Monday 22 June 2015

छोटे बयान, बड़े नुकसान

भारत की राजनीति में कई बड़बोले नेता हैं, जिनकी गंभीर बातों को भी मजाक बना दिया जाता है, किन्तु आम जनमानस के साथ विश्लेषकों को भी तब भारी आश्चर्य हुआ जब अनेक गंभीर और अपेक्षाकृत साफ़ छवि के नेताओं ने अपने बयानों से अपनी छवि ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कई बार बेवजह तो कई बार अधूरी जानकारी के कारण से तो कई बार राजनीतिक ईर्ष्या की वजह से गंभीर और संभावनाशील राजनेताओं की साख को गहरी चोट पहुंची है. इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं सीताराम येचुरी. किसी कम्युनिस्ट नेता का सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना साधारण बात नहीं है, लेकिन सीपीएम महासचिव येचुरी ट्विटर पर टॉप ट्रेंड कर रहे थे. आखिर, ट्विटर पर सीताराम येचुरी की जमकर आलोचना जो हो रही थी, क्योंकि येचुरी ने संभवतः राजनीतिक ईर्ष्या की वजह से योग पर विवादित टिप्पणी करने की गुस्ताखी कर दी थी. उनका कहना था कि योग का आसन कुत्तों की हरकत जैसा होता है. येचुरी की यह टिप्पणी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के संबंध में थी. कहने की जरूरत नहीं है कि सोशल मीडिया पर यह 'अवांछित कॉमेंट' जल्दी ही वायरल हो गया और येचुरी के खिलाफ कुछ ही घंटों में विपरीत माहौल बन गया. बताना उचित होगा कि येचुरी बहुत संयमित होकर अपनी बात रखते रहे हैं, किन्तु राजनीति में एक गलती ही पासा पलटने की कूवत रखती है, यह शायद वह भूल गए थे. आखिर, उन्होंने क्या सोचकर यह बयान दिया, यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन यदि वह अपने राजनीतिक विरोधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साध रहे थे, तो उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि पूरे विश्व में 193 देशों ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस में सक्रीय दिलचस्पी दिखाई, यहाँ तक की चीन में भी योग दिवस पर उत्साहपूर्ण माहौल बना रहा. अब येचुरी अपने बयान के लिए चाहे जो सफाई पेश करें, उनके आलोचक उनको दिग्विजय सिंह की कैटगरी में शामिल करने में तनिक भी देरी नहीं करेंगे.  ऐसा भी नहीं है कि बयान बाजीगरों के क्लब में येचुरी अकेले गंभीर नेता हैं, बल्कि आरएसएस से भाजपा में आये, प्रखर वक्ता माने जाने वाले राम माधव भी शायद पहली बार लूज कॉमेंट कर के फंस गए. योग दिवस के अवसर पर ही उन्होंने अधूरी जानकारी के सहारे भारत के उपराष्ट्रपति और राज्य सभा टीवी पर योग दिवस का विरोध करने का आरोप जड़ दिया. बाद में उनके दोनों दावे गलत निकले और उन सहित भाजपा और आयुष
मंत्रालय के मंत्री महोदय को सफाई देने सामने आना पड़ा. राममाधव के माफ़ी मांगने और अपने ट्वीट डिलीट करने के बावजूद अति उत्साह में दिए गए इस बयान का राजनीतिक नुक्सान कितना होगा, यह तो बाद में पता चलेगा, किन्तु एक साफ़ छवि के प्रखर नेता का विवादित होना निश्चित रूप से विश्लेषकों को भी खला होगा. यही हालत गोवा के मुख्यमंत्री रहे और वर्तमान में हमारे रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का भी है. सादा जीवन जीने के लिए मशहूर, साफ़ छवि के पर्रिकर बेहद शिक्षित और सौम्य राजनेता माने जाते हैं. उनकी काबिलियत देखते हुए ही प्रधानमंत्री ने उन्हें गोवा से नई दिल्ली बुलाकर रक्षा मंत्रालय का दायित्व सौंपा. बिचारे, अति उत्साह में आतंक से निपटने के लिए आतंक के इस्तेमाल की पैरवी कर बैठे. बयान की हर स्तर पर थू - थू हुई सो हुई, उनकी काबिलियत पर भी सवाल उठने लगे. विश्लेषकों ने तीखे शब्दों में आधारहीन बयान को लेकर प्रश्न किया कि बेवजह माहौल बिगाड़ने की ज़रूरत क्या थी? दावे हवाई, जवाब हवाई, मगर नुकसान हकीकत में करा बैठे पर्रिकर साहब. क्या वह यह सोचते हैं कि ऐसे बयानों का असर सिर्फ पाकिस्तान तक सीमित रहेगा और वह डर कर आतंकवाद बंद कर देगा ? क्या विश्व के अन्य देश इस बयान को प्रशंसा की नजर से देखेंगे? लगे हाथों पर्रिकर जी ने आलोचना से झल्लाकर यह एलान कर दिया कि वह मीडिया से छः महीने तक बात नहीं करेंगे. अब उन्हें कौन समझाए कि मीडिया का बायकाट करने के बजाय उन्हें अपनी जुबान को साधना सीखना होगा. इसी कड़ी में बेहद सफल आईपीएस महिला रहीं और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार रह चुकीं किरण बेदी का बयान भी कुछ कम दिलचस्प नहीं रहा. योग दिवस की सुबह जब योग-सत्र के बाद बरसात होने लगी तो उन्होंने झट से ट्वीट किया कि सामूहिक योग करने के कारण ही बरसात हो रही है. उनके इस बयान की सोशल मीडिया पर आलोचना होने के बाद उन्हें भी सफाई पेश करनी पड़ी. इस आलेख में यह दुहराना आवश्यक समझता हूँ कि सिर्फ उन राजनेताओं की बात यहाँ कही जा रही है, जो अपनी ठोस और गंभीर छवि रखते हैं, जबकि दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर, साक्षी महाराज, आज़म खान, जीतनराम मांझी इत्यादि जैसे बड़बोले नेताओं के बयानों के बारे में हम सब सुपरिचित हैं ही, जो चाय वाले से लेकर, आम लीची जैसे अनेक बयानों के लिए सुर्खियां बटोरते ही रहते हैं . अनाप शनाप बयानों के माहिर नेताओं में लालू, मुलायम, मुफ़्ती मोहम्मद जैसे नेता भी कहीं पीछे नहीं हैं, जो रेप जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कहते हैं कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं और जम्मू कश्मीर में सफल चुनाव के लिए पाकिस्तान और आतंकियों को धन्यवाद दे आते हैं. विचारणीय है कि आखिर नेताओं की ऐसी क्या मजबूरी होती है जो एक के बाद एक बयानों से वह अपनी विश्वसनीयता खोते जाते हैं. कुछ नेताओं का राजनीतिक राग तो समझ आता है, जिनका काम ही गलतबयानी करके राजनीतिक रोटियां सेंकना है, किन्तु गंभीर नेता आखिर किस जल्दबाजी में अपना नुक्सान कर बैठते हैं यह बात समझ से बाहर है. पहले की बात अलग थी जब जनता आज की बात को कल भूल जाती थी, आज का युग युवाओं का है और आज का युवा हर बात समझता भी है और कंप्यूटर मेमोरी के सहारे पूरा इतिहास याद भी रखता है और समय आने पर राजनेताओं की उलट बयानी को सामने खड़ा कर देता है. इसका सबसे सटीक उदाहरण भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को माना जा सकता है. आरएसएस के बेहद करीबी और भाजपा में वर्चस्व की हद तक अपना हस्तक्षेप रखने वाले पूर्व उप प्रधानमंत्री पाकिस्तान जाकर जिन्ना की तारीफ कर आये. उन्होंने बेशक अपनी ओर से मुसलमानों में अपनी स्वीकार्यता बढाकर प्रधानमंत्री बनने की चाल चली हो, किन्तु स्वभाव और अपने लम्बे राजनीतिक जीवन के विपरीत इस एक बयान ने उनके करियर को मटियामेट कर दिया. अपने समर्थकों में वह अलोकप्रिय हुए ही, साथ ही साथ राजनीतिक रूप से भी एक के बाद एक जंग हारते चले गए. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर उभार के पीछे आडवाणी का पराभव ही था. सवाल यहाँ सही या गलत का नहीं है, बल्कि अपनी छवि के विपरीत चलने और उलट बयानी का है. आप अपनी किस प्रकार की छवि गढ़ते हैं और बनी हुई छवि के साथ किस प्रकार तारतम्य बिठा पाते हैं, राजनीति में यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है अन्यथा छोटे बयान और बड़े नुकसान होने की सम्भावना सदैव बनी रहेगी. 



Little political statement with danger impact, hindi article by mithilesh2020

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