Friday 31 October 2014

देश के लौह-पुरुष एवं लौह-महिला की चारित्रिक समानताएं - Lauh Purush, Lauh Mahila

आज ३१ अक्टूबर को देश के दो महापुरुषों को याद करने का सुअवसर है. आज़ादी के समय जहाँ देशवासियों ने सरदार वल्ल्भभाई पटेल का लौह चरित्र देखा, वहीं आज़ाद भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत की सुरक्षा को लेकर हर वह कदम उठाया, जो आज के समय भी प्रासंगिक है, और हमेशा रहेगा. देश के भीतर तमाम नेता हुए हैं, हैं और आगे भी होते रहेंगे लेकिन कुछ एक चरित्र पक्षपात से हटकर, राजनीति से हटकर प्रेरणा देते हैं, देशभक्ति का एक मानदंड तय करते हैं और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों की अनदेखी कर पाना इतिहास के लिए भी संभव नहीं हो पाता है. अब देखिए ना, इस बात को विडम्बना कहा जाय या कुछ और कि देश को किसी प्रकाश स्तम्भ की भांति अँधेरे में रास्ता दिखाने वाले लौह-पुरुष को पिछली कांग्रेस की सरकारों ने अनदेखा कर दिया था, तो ठीक इसी रास्ते पर चलते हुए कथित राष्ट्रवादी सरकार भी देश की लौह महिला की अनदेखी पर उतर आयी है.

sardar-patel-indira-gandhiसरदार पटेल ने अंग्रेजी गुलामियत से पीड़ित, शोषित, बिखरे भारत को किसी योद्धा की भांति एकजुट किया, तो इंदिरा गांधी ने दुर्गा का रूप धारण करके गरीबी, भूखमरी, अशिक्षित भारत में गौरव का भाव जगाया. लेकिन देश के वर्तमान भाग्य विधाताओं को इस तथ्य को समझने की फुर्सत कहाँ है. बस वह इन महान नायकों की लौह प्रतिमाएं बनाकर संतुष्ट हो जाते हैं, वह इनके महान चारित्रिक गुणों को तो छू भी नहीं पाते हैं. देशभक्ति और देशवासियों की रक्षा के जो मूल्य सरदार पटेल और इंदिरा गांधी ने स्थापित किये हैं, उसे पिछली सरकार और वर्तमान सरकार ने समझा ही नहीं हैं, उस रास्ते पर चलने की बात शुरू ही कहाँ होती है. पिछली सरकार को तो भारत की जनता ने बड़ी बुरी बिदाई या कहें कि श्रद्धांजलि दे चुकी है, इसलिए उसकी बात क्या की जाय, लेकिन वर्तमान सरकार भी सीमा-सुरक्षा के मुद्दे पर कुछ ख़ास करती नहीं दिख रही है. सरदार पटेल की जयंती और श्रीमती गांधी की पुण्य-तिथि पर आज उनको पूरा देश याद कर रहा है, इन जननायकों को श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा है, तो ऐसे उपयुक्त समय में यह बताना उचित होगा कि इन दोनों नेताओं की छवि अपने आप में निर्विवाद रही थी. देशहित की खातिर इन्होने योगेश्वर श्रीकृष्ण की भांति न सिर्फ राजनीति की, बल्कि जरूरत पड़ने पर सुदर्शन-चक्र उठाने से भी यह नहीं चूके.
Buy-Related-Subject-Bookएक दूसरी खास बात इन दोनों के चरित्रों में और समझ आती है कि कर्मपथ पर चलते हुए इन्हें अपनों के द्वारा सर्वाधिक विरोध का सामना करना पड़ा. राजनीति कहें या कुछ और लेकिन आज़ादी के बाद देश की अधिकांश प्रांतीय समितियां, प्रधानमंत्री के पद के लिए सरदार पटेल के पक्ष में थीं, लेकिन उन पर जवाहरलाल नेहरू को वरीयता मिली. इसी के सामानांतर इंदिरा गांधी को भी उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठों ने पार्टी तक से निकाल दिया, लेकिन उनके भीतर मौजूद लौहतत्व ने उन्हें इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों तक पहुंचा दिया. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीता में जिस कर्मयोग की व्याख्या योगेश्वर श्रीकृष्ण ने की है, उसका अक्षरशः पालन इन दोनों लौह-व्यक्तित्वों ने किया है. हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतों का विलय करने में सरदार पटेल ने मोह का त्याग कर दिया और अपने प्रिय नेता नेहरू तक से नाराजगी मोल ली. वहीं इंदिरा गांधी ने भी आपरेशन ब्लू स्टार को देश के लिए जरूरी माना और उनके चारित्रिक बल को देखिये कि एक विशेष कौम के खिलाफ हो जाने के बावजूद उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा से उस कौम के लोगों को अलग नहीं किया. दोनों महानायकों के काल में कुछ साल का फर्क जरूर रहा हो, लेकिन देशभक्ति की खातिर एक्शन लेने में दोनों का जवाब नहीं. तमाम ऐतिहासिक कहानियाँ दोनों के चरित्र से जुडी हुईं हैं, और हम सब उसे जानते भी हैं. उनको जानने में हमसे कोई गलती नहीं होती है, लेकिन समस्या तब आती है, जब हम उनके द्वारा किये गए कार्यों और दिखाए गए रास्तों को मानते नहीं हैं. आम जनमानस को तो इन महापुरुषों से सीख लेनी ही चाहिए, लेकिन विशेषरूप से राजनेताओं को राजनीति का उद्देश इन लौह-चरित्रों से सीखने की आवश्यकता है.

कटुता के इस दौर में सरदार पटेल का राजनैतिक जीवन बेहद व्यवहारिक हो जाता है.तमाम मतभिन्नताओं के बावजूद उन्होंने  पंडित नेहरू से जिस प्रकार सामंजस्य बनाये रखा, उस चरित्र को, सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमा बनाने का दावा करने वाले नेतृत्व को सीखना चाहिए. लौह पुरुष की बात चल रही है तो कथित राष्ट्रवादी नेतृत्व को भाजपा के लौह-पुरुष कहे जाने वाले भीष्म की अनदेखी पर भी अपना रूख साफ़ करना चाहिए. ठीक यही स्थिति इंदिरा गांधी के समर्थकों पर भी लागू होती है. उनके समय भी कांग्रेस पार्टी धरातल में जा चुकी थी, लेकिन उन्होंने किस प्रकार उसे पुनर्जीवन दिया, यह अध्ययन का विषय है. देश में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है, और खासकर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में तो यह जनमानस का प्राण होता है. यदि देश में विपक्ष नहीं है तो इसके लिए इंदिरा गांधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी कहलाने वाले कितने जिम्मेवार हैं, इस बात पर उन्हें मंथन करना चाहिए, और यदि इंदिरा गांधी की गरिमा को वह कायम न रख पाएं तो दूसरों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए. आखिर यह दोनों महापुरुष पूरे देश के गौरव हैं, लेकिन इनका गौरव हम तभी रख पाएंगे जब देश की खातिर, देशवासियों की खातिर प्रत्येक लालच, भय से मुक्त होकर, विरोधियों के साथ तालमेल बनाकर आगे बढ़ें. इसी में इन महान व्यक्तित्वों की श्रद्धांजलि भी होगी, और देश का कल्याण भी.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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