Wednesday 19 February 2014

उम्मीदवारों को भी देखिये - Assembly Election

by on 16:52
भारतीय जनता पार्टी का चुनावी अभियान वैसे तो बड़ी रफ़्तार से चल रहा है, लेकिन उनकी कुछेक बातों को लेकर मतदाताओं के मन में संदेह आने लगा है. भाजपा वैसे तो सादगी और शुचिता की बातें करते आघाती नहीं है, लेकिन हाल ही में जिस प्रकार ४०० करोड़ की भारी-भरकम राशि के ब्रांड-बिल्डिंग पर खर्च करने की बात कही जा रही है, उसने इसके समर्थकों के कान खड़े कर दिए हैं. विरोधी पार्टियां तो इस पर प्रश्न दाग ही रही हैं, लेकिन उससे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या चुनाव जीतने के बाद मोदी और उनकी टीम इस पैसे को व्याज समेत वसूलेंगी भी. यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार की जननी राजनीति ही है और इसके साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिस प्रकार राजनैतिक दल चंदे का लेन-देन करते रहे हैं, उसमें भ्रष्टाचार का बहुत अहम रोल होता है. कई बार तो चंदे की रकम आम जनता द्वारा स्वेच्छापूर्वक सीमित होती है, जबकि कई बार यह बड़े घरानों द्वारा किसी पार्टी की नीतियों को प्रभावित करने में प्रमुख भूमिका निभाती है. ऐसे में चंदों पर और किसी पार्टी द्वारा किये जा रहे खर्च पर मतदाताओं का प्रश्न पूछना लाजमी हो जाता है. भाजपा के ही सन्दर्भ में एक और नीतिगत बात सामने आ रही है, जिसने मतदाताओं और मोदी के समर्थकों को निराश करना शुरू कर दिया है. भाजपा के बड़े नेता और यहाँ तक कि राजनाथ सिंह अपनी जनसभाओं में बार-बार कह रहे हैं कि इस बार मतदाता, स्थानीय उम्मीदवारों को न देखें, बल्कि वह मोदी के नाम पर अपना वोट दें.

प्रश्न यही खड़ा हो जाता है कि आखिर उम्मीदवारों को अनदेखा करने की अपील भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा क्यों की जा रही है. मतदाता संशय कर रहा है कि क्या भाजपा के उम्मीदवार ईमानदार नहीं होंगे? क्या मोदी के नाम पर ऐरे-गैरे उम्मीदवारों को टिकट दे दिया जायेगा? यदि सचमुच ऐसा होगा तो भारत की बहुसंख्यक जनता पर से मोदी का प्रभाव कम होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. बेहतर होता, यदि मोदी को चमत्कारी मानने के साथ-साथ लोकतंत्र के मनमाफिक उम्मीदवारों को टिकट भी दिया जाता. और साथ में अपने बेहतरीन प्रचार के साथ जनता को यह भी सन्देश देने की कोशिश की जाती कि उनका प्रचार अथाह और गलत काले धन पर निर्भर नहीं है, बल्कि उसके कार्यकर्त्ता और स्वयंसेवक उसके मूल में हैं. उसे किसी बनावटी और दिखावटी कैम्पेन की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जनता तक सन्देश पहुँचाने में उसके नेता और सहयोगी ही पर्याप्त हैं. अच्छे उम्मीदवारों की क्या अहमियत होती है, यह भारतीय जनता पार्टी और मोदी को दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनावों से सीख लेना चाहिए था. जिस प्रकार चुनाव के कुछ ही दिनों पहले विजय गोयल को हटाकर डॉ. हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था, उसी का कहीं न कहीं परिणाम था कि दिल्ली में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. विश्लेषक इस बात को दावे के साथ कह रहे हैं कि भाजपा का केंद्र में सरकार बनना अथवा नहीं बनना इस बात पर निर्भर करेगा कि वह लोकसभा में अपने उम्मीदवारों को ईमानदारी की कसौटी पर कैसे कसती है, बजाय यह कहने के कि सिर्फ मोदी के नाम पर मतदाता अपनी आँखें बंद कर लें.

Monday 17 February 2014

सस्ते सामानों का चुनावी बजट - Probably last Budget by Chidambaram

by on 14:25
chidambaram-budget-february-2014   वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने आखिरकार वही किया जो उम्मीद पहले से ही थी. कहने को तो उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें हॉवर्ड से हार्ड-वर्क करना सीखा है, लेकिन बजट में वह आवश्यकता से अधिक मुलायम दिखे. खैर, उनके इस मुलायम लेखा-जोखा का मतलब आम-ख़ास सभी को समझ आ ही गया होगा. इसके तकनीकि पक्षों के बारे में हमारी समझ भी सामान्य ही है, लेकिन इसके सामाजिक पक्षों और प्रभावों के साथ बदले राजनैतिक यथार्थ के बारे में प्रश्न जरूर उठते हैं. पिछले कुछ दशकों से यह बहुत आम बात हो गयी है कि चुनाव के बाद साढ़े चार साल तक सरकारें मनमाने ढंग से भ्रष्टाचार करती हैं या करने देती हैं, और अगला चुनाव आने के कुछ महीने पहले भी मनमाने ढंग से ही उदार हो जाती हैं.

हालाँकि इस सन्दर्भ में दिल्ली की हाल ही में बनी और इस्तीफा दे चुकी सरकार का उद्धरण देना काफी उपयुक्त रहेगा. दो महीने में ही बिजली और पानी केजरीवाल सरकार द्वारा सस्ती किये जाने के विरोध में यही कांग्रेसी मंत्री (और भाजपाई भी) उनको बिना किसी 'अर्थनीति' के अराजक कहने पर तुल गए थे. उनका तर्क था कि महज कुछ सौ करोड़ की सब्सिडी देने से खजाने पर काफी ज्यादा बोझ पड़ेगा. अब एक लोक-लुभावन अंतरिम चुनावी बजट पेश कर चुके पी.चिदंबरम से पूछा जाना चाहिए कि जिस प्रकार से उन्होंने गाड़ियों, मोबाइल इत्यादि पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की घोषणा की है, उससे खजाने पर बोझ नहीं पड़ेगा क्या? हावर्ड से अपनी पढाई का बखान करने वाले पी.चिदंबरम को खुलकर जवाब देना चाहिए कि सेना से सम्बंधित 'एक रैंक, एक पेंशन' को छोड़कर बजट में उनका कौन सा कदम बुद्धिमतापूर्ण है. सच पूछा जाये तो, इस पूरे बजट को एक बेवकूफाना बजट कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. इस बजट से किसी वर्ग को न कोई खास फायदा होगा, और न ही इस बजट से कांग्रेस का कोई राजनैतिक उद्देश्य ही पूरा होगा. कांग्रेस की हालिया राजनैतिक सोच पर तरस आता है.

जिस प्रकार से बड़ी संख्या में युवाओं की राजनीति में दिलचस्पी बढ़ी है, उसने न सिर्फ उन्हीं युवाओं में बल्कि उनकी वालंटियर की तरह सक्रियता ने देश की बड़ी आबादी को राजनैतिक रूप से प्रभावित किया है. और इसका अर्थ यह है कि चुनावी लॉलीपॉप अब बीते दिनों की राजनीति बन चुकी है. यदि ऐसा नहीं होता तो दिल्ली की पूर्व सरकार ने जिस तेजी से दिल्ली की जनता को कई-कई लॉलीपॉप दिया, उसके बावजूद उसकी आलोचना नहीं होती. और यदि लॉलीपॉप से ही काम चल जाता तो उस सरकार को इस्तीफा देकर भागना नहीं पड़ता. कांग्रेस सरकार के पास अपने वोटरों को वास्तविक रूप से प्रभावित करने का मौका था और वह यह कर सकते थे कुछ विशेष फैसले लेकर. मसलन महंगाई से निपटने की बजाय उनका जोर कंज्यूमर प्रोडक्ट्स के दाम कुछेक रूपये कम करने पर लगा रहा. कुछ टी.वी चैनलों को छोड़कर कहीं भी इस बजट को लेकर उत्साह नहीं दिख रहा है, यह इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस चुनावी साल में भी जनता की नब्ज पकड़ने से काफी दूर रह गयी है. यथार्थ तो यह है कि कांग्रेस के दुर्भाग्य ने उसे हर मोर्चे पर इतना पछाड़ दिया है कि खुद उसके मंत्रियों को रिकवर करना मुश्किल दिख रहा है. मुद्दों में जहाँ आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कब्ज़ा कर रखा है, वहीं भाजपा ने सुशासन और बेहतर अर्थनीति व विकास का खाका पेश किया है. ले-देकर एक साम्प्रदायिकता का मुद्दा उसके पास जरूर था, लेकिन राहुल गांधी के एक साक्षात्कार ने ८४ के दंगों को इतना उभार दिया कि अब यह भी मुद्दा उसके हाथ से फिसल गया है. प्रचार और प्रजेंटेशन में वह पहले से ही पीछे थे. ऐसी स्थिति में यह अंतरिम बजट उनके लिए एक उम्मीद की किरण था. लेकिन इसमें किसी दूरगामी मुद्दे का जिक्र नहीं करके सिर्फ जनता को मुर्ख बनाने का प्रयास दीखता है. और जैसा कि हमने पहले कहा कि जनता राजनैतिक रूप से पहले से काफी परिपक्व हो चुकी है. जो राजनीतिज्ञ या दल अपने आपको नए नियमों से अपडेट नहीं करेगा, वह रेस से बाहर हो जायेगा. केजरीवाल और मोदी का व्यापक और चमत्कारिक उभार इस बात का पुख्ता प्रमाण है.

 

last Budget by Chidambaram, article in hindi

Friday 14 February 2014

हक़ तो उनको भी है - Political Right

by on 05:36
arvind_kejriwal_in_thoughtहक़ तो उनको भी है बेहद मुश्किल होता है जमी जमाई व्यवस्था में अपनी जगह बना पाना. अब जबकि आम आदमी पार्टी पर से आंदोलन और व्यवस्था-सुधार का खुमार काफी हद तक उतर चुका है और राजनीति की खुमारी छाने लगी है तब इस समस्त प्रकरण को थोडा उदार होकर देखा जाना आवश्यक हो गया है. हालाँकि इस वाक्य से केजरीवाल और उसकी टीम जरूर सहमत नहीं होगी, लेकिन यह बात दावे से कही जा सकती है कि उनकी असहमति भी राजनैतिक ही होगी. देश-सेवा और व्यवस्था-सुधार का दावा आखिर कौन नहीं करता है. भाजपा तो इसकी पुरानी ठेकेदार है ही, कांग्रेस जो शायद सर्वाधिक भ्रष्टाचारी रही है, वह भी देश सेवा और व्यवस्था सुधार का रोज दावा करती है.

इसलिए आप समर्थक भी यदि दलीय व्यवस्था में देशभक्त होने का दावा करते हैं तो उनको मान्यता मिलनी चाहिए, न कि उनको अराजक अथवा अनुभवहीन कहकर खारिज करते रहना चाहिए. एक वर्ग का ही सही, हक़ तो उनको भी है राजनीति करने का. हक़ उनको है पुरानी व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करने का. राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के बीच भ्रष्टाचारी तालमेल पर प्रश्न खड़ा करने की स्वतंत्रता पर प्रतिप्रश्न क्यों होना चाहिए. इस सन्दर्भ में अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की चर्चा भी जरूरी हो जाती है. राजनीति के दावं-पेंच में नौसीखिए रहे आप के विधायकों को विधानसभा में पहले दिन से जिस प्रकार कांग्रेस और भाजपा के विधायक नीचा दिखा रहे थे, वह गौर करने का विषय है. चाहे आप विधायकों द्वारा ताली बजाना और टेबल थपथपाने का शुरूआती मसला हो, या अरविन्द केजरीवाल को असंवैधानिक कहने के सिलसिले का आखिरी जुमला हो, कांग्रेस और भाजपा के नेता इस नयी टीम कहें या उन्हीं के नए राजनैतिक भाई-बंधुओं को स्वीकार करने को क्षण भर को भी तैयार नहीं दिखे. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार किसी पिता का जायज पुत्र, उसकी नाजायज औलाद से दूरी बनाये रखता है. ये उदाहरण कुछ ज्यादा ही सटीक बैठ गया. लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पुराना राजनैतिक वर्ग इस नए राजनैतिक वर्ग को अभी भी नाजायज औलाद ही मानता है.

लेकिन लोकतंत्र में नियम तो यही कहते हैं कि नाजायज हो या जायज, उनका हक़ बराबर है. हाँ एक दुसरे को मान्यता देने से बाप को कष्ट नहीं होता है. यदि जनता को राजनैतिक दलों का बाप मान लिया जाय तो नयी और पुरानी दोनों व्यवस्थाएं उसी की संतानें हैं. और अब जब जनता चाहती है कि नई व्यवस्था को मान्यता मिले, तो इसमें पुरानी व्यवस्था को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए. वैसे भी, पुरानी व्यवस्था से जनता कुछ ज्यादा ही त्रस्त है. केजरीवाल के दिल्ली मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से उनकी अक्षमता का सन्देश निश्चित रूप से गया है, लेकिन उनके पास राजनैतिक रूप से बेहद कम विकल्प बचे थे. एक तो उनके लोक-लुभावन वादों पर से परदा उठने लगा था, दूसरा लोकसभा के लिए उनके नेतृत्व और जुझारूपन की कमी उनकी पार्टी साफ़ महसूस करने लगी थी. लेकिन इस्तीफा देने का इससे भी बड़ा कारण यह था कि भाजपा और कांग्रेस के धुरंधर और घाघ नेता उनको असंवैधानिक साबित करने में सफल होने लगे थे. अब यदि वह कुछ नहीं करते तो भी मुश्किल और कुछ करते तो असंवैधानिक. अब थोड़ा बहुत वह एक्सपोज तो जरूर हुए, लेकिन काफी कुछ राजनीति वह सीख गए. कम से कम इतना तो वह जरूर सीख गए होंगे कि अति उत्साह में खुद को अराजक नहीं कहेंगे. लेकिन वह जो प्रश्न उठा रहे हैं, उस पर स्थापित दलों को जवाब निश्चित रूप से देना पड़ेगा. नाजायज, नाजायज कह देने से उसका कानूनी आधार ख़त्म नहीं हो जायेगा. आखिर संविधान भी तो यही कहता है कि "हक़ तो सभी को है".

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Political Right article by Mithilesh.

Thursday 13 February 2014

जिम्मेवार को सामने लाओ... - Telangana State

by on 05:51
संसद में होता तो बहुत कुछ रहा है, लेकिन तेलंगाना मुद्दे को लेकर संसद में जिस प्रकार का कृत्य हुआ, उसके जिम्मेवार को खोजा जाना जरूरी है. जनता जानना चाहती है कि क्या वही दो सांसद इस शर्मनाक हरकत के लिए पूर्ण जिम्मेवार हैं, अथवा इन सबके पीछे वोटबैंक की घटिया राजनीति और देश की बड़ी पार्टियां भी जिम्मेवार हैं. जिस प्रकार लोकतंत्र के मंदिर में, लोकतंत्र ही के देवता कहे जाने वाले सांसद, अपने व्यवहार से राक्षस नजर आये , उसने समूचे तंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया है. दोष सिर्फ कांग्रेस और तेलगुदेशम के दो सांसदों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि जिस प्रकार इस मुद्दे को कांग्रेस पार्टी पिछले कई महीनों से गरम कर रही थी, उसके सन्दर्भ में इस कृत्य पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए. आखिर कोई सरकार राज्यों के बंटवारे पर इतनी ज्यादा असंवेदनशील कैसे हो सकती है. राज्यों का बंटवारा भावनात्मक मुद्दा होता है, लोग इसे अपना जातीय मसला बना लेते हैं, और यही कारण है कि इस संघर्ष में हजारों लोगों की बलि हो चुकी है.

अब जब, दूसरे सांसदों की आँखों में काली-मिर्च का स्प्रे गया है, तब शायद उन्हें इस बात का अहसास हो कि उनकी राजनीति का स्प्रे जनता के जीवन में कितना जहरीला असर करता है. इस मुद्दे को बेहद शांत तरीके से और अंदरूनी तरीके से भी निपटाया जा सकता था, बजाय कि इस मुद्दे को चाकू की नोंक पर रखा गया. कई पत्रकारों को इस मुद्दे के जहरीले होने का आभाष तभी हो गया था जब वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने इस मुद्दे पर आंध्र के सांसदों को दरकिनार करते हुए अपनी एकतरफा सिफारिश कर दी थी. दरअसल, इस मुद्दे के राजनीतिकरण को समझने के लिए हमें आंध्र की राजनीति पर दृष्टिपात करना होगा. कांग्रेस के बड़े छत्रप समझे जाने वाले आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस.राजशेखर रेड्डी की असामयिक मौत से कहानी की शुरुआत हुई. स्वाभाविक रूप से, खानदानी राजनीति का गढ़ रही कांग्रेस में स्व. रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी ने कुर्सी पर अपना दावा ठोंक दिया और जब कांग्रेसी आलाकमान ने उसको कुर्सी न देकर किरण कुमार रेड्डी को मुख्यमंत्री बना दिया तब जगन ने बगावत कर दी और कांग्रेस ने सीबीआई के माध्यम से उसे १६ महीनों तक जेल में रखा. आंध्र में हुए विधानसभा उपचुनावों में जहाँ कांग्रेस मुंह के बल गिर गयी, वहीँ जगन मोहन १४ सीटें जीतकर एक बड़ी ताकत बन गए. अब जगन को डाउन करने के लिए, कांग्रेस ने असमय तेलंगाना मुद्दे को हवा दी, और उसी के फलस्वरूप संसद में भारतीय लोकतंत्र की सबसे शर्मनाक घटना दर्ज हो गयी.

अब कांग्रेस इस मुद्दे को जला-जलाकर बेशक तेलंगाना में अपना आधार खड़ा कर ले, लेकिन जनता का और लोकतंत्र का जिस प्रकार अपमान और नुक्सान हुआ, उसकी भरपाई शायद कभी नहीं की जा सके. इसलिए, इस अपराध और राष्ट्रद्रोह जैसे कृत्य के असली जिम्मेवार न सिर्फ वह दो सांसद हैं, बल्कि वह भी हैं, जो राजनीति के पीछे छिपकर देश में जहर फैलाने का कार्य करते रहे हैं. इस मुद्दे पर उस राजनीति को जवाब देना चाहिए, जो जनता के हितों का रखवाला होने का दम भरती रही है. अन्यथा लोकतंत्र उसे कभी माफ़ नहीं करेगा, और ऐसी राजनीति को उसका पाप ले डूबेगा. यहाँ प्रश्न किसी एक राजनैतिक पार्टी का नहीं है, बल्कि गलत व्यवस्था का है. आखिर लोकतंत्र के हिस्से में तेलंगाना, मुजफ्फरनगर, गुजरात, सिक्ख दंगे शर्म ही तो हैं. या कुछ और, 'आप' भी तो सोचिये...!

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Telangana State article by Mithilesh

Tuesday 11 February 2014

आखिर बेदाग़ क्यों हैं धोनी? Match Fixing

by on 05:53
यह भला कैसे सम्भव है कि किसी संस्था के कई सदस्य फिक्सिंग जैसे गम्भीर अपराध में शामिल रहे हों और उसी संस्था का सबसे महत्वपूर्ण और तेज-तर्रार खिलाड़ी एवं कैप्टन इन बातों से अनजान रहा हो. वैसे क्रिकेट में जिस प्रकार पैसे की आवाजाही एक विशेष रफ़्तार से शुरू हो चुकी है, उसने इस खेल को दागदार बनाने के तमाम रास्ते खोल दिए हैं. हालाँकि इस क्रिकेट की प्रशासनिक संस्था की एक बेहद ख़ास बात रही है, वह यह है कि चाहे बीसीसीआई के कोई भी अध्यक्ष, किसी भी दरमयान रहे हों, वह सीमा से काफी आगे तक ताकतवर रहे हैं. बात चाहे जगमोहन डालमिया की रही हो, या राजनेता शरद पवार हों अथवा निवर्त्तमान एन. श्रीनिवासन ही क्यों न हों, इन लोगों के पास बेइंतिहा ताकत रही है. कोई भी आरोप लगा ले, कोई कुछ भी कह ले, इन लोगों पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ता है. यहाँ तक कि २०१३ में भी, जिसमें अनेकों हस्तियां जेल की हवा खा चुकी हैं, वह भी एन.

श्रीनिवासन का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी. आसाराम, तेजपाल, लालू प्रसाद, संजय दत्त सहित अनेकों लोगों पर २०१३ का प्रकोप तो पड़ा, लेकिन बीसीसीआई के अध्यक्ष पर गम्भीर आरोप लगने के बावजूद, उनके दामाद के सीधे-सीधे फिक्सिंग में शामिल होने की पुष्टि होने के बावजूद उनका कुछ भी नहीं बिगड़ सका. नियम बदल कर वह महज कुछेक दिनों के लिए प्रक्रियाओं से दूर भर रहे, लेकिन इसके बावजूद वह अध्यक्ष बने रहे. बड़े कार्पोरेट के तौर पर पहचाने जाने वाले एन. श्रीनिवासन अब आईसीसी के भी अध्यक्ष बन चुके हैं, और उनके रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बड़े-बड़े राजनेता भी उनके सामने अपना मुंह बंद रखने में ही भलाई समझते हैं. मसलन, अरुण जेटली, राजीव शुक्ल, अनुराग ठाकुर और अन्य दूसरे. हालाँकि इस बात पर विवाद हो सकता है, लेकिन क्रिकेट के पैसे को राष्ट्र का पैसा क्यों नहीं माना जाना चाहिए. आखिर इस बात का क्या तुक है कि राष्ट्र के नाम पर लोकप्रिय हो रहे खेल और खिलाड़ियों पर कुछेक लोगों का एकाधिकार हो जाए. और न सिर्फ एकाधिकार हो जाए, बल्कि आईपीएल जैसे नए-नए तरीके निकालकर भविष्य की सम्पदा पर भी नियंत्रण कर लिया जाए. जरा सोचिये तो, एक बेहद भारी भरकम रकम, भारतीयों की जेब से निकल कर कुछ लोगों की जेब में जमा हो जाती है.

छोटे-मोटे कई खिलाड़ियों पर तो फिक्सिंग के आरोप लगते ही रहे हैं, लेकिन न्यायमूर्ति मुदगल की जांच रिपोर्ट के माध्यम से अब फंसे हैं देश के लोकप्रिय भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी. उन पर सीधे-सीधे आरोप लगाते हुए कहा गया है कि धोनी चेन्नई सुपर किंग्स के गुरुनाथ मयप्पन को बचाने में शामिल रहे हैं. यह बात कितनी सच है अथवा झूठ है, यह तो जांच का विषय हो सकती है, लेकिन पैसे के इस खेल में किसी का चरित्र पतन होना बिलकुल भी नयी बात नहीं है. धोनी को इस बात की छूट नहीं दी जा सकती है क्योंकि वह भारत को विश्व-कप दिलाने वाले कप्तान हैं. बल्कि इसके लिए तो उनकी और भी कड़ाई से जांच की जानी चाहिए और दोषी साबित होने पर उनके ऊपर यथा योग्य प्रतिबन्ध लगना चाहिए. इसके साथ साथ इस बात की मांग भी जोरों से उठनी चाहिए कि क्रिकेट को भी खेल मंत्रालय के अंतर्गत लाया जाए और क्रिकेट की ताकत और पैसे के ऊपर राष्ट्र का सीधा नियंत्रण हो, न कि कुछेक लोगों का. इसी में क्रिकेट की भी भलाई है और राष्ट्र की भी.

Monday 10 February 2014

इतनी जल्दी... बाप रे बाप ! - Political Stunt

by on 07:55
कोई इसे नौटंकी कह रहा है, तो कोई शहीद बनने की कवायद. कोई जिम्मेवारी से भागने की कोशिश करार दे रहा है, तो कोई आने वाले लोकसभा चुनाव से सम्बंधित महत्वाकांक्षा. यही नहीं, इस सूची में अराजक, तानाशाह, अनुभवहीन, माओवादी जैसे उपनामों की भरमार भी है. जी हैं, बात उन्हीं की हो रही है, जिनकी बात कइयों को न चाहते हुए भी करनी पड़ रही है और सुननी भी पड़ रही है. दिल्ली के ट्रैफिक में आपको हमारी ही तरह कई गाड़ियों के पिछले शीशे पर एक पोस्टर जरूर दिख जायेगा, जिसमें लिखा है- "मुझे दोष मत दो, मैंने 'आप' को वोट नहीं दिया. जबकि फेसबुक इत्यादि शोसल मीडिया समूहों पर इसके बारे में आपको कश्मीर विवाद, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कई दूसरे तरह के तीखे तमगे दिख सकते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि अब आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के समर्थकों को उनका बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है. भले ही वह स्वराज और जनलोकपाल की लोकलुभावन बातें कर रहे हों, परन्तु हकीकत यही है कि उनको अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आखिरी राजनीतिक दावं, मतलब इस्तीफे की धमकी तक देनी पड़ रही है. 'इस्तीफे के दावं' के बारें में राजनीतिज्ञ एवं इस पर नजर रखने वाले अच्छे से समझते हैं कि इसका प्रयोग आखिरी समय में ही किया जाता है, क्योंकि इसके बाद आपके पास कुछ ख़ास विकल्प नहीं बचता है. दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली कहते हैं कि कोई भी क़ानून से बड़ा नहीं है. मुख्यमंत्री अपनी ज़िम्मेदारियों से भागना चाहते हैं और इसके लिए बहाना ढूंढ रहे हैं.

यह चालाक कोशिश है. सवाल उठता है कि चालाक और धूर्त जैसे शब्द किसी मुख्यमंत्री के लिए क्यों प्रयोग किये जा रहे हैं, वह भी तब जब केजरीवाल आम आदमी के नुमाइंदे कहे जा रहे हैं और अभी उनके चुनाव को ज्यादे दिन हुए भी नहीं हैं. इस सन्दर्भ में भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार रहे डॉ. हर्षवर्धन की टिप्पणी गौर करने लायक है. हर्षवर्द्धन ने ट्वीट में लिखा, अरविंद केजरीवाल जी आपने जन लोकपाल पर हर जगह इतना होहल्ला किया है लेकिन विधायकों को इसकी एक प्रति तक नहीं भेजी है. यह नाटक बंद करिए. भाजपा नेता ने आरोप लगाया कि आप की सरकार की बुनियाद झूठ पर आधारित है. यह सरकार संविधान को बदनाम करने और लोगों को गुमराह करने के अलावा कुछ नहीं कर रही है. हालाँकि कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि विरोधी तो विरोध करेंगे ही, लेकिन इस तर्क के आधार पर उस विरोध को खारिज तो नहीं किया जा सकता, जिसमें केजरीवाल को 'घोषणा-मुख्यमंत्री' कहा जाने लगा है. इन सभी विरोधों को एक पल के लिए छोड़ भी दिया जाय तो केजरीवाल की जल्दबाजी पर शंशय तो पैदा होता ही है. तथ्यों को खंगालने पर यह साफ झलकता है कि एक महीने, दो महीनों में यह सरकार जिस प्रकार धड़ाधड़ घोषणाएं करती जा रही है, उन सभी कवायदों का जमीन पर उतरना आश्चर्यजनक रूप से संदिग्ध हो गया है. मसलन पानी जिनको मिलना चाहिए, उसे देने के लिए न कोई प्रयास हुआ न होता दिख रहा है. जिनको मिला, शायद उनको मुफ्त पानी की जरूरत ही नहीं थी. बिजली की बात करें तो यह मामला उच्चतम नयायालय तक पहुँच गया है और हर मुद्दे पर रोज सभी की छीछालेदर हो रही है, एक दूसरे को धमकियां दी जा रही हैं. बिजली कम्पनियां, बिजली काटने की बात कर रही हैं, तो केजरीवाल अनिल अम्बानी को दिल्ली में न घुसने देने की बात कह रहे हैं. किसी भी हद तक जाने की बात कही जा रही है, अराजक होने की बात कही जा रही है. यहाँ, वहाँ, जहाँ तहां कहीं भी धरने पर बैठ जाया जा रहा है. आखिर यह छीछालेदर और लोकतंत्र के नाम पर मजाक नहीं तो और क्या है. और भी कई तरह की घोषणाएं जल्दी जल्दी की जा रही हैं, मानो वह कल लागू भी हो जाएँगी. क्या केजरीवाल सचमुच इतने मुर्ख हैं, या वह सच में ही जनता को मुर्ख समझ रहे हैं, जो इतना नहीं समझते कि क़ानून बनना, आदेश पारित होना एक बात है और उसका जमीन पर उतरना बिलकुल अलग बात. क्या वह कुर्सी पर सिर्फ आदेश देने और हस्ताक्षर करने भर के लिए बैठे हैं, अथवा वह कानून जमीन पर कैसे उतरे, कैसे अपनी बिसंगतियाँ दूर करे, इसके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए वह मुख्यमंत्री बने हैं. क्या जनलोकपाल बना देने से प्रशासन सुधर जायेगा. क्या मजाक है, बिना किसी अध्ययन के हम कोई भी व्यवस्था बनाने निकल पड़ें, तो इसे कागज की नाव के अतिरिक्त कोई दूसरी संज्ञा भला क्या दी जा सकती है. केजरीवाल जी, देश में कुछ सक्षम प्रशासक भी हैं, जिनसे आप शिक्षा ले सकते हैं. कुछ नाम आपको हम बता देते हैं, जो बिना किसी 'परमाणु बम वाले कानून' के ही एक अच्छी व्यवस्था देने की सार्थक कोशिश कर चुके हैं, लेकिन समस्या यह भी है आपके साथ की आप उन सभी नामों पर किसी न किसी बहाने कुछ और आरोप लगा देंगे. खैर, आपके स्वीकार करने या न करने से उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, हाँ ! आप उनसे कुछ सीखकर अपनी कथित 'साफ़-नीयत' को शायद वास्तविक भी बना सकें.

किरण बेदी, शिवराज सिंह चौहान, प्रणब मुखर्जी, नरेंद्र मोदी, रमन सिंह सहित ऐसे कई नाम हैं जो आपको काफी कुछ प्रशासनिक दक्षता की शिक्षा दे सकते हैं, या आप स्वयं भी ले सकते हैं. फिर आप जल्दबाजी में हस्ताक्षर पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे, बल्कि अपने एक हस्ताक्षर को जमीन पर उतारेंगे भी. तब आप जनलोकपाल या किसी और क़ानून के लिए जल्दबाजी में इस्तीफा देने की बात नहीं करेंगे, बल्कि इंतजार करेंगे और खुद भी अध्ययन करेंगे और आम राय भी बनाएंगे. यह सच है केजरीवाल जी कि आपके जनलोकपाल के बारे में देश को पता नहीं है, आप अपना व्यक्तिगत अजेंडा दिल्ली पर मत थोपिए. बेशक, वह बहुत अच्छा हो सकता है, और शायद हो भी, लेकिन इसके लिए इतनी जल्दबाजी करना आपको संदिग्ध कर जाता है. यदि आप की सोच इतनी ही खरी है तो थोड़ा रुकिए भी, खुद को परखिये भी और खुद की स्वीकार्यता को भी तौलिये. शायद आपको यह भ्रम हो गया हो कि जनलोकपाल की वजह से जनता ने आपको दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया है, लेकिन यह जनता तो उस वृद्ध अन्ना हजारे के १३ दिन भूखे रहने को याद करके आपको वोट दिया था. हाँ, आपने भी परदे के पीछे संघर्ष जरूर किया था. लेकिन केजरी जी, इसका मतलब यह नहीं है कि आपकी जायज-नाजायज सभी मांगे जनता मान ही लेगी. ध्यान रहे आपको, माता-पिता बच्चे के जिद्द करने, उसके रोने पर उसकी कई मांगे पूरी कर देते हैं, परन्तु वही बच्चा जब शादी के बाद सचमुच जिद्दी हो जाता है तब फिर माता-पिता थप्पड़ लगा कर घर से निकालने में देर नहीं करते हैं. और अब आप यह तो मानेंगे ही कि राजनीति में 'आम आदमी पार्टी' से आपकी शादी हो चुकी है. हम आपको बस इतना ही कहेंगे कि थोड़ा इन्तेजार कीजिये, इतनी जल्दी भी ठीक नहीं. आखिर वह कहावत तो सुनी ही होगी आपने कि 'इन्तेजार का फल मीठा होता है'.

Saturday 8 February 2014

राजनीति, संवैधानिकता एवं जनलोकपाल बिल - Janlokpal Bill

by on 03:05
देश की राजनीति पिछले ४ सालों से जनलोकपाल बिल से मुक्त नहीं हो पा रही है. पहले जहाँ आन्दोलनों, धरनों और प्रदर्शनों को इसके शुरूआती चरण के रूप में देखा गया, वहीं अब यह लड़ाई सरकार से होती हुई संवैधानिकता और अराजकता के प्रश्न पर आकर टिक गयी है. हर बार मोहरे पर होता है, कथित जनलोकपाल बिल. ऐसा नहीं है कि इसकी भनक तत्कालीन राजनैतिक तंत्र को नहीं रही होगी, और शायद इसीलिए इस मुद्दे को जल्द से जल्द ख़त्म करने के लिए परस्पर विरोधी राजनैतिक पार्टियां मिल गयीं और इस जनलोकपाल बिल के अगुआ रहे अन्ना हजारे को येन केन प्रकारेण साध लिया गया. आनन फानन में लोकसभा, राज्यसभा से यह बिल ध्वनिमत से पारित हुआ और लोगों ने समझा कि यह मुद्दा तो केजरीवाल से छिन गया. काफी हद तक यह सच भी है. अब केजरीवाल और उनके मित्र बिजली-पानी के मुद्दे पर आखिर कब तक लड़ते रहेंगे. हाँ, यदि जनलोकपाल का मुद्दा वह दुबारा जीवित करने में सफल रहे तो इसे पहले राज्य, उप-राज्यपाल, गृह-मंत्रालय से होते हुए संसद के मार्ग से देशव्यापी बनाने का मौका जरूर हाथ लग सकता है. अब बात बिलकुल साफ़ हो जाती है, जिसमें पुराना तंत्र इस मुद्दे को समाप्त करना चाहता है, और नयी उभरी ताकत इस मुद्दे को जीवित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखती है.

जरा सोचिये, यह मुद्दा यदि केजरीवाल अपनी योजना के अनुसार धूम-धाम से किसी पार्क/ स्टेडियम में ले जाकर, विधानसभा का सत्र बुलाकर पास करा ले जाते हैं, तो उनकी लोकप्रियता का ग्राफ कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाएगा और पुराने राजनैतिक तंत्र, जिसको वह भ्रष्टाचारी कह कहकर कठघरे में एक हद तक खड़ा कर चुके हैं, उसकी ब्रांडिंग का ग्राफ कितना नीचे आ जायेगा. राजनीति को समझने वाले घाघ राजनीतिज्ञ अब तक केजरीवाल को समझ चुके होंगे कि उनकी राजनैतिक जमीन क्या है, अथवा आम आदमी पार्टी अपना राजनैतिक अस्तित्व कहाँ ढूंढ रही है. बिलकुल साफ़ है, पुराना तंत्र ख़त्म करके या उसको करारी चोट पहुंचाकर ही आम आदमी आगे बढ़ सकती है. अपना इरादा वह जाहिर कर चुके हैं. यह बात सही है अथवा गलत यह एक बहस का मुद्दा जरूर हो सकता है. पुराना तंत्र इस बात की कवायद में लगा है कि नयी उभरती ताकत को समझौता करने के नाम पर सीमित कर दिया जाय और अपने अंदर समेट लिया जाय, लेकिन केजरीवाल और उनके तेज-तर्रार साथियों का विश्वास या आभाष दिल्ली की जीत के बाद और भी पक्का हो गया होगा कि वह पुराने तंत्र को समाप्त करके या सीमित करके अपना वर्चस्व स्थापित कर सकते हैं. वोटों के परिणाम के बारे में आंकलन तो खैर अभी नहीं किया जा सकता, लेकिन राजनैतिक तंत्र के खिलाफ जो जनता में आग लगी हुई है, उसको केजरीवाल और उनकी टीम ने बहुत पहले ही भांप लिया था और उस गुस्से से अपनी खिचड़ी पकाने लायक सामर्थ्य भी उन्होंने जुटा लिया है, या उनको ऐसा विश्वास है. अब जरा सोचिये, केजरीवाल कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों को समाप्त करके, तोड़ करके अपना उभार करने का सपना देख रहे हैं, और न सिर्फ देख रहे हैं, बल्कि जनलोकपाल बिल को आधार बनाकर अपनी चालें भी चल रहे हैं. अब सामने से लड़ाई आर-पार की दिख रही है, और यह लोकसभा के परिणामों तक सम्भवतः दिखेगी भी. हाँ, लोकसभा के परिणामों के बाद सभी दल अपना सामर्थ्य, जनता का समर्थन और उसकी आशा को समझ चुके होंगे, और तब फैसला होगा कौन रहेगा, कौन धूमिल होगा या कौन किस से मिलकर रहेगा. तब तक यह शह और मात का खेल चलता रहेगा. जहाँ तक बात जनलोकपाल की वैधानिकता का है तो इस बात पर भी खेल ही चल रहा है. पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मीडिया को एक खत दिया था, जिसमें लिखा गया था कि जस्टिस मुकुल मुद्गल, पीवी कपूर, केएन भट्ट और पिनाकी मिश्रा की राय लेने के बाद ही उन्होंने जनलोकपाल बिल को विधानसभा में पेश करने की तैयारी की थी. केजरीवाल ने दलील दी थी कि इनसे राय के बाद ही जनलोकपाल बिल का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन अब इन चार नामों में से दो - वरिष्ठ वकील केएन भट्ट और पिनाकी मिश्रा ने कहा है कि उन्होंने न तो बिल देखा है और न ही इस तरह की कोई राय दी है.

इससे केजरीवाल जरूर थोड़े बैकफूट पर आ गए हैं. थोडा उनपर दबाव इसलिए भी पड़ा है क्योंकि दिल्ली के उपराज्यपाल के पूछे जाने पर भारत के सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि जनलोकपाल बिल को बिना गृह मंत्रालय की मंजूरी के पास नहीं किया जा सकता है और बताया था कि यह तरीका असंवैधानिक होगा. लेकिन एक के बाद एक इसकी काट निकाली जायेगी, क्योंकि राजनीति में कुछ भी असम्भव नहीं होता है. और जब प्रश्न राजनैतिक अस्तित्व का हो तब तो हर तरह का रास्ता हर पक्ष निकालेगा. क्योंकि बदलाव चाहे कुछ आया हो अथवा नहीं आया हो, एक बदलाव तो आया ही है और वह है वर्त्तमान राजनैतिक तंत्र के मन में डर. अब तक तो उनको लगता था कि वह इस बार नहीं जीते, तो ५ साल बाद भी जोर-आजमाइश कर सकते हैं. लेकिन अब उन्हें यह डर है कि वह जिस प्रकार राजनीति करते आये हैं, वह राजनीति ही कहीं न बदल जाय. फिर नयी राजनीति में वह भला कहाँ फिट बैठेंगे. ऐसा नहीं है कि इस सवाल से सिर्फ पुराना तंत्र ही जूझ रहा है, बल्कि नए तंत्र की तो और भी समायाएं हैं. एक तो उन्हें खुद को साबित करने की जद्दोजहद है, दूसरे उन्हें राजनीति के पुराने नियम सिर्फ सीखने हैं, क्योंकि वह जब पुराना जानेंगे तभी तो अपना नया नियम बनाएंगे. इसमें बारीकी यह है कि पुराना नियम उन्हें सिर्फ सीखना है, अपनाना नहीं है, क्योंकि यदि वह वही नियम अपनाते हैं, जो पहले से हैं तो पुरानी राजनीति ही क्या बुरी है. मतलब साफ़ है, उन्हें राजनीति करनी तो है, लेकिन राजनीति के तात्कालिक फायदों से खुद को दूर रखना है. और उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि जनता की आशाएं और उम्मीदें सबसे ज्यादा होने के कारण उनकी बारीकी से शिनाख्त हो रही है और उसमें वह कई छेद नजर आ रहे हैं, जो शायद सामान्य रूप से नजर नहीं आते. संविधान का उल्लंघन, अराजकता, अनुभव की कमी से तो वह जूझ ही रहे हैं, साथ में उनकी एकमात्र पूंजी 'साफ़-नीयत' पर भी उनकी बड़ी महत्वाकांक्षा भारी पड़ती दिख रही है. क्योंकि साफ़ नीयत तो एक बेहद सटीक दैवीय गुण है, और यह अकेले नहीं चलता है, बल्कि धैर्य, सहिष्णुता, त्याग, संतुलन इत्यादि अन्य मानवीय गुणों का पूरक है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपनी मर्जी से एक सदगुण के प्रशंसक और फालोवर होने का दावा करें, और दूसरे मानवीय गुणों से आप कन्नी काट लें. यहीं तो संदिग्ध हो जाते हैं 'आप'. खैर, प्रयासों में काफी दम होता है और पुराने और नए दोनों तंत्रों के लिए यह सीखने का उचित अवसर है. पुराना अपनी गलती सुधारे, अन्यथा वह मिट जायेगा और नया अति-आत्मविश्वास से बचकर साफ़ नीयत से ही संतुलन बनाये अन्यथा उसकी भ्रूण-हत्या हो जायेगी. और इससे बड़ी बात यह है कि दोनों तंत्र एक दूसरे के प्रति सहिष्णु हों. आखिर यही तो है 'साफ़ नीयत'.

नए और पुराने राजनैतिक तंत्र को सामर्थ्य, महत्वाकांक्षा, संतुलन और कथित 'साफ़-नीयत' के पैमाने पर तौल रहे हैं मिथिलेश


मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Janlokpal Bill, Anna Movement article by Mithilesh.

Friday 7 February 2014

सवालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वही पुराना राग - Rashtriya Swayamsewak Sangh

by on 06:07
यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि चुनावी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक सहयोग आरएसएस, यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से ही मिलता है. यह सहयोग कार्यकर्ताओं से लेकर योजना बनाने और योजना कार्यान्वित करने में आने वाली प्रत्येक कठिनाई से निपटने और उससे भी आगे कथित तौर पर देश/ राज्य की नीतियों में हस्तक्षेप तक होता है. यही कारण है कि एक सांस्कृतिक संगठन होने के बावजूद कांग्रेस, सपा, राजद और दूसरे राजनैतिक दल आरएसएस पर निशाना साधने में कोताही नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ की हड्डी यदि कोई है, तो वह है आरएसएस. चाहे जैसे भी यदि आरएसएस पर निशाना लग जाए, तो भारतीय जनता पार्टी को पिछले पैरों पर खड़ा करने में बेहद आसानी रहेगी. लेकिन इस आरएसएस की चर्चा करते समय एक बेहद दिलचस्प बात सामने आती है, वह है इससे कांग्रेसी विचारधारा का लगातार डरना. आजादी के पहले भी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का आरएसएस के प्रति दुराग्रह कोई छिपा हुआ विषय नहीं है. महात्मा गांधी की १९४८ में जिस प्रकार हत्या हुई और बिना किसी ख़ास सबूत के जिस प्रकार आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया था, उस पर आज भी सवाल उठते रहे हैं.

हालाँकि बाद में सबूत के अभाव में कांग्रेस ही की सरकार को मजबूरन अपने प्रतिबन्ध को हटाना पड़ा था. कहते हैं, इस प्रतिबन्ध से पहले आरएसएस पूर्ण रूप से सांस्कृतिक संगठन रहा था, परन्तु आरएसएस के प्रचारकों ने इसके बाद १९५१ में जनसंघ की स्थापना करके राजनीति में अपनी पैठ बनाने की शुरुआत कर दी थी. यह तो निश्चित बात है कि आरएसएस शुरू से ही अपने अलग तेवर में शक्तिशाली दिखने लगा था, जिसकी विचारधारा कांग्रेस से बिलकुल अलहदा थी. हालाँकि आरएसएस को राजनीतिक परिणाम प्राप्त करने में लगभग पचास साल लग गए और उनकी राजनैतिक स्वीकार्यता तब हुई जब अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने. इसके पहले इसका राजनैतिक प्रभाव छिटपुट ही था. इसमें यह उद्धृत करना आवश्यक है कि आपातकाल में आरएसएस पर एक बार फिर इंदिरा गांधी ने प्रतिबन्ध लगाया, लेकिन तब तक आरएसएस राजनीति सिख चुका था और तब के तत्कालीन लोकनायक जयप्रकाश नारायण को भी अलग विचारधारा के होने के बावजूद आरएसएस को साथ लेने को मजबूर होना पड़ा और आरएसएस के सहयोग और उसके समर्पित कार्यकर्ताओं के संघर्ष से ही इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेता को झुकाया जा सका. इस बीच चंद्रशेखर और अन्य जनता पार्टी के नेताओं का आरएसएस विरोध कभी कम नहीं हुआ, लेकिन इसके विपरीत आरएसएस की ताकत लगातार बढ़ती ही रही. जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के समय की एक बेतुकी शर्त बड़ी प्रसिद्द है, जिसमें जनता पार्टी के नेताओं ने संघ के स्वयंसेवकों को जनता पार्टी का सदस्य न होने की शर्त रख दी थी.

इस बीच आरएसएस पर लगातार उन्मादी और साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रसार करने के आरोप लगते रहे और राजनीतिक रूप से परिपक्व हो गया आरएसएस और जनसंघ के बाद उसकी अगली कड़ी भाजपा मजबूत होती चली गयी. आरएसएस और भाजपा की मजबूती का वर्त्तमान में अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अकेले उसका मुकाबला करने में अब सक्षम नहीं है और उसे कई-कई क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत पड़ रही है. इस बात को कई विचारक अतिश्योक्ति मान सकते हैं, लेकिन यह तथ्य है कि वर्त्तमान की राजनीति आरएसएस/ भाजपा बनाम अन्य की है. २०१४ के आम चुनाव में भाजपा जहाँ अपने दम पर २७२ का आंकड़ा छूने का दम भर रही है, वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस दूसरों के कंधे पर बन्दूक रखकर गोली चलाती साफ़ दिखती है. जहाँ तक असीमानंद के कथित साक्षात्कार की बात है, तो इसका कहीं कोई आधार दिखता नहीं है, बजाय राजनीति के, क्योंकि खुद कांग्रेस की सरकार केंद्र में है और केंद्र से जुडी जांच एजेंसी एनआईए संघ से जुड़े पदाधिकारियों को क्लीन-चिट दे चुकी है. वैसे भी राजनीति में सवालों का उठना कोई नयी बात नहीं है, और जब बात आरएसएस जैसे ताकतवर संगठन की हो तब तो सवालों की बौछार होगी ही. लेकिन इन सवालों में दम कितना है, यह तो सवाल उठाने वालों को बताना ही चाहिए, विशेषकर तब जब उसके हाथ में सत्ता और ताकत दोनों की चाभी हो. आखिर कांग्रेस और आरएसएस दोनों के साथ-साथ जनता भी तो परिपक्व हुई है. दोनों जनता को इतने हल्के में न लें, अन्यथा पटखनी देने में जनता को सबसे ज्यादा महारत हासिल है. यही तो हमारे लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है कि प्रत्येक वाद-विवाद के फैसला जनता के हाथ में होता है और जनता इन विवादों पर फैसला सुनाने के लिए बिलकुल उपयुक्त जज है. क्या कहते हैं, 'आप'.

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Rashtriya Swayamsewak Sangh Articles

Thursday 6 February 2014

केजरीवाल का मास्टरस्ट्रोक - Arvind Kejriwal

by on 06:20
arvind_kejriwal_in_thoughtअरविन्द केजरीवाल जिस प्रकार आंदोलन से निकलकर मुख्यमंत्री बने थे, उसने कइयों के मन में उम्मीद की लहर भर दी थी. लेकिन इसी के साथ जिस प्रकार से उन्होंने लोकप्रियता की राजनीति की खातिर एक के बाद एक फैसले करने शुरू कर दिए, उसने उनके समर्थकों में जल्द ही निराशा भी पैदा कर दी. हालाँकि उन्होंने जल्दी-जल्दी कई कागजी फैसले भी लिए, जो शायद उतने असरदार साबित नहीं हुए, जितना उन्हें होना चाहिए था. मसलन, पानी को २० किलोलीटर तक मुफ्त करना केजरीवाल की चतुराई के बाद भी प्रशासनिक स्तर पर एक बड़ा फैसला था. लेकिन चूँकि केजरीवाल तब तक परिपक्व राजनीतिज्ञ नहीं बने थे, तो यह मुद्दा और फैसल कुछ हद तक नकारात्मकता की भेंट चढ़ गया. बिजली का फैसला, सब्सिडी के बावजूद और कुछ सीमाओं के बाद भी एक बड़ा फैसला कहा जा सकता है, जिससे लोगों को सीधे तौर पर फौरी राहत मिली. लेकिन यहाँ पर भी राजनैतिक अपरिपक्वता ने उन्हें वह लाभ नहीं उठाने दिया, जो घाघ राजनीतिज्ञ उठा पाते.

यह दो बड़े दांव यूँही निकल गए. यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि यदि केजरीवाल ने यही दोनों फैसले पुरे होमवर्क के साथ लिए होते, किसी कांग्रेसी या भाजपाई की तरह, तो इसका असर कुछ और ही होता. इन दोनों बड़े फैसलों से फायदा नहीं मिलते देख केजरीवाल झल्लाते गए और असफलता की राह पर बढ़ते दिखने लगे. फिर जनता दरबार, बिना किसी होमवर्क के बुरी तरह असफल हो गया और केजरीवाल को पिछले पैरों पर खड़ा होने को मजबूर होना पड़ा. असफलता से खिसियाये केजरीवाल और उनके मंत्रियों पर सबसे बड़ा सवाल तब उठा जब खेड़की एक्सटेंसन में उनके मंत्री सोमनाथ भारती कानून के उल्लंघन, बदजुबानी, फर्जीवाड़े, मीडिया से बदतमीजी जैसे कई आरोपों में सीधे-सीधे घिर गए. अनुभव, यहीं तो काम आता है, जो केजरीवाल और उनकी टीम के पास बिलकुल भी नहीं था. उनके बचाव में केजरीवाल ने खुद की प्रतिष्ठा और पूरी पार्टी की साख को दाव पर लगा दिया और वह तो भला हो पूर्व सेफोलॉजिस्ट योगेन्द्र यादव की समझ का, जिन्होंने उप-राज्यपाल से मिलकर और उनके हाथ-पावं पड़कर एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कराकर दो पुलिस वालों को छुट्टी पर भिजवाने की बात मना ली. अन्यथा आम आदमी पार्टी की मट्टी पलीत होने की शुरुआत केजरीवाल ने अराजकता की तरफ बढ़कर खुद ही कर दी थी. खैर, झटका लगा उन्हें इन वाकयों से और वह संभल-संभल कर चलने लगे और अपनी अकड़ को ढीली करते हुए बगैर ना-नुकर किये २६ जनवरी की परेड में चुपचाप नियमों के अनुसार बैठे और कोई हंगामा नहीं किया, क्योंकि वह समझ चुके थे, एक-दो गलतियां उनको अर्श से फर्श पर पहुंचाने को काफी होती. 'आप' की ऐसी दुर्गति देखकर उनको बड़े और घाघ समर्थकों के कान खड़े हो गए, और उन्होंने कुछ केजरीवाल को भी समझाया और खुद केजरीवाल के समर्थन में खुलकर आये भी. दिल्ली पुलिस के बढे हुए उत्साह को कुछ विशेष और बड़े मीडिया समूहों ने एक के बाद एक स्टिंग कर पस्त कर दिया, तो दूसरी तरफ केजरीवाल और उनकी टीम ने भी सावधानी से कदम बढ़ाने का फैसला किया. बड़बोले मंत्रियों और विधायकों को बोलने से रोका गया तो शोएब इकबाल और रामबीर शौक़ीन जैसे आजाद विधायकों से समझौते की राह (वही पुरानी राजनीति का रास्ता) भी निकाली गयी.

भारतीय जनता पार्टी के हमले को कुंद करने के लिए केजरीवाल ने अपना मास्टरस्ट्रोक भी चल दिया, और वह था शीला दीक्षित पर कारर्वाई की शुरुआत करने का. अब पुराने राजनीतिक नियम तो यही कहते हैं कि केजरीवाल कारर्वाई शुरू करके विपक्ष को रोकेंगे, वहीं कारर्वाई और जांच का लगातार एक्सटेंसन करके कांग्रेस को भी संतुष्ट करेंगे. क्योंकि यदि उनको राजनीति करनी है, तो उसके नियम तो यही कहते हैं कि शीला पर कारर्वाई का दिखावा जरूर हो, लेकिन या तो इसकी जांच आगे बढ़ती रहे अथवा उनको क्लीनचिट मिल जाए. क्योंकि शीला के इतनी जल्दी जेल जाने का मतलब कांग्रेस के लिए बेहद खतरनाक होगा. और कांग्रेस अंदरखाने से अपने एक या दो विधायकों को निर्देश दे सकती है कि वह पार्टी से बगावत करके सरकार गिरा दें. आखिर राजनीति की सबसे पुरानी प्रोफ़ेसर वही तो है. खैर, केजरीवाल की मंशा क्या है और वह अपनी मंशा को राजनीति के साथ कैसे मिला पाते हैं, इसे देखने में अभी वक्त लग सकता है, लेकिन शीला के खिलाफ जांच शुरू करके वह अपना सबसे मजबूत दांव तो चल ही चुके हैं. दिलचस्प होगा, इस नए महत्वकांक्षी लोगों के समूह का राजनीतिक नजरिये से आंकलन करना. आप भी अपनी कमर कस लीजिये, बहुत कुछ देखना और सीखना जो है जनता को. क्योंकि जब तक जनता राजनीति नहीं सीखेगी, समझेगी तब तक यह नेता उसे बेवक़ूफ़ बनाते ही रहेंगे. केजरीवाल की शायद यही एक अच्छाई खुल कर सामने आयी है कि जनता को उनसे काफी कुछ सीधे-सीधे सिखने को मिल रहा है. और यही सीखकर वह २०१४ में सिखाने का दावा भी करेगी.

Sunday 2 February 2014

जहरीली राजनीति - Politics

by on 06:28
वैसे तो राजनीति का व्यवहारिक चरित्र भी यही है, परन्तु पिछले कुछ दिनों से शाब्दिक अर्थों में भी राजनीति को जहरीला बताने की होड़ शुरू हो गयी है. इसकी शुरुआत यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी ने एक चुनावी रैली में करते हुए कहा कि कुछ लोग जहर की खेती कर रहे हैं. अब तेज-तर्रार राजनीतिज्ञ और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को इसका जवाब देना ही था और उन्होंने अपने चिर-परिचित लच्छेदार भाषा में इसका जवाब दिया भी. बातों के तार को एक दूसरे से जोड़ते हुए उन्होंने जयपुर के कांग्रेसी चिंतन के चर्चित राहुल बोल का हवाला दिया, जिसमें राहुल गांधी के अनुसार उनकी माँ ने सत्ता को जहर बताया था. नरेंद्र मोदी के अनुसार यदि सत्ता जहर है तो सर्वाधिक जहरीली तो कांग्रेस हुई. खैर, बातों का क्या है, बातें तो होती ही रहती हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव के नजदीक आते आते इस बात पर चर्चा जरूरी हो जाती है कि आखिर जहरीला है कौन? क्या सिर्फ एक दुसरे को जहरीला कह देने से खुद अपना जहर छुप जायेगा? क्या देश की जनता को इतनी आसानी से विकास के मुद्दे से हटाकर दंगों के जहर में उलझा देंगी राजनैतिक पार्टियां? सवाल यह भी है कि एक अरब से ज्यादा आबादी का युवा देश क्या रोजी-रोजगार से हटकर जहरीली राजनीति के साये में ही रहने को मजबूर होगा? पुलिस, प्रशासन, सड़कें, महिला-सुरक्षा, सीमा-सुरक्षा, आर्थिक असुरक्षा और ऐसे ही दुसरे अन्य मुद्दों को जहर की राजनीति पर बलि चढ़ाया जायेगा. वगैर इन प्रश्नो का जवाब पाये बेहद मुश्किल होगी जनता के लिए.

जनता पशोपेश में रहेगी लोकसभा चुनाव को लेकर, क्योंकि लगभग सभी एक दुसरे से वैसे ही अलग नजर नहीं आ रहे थे, और अब तो ईमानदार और ईमानदारी का ढोंग पीटने वाली एक नयी पार्टी पर भी नस्लवाद, महिलाओं का अपमान, अमानवीय होने का आरोप, अराजक और जहरीला होने का आरोप खुद उसी पार्टी के संस्थापक सदस्य और विधायक लगा रहे हैं. दूसरों की तो फिर बात ही क्या की जाय. अब कुछ लोग नेताओं को समाज से बाहर का मानते हैं, तो उनका कुछ भी नहीं हो सकता है. लेकिन यह बात सत्य है कि समाज से ही यह नेता निकलते हैं. तो क्या यह मान लिया जाय कि राजनीति के साथ-साथ हमारा समाज भी जहरीला होता जा रहा है. नहीं, नहीं... ... यह बात तो सर्वाधिक मिथ्या प्रतीत होती. आखिर 'वसुधैव कुटुंबकम' की बात शुरू करने और लगातार मानने वाला समाज जहरीला कैसे हो सकता है भला? तो क्या यह मान लिया जाय कि चुनाव के समय में जहर की बात सिर्फ इसलिए कही जाती है क्योंकि इस निश्चित समय के लिए जनता की आँखों पर पट्टी लगाई जा सके.

यह ठीक है कि हमारे देश में एक बड़ा वर्ग अभी भी सामजिक समरसता का पक्षधर है, परन्तु उन कुछ लोगों का क्या करें, जो अपने निहित स्वार्थों के कारण विशेष परिस्थितियों में जहर का फैलाव करते रहते हैं. जहर का फैलाव करने के आरोप से कांग्रेस तो बच ही नहीं सकती है क्योंकि यह बात पूर्णतः सत्य है कि देश में ६० साल से भी अधिक समय खुद कांग्रेस गद्दी पर रही है और देश में हजारों की संख्या में दंगे और ८४ का बड़ा नरसंहार उसी की देख-रेख में हुए हैं. इन आरोपों से भाजपा भी नहीं बच सकती है क्योंकि बाबरी मस्जिद का विध्वंश और गुजरात दंगे उसके दामन पर बड़ा दाग रहे हैं. इन बातों से दुसरे क्षेत्रीय दल और ईमानदार पार्टी भी कैसे बच सकती है क्योंकि नस्लवाद, महिला-सुरक्षा और संवैधानिक पदों की गरिमा को लेकर उस पर कई गम्भीर प्रश्न खड़े हुए हैं. अब जनता इन सभी विचारधाराओं को आइना दिखाने को पूर्ण रूप से तत्पर है. बस इन्तेजार है तो लोकसभा चुनाव की तिथियों का. आखिर जहर और जहरीला होने का असली प्रमाण-पत्र तो जनता ही देगी.

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Politics article by mithilesh in hindi

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