Monday 17 February 2014

सस्ते सामानों का चुनावी बजट - Probably last Budget by Chidambaram

chidambaram-budget-february-2014   वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने आखिरकार वही किया जो उम्मीद पहले से ही थी. कहने को तो उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें हॉवर्ड से हार्ड-वर्क करना सीखा है, लेकिन बजट में वह आवश्यकता से अधिक मुलायम दिखे. खैर, उनके इस मुलायम लेखा-जोखा का मतलब आम-ख़ास सभी को समझ आ ही गया होगा. इसके तकनीकि पक्षों के बारे में हमारी समझ भी सामान्य ही है, लेकिन इसके सामाजिक पक्षों और प्रभावों के साथ बदले राजनैतिक यथार्थ के बारे में प्रश्न जरूर उठते हैं. पिछले कुछ दशकों से यह बहुत आम बात हो गयी है कि चुनाव के बाद साढ़े चार साल तक सरकारें मनमाने ढंग से भ्रष्टाचार करती हैं या करने देती हैं, और अगला चुनाव आने के कुछ महीने पहले भी मनमाने ढंग से ही उदार हो जाती हैं.

हालाँकि इस सन्दर्भ में दिल्ली की हाल ही में बनी और इस्तीफा दे चुकी सरकार का उद्धरण देना काफी उपयुक्त रहेगा. दो महीने में ही बिजली और पानी केजरीवाल सरकार द्वारा सस्ती किये जाने के विरोध में यही कांग्रेसी मंत्री (और भाजपाई भी) उनको बिना किसी 'अर्थनीति' के अराजक कहने पर तुल गए थे. उनका तर्क था कि महज कुछ सौ करोड़ की सब्सिडी देने से खजाने पर काफी ज्यादा बोझ पड़ेगा. अब एक लोक-लुभावन अंतरिम चुनावी बजट पेश कर चुके पी.चिदंबरम से पूछा जाना चाहिए कि जिस प्रकार से उन्होंने गाड़ियों, मोबाइल इत्यादि पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की घोषणा की है, उससे खजाने पर बोझ नहीं पड़ेगा क्या? हावर्ड से अपनी पढाई का बखान करने वाले पी.चिदंबरम को खुलकर जवाब देना चाहिए कि सेना से सम्बंधित 'एक रैंक, एक पेंशन' को छोड़कर बजट में उनका कौन सा कदम बुद्धिमतापूर्ण है. सच पूछा जाये तो, इस पूरे बजट को एक बेवकूफाना बजट कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. इस बजट से किसी वर्ग को न कोई खास फायदा होगा, और न ही इस बजट से कांग्रेस का कोई राजनैतिक उद्देश्य ही पूरा होगा. कांग्रेस की हालिया राजनैतिक सोच पर तरस आता है.

जिस प्रकार से बड़ी संख्या में युवाओं की राजनीति में दिलचस्पी बढ़ी है, उसने न सिर्फ उन्हीं युवाओं में बल्कि उनकी वालंटियर की तरह सक्रियता ने देश की बड़ी आबादी को राजनैतिक रूप से प्रभावित किया है. और इसका अर्थ यह है कि चुनावी लॉलीपॉप अब बीते दिनों की राजनीति बन चुकी है. यदि ऐसा नहीं होता तो दिल्ली की पूर्व सरकार ने जिस तेजी से दिल्ली की जनता को कई-कई लॉलीपॉप दिया, उसके बावजूद उसकी आलोचना नहीं होती. और यदि लॉलीपॉप से ही काम चल जाता तो उस सरकार को इस्तीफा देकर भागना नहीं पड़ता. कांग्रेस सरकार के पास अपने वोटरों को वास्तविक रूप से प्रभावित करने का मौका था और वह यह कर सकते थे कुछ विशेष फैसले लेकर. मसलन महंगाई से निपटने की बजाय उनका जोर कंज्यूमर प्रोडक्ट्स के दाम कुछेक रूपये कम करने पर लगा रहा. कुछ टी.वी चैनलों को छोड़कर कहीं भी इस बजट को लेकर उत्साह नहीं दिख रहा है, यह इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस चुनावी साल में भी जनता की नब्ज पकड़ने से काफी दूर रह गयी है. यथार्थ तो यह है कि कांग्रेस के दुर्भाग्य ने उसे हर मोर्चे पर इतना पछाड़ दिया है कि खुद उसके मंत्रियों को रिकवर करना मुश्किल दिख रहा है. मुद्दों में जहाँ आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कब्ज़ा कर रखा है, वहीं भाजपा ने सुशासन और बेहतर अर्थनीति व विकास का खाका पेश किया है. ले-देकर एक साम्प्रदायिकता का मुद्दा उसके पास जरूर था, लेकिन राहुल गांधी के एक साक्षात्कार ने ८४ के दंगों को इतना उभार दिया कि अब यह भी मुद्दा उसके हाथ से फिसल गया है. प्रचार और प्रजेंटेशन में वह पहले से ही पीछे थे. ऐसी स्थिति में यह अंतरिम बजट उनके लिए एक उम्मीद की किरण था. लेकिन इसमें किसी दूरगामी मुद्दे का जिक्र नहीं करके सिर्फ जनता को मुर्ख बनाने का प्रयास दीखता है. और जैसा कि हमने पहले कहा कि जनता राजनैतिक रूप से पहले से काफी परिपक्व हो चुकी है. जो राजनीतिज्ञ या दल अपने आपको नए नियमों से अपडेट नहीं करेगा, वह रेस से बाहर हो जायेगा. केजरीवाल और मोदी का व्यापक और चमत्कारिक उभार इस बात का पुख्ता प्रमाण है.

 

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