Sunday 12 October 2014

खेलों पर एकाधिकार और भ्रष्टाचार - Sports in India

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अब से पहले देश में एकमात्र खेल क्रिकेट ही था, जिसकी चमक-दमक लोगों को प्रभावित करती थी. न सिर्फ आम लोगों को, बल्कि व्यवसायियों और उनके पीछे-पीछे अपराधियों, सट्टेबाजों को भी सक्रीय होने का भरपूर मौका मिला. देश की गरिमा और इज़्ज़त के साथ साथ खिलाडियों को भी इस खेल ने बदनाम किया. फिर भी कुछ हद तक बात नियंत्रण में रही. लेकिन खेल के सबसे व्यवसायिक संस्करण आईपीएल के आने के बाद तो इस खेल में हर प्रकार की गन्दगी मिलने लगी.

पिछले दिनों एक चर्चित समाचार चैनल ने क्रिकेट के आईपीएल में फिक्सिंग पर बड़े खुलासे का दावा करते हुए कहा था कि इस अपराध में क्रिकेट से जुड़ा हर बड़ा नाम शामिल है. मसलन शरद पवार, एन.श्रीनिवासन, ललित मोदी, विजय माल्या और खिलाडियों की तो खैर बात ही क्या है. लेकिन हम कहते हैं कि यह कोई खुलासा नहीं है, बल्कि यह पहले से ही जगजाहिर है. क्रिकेट के खेल में जिस प्रकार से पैसों की बरसात हो रही है और उसको लगातार महिमामंडित किया जा रहा है, उसने प्रत्येक उद्यमी/ व्यवसायी और अपराधी को इसके प्रति एक भारी आकर्षण प्रदान किया है. सट्टेबाजी, स्पॉट-फिक्सिंग, जैसे तमाम दूसरे शब्दों का जन्मदाता है यह खेल. इससे बड़ी बात यह है कि राजनीति, प्रशासन जैसे दूसरे क्षेत्रों में जहाँ पारदर्शिता की बात जोर-शोर से उठ रही है, वहीं क्रिकेट में चुपचाप एक ख़ास वर्ग द्वारा नियंत्रण करने का बड़ा षड़यंत्र पिछले कई सालों से बेहद संगठित रूप से चलाया जा रहा है. भारत की जनता तो हमेशा की तरह अपने खिलाडियों के बदन पर तिरंगा लिपटा देखकर खुश हो जाती है और भारत माता की जय के नारे लगने लगते हैं. उसे क्या पता, उसकी इसी भावना को पैसे में बदल कर अपनी जेबें गरम करने की साजिश लम्बे समय से चल रही है. सबसे पहले प्रश्न उठता है क्रिकेटीय संस्था के नियंत्रण पर. जब क्रिकेट के नियंत्रण बोर्ड के नाम में 'भारत' शब्द जुड़ा हुआ है और तिरंगे का वह और उसके खिलाड़ी इस्तेमाल करते हैं तब इस बात का कोई तुक नहीं है कि इसका व्यवसायिक इस्तेमाल हो और इस पर सरकार का सीधा नियंत्रण न हो. समय-समय पर आखिर कैसे कुछ गुट इस संस्था पर कब्ज़ा जमा कर बैठ जाते हैं. कभी जगमोहन डालमिया का ग्रुप तो कभी शरद पवार का गैंग. कभी ललित मोदी हावी हो जाते हैं तो कभी ई.श्रीनिवासन का सिक्का चलता है. कोई जांच नहीं, कोई आरटीआई कानून लागू नहीं होता है इन पर. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि 'मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड' की तरह ही 'भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड' है, जिसका 'शरीयत-कानून' की तरह अपना 'क्रिकेटीय-कानून' है. और इन पर भी भारत-राष्ट्र के दुसरे कानून लागू नहीं होते हैं. क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता का आपराधिक दोहन करने के लिए 'इन्डियन प्रीमियर लीग' का गठन हुआ और आपको जानकार आश्चर्य होगा कि भारत में यह विचार इस बोर्ड का भी नहीं था. भारत में यह विचार मीडिया मुग़ल कहे जाने वाले, ज़ी-ग्रुप के सुभाष चंद्रा के माध्यम से सामने आया जब उन्होंने 'आईसीएल', यानि इंडियन क्रिकेट लीग के नाम से इसके दोहन की कोशिश शुरू की. बीसीसीआई के ठेकेदार उनकी इस कोशिश पर भड़क उठे और आईसीएल को रोकने की तमाम जायज-नाजायज कोशिशें तब की गयीं. आईसीएल में खेलने वाले खिलाड़ियों को भारतीय टीम से निकालने की कोशिश भी तब हुई और विदेश के क्रिकेट बोर्डों पर भी अपने खिलाड़ियों को आईसीएल से दूर रहने के लिए भारी दबाव बनाया गया. आखिर, बीसीसीआई अपने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को दुसरे के दरवाजे पर कैसे जाने देती. तब आनन-फानन में गठन हुआ 'आईपीएल' का और शुरू हुआ क्रिकेट में अब तक का सबसे घटिया, व्यवसायिक और अनैतिक दोहन. इस शुद्ध व्यवसायिक दोहन ने अपराध से डी-कंपनी, शराब व्यवसाय से विजय माल्या, बॉलीवुड से कम समय में धनवान बने अभिनेता, राजनीति से शशि थरूर जैसे कई नामों को अपनी तरफ खींचा. देश की जनता जिन खिलाडियों को अपनी शान समझती थी, वह गाजर-मूली और शराब की ही तरह बाजार में बिकते दिखे और सिर्फ उनकी क्रिकेट की कला ही नहीं बिकी बल्कि बिका उनका ईमान, बिकी उनकी नैतिकता और बिक गयी उनकी देशभक्ति भी. तमाम जुआड़ी जैसे गावं के चौराहे पर पकडे जाते हैं, और तमाम वेश्याएं जैसे किसी रेड-लाइट एरिया से पकड़ी जाती हैं, ठीक वैसे ही सट्टेबाज और सुंदरियों के घालमेल से इस खेल के व्यवसायीकरण पर मुहर लग गयी. मुहर 'आईपीएल' के अपराधीकरण पर भी अब लग चुकी है. लेकिन मजबूर है देश का कानून, क्योंकि क्रिकेट के पास उसका अपना 'शरीयत-कानून' है और वह देश के तमाम कानूनों से ऊपर है. आखिर क्रिकेट को देश में 'धर्म' का दर्जा यूंही नहीं मिला हुआ है.

व्यावसायिकता की बात क्रिकेट से आगे बढ़ते हुए अब कबड्डी, और फिर फूटबाल तक जा पहुंची है. आईपीएल की ही तर्ज पर इन खेलों का दोहन करने की रणनीति सज चुकी है. खैर, इन खेलों में क्या होगा यह तो आगे की बात है, लेकिन यहाँ यह प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर इन खेलों पर कुछ घराने और प्रभावशाली लोग अपना एकाधिकार किस प्रकार करते जा रहे हैं. क्या सरकार द्वारा इन खेलों के प्रति गंभीर रवैये के साथ कानून बनाया गया है या छोड़ दिया गया है इन्हें छुट्टे सांड की तरह- हरे भरे खेतों में चरने के लिए. निश्चय ही ये सांड खेतों को बर्बाद करके रख देंगे. भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी तो होगी ही, दूसरे गैरकानूनी धंधे भी फलेंगे, फूलेंगे. और इस भ्रम में आप कतई न रहे कि इससे आम खिलाडियों को कुछ लाभ होगा! वह तो बस सट्टेबाजों के हाथ का खिलौना बनकर रह जायेंगे. चीयर लीडर, चमक-दमक, व्यवसाय सब होगा यहाँ, नही होगा तो खेल और खेल-भावना. लेकिन इन खेलों के कथित प्रशासक और दलाल यह बात ठीक तरह से समझ लें कि अब तक चुप बैठी यह भोली सी दिखने वाली जनता कहीं इस पूरे खेल का वैसा ही हाल न कर दे, जैसा लोकसभा चुनाव में राजनीति का हुआ है. आखिर अदालतों में भी, जनता की अदालत से बड़ी दूसरी अदालत कौन है? और अब इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि जनता इन अनैतिक व्यवसायियों और छिपे अपराधियों पर अपना निर्णय कब तक सुनाती है.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Sports in India are in bad condition. Cricket, kabaddi, Football became totally profession.

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