Tuesday 14 October 2014

गुजरात : विकास एवं संस्कृति का संगम - Gujarat Trip

पिछले दिनों गुजरात की बड़ी चर्चा सुनने को मिली. यूं तो स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, सरदार पटेल के गृह-राज्य गुजरात की चर्चा बहुत पहले से संपन्न राज्य के रूप में होती रही है, लेकिन इस राज्य की मार्केटिंग जिस तरह से पिछले दशक में हुई, वह निश्चित रूप से बेमिसाल है. किसी हॉलीवुड फिल्म की तरह गुजरात का प्रचार-प्रसार किया गया. दावे किये गए कि विकास का माहौल वहां सबसे अनुकूल है, तो टूरिज्म को लेकर इस बात को साबित भी किया गया. क्या देशी, क्या विदेशी, जो भी उद्योगपति, अभिनेता या सामान्य जन वहां गया, गुजरात की तारीफ़ करने से खुद को रोक नहीं सका. कई बुद्धिजीवी इस बात से काफी खिन्न दिखते हैं कि गुजरात की सम्पन्नता का श्रेय कोई एक बात भला कैसे ले सकता है. इन बुद्धिजीवियों की यह खिन्नता कुछ हद तक यथार्थ भी हो सकती है, लेकिन इस बात से भला कौन इंकार कर सकता है कि विकास की रफ़्तार एक बार तो शायद गति पकड़ भी ले, लेकिन उस गति को लगातार १२ सालों से ज्यादा कायम रखना अपने आप में बड़ी उपलब्धि है. यदि ऐसा नहीं होता तो, कुछ समय तक देश में सबसे आगे रहने वाला शहर कोलकाता, इतनी बुरी तरह बर्बाद और बदहाल नहीं होता. अभी भी विकसित राज्यों में गिना जाने वाला पंजाब, बिजली और कानून व्यवस्था की बुरी हालत से नहीं जूझ रहा होता. इसके विपरीत मात्र १० साल पहले जंगलराज की खातिर बदनाम रहा बिहार, इन दस सालों में सकारात्मक माहौल तैयार करने में असफल रहता. कुछ हद तक ही सही, लेकिन सुशासन बाबू कहे जाने वाले समाजवादी ने बदलाव तो किया ही है. इसी पैमाने पर हम गुजरात के शेर कहे जाने वाले राष्ट्रवादी नेता को भी श्रेय दे ही सकते हैं.

गुजरात की जब हम बात करते हैं तो २४ घंटे निर्बाध बिजली, अच्छी सड़कें, अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था, लालफीताशाही पर लगाम, एक हद तक ही सही, लेकिन है. व्यापार के लिए आकर्षित करने वाली मार्केटिंग, घुमक्क्डों के लिए साबरमती एवं अन्य तीर्थस्थानों का विकास, साफ़ सुथरी परिवहन व्यवस्था इस राज्य को देश के अन्य राज्यों से कई फर्लांग आगे खड़ा करती है. लेकिन इन सब व्यवस्थाओं के अतिरिक्त भी गुजरात का सकारात्मक चेहरा मुझे अपनी यात्रा के दौरान दिखा, जो कि उसके मानव-संशाधन के बारे में है, और यह उसकी सम्पन्नता का सर्वाधिक विशेष कारण भी है. लेकिन, इसकी चर्चा करने से पहले जरा एक नजर आप उत्तर प्रदेश, बिहार और दुसरे पिछड़े राज्यों पर डालें. बदहाल लोग, दूसरी जगह पलायन करते लोग, एक-दुसरे की टांग खींचते लोग, मेहनत की बजाय गप्पबाजी को अपना पेशा बना चुके लोग और ऐसी ही अन्य समस्याओं से दो-चार होते हुए अपराधी बनते लोग. इन बीमार राज्यों में रह रहे व्यक्तियों के पास खाली समय भरपूर है, लेकिन उसका प्रयोग यह लोग चुनावी राजनीति की चर्चा में नष्ट कर देते हैं. ये सभी समस्याएं और समाज को टुकड़ों के रूप में बाँट चुकी जातिवादी राजनीति ने इन बीमार प्रदेशों को आईसीयू में पहुंचा दिया है. और सिर्फ राजनीति ही क्यों, परिवार नामक संस्था तो कुढ़न, जलन और आपसी लड़ाई का अखाड़ा बन चुकी है, तो सामाजिक संस्थाएं, मंदिर इत्यादि बुराइयों का दूसरा अड्डा बन चुके हैं. वहां, न तो संस्कार मिलता है बच्चों को, न बड़ों को शांति मिलती है. हाँ! लूटमार, नशा, निम्न-स्तरीय राजनीति जरूर देखने को मिल जाती है. अब आप प्रश्न करेंगे कि क्या यह सभी समस्याएं गुजरात में नहीं हैं, तो मैं एक शब्द में कहूँगा, "नहीं". एक बार ऊपर के पैरा को आप फिर पढ़ें और फिर प्रश्न करें कि गुजरात इतना संपन्न क्यों हैं, तो आपको यही जवाब मिलेगा कि वहां के लोग सुबह उठने के बाद अपने पशुओं का दूध निकालने में लग जाते हैं, फिर पी.जे.कूरियन द्वारा स्थापित अमूल डेयरी के लिए पूरी वैज्ञानिक विधि से दूध इकठ्ठा करने में लग जाते हैं. यहाँ, यह बताना आवश्यक है कि सहकारिता के सिद्धांत से यह पूरी व्यवस्था गांव से शुरू होकर आगे तक जाती है. जिस गाँव पोगलू में मैं गया था, वहां सुबह बच्चे घरों में पढ़ रहे थे. औरतें काम में लगी थीं, दर्जी गाँव में ही कपड़ा सिल रहा था. दिन में हम एक नर्सिंग स्कूल के कार्यक्रम में गए, तो देखा बच्चे बेहद अनुशासित होकर बात सुन रहे थे, कह रहे थे. सच कहूँ, तो मुझे कोई निठल्ला दिखा नहीं. शाम होते ही, उस छोटे से गाँव के मंदिर में आरती शुरू हो गयी, और कई सारे बच्चे उसमें बिना किसी भेदभाव के इकठ्ठे हो गए. मंदिर के प्रांगण में गाँव के लोग, आते रहे और कुछ समय पुजारी जी के साथ बिता कर, कुछ चर्चा कर के जाते भी रहे. कहने का मतलब यह कि हर एक वहां एक दुसरे के समय के साथ खुद के समय की क़द्र करने के प्रति सचेत नजर आ रहा था.

जीवन के जो चार पुरुषार्थ बताये गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, उसमें से पहले तीन को पूरा करते देखा मैंने गुजरात के लोगों को. उत्तर प्रदेश एवं बिहार के बॉर्डर, बलिया में पैदा हुआ लड़का और दिल्ली में कई सालों से रहने के कारण, यह मेरे लिए निश्चित रूप से आश्चर्य का विषय था. लेकिन प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता भला कब होती है. कुछ बातें, खटकने वाली भी थीं, मसलन ५ दिनों में इस राज्य में हिंदी की उपेक्षा देखने के बाद मेरे मन में टीस उठ रही थी. साइन-बोर्ड, बातचीत, लेखन की भाषा पूरी तरह से गुजराती और कुछ अंग्रेजी थी. ऐसा प्रतीत होता है कि वहां योजनाबद्ध तरीके से हिंदी के ऊपर प्रहार किया गया हो. वहां के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों से बातचीत करने पर यह स्पष्ट था कि पिछले दस सालों के दौरान वहां का नेतृत्व इसके लिए जिम्मेवार रहा है. इसी सन्दर्भ में यह कहना उचित होगा कि भारत के प्रधानमंत्री अभी अमेरिका की यात्रा (सितम्बर २०१४) पर हैं, और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में ही दिया है. इस भाषण में कई गलतियां भी मीडिया ने पकड़ी हैं. हिंदी के प्रति अचेत लोगों को इस वाकये से सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि विश्व-पटल पर भारत की पहचान हिंदी ही है. इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी कम नजर आयी, विशेषकर लड़कियों में. औसत से भी कम वजन वाली लडकियां आप को वहां हर जगह दिख जाएंगी. हालाँकि 'मद्यपान' सरकारी रूप से वहां प्रतिबंधित है, लेकिन इस पेय की कालाबाजारी वहां जोरों से है, बिना किसी ख़ास रोक-टोक के, सिर्फ सरकार को टैक्स नहीं मिलता.

सांस्कृतिक पर्व 'गरबा' की चर्चा किये बिना गुजरात की चर्चा पूरी नहीं होती है. लेकिन दुःख की बात यह है कि गरबा के वर्तमान स्वरुप से वहां के स्थानीय प्रबुद्ध जन नाखुश दिखे. हों भी क्यों नहीं, आखिर संस्कृति में अपसंस्कृति घुल जाने से किसे पीड़ा नहीं होगी. यह 'अपसंस्कृति' का जहर सिर्फ गुजराती 'गरबा' में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में घर कर गया है. हाँ! अंतर इतना जरूर है कि गुजरात के प्रबुद्ध इस बात पर चिंतित हैं, तो उत्तर प्रदेश के समाजवादी इस 'अपसंस्कृति' को बच्चों की भूल बता देते हैं. अंतर यह भी है कि गांधी के इस राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ने पर कार्रवाई होती है, तो दुसरे हिंदी भाषी राज्यों के नेता और संस्थाएं बेतुके बयान देकर पल्ला झाड़ लेती हैं. पिछले ही दिनों केरल के राज्यपाल से हटने वाली, दिल्ली की एक पूर्व मुख्यमंत्री ने कानून व्यवस्था के बारे में कहा था कि यह बाहर के लोगों के आने से बिगड़ जाती है. यहाँ यह बताना लाजमी रहेगा कि गुजरात में भी पूरे देश से लोग जाकर रोजी कमा रहे हैं. अतः बहानेबाजी से दूर हटकर राजनीतिज्ञों को, सामाजिक संस्थाओं को, धार्मिक संस्थाओं को एवं व्यक्तियों को पूरे देश के सन्दर्भ में गुजरात से सीख लेनी होगी, क्योंकि यह शायद भारतीय के सबसे नजदीक है, और हमारी ही संस्कृति है, जिसे अन्य राज्य पीछे छोड़ चुके हैं. समय मिलने पर आप भी जरूर जाइये गुजरात में, लेकिन सिर्फ शहर और दो चार पार्क घूमकर चले मत आइयेगा, बल्कि कुछेक दिन गुजराती गाँवों में जरूर गुजरिएगा, लोगों की कार्यप्रणाली को सीखिएगा, डेयरी उद्योग को देखिएगा. और तब आप दूसरों को भी कह सकेंगे कि 'कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में'!
मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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