Friday 9 January 2015

केश तुम्हें खुला रखना होगा... - Poem on Indian Women in Hindi, Long Poem.

ठसाठस भरी हुई मेट्रो में
लोग खड़े थे
सीट पर बैठी लड़कियां
बातें करती हुई खिलखिला रही थीं
एक बुजुर्ग दंपत्ति था सामने,
थका था
खड़ा था इस उम्मीद में
कि पढ़ी-लिखी लड़कियों में से कोई कहेगी उठकर
अंकल - आंटी बैठ जाओ मेरी सीट पर
लेकिन ममत्व नहीं जागा
आह! नारीत्व इतना अभागा
किसी पुरुष ने मौके को लपक लिया
नारी के हिस्से का आशीर्वाद
सोचा, दोष किसका है


इसका अगला दृश्य भी सुनिए
मेट्रो से लोग उतरते जा रहे थे
खाली होती सीटों पर थी 'गिद्ध-दृष्टि'
हाँ! चालाक पुरुष ही थे वह सारे
एक युवा नारी, कंधे पर लैपटॉप लटकाये
देख रही थी उन सभी को कातर नजरों से
कि कोई उस पर दया दिखाए
कहे उससे, मेरी सीट पर बैठ जाओ
कुछ भूखी नजरें अपनी सीट देने को थीं आतुर
वह नौजवान, सशक्त नारी बैठ भी गयी
बैठ गया मेरा मन भी
याद आ गए उन आँखों के दृश्य भी,
बस-ड्राइवर, कॉलेज का अमीर लड़का, आफिस का बॉस
जो करते हैं स्वाभिमान का नाश, लेकिन सहमति से
प्रश्न यहाँ भी, दोष किसका है!


घर में टीवी चल रहा था
बच्चा कोने में बिलख रहा थाMore-books-click-here
कथित हाउस-वाइफ दुखी थी
क्योंकि उसके पसंदीदा
टीवी एक्टर की आँखों में नमी थी
दाई बच्चे को उसके सामने पुचकार रही थी
लेकिन पीछे दुत्कार रही थी
कभी उसका दूध भी पी जाती थी
दो-चार थप्पड़ लगा कर उसको
बचपन से ही 'घरेलु हिंसा' सिखाती थी
पति के आते ही 'हाउस-वाइफ' उससे भिड़ गयी
गाँव से उसकी सास आने वालीं थी,
उसे लेकर अड़ गयी
आखिर लड़-भिड़कर और बच्चे को अनाथ
जैसे तिरस्कृत करके वह आधुनिक 'माँ' सो गयी
प्रश्न रह गया मौन,
दोषी कौन है!


मन छटपटा उठा
Buy-Related-Subject-Book-beमजबूत नारी, स्वाभिमानी नारी जैसे
दावों को झुठला उठा
क्या आज की नारी जो
मेरी माँ है, बहन है, पत्नी है, सहकर्मी है
वैसी ही है जैसी तब थी, जब
औरतों को औरतों द्वारा ही सताया गया
मातृत्व, सतीत्व, बलिदान के नाम पर
उसके जीवन को जलाया गया
या शायद तब से भी बुरी हालत अब है
क्योंकि तब नारी थी तो सही
अपनी, दूसरों की नजर में
कुछ ही सही, इज्जत की हक़दार भी थी
तभी तो रावण भी उससे डरा था,
दुर्योधन, दुःशासन की छाती का लहू
उसी की खातिर ही बहा था
अब तो वह मात्र एक जिस्म है
'प्रोडक्ट' भर है, महंगे और सस्ते लेबल के साथ
जिसके साथ खुद उसको भी सहानुभूति नहीं
स्त्रीत्व की जरा भी अनुभूति नहीं
उसके साथ हो कुछ भी, अब आम है
निर्लज्जता सरेआम है
पर दोष किसका है!


यूं तो औरतों का वर्गीकरण मुझे समझ नहीं आता
पर आधुनिकता का
nirbhaya-others-who-dared-book'वर्किंग -वीमेन' शब्द से है गहरा नाता
कई बार तो मजबूरी है
आर्थिक स्वतंत्रता भी जरूरी है
लेकिन नारीत्व को ठुकराकर
अपने अस्तित्व को झुठलाकर
कहाँ की स्वतंत्रता, कैसा विकास
एक चमकीली फाइल की तरह
बॉस के पीछे-पीछे, उसके हाथों में
पड़े महंगे सिगरेट या शैम्पेन की तरह
वह खुद भी जानती है अपनी उपयोगिता
फिर भी उसे भाती है स्वच्छंदता
परिणाम से निश्चिन्त
काश! वह देख पाती मात्र 10 साल बाद
उसकी झूठी पहचान कैसे खोने वाली है
क्योंकि अपनी स्थायी पहचान नारी होने से
तो उसने कबका मुंह मोड़ लिया है
पर दोष किसका है!


अपनी जड़ से हो विमुख कोई पेड़
कैसे लेगा श्वास
कैसे देगा वह मीठे फल
himmat-hai-kiran-bedi-booksवह निश्चित रूप से मर जायेगा
या फिर ठूंठ बन बिन पत्तों के
खड़ा रहेगा बियावान में
होगा वह निःशब्द, निर्जन
भयावह शमशान
तुम क्यों ऐसा ही बनना चाहती हो
तुम्हारे आदर्श क्या वही 'वर्किंग वीमेन' हैं
जो रिश्ते-नातों को खेल समझती हैं
लिव-इन, शादी, तलाक में ही उलझती रहती हैं
पैसों के जोर पर ड्रग, सेक्स, सत्ता का नशा है उन्हें
नाम नहीं लूंगा इनमें से किसी का,
क्योंकि 90 फीसदी यहीं हैं तुम्हारे आस-पास
हे नारी,
उन चंद महिलाओं की तरह भी देख लो
जो उतनी चमकती तो नहीं हैं,
पर मजबूत हैं
आधुनिक भी हैं
सजग हैं, जागरूक, सहयोग, नेतृत्व
की मिसाल हैं
उनका नाम जरूर लूंगा
indira-gandhi-tryst-with-powerकिरण, कल्पना, इंदिरा, सुषमा
और तुम्हारी अपनी माँ
तुम्हारी दादी भी शायद
पर वह आराम को हराम समझती हैं,
कर्म को ही धर्म कहती हैं
दिन-रात, सुबह-शाम एक करती हैं
तब दुनिया, और खुद की नजरों में नेक बनी हैं
मैं जानता हूँ कि यह बातें
नहीं हैं आसान इतनी भी यह राहें
पर राहें तो यहीं हैं
थोड़ी इधर, थोड़ी उधर


अर्थ-प्रधानता बढ़ गई है,
सभी जानते हैं
पर पूछता हूँ कि यह अर्थ कब
biography-of-kalpana-chawlaप्रधान नहीं था
और कब नारियां कम थीं पुरुषों से
धुंधले पड़ चुके ज्ञान को
इतिहास की किताब में भिगो लो
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
की परिभाषा को जोड़ लो
आज समय जरूर बदला है,
पर समय के बदलाव को गीता ने माना है
हमेशा बदला है
नहीं बदली है तो वह है प्रकृति
और तुम्हारे शरीर की बनावट भी
माँ तुम्हें ही बनना है
इसे तुम भूलना चाह रही हो
और सच्चाई को टाल रही हो
अपने अंतर्मन को टटोलो
और कहो हृदय से
क्रेच, डे-बोर्डिंग हैं क्या
उन छोटे नन्हों-मुन्नों के लिए
विकृति या संस्कृति
brave-women-of-india-collectionना! इसे मजबूरी न कहना
क्योंकि संयुक्त आकृति को
तोड़ा है तुमने भी
ठुकराया है निष्ठुरता से
वह रिश्ते खलल थे
तुम्हारी आज़ादी में शायद
पर अब क्या है
अब माँ बनना भी है वही !
दोष किसका है


इन बातों को
साजिश न कहना
पुरुष मानसिकता की
आहट न सुनना
यह भी न कहना कि
चर्चा पुरुष पर हो यहाँ
यही तो वह चाहता है
कि केंद्र वह बने, इसलिए
शब्दों के मायाजाल से दूर हटकर
सोचो ज़रा
आज तो तुम शिक्षित हो
More-books-click-hereतुम्हारे पास हर वो साधन है
जो है किसी पुरुष के पास
इंटरनेट, एंड्राइड, माँ-बाप का आश्रय
और उसी स्तर का विवेक
समाज को वगैर 'बुर्के' के
देखती हो, समझती हो
घूमती हो, फिरती हो
पर तुम्हारे पिता से पूछो
क्या वह निश्चिन्त होते हैं
सूर्यास्त के बाद
लव-जेहाद, हॉनर-किलिंग
में हो जाते हैं वह बर्बाद
क्यों ??
अब तुम भी तो जवाब दो
न्यायाधीश तुम भी हो अब
थोड़ा और कष्ट उठाओ
उँगलियों को कंप्यूटर पर खड़काओ
गूगल से आंकड़े लो
देखो, दुनिया के सबसे बड़े उद्योग
आईटी में तुम पुरुषों से आगे हो
लेकिन बस शुरूआती स्तर पर ही,
home-based-businessफिर एक-दो सालों में प्रयास छोड़ देती हो
घर पर बैठकर आज़ादी का रोना रोती हो
टीवी, किट्टी में गम भुलाती हो
लेकिन यह भूल जाती हो
कि काम घर से भी होते हैं इस आईटी में
अपनी तमाम जिम्मेदारियों के साथ
घरेलु बिमारियों के साथ
घर में तुम्हारे इंटरनेट, कम्प्यूटर सब है
दुनिया से जुड़ सकती हो,
अपनी प्रतिभा से लोहा ले सकती हो
आईटी के साथ, कंसल्टेंसी, लेखन
प्रशासन, राजनीति को समझ सकती हो
नए युग में बच्चों के पालन पर
एक नया रिसर्च कर
दुनिया को राह दे सकती हो
कुछ नहीं तो एक किताब तो पढ़ ही सकती हो
लेकिन सच बताना खुद को
पिछले सालों में एक भी गंभीर किताब पढ़ी है
और निकाला है उसका निष्कर्ष
उस लेखक से सहमत या असहमत हुई हो
साथ या विपरीत अपनी विचारधार
विकसित की है
यदि नहीं! तो छोड़ दो ढोंग
और नारी पर हो रहे अत्याचार
उसकी गुलामी में
खुद का भी योगदान मान लो
फिर तुम्हें पता जरूर चलेगा
दोष किसका है.


द्रोपदी की बात भी कह दूँ
बड़ा हुआ था अन्याय उसके संग
yajnaseni-the-story-of-draupadiउसके अपनों ने ही उस को लुटाया
दांव लगाया
पर देखो उसकी बुद्धि
सीखो
उसने अपने केश खुले रक्खे
पर नहीं की अपनों से बगावत
कायदन तो उसे अपने पाँचों को ही
दंड देना था
वही दोषी पहले थे, बाकी बाद में
लेकिन यदि वह अपने पाँचों से ही बगावत करती
समाज को अपराध मुक्त कैसे करती
कौन बनता उसका हथियार
भीष्म, द्रोण, कर्ण का व्यूह
वह किस प्रकार नष्ट करती
यह समाज भी कुछ ऐसा ही व्यूह है
दुर्योधन, दुशासन का चक्रव्यूह है
उसे तोड़ने के लिए अपने किले को मजबूत करो
देखो अपने आस-पास
तुम्हारा परिवार तुम्हारा सहयोगी है
शुभचिंतक है
तुम्हारी आज़ादी में बाधक नहीं
तुम्हारा कवच है
तुम्हारी सास, तुम्हारा देवर, तुम्हारी जेठानी,
देवरानी और तुम्हारे ससुर
तुम्हारे दिव्यास्त्र हैं
पर ध्यान रहे
दिव्यास्त्र-प्रयोग हेतु
मंत्र तुम्हें रटना होगा
ज्ञानार्जन करना होगा
असीम धैर्य धरना होगा
और
द्रोपदी ही की भांति
केश तुम्हें खुला रखना होगा
केश तुम्हें खुला रखना होगा.


-मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.


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