हक़ तो उनको भी है बेहद मुश्किल होता है जमी जमाई व्यवस्था में अपनी जगह बना पाना. अब जबकि आम आदमी पार्टी पर से आंदोलन और व्यवस्था-सुधार का खुमार काफी हद तक उतर चुका है और राजनीति की खुमारी छाने लगी है तब इस समस्त प्रकरण को थोडा उदार होकर देखा जाना आवश्यक हो गया है. हालाँकि इस वाक्य से केजरीवाल और उसकी टीम जरूर सहमत नहीं होगी, लेकिन यह बात दावे से कही जा सकती है कि उनकी असहमति भी राजनैतिक ही होगी. देश-सेवा और व्यवस्था-सुधार का दावा आखिर कौन नहीं करता है. भाजपा तो इसकी पुरानी ठेकेदार है ही, कांग्रेस जो शायद सर्वाधिक भ्रष्टाचारी रही है, वह भी देश सेवा और व्यवस्था सुधार का रोज दावा करती है.
इसलिए आप समर्थक भी यदि दलीय व्यवस्था में देशभक्त होने का दावा करते हैं तो उनको मान्यता मिलनी चाहिए, न कि उनको अराजक अथवा अनुभवहीन कहकर खारिज करते रहना चाहिए. एक वर्ग का ही सही, हक़ तो उनको भी है राजनीति करने का. हक़ उनको है पुरानी व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करने का. राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के बीच भ्रष्टाचारी तालमेल पर प्रश्न खड़ा करने की स्वतंत्रता पर प्रतिप्रश्न क्यों होना चाहिए. इस सन्दर्भ में अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की चर्चा भी जरूरी हो जाती है. राजनीति के दावं-पेंच में नौसीखिए रहे आप के विधायकों को विधानसभा में पहले दिन से जिस प्रकार कांग्रेस और भाजपा के विधायक नीचा दिखा रहे थे, वह गौर करने का विषय है. चाहे आप विधायकों द्वारा ताली बजाना और टेबल थपथपाने का शुरूआती मसला हो, या अरविन्द केजरीवाल को असंवैधानिक कहने के सिलसिले का आखिरी जुमला हो, कांग्रेस और भाजपा के नेता इस नयी टीम कहें या उन्हीं के नए राजनैतिक भाई-बंधुओं को स्वीकार करने को क्षण भर को भी तैयार नहीं दिखे. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार किसी पिता का जायज पुत्र, उसकी नाजायज औलाद से दूरी बनाये रखता है. ये उदाहरण कुछ ज्यादा ही सटीक बैठ गया. लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पुराना राजनैतिक वर्ग इस नए राजनैतिक वर्ग को अभी भी नाजायज औलाद ही मानता है.
लेकिन लोकतंत्र में नियम तो यही कहते हैं कि नाजायज हो या जायज, उनका हक़ बराबर है. हाँ एक दुसरे को मान्यता देने से बाप को कष्ट नहीं होता है. यदि जनता को राजनैतिक दलों का बाप मान लिया जाय तो नयी और पुरानी दोनों व्यवस्थाएं उसी की संतानें हैं. और अब जब जनता चाहती है कि नई व्यवस्था को मान्यता मिले, तो इसमें पुरानी व्यवस्था को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए. वैसे भी, पुरानी व्यवस्था से जनता कुछ ज्यादा ही त्रस्त है. केजरीवाल के दिल्ली मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से उनकी अक्षमता का सन्देश निश्चित रूप से गया है, लेकिन उनके पास राजनैतिक रूप से बेहद कम विकल्प बचे थे. एक तो उनके लोक-लुभावन वादों पर से परदा उठने लगा था, दूसरा लोकसभा के लिए उनके नेतृत्व और जुझारूपन की कमी उनकी पार्टी साफ़ महसूस करने लगी थी. लेकिन इस्तीफा देने का इससे भी बड़ा कारण यह था कि भाजपा और कांग्रेस के धुरंधर और घाघ नेता उनको असंवैधानिक साबित करने में सफल होने लगे थे. अब यदि वह कुछ नहीं करते तो भी मुश्किल और कुछ करते तो असंवैधानिक. अब थोड़ा बहुत वह एक्सपोज तो जरूर हुए, लेकिन काफी कुछ राजनीति वह सीख गए. कम से कम इतना तो वह जरूर सीख गए होंगे कि अति उत्साह में खुद को अराजक नहीं कहेंगे. लेकिन वह जो प्रश्न उठा रहे हैं, उस पर स्थापित दलों को जवाब निश्चित रूप से देना पड़ेगा. नाजायज, नाजायज कह देने से उसका कानूनी आधार ख़त्म नहीं हो जायेगा. आखिर संविधान भी तो यही कहता है कि "हक़ तो सभी को है".
- मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
Political Right article by Mithilesh.
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