Saturday 8 February 2014

राजनीति, संवैधानिकता एवं जनलोकपाल बिल - Janlokpal Bill

देश की राजनीति पिछले ४ सालों से जनलोकपाल बिल से मुक्त नहीं हो पा रही है. पहले जहाँ आन्दोलनों, धरनों और प्रदर्शनों को इसके शुरूआती चरण के रूप में देखा गया, वहीं अब यह लड़ाई सरकार से होती हुई संवैधानिकता और अराजकता के प्रश्न पर आकर टिक गयी है. हर बार मोहरे पर होता है, कथित जनलोकपाल बिल. ऐसा नहीं है कि इसकी भनक तत्कालीन राजनैतिक तंत्र को नहीं रही होगी, और शायद इसीलिए इस मुद्दे को जल्द से जल्द ख़त्म करने के लिए परस्पर विरोधी राजनैतिक पार्टियां मिल गयीं और इस जनलोकपाल बिल के अगुआ रहे अन्ना हजारे को येन केन प्रकारेण साध लिया गया. आनन फानन में लोकसभा, राज्यसभा से यह बिल ध्वनिमत से पारित हुआ और लोगों ने समझा कि यह मुद्दा तो केजरीवाल से छिन गया. काफी हद तक यह सच भी है. अब केजरीवाल और उनके मित्र बिजली-पानी के मुद्दे पर आखिर कब तक लड़ते रहेंगे. हाँ, यदि जनलोकपाल का मुद्दा वह दुबारा जीवित करने में सफल रहे तो इसे पहले राज्य, उप-राज्यपाल, गृह-मंत्रालय से होते हुए संसद के मार्ग से देशव्यापी बनाने का मौका जरूर हाथ लग सकता है. अब बात बिलकुल साफ़ हो जाती है, जिसमें पुराना तंत्र इस मुद्दे को समाप्त करना चाहता है, और नयी उभरी ताकत इस मुद्दे को जीवित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखती है.

जरा सोचिये, यह मुद्दा यदि केजरीवाल अपनी योजना के अनुसार धूम-धाम से किसी पार्क/ स्टेडियम में ले जाकर, विधानसभा का सत्र बुलाकर पास करा ले जाते हैं, तो उनकी लोकप्रियता का ग्राफ कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाएगा और पुराने राजनैतिक तंत्र, जिसको वह भ्रष्टाचारी कह कहकर कठघरे में एक हद तक खड़ा कर चुके हैं, उसकी ब्रांडिंग का ग्राफ कितना नीचे आ जायेगा. राजनीति को समझने वाले घाघ राजनीतिज्ञ अब तक केजरीवाल को समझ चुके होंगे कि उनकी राजनैतिक जमीन क्या है, अथवा आम आदमी पार्टी अपना राजनैतिक अस्तित्व कहाँ ढूंढ रही है. बिलकुल साफ़ है, पुराना तंत्र ख़त्म करके या उसको करारी चोट पहुंचाकर ही आम आदमी आगे बढ़ सकती है. अपना इरादा वह जाहिर कर चुके हैं. यह बात सही है अथवा गलत यह एक बहस का मुद्दा जरूर हो सकता है. पुराना तंत्र इस बात की कवायद में लगा है कि नयी उभरती ताकत को समझौता करने के नाम पर सीमित कर दिया जाय और अपने अंदर समेट लिया जाय, लेकिन केजरीवाल और उनके तेज-तर्रार साथियों का विश्वास या आभाष दिल्ली की जीत के बाद और भी पक्का हो गया होगा कि वह पुराने तंत्र को समाप्त करके या सीमित करके अपना वर्चस्व स्थापित कर सकते हैं. वोटों के परिणाम के बारे में आंकलन तो खैर अभी नहीं किया जा सकता, लेकिन राजनैतिक तंत्र के खिलाफ जो जनता में आग लगी हुई है, उसको केजरीवाल और उनकी टीम ने बहुत पहले ही भांप लिया था और उस गुस्से से अपनी खिचड़ी पकाने लायक सामर्थ्य भी उन्होंने जुटा लिया है, या उनको ऐसा विश्वास है. अब जरा सोचिये, केजरीवाल कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों को समाप्त करके, तोड़ करके अपना उभार करने का सपना देख रहे हैं, और न सिर्फ देख रहे हैं, बल्कि जनलोकपाल बिल को आधार बनाकर अपनी चालें भी चल रहे हैं. अब सामने से लड़ाई आर-पार की दिख रही है, और यह लोकसभा के परिणामों तक सम्भवतः दिखेगी भी. हाँ, लोकसभा के परिणामों के बाद सभी दल अपना सामर्थ्य, जनता का समर्थन और उसकी आशा को समझ चुके होंगे, और तब फैसला होगा कौन रहेगा, कौन धूमिल होगा या कौन किस से मिलकर रहेगा. तब तक यह शह और मात का खेल चलता रहेगा. जहाँ तक बात जनलोकपाल की वैधानिकता का है तो इस बात पर भी खेल ही चल रहा है. पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मीडिया को एक खत दिया था, जिसमें लिखा गया था कि जस्टिस मुकुल मुद्गल, पीवी कपूर, केएन भट्ट और पिनाकी मिश्रा की राय लेने के बाद ही उन्होंने जनलोकपाल बिल को विधानसभा में पेश करने की तैयारी की थी. केजरीवाल ने दलील दी थी कि इनसे राय के बाद ही जनलोकपाल बिल का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन अब इन चार नामों में से दो - वरिष्ठ वकील केएन भट्ट और पिनाकी मिश्रा ने कहा है कि उन्होंने न तो बिल देखा है और न ही इस तरह की कोई राय दी है.

इससे केजरीवाल जरूर थोड़े बैकफूट पर आ गए हैं. थोडा उनपर दबाव इसलिए भी पड़ा है क्योंकि दिल्ली के उपराज्यपाल के पूछे जाने पर भारत के सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि जनलोकपाल बिल को बिना गृह मंत्रालय की मंजूरी के पास नहीं किया जा सकता है और बताया था कि यह तरीका असंवैधानिक होगा. लेकिन एक के बाद एक इसकी काट निकाली जायेगी, क्योंकि राजनीति में कुछ भी असम्भव नहीं होता है. और जब प्रश्न राजनैतिक अस्तित्व का हो तब तो हर तरह का रास्ता हर पक्ष निकालेगा. क्योंकि बदलाव चाहे कुछ आया हो अथवा नहीं आया हो, एक बदलाव तो आया ही है और वह है वर्त्तमान राजनैतिक तंत्र के मन में डर. अब तक तो उनको लगता था कि वह इस बार नहीं जीते, तो ५ साल बाद भी जोर-आजमाइश कर सकते हैं. लेकिन अब उन्हें यह डर है कि वह जिस प्रकार राजनीति करते आये हैं, वह राजनीति ही कहीं न बदल जाय. फिर नयी राजनीति में वह भला कहाँ फिट बैठेंगे. ऐसा नहीं है कि इस सवाल से सिर्फ पुराना तंत्र ही जूझ रहा है, बल्कि नए तंत्र की तो और भी समायाएं हैं. एक तो उन्हें खुद को साबित करने की जद्दोजहद है, दूसरे उन्हें राजनीति के पुराने नियम सिर्फ सीखने हैं, क्योंकि वह जब पुराना जानेंगे तभी तो अपना नया नियम बनाएंगे. इसमें बारीकी यह है कि पुराना नियम उन्हें सिर्फ सीखना है, अपनाना नहीं है, क्योंकि यदि वह वही नियम अपनाते हैं, जो पहले से हैं तो पुरानी राजनीति ही क्या बुरी है. मतलब साफ़ है, उन्हें राजनीति करनी तो है, लेकिन राजनीति के तात्कालिक फायदों से खुद को दूर रखना है. और उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि जनता की आशाएं और उम्मीदें सबसे ज्यादा होने के कारण उनकी बारीकी से शिनाख्त हो रही है और उसमें वह कई छेद नजर आ रहे हैं, जो शायद सामान्य रूप से नजर नहीं आते. संविधान का उल्लंघन, अराजकता, अनुभव की कमी से तो वह जूझ ही रहे हैं, साथ में उनकी एकमात्र पूंजी 'साफ़-नीयत' पर भी उनकी बड़ी महत्वाकांक्षा भारी पड़ती दिख रही है. क्योंकि साफ़ नीयत तो एक बेहद सटीक दैवीय गुण है, और यह अकेले नहीं चलता है, बल्कि धैर्य, सहिष्णुता, त्याग, संतुलन इत्यादि अन्य मानवीय गुणों का पूरक है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपनी मर्जी से एक सदगुण के प्रशंसक और फालोवर होने का दावा करें, और दूसरे मानवीय गुणों से आप कन्नी काट लें. यहीं तो संदिग्ध हो जाते हैं 'आप'. खैर, प्रयासों में काफी दम होता है और पुराने और नए दोनों तंत्रों के लिए यह सीखने का उचित अवसर है. पुराना अपनी गलती सुधारे, अन्यथा वह मिट जायेगा और नया अति-आत्मविश्वास से बचकर साफ़ नीयत से ही संतुलन बनाये अन्यथा उसकी भ्रूण-हत्या हो जायेगी. और इससे बड़ी बात यह है कि दोनों तंत्र एक दूसरे के प्रति सहिष्णु हों. आखिर यही तो है 'साफ़ नीयत'.

नए और पुराने राजनैतिक तंत्र को सामर्थ्य, महत्वाकांक्षा, संतुलन और कथित 'साफ़-नीयत' के पैमाने पर तौल रहे हैं मिथिलेश


मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Janlokpal Bill, Anna Movement article by Mithilesh.

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