Sunday 2 February 2014

जहरीली राजनीति - Politics

वैसे तो राजनीति का व्यवहारिक चरित्र भी यही है, परन्तु पिछले कुछ दिनों से शाब्दिक अर्थों में भी राजनीति को जहरीला बताने की होड़ शुरू हो गयी है. इसकी शुरुआत यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी ने एक चुनावी रैली में करते हुए कहा कि कुछ लोग जहर की खेती कर रहे हैं. अब तेज-तर्रार राजनीतिज्ञ और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को इसका जवाब देना ही था और उन्होंने अपने चिर-परिचित लच्छेदार भाषा में इसका जवाब दिया भी. बातों के तार को एक दूसरे से जोड़ते हुए उन्होंने जयपुर के कांग्रेसी चिंतन के चर्चित राहुल बोल का हवाला दिया, जिसमें राहुल गांधी के अनुसार उनकी माँ ने सत्ता को जहर बताया था. नरेंद्र मोदी के अनुसार यदि सत्ता जहर है तो सर्वाधिक जहरीली तो कांग्रेस हुई. खैर, बातों का क्या है, बातें तो होती ही रहती हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव के नजदीक आते आते इस बात पर चर्चा जरूरी हो जाती है कि आखिर जहरीला है कौन? क्या सिर्फ एक दुसरे को जहरीला कह देने से खुद अपना जहर छुप जायेगा? क्या देश की जनता को इतनी आसानी से विकास के मुद्दे से हटाकर दंगों के जहर में उलझा देंगी राजनैतिक पार्टियां? सवाल यह भी है कि एक अरब से ज्यादा आबादी का युवा देश क्या रोजी-रोजगार से हटकर जहरीली राजनीति के साये में ही रहने को मजबूर होगा? पुलिस, प्रशासन, सड़कें, महिला-सुरक्षा, सीमा-सुरक्षा, आर्थिक असुरक्षा और ऐसे ही दुसरे अन्य मुद्दों को जहर की राजनीति पर बलि चढ़ाया जायेगा. वगैर इन प्रश्नो का जवाब पाये बेहद मुश्किल होगी जनता के लिए.

जनता पशोपेश में रहेगी लोकसभा चुनाव को लेकर, क्योंकि लगभग सभी एक दुसरे से वैसे ही अलग नजर नहीं आ रहे थे, और अब तो ईमानदार और ईमानदारी का ढोंग पीटने वाली एक नयी पार्टी पर भी नस्लवाद, महिलाओं का अपमान, अमानवीय होने का आरोप, अराजक और जहरीला होने का आरोप खुद उसी पार्टी के संस्थापक सदस्य और विधायक लगा रहे हैं. दूसरों की तो फिर बात ही क्या की जाय. अब कुछ लोग नेताओं को समाज से बाहर का मानते हैं, तो उनका कुछ भी नहीं हो सकता है. लेकिन यह बात सत्य है कि समाज से ही यह नेता निकलते हैं. तो क्या यह मान लिया जाय कि राजनीति के साथ-साथ हमारा समाज भी जहरीला होता जा रहा है. नहीं, नहीं... ... यह बात तो सर्वाधिक मिथ्या प्रतीत होती. आखिर 'वसुधैव कुटुंबकम' की बात शुरू करने और लगातार मानने वाला समाज जहरीला कैसे हो सकता है भला? तो क्या यह मान लिया जाय कि चुनाव के समय में जहर की बात सिर्फ इसलिए कही जाती है क्योंकि इस निश्चित समय के लिए जनता की आँखों पर पट्टी लगाई जा सके.

यह ठीक है कि हमारे देश में एक बड़ा वर्ग अभी भी सामजिक समरसता का पक्षधर है, परन्तु उन कुछ लोगों का क्या करें, जो अपने निहित स्वार्थों के कारण विशेष परिस्थितियों में जहर का फैलाव करते रहते हैं. जहर का फैलाव करने के आरोप से कांग्रेस तो बच ही नहीं सकती है क्योंकि यह बात पूर्णतः सत्य है कि देश में ६० साल से भी अधिक समय खुद कांग्रेस गद्दी पर रही है और देश में हजारों की संख्या में दंगे और ८४ का बड़ा नरसंहार उसी की देख-रेख में हुए हैं. इन आरोपों से भाजपा भी नहीं बच सकती है क्योंकि बाबरी मस्जिद का विध्वंश और गुजरात दंगे उसके दामन पर बड़ा दाग रहे हैं. इन बातों से दुसरे क्षेत्रीय दल और ईमानदार पार्टी भी कैसे बच सकती है क्योंकि नस्लवाद, महिला-सुरक्षा और संवैधानिक पदों की गरिमा को लेकर उस पर कई गम्भीर प्रश्न खड़े हुए हैं. अब जनता इन सभी विचारधाराओं को आइना दिखाने को पूर्ण रूप से तत्पर है. बस इन्तेजार है तो लोकसभा चुनाव की तिथियों का. आखिर जहर और जहरीला होने का असली प्रमाण-पत्र तो जनता ही देगी.

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Politics article by mithilesh in hindi

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