Wednesday 13 May 2015

अपरिपक्व लोकतंत्र - Immature Democracy

azam-khansakshi-maharajsikkhलोकतंत्र मूर्खों का तंत्र है, ऐसा किसी विचारक ने कहा है तो दुसरे विचारकों ने इस भीड़ बनाम भेड़-तंत्र की संज्ञा देने से भी गुरेज नहीं किया है. भीड़ तंत्र से अभिप्राय यह निकाला जा सकता है कि वगैर सही अथवा गलत की परवाह किये, एक के पीछे दूसरा और फिर उसके पीछे अंधी दौड़ लगाने का सिलसिला चल निकलता है. यूं तो इस सन्दर्भ में तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन हालिया उदाहरण तमाम समुदायों के तथाकथित धर्मगुरुओं या ठेकेदारों के उन बयानों का है जो एक से बढ़कर एक तर्क-कुतर्क देकर आबादी बढाने की पैरवी कर रहे हैं. जी हाँ! अभी पिछले दिनों आये एक सर्वे में भले ही 40 करोड़ गरीब व्यक्तियों द्वारा मात्र एक समय ही भोजन करने की बात सामने आयी हो या फिर विकसित देश, विभिन्न मंचों पर भारत की गरीबी और बदहाली का भले ही मजाक उड़ाते हों, किन्तु आज भी बड़े ज़ोर-शोर से अपने समुदाय की आबादी बढ़ाने की न सिर्फ खुलेआम वकालत की जा रही है, बल्कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की तर्ज पर विभिन्न लुभावने प्रस्ताव भी पेश किये जा रहे हैं. जी हाँ! कोई बयानवीर यह बयान देता है कि उसके समुदाय में जिस घर में 10 से ज्यादा बच्चे होंगे, उस दंपत्ति को लाख रूपये देकर सम्मानित किया जायेगा, तो दुसरे समुदाय का ठेकेदार ढेरों बच्चे पैदा करने को ऊपरवाले की नेमत बताने से नहीं चूकते हैं. इस कड़ी में जो सबसे शर्मनाक कुतर्क दिया जाता है, वह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र पर ही गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता दिखाई देता है. यह सभी बयानवीर लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए अपने लोगों को खुलेआम कहते दिखते हैं कि यदि ज्यादा बच्चे पैदा करोगे, तो तुम्हारे पास ज्यादा वोट होंगे और ज्यादा वोट होंगे तो सरकार में तुम्हारी और तुम्हारे समुदाय की ही सुनी जाएगी. इस बात को बेशक हंसी में टाल दिया जाय, किन्तु यह बात शर्मनाक चिंता की हद को भी पार कर चुकी है. बढ़ती आबादी के आलम की बात करें तो देश के बड़े महानगर जिनमें दिल्ली, मुंबई या किसी दुसरे शहर का नाम लिया जाय, सामान्य नागरिक सुविधाओं से महरूम हैं. देश की राजधानी दिल्ली की ही बात की जाय तो यहाँ की आधी से अधिक आबादी को पीने के पानी के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता है. अनगिनत अनधिकृत कालोनियां, जिनमें सीवर, सड़क और दूसरी बुनियादी चीजों की आवश्यकता होती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. तमाम राजनेता इन सभी समस्याओं के लिए बढ़ती आबादी के भार को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी राजनीति करते रहते हैं. मुंबई जैसे शहरों में बाकायदा इसी आबादी और अधिकारों की लड़ाई के लिए सड़कों पर मारपीट होती रहती है. गरीबी का देश में आलम यह है कि शहरों से लेकर गाँव के किसी सड़क-चौराहे पर आप कुछ देर खड़े हो जाएं, वहां आपको देश का तथाकथित विकास हाथ फैलाये नजर आ जायेगा. पर प्रश्न यहाँ बढ़ती आबादी और दमघोंटू समस्याओं पर चर्चा करने का नहीं है, बल्कि प्रश्न अपने लोकतंत्र के उस मोड़ पर पहुँचने को लेकर है, जहाँ अशिक्षा को बरकरार रखने और उस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के खुलेआम षड़यंत्र किये जाते हैं और देश की व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के रूप में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ या तो मूक-दर्शक बनकर यह सारे दृश्य देखता रहता है, अथवा इस पाप में खुद भी सहभागी बनता है. इस तंत्र को आखिर क्यों अपराधी नहीं माना जाय? विभिन्न समुदायों के लिए वह आखिर एक समान कानून का निर्माण क्यों नहीं कर सकता है, जिसमें दो से ज्यादा बच्चे पैदा करना अपराध घोषित हो जाय. फिर कोई भी समुदाय या उसका तथाकथित ठेकेदार इस विषय पर राजनीति कैसे कर पायेगा. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में अशिक्षा और अपरिपक्वता यहीं नजर आती है क्योंकि समस्याओं को हल करने के बजाय यह नेता इन तथाकथित ठेकेदारों का चुनावी राजनीति में जमकर प्रयोग करते हैं और न्यायपालिका की अपनी सीमाएं हैं. मीडिया भी इन बयानों पर सनसनीखेज खबरें बनाकर अपनी टीआरपी बढाने में लगा रहता है और बढ़ती आबादी के भार तले भारत का लोकतंत्र हमेशा की तरह सिसकता रहता है.
-मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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