Monday 10 February 2014

इतनी जल्दी... बाप रे बाप ! - Political Stunt

कोई इसे नौटंकी कह रहा है, तो कोई शहीद बनने की कवायद. कोई जिम्मेवारी से भागने की कोशिश करार दे रहा है, तो कोई आने वाले लोकसभा चुनाव से सम्बंधित महत्वाकांक्षा. यही नहीं, इस सूची में अराजक, तानाशाह, अनुभवहीन, माओवादी जैसे उपनामों की भरमार भी है. जी हैं, बात उन्हीं की हो रही है, जिनकी बात कइयों को न चाहते हुए भी करनी पड़ रही है और सुननी भी पड़ रही है. दिल्ली के ट्रैफिक में आपको हमारी ही तरह कई गाड़ियों के पिछले शीशे पर एक पोस्टर जरूर दिख जायेगा, जिसमें लिखा है- "मुझे दोष मत दो, मैंने 'आप' को वोट नहीं दिया. जबकि फेसबुक इत्यादि शोसल मीडिया समूहों पर इसके बारे में आपको कश्मीर विवाद, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कई दूसरे तरह के तीखे तमगे दिख सकते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि अब आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के समर्थकों को उनका बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है. भले ही वह स्वराज और जनलोकपाल की लोकलुभावन बातें कर रहे हों, परन्तु हकीकत यही है कि उनको अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आखिरी राजनीतिक दावं, मतलब इस्तीफे की धमकी तक देनी पड़ रही है. 'इस्तीफे के दावं' के बारें में राजनीतिज्ञ एवं इस पर नजर रखने वाले अच्छे से समझते हैं कि इसका प्रयोग आखिरी समय में ही किया जाता है, क्योंकि इसके बाद आपके पास कुछ ख़ास विकल्प नहीं बचता है. दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली कहते हैं कि कोई भी क़ानून से बड़ा नहीं है. मुख्यमंत्री अपनी ज़िम्मेदारियों से भागना चाहते हैं और इसके लिए बहाना ढूंढ रहे हैं.

यह चालाक कोशिश है. सवाल उठता है कि चालाक और धूर्त जैसे शब्द किसी मुख्यमंत्री के लिए क्यों प्रयोग किये जा रहे हैं, वह भी तब जब केजरीवाल आम आदमी के नुमाइंदे कहे जा रहे हैं और अभी उनके चुनाव को ज्यादे दिन हुए भी नहीं हैं. इस सन्दर्भ में भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार रहे डॉ. हर्षवर्धन की टिप्पणी गौर करने लायक है. हर्षवर्द्धन ने ट्वीट में लिखा, अरविंद केजरीवाल जी आपने जन लोकपाल पर हर जगह इतना होहल्ला किया है लेकिन विधायकों को इसकी एक प्रति तक नहीं भेजी है. यह नाटक बंद करिए. भाजपा नेता ने आरोप लगाया कि आप की सरकार की बुनियाद झूठ पर आधारित है. यह सरकार संविधान को बदनाम करने और लोगों को गुमराह करने के अलावा कुछ नहीं कर रही है. हालाँकि कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि विरोधी तो विरोध करेंगे ही, लेकिन इस तर्क के आधार पर उस विरोध को खारिज तो नहीं किया जा सकता, जिसमें केजरीवाल को 'घोषणा-मुख्यमंत्री' कहा जाने लगा है. इन सभी विरोधों को एक पल के लिए छोड़ भी दिया जाय तो केजरीवाल की जल्दबाजी पर शंशय तो पैदा होता ही है. तथ्यों को खंगालने पर यह साफ झलकता है कि एक महीने, दो महीनों में यह सरकार जिस प्रकार धड़ाधड़ घोषणाएं करती जा रही है, उन सभी कवायदों का जमीन पर उतरना आश्चर्यजनक रूप से संदिग्ध हो गया है. मसलन पानी जिनको मिलना चाहिए, उसे देने के लिए न कोई प्रयास हुआ न होता दिख रहा है. जिनको मिला, शायद उनको मुफ्त पानी की जरूरत ही नहीं थी. बिजली की बात करें तो यह मामला उच्चतम नयायालय तक पहुँच गया है और हर मुद्दे पर रोज सभी की छीछालेदर हो रही है, एक दूसरे को धमकियां दी जा रही हैं. बिजली कम्पनियां, बिजली काटने की बात कर रही हैं, तो केजरीवाल अनिल अम्बानी को दिल्ली में न घुसने देने की बात कह रहे हैं. किसी भी हद तक जाने की बात कही जा रही है, अराजक होने की बात कही जा रही है. यहाँ, वहाँ, जहाँ तहां कहीं भी धरने पर बैठ जाया जा रहा है. आखिर यह छीछालेदर और लोकतंत्र के नाम पर मजाक नहीं तो और क्या है. और भी कई तरह की घोषणाएं जल्दी जल्दी की जा रही हैं, मानो वह कल लागू भी हो जाएँगी. क्या केजरीवाल सचमुच इतने मुर्ख हैं, या वह सच में ही जनता को मुर्ख समझ रहे हैं, जो इतना नहीं समझते कि क़ानून बनना, आदेश पारित होना एक बात है और उसका जमीन पर उतरना बिलकुल अलग बात. क्या वह कुर्सी पर सिर्फ आदेश देने और हस्ताक्षर करने भर के लिए बैठे हैं, अथवा वह कानून जमीन पर कैसे उतरे, कैसे अपनी बिसंगतियाँ दूर करे, इसके लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए वह मुख्यमंत्री बने हैं. क्या जनलोकपाल बना देने से प्रशासन सुधर जायेगा. क्या मजाक है, बिना किसी अध्ययन के हम कोई भी व्यवस्था बनाने निकल पड़ें, तो इसे कागज की नाव के अतिरिक्त कोई दूसरी संज्ञा भला क्या दी जा सकती है. केजरीवाल जी, देश में कुछ सक्षम प्रशासक भी हैं, जिनसे आप शिक्षा ले सकते हैं. कुछ नाम आपको हम बता देते हैं, जो बिना किसी 'परमाणु बम वाले कानून' के ही एक अच्छी व्यवस्था देने की सार्थक कोशिश कर चुके हैं, लेकिन समस्या यह भी है आपके साथ की आप उन सभी नामों पर किसी न किसी बहाने कुछ और आरोप लगा देंगे. खैर, आपके स्वीकार करने या न करने से उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, हाँ ! आप उनसे कुछ सीखकर अपनी कथित 'साफ़-नीयत' को शायद वास्तविक भी बना सकें.

किरण बेदी, शिवराज सिंह चौहान, प्रणब मुखर्जी, नरेंद्र मोदी, रमन सिंह सहित ऐसे कई नाम हैं जो आपको काफी कुछ प्रशासनिक दक्षता की शिक्षा दे सकते हैं, या आप स्वयं भी ले सकते हैं. फिर आप जल्दबाजी में हस्ताक्षर पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे, बल्कि अपने एक हस्ताक्षर को जमीन पर उतारेंगे भी. तब आप जनलोकपाल या किसी और क़ानून के लिए जल्दबाजी में इस्तीफा देने की बात नहीं करेंगे, बल्कि इंतजार करेंगे और खुद भी अध्ययन करेंगे और आम राय भी बनाएंगे. यह सच है केजरीवाल जी कि आपके जनलोकपाल के बारे में देश को पता नहीं है, आप अपना व्यक्तिगत अजेंडा दिल्ली पर मत थोपिए. बेशक, वह बहुत अच्छा हो सकता है, और शायद हो भी, लेकिन इसके लिए इतनी जल्दबाजी करना आपको संदिग्ध कर जाता है. यदि आप की सोच इतनी ही खरी है तो थोड़ा रुकिए भी, खुद को परखिये भी और खुद की स्वीकार्यता को भी तौलिये. शायद आपको यह भ्रम हो गया हो कि जनलोकपाल की वजह से जनता ने आपको दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया है, लेकिन यह जनता तो उस वृद्ध अन्ना हजारे के १३ दिन भूखे रहने को याद करके आपको वोट दिया था. हाँ, आपने भी परदे के पीछे संघर्ष जरूर किया था. लेकिन केजरी जी, इसका मतलब यह नहीं है कि आपकी जायज-नाजायज सभी मांगे जनता मान ही लेगी. ध्यान रहे आपको, माता-पिता बच्चे के जिद्द करने, उसके रोने पर उसकी कई मांगे पूरी कर देते हैं, परन्तु वही बच्चा जब शादी के बाद सचमुच जिद्दी हो जाता है तब फिर माता-पिता थप्पड़ लगा कर घर से निकालने में देर नहीं करते हैं. और अब आप यह तो मानेंगे ही कि राजनीति में 'आम आदमी पार्टी' से आपकी शादी हो चुकी है. हम आपको बस इतना ही कहेंगे कि थोड़ा इन्तेजार कीजिये, इतनी जल्दी भी ठीक नहीं. आखिर वह कहावत तो सुनी ही होगी आपने कि 'इन्तेजार का फल मीठा होता है'.

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