Tuesday 12 May 2015

न्यायिक अन्तर्विचार की आवश्यकता - Justice in Indian Democracy

पिछले दिनों दो उच्च न्यायालयों द्वारा दो फैसले आये हैं, जिसने सोशल मीडिया समेत विभिन्न माध्यमों में व्यापक बहस छेड़ दी है. एक फैसला सिने-स्टार सलमान खान की मुंबई हाई कोर्ट द्वारा तीन घंटे में ज़मानत दिया जाना है तो दूसरा बहुचर्चित फैसला अन्नाद्रमुक की सुप्रीमो जे.जयललिता की चेन्नई हाई कोर्ट द्वारा बल्कि दोनों मामलों की सरसरी तुलना भी कर दे रहे हैं. ध्यान से देखा जाय तो दोनों मामलों की तुलना न्यायिक फैसले की सतही समझ है, क्योंकि दोनों मामलों की प्रवृत्ति में ज़मीन आसमान का अंतर है. जयललिता के खिलाफ श्रोत से अधिक आमदनी का मामला चलाया गया, जो पिछले दशक में विरोधियों के खिलाफ एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. इसके तार निश्चित रूप से कहीं न कहीं केंद्रीय जांच एजेंसी 'सीबीआई' से भी जुड़े हुए हैं, जिसका आरोप राजनेता लगाते ही रहते हैं. थोड़ा राजनैतिक दृष्टि से देखा जाय तो अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सत्तासीन है. नरेंद्र मोदी की जयललिता से नजदीकियों की खबर लगभग प्रत्येक अख़बार में छपती ही रहती है. ऐसे में हम सीबीआई के रोल का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं. सीबीआई के इसी तरह के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इस जांच एजेंसी को 'तोता' तक कह दिया था, जिस पर तब बड़ा हो हल्ला मचा था. जयललिता की ज़मानत के फैसले को देखा जाय तो आम जनमानस की वैसे भी इसमें कोई ख़ास रुचि नहीं हो सकती, क्योंकि नेता शब्द ही इस तरह के मामलों की लीपापोती करने में काफी साबित होगा. यह केस सोशल मीडिया इत्यादि माध्यमों पर चर्चा में इसलिए आ गया क्योंकि सलमान पर आये हाई-कोर्ट के फैसले ने मध्यम-वर्ग की सोच में एकबारगी उबाल तो ला ही दिया था, इसी बीच जयललिता पर कोर्ट का फैसला आ गया, अन्यथा यह मामला उतना चर्चित न होता. दूसरी ओर सिने स्टार सलमान खान पर हाई कोर्ट के फैसले से न सिर्फ आम जनमानस, बल्कि पूर्व पुलिस कमिश्नर और अब भाजपा के एमपी सत्यपाल सिंह, किरण बेदी सहित कई जाने माने न्यायविदों ने भी दबे स्वर में अपनी राय जाहिर की. वैसे भी सलमान खान का मामला कोई राजनीतिक मामला तो था नहीं, बल्कि उनकी लापरवाही से भारतीय नागरिकों के जान जाने और घायल होने का था. निचली अदालत ने बड़े स्पष्ट स्वरों में सलमान खान को दोषी साबित करते हुए अपने फैसले में कई मजबूत दलीलें पेश की थीं, जिसमें घटना के समय उनका भाग जाना और घायलों को अस्पताल न पहुँचाने जैसे चारित्रिक सवाल भी उठाये गए थे. इस मानवीय केस के हाई-प्रोफाइल होने से भी आम-ओ-ख़ास सबकी नजर बनी हुई थी और लोगों ने देखा कि कैसे भारत के बड़े वकीलों ने पूरे मामले को मैनेज किया. यही नहीं, जजों ने भी तय परम्पराओं से अलग हटते हुए देर शाम तक ऑफिस में कार्य किया और सिने स्टार की जमानत सुनिश्चित की. ऊपर से महाराष्ट्र सरकार ने सलमान को मिली ज़मानत का विरोध न करने का फैसला लेकर लोगों को यह व्याख्या करने को मजबूर किया कि कहीं सलमान खान के तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री के साथ पूर्व में 'पतंग उड़ाने' का सरकारी लाभ तो नहीं मिल रहा है.  सच पूछा जाय तो दोनों मामलों में मूल अंतर यही था कि एक केस को आम आदमी खुद से जोड़कर देख रहा था, जबकि दूसरा केस निरा-राजनीतिक था. बुद्धिजीवी यह आशा करते हैं कि सलमान खान के बारे में आयी हाई कोर्ट की ज़मानत ने जिस तरह इस मुद्दे को हाई-लाइट किया, उससे आतंरिक तौर पर ही सही, भारत की न्याय-व्यवस्था भी आत्म-मंथन को तैयार हुई होगी. आखिर, इस देश में न्यायिक सुधार की बात कब से कही जा रही है, उस पर कुछ कार्यवाही तो होनी ही चाहिए क्योंकि जनता यह महसूस करती है कि संविधान की नजर में देश का प्रत्येक नागरिक समान है. आखिर यह कैसा लोकतंत्र और उसकी न्याय-व्यवस्था है कि लाखों कैदी बिना आरोप के जेलों में सड़ें और एक रसूखदार व्यक्ति को सुपर-स्पीड से ज़मानत मिल जाए, इस बात पर अन्तर्विचार होना ही चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की न्यायिक मर्यादा सिर्फ इस अन्तर्विचार से ही सुरक्षित रह सकती है.
पिछली यूपीए की सरकार में जयललिता की विरोधी पार्टी द्रमुक शामिल थी, और
निचली अदालत के फैसले को रद्द करके पूर्व मुख्यमंत्री को ज़मानत दिया जाना है. सोशल मीडिया पर चल रही चर्चा में दोनों मामलों की एक सिरे से तुलना करके न्याय के ऊपर पैसे और रसूख के हावी होने की चर्चा की जा रही है. हालाँकि, अदालती आदेश की अवहेलना अपने आप में एक अपराध है, फिर भी नपे-तुले, दबे स्वरों में लोग अलग तरीकों से दोनों फैसलों पर न सिर्फ नाराजगी जाहिर कर रहे हैं,
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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Justice in Indian Democracy

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