Sunday 16 November 2014

संत न छोड़े संतई... Sant Na Chhode Santai, Article by Mithilesh

कबीर दास का यह प्रसिद्ध दोहा सज्जन व्यक्तियों के दृढ चरित्र की बेहद सुन्दर व्याख्या करता है. यह कहना अनुचित न होगा कि भारत जैसे देश में, जहाँ 'संत' शब्द का प्रयोग बहुधा धार्मिक अर्थों में होता है, वहां यह दोहा अपनी महत्ता खो चुका है. सामान्य जन की बात क्या की जाय. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आने वाली पीढ़ियों को जब कभी आधुनिक संतों की कानूनी कहानी सुनाई जाएगी तो वह 'संत' और 'संतई' के साथ 'गुंडई' शब्दों को समानार्थी ही समझेगा. हाल ही में हरियाणा के कथित संत की चर्चा बड़े जोरों पर है. एक तरफ हाई कोर्ट के आदेश के बाद उन महोदय की गिरफ्तारी के लिए उनके आश्रम में पुलिस, कमांडो व सीआरपीएफ की टुकडिय़ों का जमावड़ा है, रात में ठिठुरती ठंड के बीच श्रद्धालु व पुलिस के जवान अपने मोर्चों पर तैनात हैं, वहीं दूसरी ओर संविधान को चुनौती देते उनके श्रद्धालु मीडिया के माध्यम से प्रशासन को संदेश दे रहे हैं कि अगर प्रशासन चाहे तो संत को वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से आश्रम से ही कोर्ट में पेश किया जा सकता है, लेकिन वे गिरफ़्तारी नहीं देंगे. वाह जी! क्या बात है, एक तो संत और उनकी संतई, ऊपर से उनके संत-प्रवृत्ति के श्रद्धालु. क्या संविधान, क्या कोर्ट, क्या प्रशासन! सभी को धत्ता बताते हुए इन 'संत' नामक महाशय ने कानून के सामने चुनौती पेश कर दी है, और कानून के लम्बे-लम्बे हाथ अँधेरे में तीर चला रहे हैं, समझौते की बाट जोहते फिर रहे हैं.

Maharshi-Dadhichi-Ticketप्रश्न विचारणीय होगा कि भारत जैसे महान देश, जहाँ दाधीच जैसे संत ने अपना शरीर ही लोकहित की खातिर बलिदान कर दिया था, वहां लोकहित को झटकने की परंपरा इन कथित 'संतों' द्वारा महिमामंडित क्यों की जा रही है. बात सिर्फ एक संत की ही नहीं है, बल्कि इस तरह के संतों में अनेक नाम सम्मिलित हैं. ईश्वर को अपना 'दोस्त' बताने वाले एक और संत, जो राजस्थान की जेल में हवा खा रहे हैं, ने भी अपनी गिरफ़्तारी के पहले और बाद में खूब हंगामा करवाया. काले धन के ऊपर शोर मचाने वाले एक और योगाचार्य ने पिछली सरकार के कार्यकाल में बड़ा शोर मचाया, उसके बाद उन संत महोदय एवं उनकी संतई में विश्वास रखने वालों पर आधी रात को सरकारी डंडों का तुषारापात हुआ, और उनको महिलाओं के वेश में निकलना पड़ा. उसके बाद उन्होंने अपनी 'सेना' बनाने का भी संतई वाला विचार प्रकट किया था, जिसकी कड़ी आलोचना होने के बाद वह लोकतान्त्रिक तरीके से अपना विरोध प्रकट करने के लिए राजी हुए. खैर, उन्होंने उसके बाद संघर्ष किया, और कहा जाता है कि उनके प्रयासों का भी नयी सरकार के गठन में योगदान रहा है. एकाध और संतों जिन पर बलात्कार, हत्या के मुकदद्मे हुए, अपने श्रद्धालुओं को भड़काकर गिरफ़्तारी से बचने की भरपूर कोशिश करते रहे हैं, कानून के पालन में सरदर्द बनते रहे हैं.

धर्मभीरु देश में, धर्म के नाम पर व्यापार करने वालों की संख्या भी बहुतायत में मौजूद है. हर एक सम्प्रदाय के नाम पर, विचार के नाम पर इन 'संत' महोदयों की दूकान हर जगह खुली मिल जाएगी. आम जनमानस तो इनके जाल में स्वार्थ की खातिर, डर से, अंधविश्वास से फंस ही जाता है, लेकिन सरकारी अधिकारी, न्यायपालिका से जुड़े लोग, मीडियाकर्मी भी अपने गलत हित साधने की खातिर इनके महिमामंडन में कोई कसर नहीं रखते हैं. कई अफसरों, नेताओं को इन गुंडों, माफ़ कीजियेगा कथित 'संतों' के चरणों में लोट-पोट करते देखा गया है. कभी वोट की खातिर, कभी काला धन सफ़ेद करने की खातिर, कभी विरोधियों को पस्त करने की गरज से. यह एक बहुत बड़ा कारण है कि यह लोग लोकतंत्र और संविधान को अपने आगे कुछ नहीं समझते हैं और एक के बाद एक आपराधिक कृत्य करने से भी गुरेज नहीं करते हैं, यहाँ तक कि न्यायालय की अवमानना भी इनके दायें-बाएं हाथ का खेल होता है. बेहद तार्किक बात है कि जिस वोट की खातिर हरियाणा की सरकार, वर्तमान विवाद के हल में टालमटोल कर रही है, उस ढीलेपन से जनता के मन में कानून की इज़्ज़त दो कौड़ी की हो जाएगी. लेकिन उन रहनुमाओं को इसकी फिक्र कब रही है, जो आज वाह फिक्रमंद होंगे!

प्रश्न सिर्फ कानूनी भी नहीं, बल्कि भारत जैसे धार्मिक देश में जिस प्रकार धर्म की प्रतिष्ठा को यह लोग तार-तार करते जा रहे हैं, वह चिंतनीय और निंदनीय तो है ही, इसके साथ वाह दंडनीय भी है. अभी एक समुदाय के सन्यासी ने अपने फेसबुक प्रोफाइल पर इस बात की गर्व से 'पुष्टि' की है कि "वह समलिंगी (गे) है. आपको सुनने में जरा अजीब लगेगा, किन्तु यह सत्य है. हमारे गुरुवर ने उसकी पोस्ट पर कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि- "सच स्वीकारना अच्छी बात है. लेकिन सबसे पहले संन्यासी के वस्त्र उतारो। अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करो या न करो - भगवे की प्रतिष्ठा धूमिल न करें." कितनी सटीक टिप्पणी है. आज जरूरत इसी बात की है कि समाज इन अपराधियों, गुंडों, नालायकों से खुलकर कहे कि वह अपना धार्मिक चोला उतार दे. आखिर धर्म की आड़ लेकर ही तो यह लोग संतई और गुंडई को मिक्स कर देते हैं. जब तक समाज, प्रशासन इस तरह के कृत्यों के प्रति सख्त नहीं होगा तब तक इस समस्या का दूसरा समाधान हो भी नहीं सकता. इसी प्रक्रिया में कई बार राजनैतिक विरोधी सचमुच के संतों को भी परेशान करते हैं, लेकिन सच्चे संत परेशान होने के बावजूद लोकहित, लोकाचार को हानि पहुँचाने वाले किसी कृत्य को समर्थन नहीं देते हैं, चन्दन की ही भांति अपने शरीर पर सर्प लिपटने के बावजूद वह अपनी शीतलता का त्याग नहीं करते हैं. संत की परिभाषा भी तो यही है-

"संत न छोड़े संतई, कोटिक मिले असंत."


Sant Na Chhode Santai, Article by Mithilesh on Religious leaders in India, in Hindi.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

No comments:

Post a Comment

Labels

Tags