Friday 7 February 2014

सवालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वही पुराना राग - Rashtriya Swayamsewak Sangh

यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि चुनावी राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक सहयोग आरएसएस, यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से ही मिलता है. यह सहयोग कार्यकर्ताओं से लेकर योजना बनाने और योजना कार्यान्वित करने में आने वाली प्रत्येक कठिनाई से निपटने और उससे भी आगे कथित तौर पर देश/ राज्य की नीतियों में हस्तक्षेप तक होता है. यही कारण है कि एक सांस्कृतिक संगठन होने के बावजूद कांग्रेस, सपा, राजद और दूसरे राजनैतिक दल आरएसएस पर निशाना साधने में कोताही नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ की हड्डी यदि कोई है, तो वह है आरएसएस. चाहे जैसे भी यदि आरएसएस पर निशाना लग जाए, तो भारतीय जनता पार्टी को पिछले पैरों पर खड़ा करने में बेहद आसानी रहेगी. लेकिन इस आरएसएस की चर्चा करते समय एक बेहद दिलचस्प बात सामने आती है, वह है इससे कांग्रेसी विचारधारा का लगातार डरना. आजादी के पहले भी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का आरएसएस के प्रति दुराग्रह कोई छिपा हुआ विषय नहीं है. महात्मा गांधी की १९४८ में जिस प्रकार हत्या हुई और बिना किसी ख़ास सबूत के जिस प्रकार आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया था, उस पर आज भी सवाल उठते रहे हैं.

हालाँकि बाद में सबूत के अभाव में कांग्रेस ही की सरकार को मजबूरन अपने प्रतिबन्ध को हटाना पड़ा था. कहते हैं, इस प्रतिबन्ध से पहले आरएसएस पूर्ण रूप से सांस्कृतिक संगठन रहा था, परन्तु आरएसएस के प्रचारकों ने इसके बाद १९५१ में जनसंघ की स्थापना करके राजनीति में अपनी पैठ बनाने की शुरुआत कर दी थी. यह तो निश्चित बात है कि आरएसएस शुरू से ही अपने अलग तेवर में शक्तिशाली दिखने लगा था, जिसकी विचारधारा कांग्रेस से बिलकुल अलहदा थी. हालाँकि आरएसएस को राजनीतिक परिणाम प्राप्त करने में लगभग पचास साल लग गए और उनकी राजनैतिक स्वीकार्यता तब हुई जब अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने. इसके पहले इसका राजनैतिक प्रभाव छिटपुट ही था. इसमें यह उद्धृत करना आवश्यक है कि आपातकाल में आरएसएस पर एक बार फिर इंदिरा गांधी ने प्रतिबन्ध लगाया, लेकिन तब तक आरएसएस राजनीति सिख चुका था और तब के तत्कालीन लोकनायक जयप्रकाश नारायण को भी अलग विचारधारा के होने के बावजूद आरएसएस को साथ लेने को मजबूर होना पड़ा और आरएसएस के सहयोग और उसके समर्पित कार्यकर्ताओं के संघर्ष से ही इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेता को झुकाया जा सका. इस बीच चंद्रशेखर और अन्य जनता पार्टी के नेताओं का आरएसएस विरोध कभी कम नहीं हुआ, लेकिन इसके विपरीत आरएसएस की ताकत लगातार बढ़ती ही रही. जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के समय की एक बेतुकी शर्त बड़ी प्रसिद्द है, जिसमें जनता पार्टी के नेताओं ने संघ के स्वयंसेवकों को जनता पार्टी का सदस्य न होने की शर्त रख दी थी.

इस बीच आरएसएस पर लगातार उन्मादी और साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रसार करने के आरोप लगते रहे और राजनीतिक रूप से परिपक्व हो गया आरएसएस और जनसंघ के बाद उसकी अगली कड़ी भाजपा मजबूत होती चली गयी. आरएसएस और भाजपा की मजबूती का वर्त्तमान में अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अकेले उसका मुकाबला करने में अब सक्षम नहीं है और उसे कई-कई क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत पड़ रही है. इस बात को कई विचारक अतिश्योक्ति मान सकते हैं, लेकिन यह तथ्य है कि वर्त्तमान की राजनीति आरएसएस/ भाजपा बनाम अन्य की है. २०१४ के आम चुनाव में भाजपा जहाँ अपने दम पर २७२ का आंकड़ा छूने का दम भर रही है, वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस दूसरों के कंधे पर बन्दूक रखकर गोली चलाती साफ़ दिखती है. जहाँ तक असीमानंद के कथित साक्षात्कार की बात है, तो इसका कहीं कोई आधार दिखता नहीं है, बजाय राजनीति के, क्योंकि खुद कांग्रेस की सरकार केंद्र में है और केंद्र से जुडी जांच एजेंसी एनआईए संघ से जुड़े पदाधिकारियों को क्लीन-चिट दे चुकी है. वैसे भी राजनीति में सवालों का उठना कोई नयी बात नहीं है, और जब बात आरएसएस जैसे ताकतवर संगठन की हो तब तो सवालों की बौछार होगी ही. लेकिन इन सवालों में दम कितना है, यह तो सवाल उठाने वालों को बताना ही चाहिए, विशेषकर तब जब उसके हाथ में सत्ता और ताकत दोनों की चाभी हो. आखिर कांग्रेस और आरएसएस दोनों के साथ-साथ जनता भी तो परिपक्व हुई है. दोनों जनता को इतने हल्के में न लें, अन्यथा पटखनी देने में जनता को सबसे ज्यादा महारत हासिल है. यही तो हमारे लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है कि प्रत्येक वाद-विवाद के फैसला जनता के हाथ में होता है और जनता इन विवादों पर फैसला सुनाने के लिए बिलकुल उपयुक्त जज है. क्या कहते हैं, 'आप'.

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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