगने की विधिवत शुरुआत हो चुकी है.
वह तो भला हो सोशल मीडिया का, कि आज के समय में मेन स्ट्रीम मीडिया सहित अनेक ख़बरों का पोस्टमार्टम करने में इसके यूजर्स देरी नहीं करते हैं और इसी चीरफाड़ से घबड़ाकर एक और पत्रकार ने सोशल मीडिया पर 'गाली गलौच और गुंडागर्दी' का बेहद बचकाना और स्वार्थप्रेरित आरोप लगाने का रवैया अख्तियार किया है. वह पत्रकार हैं एनडीटीवी के रविश कुमार जी और संयोग से उनके भी हज़ारों लोग फैन हैं, क्योंकि वह गहराई में जाकर पत्रकारिता करने में यकीन करते हैं. लेकिन, हालिया मामलों में उन्होंने सोशल मीडिया को बेवजह और आधारहीन मुद्दों पर निशाना बनाने की कोशिश की है और उसका कारण यही है कि सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी रिपोर्टिंग को भी पक्षपाती बताते हुए पोस्टमार्टम कर दियाMedia reporting and content analysis, hindi article about journalism, ravish kumar था. क्या रविश कुमार बताएँगे कि आज किस चैनल पर गाली-गलौच (... अब तो मारपीट भी) नहीं हो रही है, तो क्या वह चैनल छोड़कर भी घर बैठ जायेंगे? प्राइम टाइम पर तो कोई भी चैनल लगा ले, वहां चिल्ल-पों के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता हैं. रविश जैसे पत्रकारों को यह समझना ही होगा कि विशेष विचारधारा के प्रति व्यक्तिगत लगाव रखना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन पत्रकारिता करते समय न केवल उसे मिक्स कर देना, बल्कि उसको अपने ऊपर पूरी तरह हावी कर लेना अपने दर्शकों और पाठकों के प्रति पूरी तरह से अन्याय ही है. इस संकुचन का ही परिणाम है कि अब मीडिया पर लोगों का भरोसा लगातार कम होता जा रहा है. पक्षपात, अधूरी मेहनत के अतिरिक्त, बाजारवाद की अतिवादिता, चैनल मालिकों की घोर व्यावसायिकता, सनसनीखेज टीआरपी विषयक कंटेंट (उदाहरणार्थ: इन्द्राणी-शीना रिपोर्टिंग) भी महत्वपूर्ण कारक हैं मीडिया के बदनाम और अविश्वसनीय होने के, जिन से निपटने की सबसे ज्यादा जिम्मेवारी बड़े और जिम्मेवार पत्रकारों की ही है. दुखद यही है कि जिनके कन्धों पर सबसे ज्यादा जिम्मेवारी है, वही कंधे बदनाम हो रहे हैं... और लगातार यह प्रक्रिया संक्रामक रोग की तरह बढ़ती ही जा रही हैं. हमाम में नंगों की तरह ... !!
 
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