Tuesday 14 October 2014

धृतराष्ट्र और उसका दुर्योधन - Dhritrashtra and Duryodhana

आज कलम उठाते ही जाने क्यूँ धृतराष्ट्र का चरित्र ध्यान में आ गया. फिर धृतराष्ट्र-चरित्र में दुर्योधन का ध्यान भी प्रथम क्रम में ही सामने आया. ऐतिहासिक रूप से देखा जाय तो धृतराष्ट्र को याद करने के और भी कई कारण हैं, जैसे अपने अंधत्व के बावजूद उनका एक वीर योद्धा होना और कुशल राजनीतिज्ञ होना अपने आप में बेमिसाल था. फिर ऐसा क्या कारण था कि उनकी पहचान कलुषित दुर्योधन के पिता के रूप में ही ज्यादा है. कलुषित दुर्योधन इसलिए क्योंकि अपने भाइयों को विषपान, द्रौपदी अपमान और उससे आगे बढ़कर अपने कुल का सर्वनाश करने का मुख्य जिम्मेवार वही दिखा. होनहार वीरवान के होत चीकने पात की उलटी तर्ज पर दुर्योधन की दुष्टता की झलक उसके बचपन से ही दिखने लगी थी और इस बात से धृतराष्ट्र भी भली-भांति परिचित थे. फिर आखिर उन्होंने उसी को अपना उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय क्यों लिया? क्या सिर्फ इसलिए कि वह उनका पुत्र था? तटस्थ रूप से देखने पर प्रतीत होगा कि सिर्फ ऐसा नहीं था, हाँ इस कारण उनका झुकाव  इस तरफ जरूर हुआ होगा. लेकिन मुख्य कारण उनकी अपनी महत्वाकांक्षा रही होगी और महत्वाकांक्षा भी क्या बल्कि इसे स्वयं को ज्यादा योग्य साबित करने का अहम् कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त होगा. अंधत्व होने के बावजूद धृतराष्ट्र ने इस सच को सम्पूर्ण जीवन भर स्वीकार नहीं किया और वह अपने आपको पांडु, विदुर और खुद भीष्म से ज्यादा महान और योग्य होने का अहसास दिलाते रहे.

स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति अपनी किसी एक अयोग्यता या कमी को स्वीकार नहीं कर पाये तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति के दुसरे गुणों का भी लोप हो जाता है, यही धृतराष्ट्र के साथ भी हुआ.  इसके साथ यह भी सच है कि एक असफल व्यक्ति अथवा शासक जो स्वयं की अयोग्यता को नहीं मानता है और खुद में सुधार नहीं करता है, वह योग्य व्यक्तियों को अपने आस-पास देखना और महसूस करना भी स्वीकार नहीं करता है. धृतराष्ट्र के पास उनके अंधत्व का कोई ईलाज नहीं था और यही कारण था कि वह स्वयं से ज्यादा योग्य व धार्मिक गांधारी, विदुर और भीष्म की सलाह को अपने पूरे जीवन में अनदेखा करते रहे और उनकी सलाहों के विपरीत चलते रहे, युधिष्टिर और उनके चार भाइयों की तो बात ही क्या की जाय. इस क्रम में अपने से भी अयोग्य़, अधर्मी दुर्योधन, शकुनि इत्यादि का साथ और सलाह उन्हें पसंद आती रही. इस पूरे विवरण का तात्पर्य वही निकलता है जो आजकल के नेताओं के व्यवहार में साफ़ झलकता है कि वह चापलूसों से घिरे रहना पसंद करने लगे हैं. मतलब साफ़ है कि आजकल के नेतागण भी धृतराष्ट्र की ही भांति समस्याओं से निपट नहीं पाते हैं और अपनी अयोग्यता स्वीकार कर उसे सुधारने की कवायद करना सबके बस की बात भला कहाँ होती है? यह बात सिर्फ नेताओं पर ही लागू हो, ऐसा भी नहीं है, बल्कि आज के समय में क्या एक सामान्य अधिकारी क्या एक पुजारी, क्या एक व्यापारी और क्या एक कर्मचारी सभी एक तरफ से अपनी अयोग्यता और असफलता को सुधारने की बजाय उसको छुपाने के लिए चापलूसी और चापलूसों की शरण में हैं. लेकिन इन समस्त कवायदों का परिणाम देखना उतना ही आवश्यक है, जितना धृतराष्ट्र को महाभारत काल में  देखना चाहिए था. अन्यथा तब जैसे कुरुराष्ट्र और कुरुवंश की बर्बादी हुई थी, ठीक वैसे ही चापलूसों द्वारा दिग्भ्रमित संस्थानों, संगठनों और सरकारों के साथ-साथ राज्यों और अंततः देश का पतन सुनिश्चित है. यदि इस समस्या से कोई संस्थान उबरने की चाहत और नीयत रखता है तो उसे अयोग्यता, असफलता, सुधार की प्रक्रिया से गुजरना ही होगा अन्यथा उसे चापलूसों की फ़ौज पर निर्भर होना ही पड़ेगा और फिर जब वह खुद अयोग्य है, विधर्मी है, अहंकारी है और सुधार की प्रक्रिया से कोसों दूर है तो धृतराष्ट्र ही की भांति अपने झूठे-सच्चे साम्राज्य के भ्रमजाल को कायम रखने के लिए उसे चापलूस या चापलूसों की फ़ौज खड़ी करनी ही पड़ेगी, जो उसको शेखचिल्ली के सपने दिखाते रहेंगे. हालाँकि कुछ लोग इन सब चीजों को व्यवहारिकता का नाम देते हैं, लेकिन ऐसे महानुभावों को याद रखना चाहिए कि पानी स्वभावतः ऊपर से नीचे ही आता है. और मनुष्य का स्वभाव व्यवहारिक रूप से पतन की ओर ही जाता है, जबकि प्रगति के लिए और वह भी धार्मिक सार्थकता युक्त विकास के लिए तो जतन करने ही पड़ते हैं.

प्रमाण सहित सिद्ध, तमाम उदाहरण और व्याख्यान युक्त हमारा इतिहास कहता है कि स्वयं आगे बढ़ने और संस्थाओं को स्थाई ऊंचाई पर ले जाने के लिए नियम बड़े ही सरल हैं, और वह यह हैं कि मन, वचन और कर्म में समानता लायी जाए. आज के सन्दर्भ में कहें तो साफ़ नीयत और सच्चे अनुशासन के तालमेल से, खुद की भलाई भी हो और आपसे जुड़े लोगों की भलाई भी हो. उदाहरणार्थ यदि आप एक कंपनी चलाते हैं और आपको विकास करने की धुन सवार है तो आपको खुद योग्य होना होगा, अपनी गलतियों को मानने और उनका सुधार करने को तत्पर रहते हुए अपनी सांस्थानिक क्षमता बढ़ानी होगी. फिर आप आराम से चापलूसों से बचते हुए अपने संस्थान की प्रगति कर पाएंगे और धृतराष्ट्र के विपरीत अपना योग्य उत्तराधिकारी चुनने में सक्षम भी हो पाएंगे. और इस तरह की प्रगति स्थायी होगी, क्योंकि इसमें आपके कर्मचारियों का भविष्य भी सुरक्षित रहेगा, आपसे जुड़े पार्टनर्स का विश्वास भी आपके प्रति बना रहेगा और आपके एंड-यूजर, यानि उपभोक्ता को भी आपसे संतुष्टि मिलेगी. वहीँ दूसरी तरह यदि आप खुद काम से जी चुराएंगे तो आपको एक मायाजाल बनाना ही पड़ेगा, जिसमें चापलूसों की महत्ता बढ़ेगी और आपसे जुड़े हुए समस्त लोग अंततः गर्त में होंगे. और हाँ! आप भी तब गर्त में ही होंगे. तब न आपकी वास्तविक कीमत रहेगी और न ही आपसे जुड़े लोगों की. साहित्य में इसे ही 'पानी' कहा गया है. इसको आप साख, जुबान कुछ भी कह सकते हैं. इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता है और समझाता भी है. वह तो हम ही हैं जो अपने आँखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर कहते हैं कि कितना अन्धकार है. धृतराष्ट्र तो जन्मांध था, लेकिन 'अंधत्व' से हम सब पीड़ित क्यों हैं, इस यक्ष प्रश्न का हल हमें ही ढूँढना होगा. २०१४ का आम चुनाव बीत चूका है, हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनाव के नतीजे भी आ जायेंगे, आगे भी चुनाव होंगे, लेकिन ,इस चुनावी लोकतंत्र में इसी कसौटी पर आपको वोटिंग-मशीन का बटन भी दबाते रहना होगा. देखना होगा जनता को उम्मीदवारों की सार्थकता को भी और उनसे जुड़े लोगों की सार्थकता को भी. अन्यथा मिथ्याचार और भ्रमजाल में आप भी धृतराष्ट्र ही की भांति 'दुर्योधन' ही का चुनाव कर बैठेंगे. सच कहा न!

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Dhritrashtra and Duryodhana analysis in today's view, in hindi.

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