Sunday 19 January 2014

मोदी मन्त्र : योजना या लफ्फाजी - Modi mantra

modi-mantra  नरेंद्र मोदी ने आखिरकार अपने वादों का पिटारा खोलकर एक कदम आगे बढ़ा दिया है. जिस प्रकार दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में राहुल गांधी ने जोरदार भाषण दिया, उसने भाजपाइयों के कान खड़े कर दिए थे. इसके साथ तालकटोरा स्टेडियम में ही राहुल गांधी को चुनाव प्रचार कमान देकर उन्हें कांग्रेस ने एक कदम आगे भी कर दिया था और प्रधानमंत्री घोषित नहीं करके उन्होंने राहुल गांधी को सुरक्षित भी कर लिया है. अभी तक चुनाव प्रचार में आगे चल रहे नरेंद्र मोदी भी राहुल गांधी के इस बदले रूप से सचेत हो गए और मात्र दो दिन बाद उन्होंने भारत के विकास के लिए रोडमैप पेश कर दिया. इस रोडमैप में उन्होंने बेहद बड़ी-बड़ी बातें रखीं, उससे भी आगे जाकर उन्होंने अमेरिका और जापान जैसे देशों के विकास जैसी तुलनात्मक योजनाओं का खुलासा रखकर आज के नए युवा की मानसिकता को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नरेंद्र मोदी यूँही भारत की दूसरी सबसे बड़ी और संघ-सिंचित भाजपा के शीर्ष पर नहीं पहुँच गए हैं. जो बात उनके भीतर है, उसमें सबसे ख़ास बात है कि वह सही मौके पर सही बात करते हैं. कई मामलों में उनकी वाणी वैद्य की तरह दिखती है, जो जनता की नब्ज पकड़ने में माहिर है.

परन्तु नरेंद्र मोदी के भाषण में जो बड़ी बातें कही गयी हैं, बात इससे आगे तक जाती है. हालांकि नरेंद्र मोदी एक जांचे और परखे नेता हैं और उनका सार्वजनिक जीवन भी गुजरात दंगों को छोड़कर बेदाग़ रहा है. परन्तु जब बात केंद्र की आती है तब मसला कुछ और हो जाता है. भारतीय शासन प्रणाली में जब राज्य कोई गलत कदम उठाता है तब उसके ऊपर केंद्र का अंकुश रहता है परन्तु केंद्र के मामले में ऐसा नहीं होता है. केंद्र में यदि कोई सरकार रहती है तब वह सीधे-सीधे पूरे देश के लिए जिम्मेवार होती है. और यहीं सवाल उठता है नरेंद्र मोदी के वादों पर. उन्होंने अपने भाषण में रक्षा नीति, विदेश नीति, अर्थ नीति से जुड़े मुद्दों पर कोई ख़ास राय नहीं रखी. नरेंद्र मोदी के शासन, प्रशासन पर तो उनके विरोधी भी कुछ ख़ास प्रश्न नहीं करते हैं, प्रश्न तो उनके रवैये को लेकर है. प्रश्न विकास से ज्यादा इस बात को लेकर है कि कश्मीर समस्या के बारे में उनका रवैया क्या होगा. प्रश्न यह भी है कि जिस प्रकार अमेरिका ने मोदी को वीजा देने से मना कर रखा है, उससे कहीं वह नाराज होकर अमेरिका के साथ सम्बन्धों को बिगाड़ेंगे तो नहीं. कहीं वह तानाशाह बनकर देश के ताने-बाने को ख़राब तो नहीं करेंगे. बेहतर होता यदि नरेंद्र मोदी बुलेट-ट्रेन, एम्स और बेहतर प्रबंधन संस्थानों के साथ इन मुद्दों पर भी आम जनता का दिल जीतने की कोशिश करते. नरेंद्र मोदी के इस भाषण में देश की ग्रामीण जनता का भी कोई खास जिक्र नहीं दिखा और इस बात पर आश्चर्य इसलिए भी होता है कि कहीं मोदी ने बिना योजना के दिल्ली के अरविन्द केजरीवाल की तरह सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें तो नहीं की.

जिस प्रकार दिल्ली अरविन्द केजरीवाल के शासन में अराजकता की ओर बढ़ रहा है, कहीं देश मोदी के नेतृत्व में वैसा तो नहीं हो जायेगा. इन सभी प्रश्नों का जवाब नरेंद्र मोदी को जरूर ही देना चाहिए. यह बात कहने में किसी पत्रकार को लाग-लपेट नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी के प्रति देश भर में एक भारी आकर्षण है, परन्तु क्या सिर्फ आकर्षण और बड़ी-बड़ी बातों से काम चल जायेगा. लोकतंत्र में कई लोग जिन प्रश्नों को उठा रहे हैं, मोदी उन पर भी सहृदयता से जवाब दें. भाजपा के सर्वोच्च नेता बन चुके मोदी को अपने बुजुर्ग और संरक्षण लाल कृष्ण आडवाणी की सीख पर भी ध्यान देना चाहिए, जिसमें वह उन्हें अति आत्म विश्वास से बचने की सलाह देते हैं. हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कांग्रेस महा भ्रष्टाचारी पार्टी है, परन्तु यह बात विचारणीय है कि वह इतनी गलत होने के बावजूद भी ६० साल तक शासन में कैसे रही. इस प्रश्न का उत्तर यही है कि सबको साथ लेकर चलने की कला राजनीति के लिए बेहद आवश्यक है. नरेंद्र मोदी वर्त्तमान नेताओं में निश्चित रूप से काफी योग्य दिखते हैं, परन्तु वह समस्त भारत को साथ लेकर कैसे चलेंगे, इस बाबत भी उनको अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए. यही लोकतंत्र है. अपनी बात भी रखिये, और दूसरों की बातों का सहृदयता से जवाब भी दीजिये. सुन रहे हैं न प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, मोदी जी.

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