Monday 18 February 2013

न्याय, सभ्य समाज की पहली शर्त है ... - First Duty of Society is Justice

किसी भी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने और बचाए रखने के लिए न्याय सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है.  जिस भी समाज की न्याय-प्रणाली जितनी सुदृढ़ रहेगी, उस समाज की समृद्धि की उतनी अधिक संभावना रहेगी.

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थोडा विस्तृत और साधारण रूप से कहें तो – “कोई भी व्यवस्था हो, उसमे कमियाँ होती ही हैं, समस्याएं आती ही हैं, और न्याय-प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि उस समस्या का कारण क्या है और उस समस्या द्वारा हुई क्षति की क्षतिपूर्ति कैसे सुनिश्चित हो, ताकि भविष्य में भी उस तरह की समस्या उत्पन्न होने का खतरा न हो अथवा कम से कम खतरा हो.

इसके विपरीत, यदि न्याय-व्यवस्था नहीं होती है तो पूरी व्यवस्था को टूटने में क्षण भर भी नहीं लगता, बल्कि मै तो कहूँगा कि सिर्फ एक व्यवस्था नहीं टूटती है, बल्कि समाज की अन्य व्यवस्था को तोड़ने की नजीर भी बन जाती है. यह चाहे एक छोटे से परिवार की बात हो, अथवा बड़े संयुक्त परिवार की, या किसी संगठन की बात हो अथवा हम राष्ट्र की ही बात क्यों न कर लें.

तो यदि हम किसी व्यवस्था को बचाने की सोचते है, तो न्याय की एक समुचित प्रणाली हर स्तर पर विकसित करनी चाहिए, यह चाहे एक अनुभवी व्यक्ति के द्वारा हो अथवा अच्छे लोगो का एक न्यायिक समूह क्यों न हो.  कोशिश हमें यह भी करनी चाहिए कि- “न्याय को हर समय / परिस्थिति के अनुसार तौलें.” इसकी व्याख्या एक ही वस्तु के लिए भिन्न- भिन्न समय में अलग हो सकती है, अथवा एक ही अधिकार / कर्त्तव्य के लिए भिन्न- भिन्न मनुष्यों के लिए भी अलग हो सकती है.  बराबरी और न्याय में कई बार फर्क होता है, हमें प्राकृतिक न्याय पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए जो परिस्थिति और व्यावहारिक दृष्टि से तर्कसंगत भी हो.



किसी ने सच ही कहा है- “जस्टिस इज गॉड”
First Duty of Society is Justice in Hindi.

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