Tuesday 2 June 2015

जन स्वास्थ्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ

वर्तमान मैगी विवाद की चर्चा से पहले संजीदा फिल्मकार मधुर भंडारकर की सुपरहिट फिल्म 'कार्पोरेट' की चर्चा नही करना उचित नही होगा. इस फिल्म में बेहद साफ तरीके से दिखाया गया है कि किस प्रकार कार्पोरेट कंपनियाँ अपने ग़लत सही कार्यों को आगे बढ़ाने का कार्य संपादित करती हैं. संयोग से इस फिल्म में भी फूड प्रोडक्ट्स पर काम करने वाली कंपनियों को ही कहानी का आधार बनाया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि घूसखोरी से प्रॉजेक्ट कैसे पास किए जाते हैं, उसके बाद प्रतिद्वंदी को दबाने के लिए किस प्रकार मुद्दों को हाइलाइट करके दबाव बनाया जाता है. इसके बाद एनजीओ, नेताओं और इनवेस्टर्स का रोल भी बेहद स्पष्ट तरीके से दिखाया गया है, जिसमें जनता का कहीं रोल होता ही नही है. इस फिल्म को मैने २००६ में देखा था और करीब ९ साल बाद उपजे मैगी विवाद को हूबहू जुड़ा पाता हूँ. सच कहा जाय तो नेस्ले जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने खाद्य उत्पादों से खिलवाड़ करने का इतिहास पुराना है. भारत में जैसे जैसे संयुक्त परिवारों का विखंडन हुआ है और न्यूक्लियर फेमिली का चलन बढ़ा है, वैसे वैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रेडीमेड फूड-कारोबार भी दिन-दूना, रात चौगूना की गति से बढ़ा है. दुख की बात यह है कि अलग-अलग समय पर विभिन्न कंपनियाँ इस तरह की धोखेबाजी में पकड़ी जाती रही हैं, लेकिन कार्पोरेट फिल्म के क्लाइमेक्स की ही तरह, अंत में सब कुछ सेटल कर लिया जाता है. फिर मीडिया, जाँच-अधिकारी, नेता और आवाज़ उठाने वाले एनजीओ मैनेज कर लिए जाते हैं. आप कोल्ड-ड्रिंक, सॉफ्ट ड्रिंक, पिज़्ज़ा, बीफ, बर्गर या दूसरे किसी खाद्या उत्पाद का नाम ले लीजिए, सब पर ही विवाद उठ चुके हैं, लेकिन आप नज़रें घुमाकर अपने आसपास की दुकानों पर देख लीजिए, सभी प्रोडक्ट्स उसी रफ़्तार से, उसी अंदाज में बिक रहे हैं. यहाँ तक कि मैगी विवाद में फँसी नेस्ले के मिल्क पाउडर में इस विवाद के तुरंत बाद जिंदा लार्वा तक मिले हैं, पर परिणाम जस का तस. देश के बड़े सिने-स्टार, प्रसिद्ध खिलाड़ी वगैर किसी ज़िम्मेवारी के इसका प्रचार प्रसार करते हैं. हालाँकि मैगी विवाद को लेकर खाद्य व उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान ने विज्ञापन में काम करने वालों को नसीहत देते हुए कहा है कि किसी भी विज्ञापन को करने से पहले कलाकारों को यह भी पता करना चाहिए कि उत्पाद सही है कि नहीं. केंद्रीय मंत्री ने जाँच रिपोर्ट आने की बात कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है और ब्रांड अम्बेसडरो ने भी एक कान से बात सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया होगा. यह तो मैगी है, लेकिन शराब, सिगरेट और गुटखा तक जैसे हानिकारक उत्पादों के प्रोमोशन भी ए-श्रेणी के अभिनेता और अभिनेत्री ही तो करते हैं. मैगी के मामले में बिहार के मुजफ्फरपुर की एक अदालत ने विज्ञापन करने वाले अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, प्रीति जिंटा और नेस्ले के दो अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का पुलिस को निर्देश दिया है और इस संबंध में अमिताभ बच्चन का भी बड़ा सधा हुआ बयान सामने आया है. उन्होने खुद को निर्दोष बताते हुए कहा है कि अग्रीमेंट साइन करते समय उन्होने कंपनी के साथ एक क्लाज जोड़ दिया था, जिसके बाद कोई क़ानूनी विवाद होने की स्थिति में कंपनी उन्हें बचाएगी. निर्दोष तो खुद को मधुरी दीक्षित भी बता देंगी, जबकि मैगी के विज्ञापन में वह इस प्रोडक्ट के पौष्टिक होने के बारे में गारंटी तक ले लेती थीं. सवाल यह है कि जन स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में इतना ढीला-ढाला रवैया क्यों है? गाहे-बगाहे रामदेव के पतंजलि उत्पादों के बारे में भी आवाज़ उठाई जाती रही है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. सच बात तो यह है कि भारत की विशाल आबादी में फुड प्रोडक्ट्स की विशालतम खपत ने बड़े कार्पोरेट का ध्यान इस तरह खींचा है. दुनिया भर की फुड-चेंस अब आपको भारत के बड़े महानगरों में और छोटे शहरों में भी देखने को मिल जाएँगी. यदि कुछ नही मिलेगा, तो फुड नियामक और उससे संबंधित कड़े क़ानून. ले-देकर एक फुड इंस्पेक्टर भला क्या कर सकता है, उसको मैनेज करना नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियों के बायें हाथ का खेल है. ज़रूरत हर स्तर पर सुधार करने की है, जिसकी कोशिश न तो सरकार कर रही है और न ही समाज ही इस मामले में जागरूक हो रहा है. वह तो पिज़्ज़ा, बर्गर और मैगी की ओर अंधी दौड़ लगाए हुए है. यह अंधी दौड़ हमारे समाज को ही बीमार न कर दे, इस बात की चिंता हम सबको ही करनी होगी, अन्यथा, रामभरोसे तो दुनिया चल ही रही है.
Public health and multinational food companies, hindi article by mithilesh2020

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