
लेकिन, ऑनलाइन बिजनेस से जुड़े होने के कारण इससे जुडी समस्याओं पर फोकस करना चाहूंगा. जब तक कोई भाषा, कोई संस्कृति, शिक्षा सीधे तौर से ‘अर्थोपार्जन’ से नही जुड़ पाती है, उसकी स्वाभाविक प्रगति संदिग्ध हो जाती है. हिंदी इस मामले में आज़ादी के बाद से ही दुर्भाग्यशाली रही है. उदाहरण के तौर पर ब्लॉगर्स की बात करूँगा. अपने ब्लॉग लिखकर कई अंग्रेजी के लेखक बढ़िया पैसे कमा रहे हैं, वहीं हिंदी लेख से युक्त ब्लॉग शुरू से दिक्कत में फंस जाता है, जबकि उनके पाठक भी पर्याप्त हो रहे हैं, इसके बावजूद यह हाल होता है कि हिंदी ब्लॉग/ वेबसाइट के लिए गूगल एडसेंस या दुसरे प्लेटफॉर्म एप्रूवल ही नहीं देते हैं. इसी तरह देशी, विदेशी जितने भी उत्पाद बन रहे हैं, उन सभी के मैनुअल हिंदी में हों तो हिंदी के जानकारों को न सिर्फ काम मिलेगा, बल्कि उस उत्पाद की समझ भी भारतीय खरीददारों को ठीक तरह से हो पायेगी. हेल्थ इन्सुरेंस, मोटर इन्सुरेंस या लाइफ इन्सुरेंस के अधिकांश मैनुअल, फॉर्म्स- प्रपत्र हिंदी में क्यों नहीं आते हैं, यह बात कई बार सोचने पर भी मुझे समझ नहीं आती है. यहाँ यह बताना मैं आवश्यक समझता हूँ कि देश में अंग्रेजी बोलने और समझने के बावजूद लोग हिंदी में ही सुविधा महसूस करते हैं. जैसे मैंने उपरोक्त प्रपत्रों की चर्चा की, जो अंग्रेजी में रहने पर हम उसकी हेडिंग या एक पैरा ही पढ़ पाते हैं, जबकि वह हिंदी में रहने पर उतने ही समय में हम पूरा पेज पढ़ जाएँ. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि फॉर्म भरने वालों में से 90 फीसदी लोग उसके बारीक प्रावधानों को पढ़ ही नहीं पाते हैं, न समझ पाते हैं, और इसका सबसे बड़ा कारण इन सबका हिंदी में नहीं होना है. प्रशासनिक दफ्तरों, अदालतों इत्यादि की कार्यवाही पर हिंदी के विषय में चर्चा न ही करना उचित है, क्योंकि इसे न कोई सुनने वाला है, न समझने वाला. अभी हाल ही में एक चर्चा बड़ी तेजी से फैली थी कि अदालती आदेश हिंदी में ही लिखे जाएँ, क्योंकि फैसले से सम्बंधित व्यक्ति उसे समझने के लिए वकील या दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि इन सब बातों से हम परिचित नहीं हैं. लेकिन यह बात बार-बार दोहराना पड़ेगा हमें, ताकि नीति-नियंत्रकों के कानों में यह बात हथौड़े की तरह लगे. पंहुचती तो वह पहले भी रही है. हालाँकि हिंदी मनाने और उसको प्रोत्साहित करने के तमाम सरकारी, गैर-सरकारी प्रयास हो रहे हैं. और इन सब प्रयासों का सकारात्मक असर भी दिख रहा है. सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि हिंदी, गैर-हिंदी भाषाओँ का मुद्दा समय के साथ राष्ट्रहित की खातिर सकारात्मक हो गया है. अब लगभग सभी लोग हिंदी की प्रगति की खातिर कमर कस रहे हैं. अनेक गैरहिंदी भाषाई साहित्यकारों द्वारा साहित्य रचनाएं हो रही हैं. लेकिन सरकार को उपरोक्त वर्णित मामलों में सख्ती से नियमन करना होगा, जिससे उत्पाद, अर्थोपार्जन में हिंदी की सहभागिता तेजी से बढे. और तभी हम हिंदी के पक्ष में सार्थक पहल होते देखेंगे और शायद तब हमें हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा मनाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी. आखिर सार्थकता यही तो है हिंदी पखवाड़े की. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी क्या खूब कहा है -
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल”
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल”
- मिथिलेश, उत्तम नगर, नयी दिल्ली.
Article on Hindi Bhasha by mithilesh
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