Monday 20 October 2014

विधानसभा चुनाव परिणाम, सभी को सबक‏ - Maharashtra, Haryana Election Result Analysis

अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं, तो यह स्पष्ट हो गया है कि देशवासियों ने सकारात्मक वोटिंग की थी. लोकसभा की ही भांति हरियाणा में जनता ने बहुत पहले से कांग्रेस के खिलाफ मन बना लिया था और इस कड़ी में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ठीक-ठाक छवि भी बेअसर रही. कहना उचित होगा कि केंद्र की पिछली मनमोहन-सोनिया सरकार की अलोकप्रियता का खामियाजा कांग्रेस को इन चुनावों में भी भुगतना पड़ा. और बहुत उम्मीद है कि कांग्रेस केंद्र की पूर्ववर्ती सरकार की बदनाम छवि से पार नहीं पा सकेगी, और आगे के चुनावों में भी उसे हार का मुंह देखना ही पड़ेगा. कांग्रेस की बुरी छवि का असर यहाँ तक है कि यदि कोई सहयोगी उसके साथ खड़ा है तो उसकी हार भी निश्चित ही है. कई लोगों को आश्चर्य हुआ होगा कि महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा, शिवसेना बातचीत करने का प्रयास कर ही रही थी, तो बिन मांगे शरद पवार की एनसीपी ने भाजपा को समर्थन देने का एलान कर दिया. इस कड़ी में कई कहानियाँ भी चल रही हैं, मसलन एनसीपी भ्रष्टाचार के आरोप में अपने नेताओं को बचाने का सौदा करना चाहती है, या शरद पवार शिवसेना की ताकत को कम करना चाहते हैं. लेकिन, इतना बड़ा और आत्मघाती कदम उठाने का परिणाम शरद पवार भी जानते होंगे, और वह यह भी जानते होंगे कि संघ भी कभी नहीं चाहेगा कि एनसीपी, भाजपा का गठबंधन हो. तो फिर क्यों? उत्तर यह है कि शरद पवार को भाजपा का साथ मिले न मिले, लेकिन भाजपा को समर्थन की घोषणा करके उन्होंने कांग्रेस की काली छाया से मुक्त होने का सफल प्रयास किया है.

amit-shah-devendra-fadnavisजरा चुनाव पहले की तस्वीर पर नजर डालिये, इधर भाजपा-शिवसेना का गठबंधन टूटा नहीं कि कांग्रेस और पवार का रिश्ता भी बिना एक पल की देरी किये खत्म हो गया, मानो शरद पवार, कांग्रेस से मुक्त होने के लिए कितने बेचैन थे. वह भी जानते हैं कि शिवसेना भाजपा की विचारधारा हिंदुत्व ही तो है. यह बात सौ फीसदी सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक कुशल प्रचारक हैं, कुशल प्रबंधन में माहिर हैं, लेकिन इन सब विशेषताओं से ऊपर कांग्रेस की जनमानस से नफ़रत सबसे ऊपर है. जरा सोशल मीडिया पर चलने वाले राहुल गांधी, कांग्रेस के चुटकुलों पर गौर कीजिये, लोग कांग्रेस को किसी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार ही नहीं हैं. और बहुत संभव है कि कांग्रेस को राजनीतिक अछूत मान लिया जाय. और सिर्फ केंद्र में ही क्यों, आप महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाड़ के उस बयान पर गौर करें, जब उन्होंने कहा कि यदि वह आदर्श घोटाले में सख्त रूख अपनाते तो महाराष्ट्र में पूरी कांग्रेस ही समाप्त हो जाती. सच तो यह है कि घोटाले, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, तुष्टिकरण के साथ ढेरों बुराइयां कांग्रेस में अपने चरम पर पहुँच चुकी थीं. हाँ! मोदी को इस बात के लिए धन्यवाद जरूर करना चाहिए कि उन्होंने न सिर्फ इन बुराइयों को मजबूती से जनता तक पहुँचाया, बल्कि खुद के रूप में एक सकारात्मक विकल्प भी पेश किया. जनता कांग्रेस के खिलाफ इस कदर है कि वह न सिर्फ उसे हरा रही है, बल्कि उससे विपक्ष का तमगा भी छिनती जा रही है. महाराष्ट्र में दूसरी बड़ी पार्टी के उद्धव ठाकरे की टीस शिवसेना के मुखपत्र में निकली, जिसमें उन्होंने कहा कि यदि भाजपा, शिवसेना साथ में लड़ते तो कांग्रेस और उसके सहयोगियों को २५ सीटें भी नसीब नहीं होतीं. उनकी बात में सच्चाई हो सकती है, लेकिन यह भी सच है कि गठबंधन तोड़ने के लिए वह भी कम जिम्मेवार नहीं हैं. हालाँकि भाजपा, शरद पवार से बहुत पहले से नजदीकियां बढ़ा रही थी और इसके केंद्र में अमित शाह और राज्य के देवेन्द्र फड़नवीस जैसे नेता शामिल थे. शिवसेना की नाराजगी का यह भी एक कारण थे, जिसके कारण उसने अपना रूख कड़ा किया. उसे यह तो उम्मीद थी ही कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन उसको यह उम्मीद नहीं थी कि शरद पवार की एनसीपी को इतनी सीटें मिल जाएँगी कि वह भाजपा को समर्थन दे सके.

खैर, राजनीति संभावनाओं का ही खेल है. शिवसेना की हैसियत कम करने की कोशिश भाजपा और एनसीपी दोनों बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं. लेकिन हिंदुत्व के समर्थक, महाराष्ट्र और विशेषकर मुंबई में शिवसेना को ज्यादा मुफीद पाते हैं. यह सच भी हो सकता है, लेकिन बाला साहेब ठाकरे की राजनीति से यहीं अलग हो जाती है उद्धव की राजनीति. अब जबकि एनसीपी ने खुलेआम भाजपा को समर्थन देने की घोषणा कर दी है और उसके इस एलान पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सरेआम अपनी ख़ुशी व्यक्त कर रहे हैं, तो उद्धव दबाव में आ चुके हैं. जबकि बाला साहेब, इस दबाव को झटककर विपक्ष में बैठना और संघर्ष करना पसंद करते, क्योंकि वह जानते थे कि बेमेल विचारधारा की राजनीति टिकाऊ नहीं होती है. भाजपा और एनसीपी दो बिलकुल विपरीत विचारधारा की पार्टियां हैं और यदि वह मिलते हैं तो यह शिवसेना के लिए आक्सीजन का काम करती. उदाहरण के लिए, आपको दिल्ली विधानसभा की याद दिलाना चाहूंगा. आपको याद होंगे राजनीति के क्षितिज पर चमकने वाले अरविन्द केजरीवाल. कांग्रेस के ८ विधायक कितनी जल्दी जाकर दिल्ली के उप-राज्यपाल को अपना समर्थन-पत्र सौंप आये. केजरीवाल भी लालच में फंस गए, और फिर आगे की कहानी सबको पता है. उद्दव में जरा भी राजनीतिक समझ होती तो वह एनसीपी और भाजपा की शादी पर चुटकी लेते और खुद विपक्ष में बैठ कर मराठी राजनीति को धार देते. लोगों में सहानुभूति की भावना भी जागती और उनकी त्यागी राजनेता की छवि भी बनती.

sharad-pawar-rajnath-singhइस चुनाव में एक और बात जो खुलकर सामने आयी है, वह है मोदी की सक्रियता. जिस प्रकार से देश के प्रधानमंत्री ने भारी समुद्री तूफ़ान  'हुदहुद' पीड़ितों की अनदेखी करके इन राज्यों में चुनाव प्रचार किया, वह अभूतपूर्व था. कई लोगों ने मोदी की अति-सक्रियता की आलोचना भी की. महाराष्ट्र के परिणाम से मोदी की साख धूमिल नहीं हुई है तो उसे चोट जरूर पहुंची है, क्योंकि एनसीपी का समर्थन ले तो भाजपा के लिए कुआं, और शिवसेना से समर्थन ले तो खाई. लेकिन अमित शाह जैसे जल्दबाज नेता और विदर्भ के समर्थक देवेन्द्र फड़नवीस जैसे नेताओं को अपने प्रधानमंत्री की साख की फ़िक्र नहीं है, वह तो जैसे-तैसे सरकार बना लेना चाहते हैं, बस! भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके अमित शाह पर यहीं शक हो जाता है क़ि उन्हें पार्टी की विचारधारा की समझ भी है या नहीं, क्योंकि एनसीपी जैसी पार्टियां हिंदुत्व के लिए विष का कार्य करेंगी, यह सबको पता है. हरियाणा में तो मोदी सीधे मुख्यमंत्री तय कर देंगे, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना फड़नवीस के नाम पर आसानी से नहीं मानेगी. नितिन गडकरी एक अच्छे विकल्प जरूर होते, किन्तु केंद्र में वह एकमात्र संघ के करीबी बचे हैं, जो मोदी सरकार पर बारीक निगाह रखे हुए है, इसलिए संघ गडकरी को केंद्र में ही सक्रीय रखना चाहेगा. शिवसेना दिवंगत नेता गोपीनाथ की पुत्री पर दांव खेलना चाहेगी, लेकिन उसका बिलकुल अनुभवहीन होना इस रास्ते में बाधा उत्पन्न करेगा. देखना दिलचस्प होगा कि महाराष्ट्र की समस्या को कैसे सुलझाते हैं राजनाथ सिंह, क्योंकि राजनाथ को मातोश्री भेजने का एक ही मतलब है कि मोदी और अमित शाह महाराष्ट्र से पार पाने में विफल रहे हैं. इन चुनाव परिणामों ने विश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस, राज ठाकरे की मनसे को लगभग अप्रासंगिक बना दिया है, विशेषकर राज ठाकरे की हालत बहुत ख़राब हो गयी है. अब तो वह सम्मानजनक हालत में शिवसेना तक में लौटने का रास्ता भी नहीं ढूंढ पाएंगे. वोटरों ने बहुत सोच - समझकर प्रत्येक राजनीतिक दल को सीख दी है और यह स्पष्ट कर दिया है कि लोकतंत्र की चाभी उसी के हाथों में रहेगी, न कि किसी मोदी या अमित शाह के हाथों में और न ही किसी मातोश्री के हाथ में. लोकतंत्र की इस ताकत को प्रणाम करने के साथ आप सबको धनतेरस, दीपावली, भैयादूज की कोटि-कोटि शुभकामनाएं. Article on Maharashtra, Haryana Election Result Analysis 2014
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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