Sunday 30 November 2014

पडोसी बदले नहीं जा सकते, इसलिए ... You can change friends but not neighbours!

अमेरिका के महाशक्ति बनने को लेकर पिछली सदी में कई देशों ने ईर्ष्या का रोग पाला है लेकिन इसके साथ यह भी एक कड़वा सच है कि वह सभी देश कहीं न कहीं नेस्तनाबूत होते चले गए, अपनी हस्ती खोते चले गए और अमेरिका जस का तस बना रहा. यही नहीं, उसकी ताकत लगातार बढ़ती ही चली जा रही है. कुछ तो बात है, जो एशियाई देश पकड़ नहीं पा रहे हैं या पकड़ना चाहते ही नहीं हैं. जानना दिलचस्प होगा कि अमेरिका की वैश्विक सक्रियता उसके अपने महाद्वीप से बाहर बहुत ज्यादा रहती है, विशेषकर एशिया, यूरोप और अफ्रीका में. वैश्विक शक्ति बनने के लिए उसने अपने इर्द-गिर्द कुछ इस प्रकार का जाल बुना है, जिसे तोडना तो दूर, एशियाई देश छू भी नहीं पाते हैं. अमेरिका का सिर्फ नाम ही नहीं है 'संयुक्त राज्य अमेरिका' बल्कि इस नाम की संयुक्त सार्थकता उसने अपनी राजनीति में व्यवहारिक रूप से समाहित की है, वह भी आज नहीं, बहुत पहले से. जब कुछ विश्लेषक कहते हैं कि २१वीं सदी एशिया की है, भारत की है या चीन की है तो इस बात पर बड़ी जोर की हंसी आना स्वाभाविक ही है. जी हाँ! यह बात सुनकर किसी अंधभक्त को बड़ी तेज मिर्ची लग सकती है, लेकिन यह सच है कि एशिया, विशेषकर भारतीय उप-महाद्वीप बारूद के ढेर पर खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, उस बारूद को अक्सर ही बाहर-भीतर के लोगों द्वारा चिंगारियां दिखाने की कोशिशें भी जारी हैं. परमाणु शक्ति-संपन्न तीन बड़े राष्ट्र चीन, भारत और पाकिस्तान, जो वैश्विक राजनीति में गलत सही कारणों के साथ चर्चा में भी बने रहते हैं और कुछ हद तक दखल भी रखते हैं, उनके आपसी सम्बन्ध अत्यंत उलझे हुए एवं अस्पष्ट हैं.

जरा याद कीजिये चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हालिया भारत-दौरे को जब चीनी राष्ट्राध्यक्ष अहमदाबाद में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ झूला झूल रहे थे और चीनी सैनिक भारतीय सीमा में कबड्डी खेलने पर उतारू हो गए. हाल ही में संपन्न हुई १८वीं सार्क शिखर समिट पर गौर कीजिये, जब पूरा विश्व मोदी और शरीफ के हाथ मिलने-मिलाने पर चर्चा कर रहा था, बजाय की इस सम्मलेन की चुनौतियों, योजनाओं पर चर्चा करने के. इस सम्मलेन में भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने पहले के भाषणों की तरह जब लच्छेदार भाषण दिया, दिलों को मिलाने की खूब वकालत की, सार्क देशों की सीमाओं को खोलने की वकालत की तब उस पर टिप्पणी करते हुए मेरे गुरु ने कहा कि पहले जुबां तो खोलें, सीमाएं फिर तो खुलेंगी. उनका मतलब साफ़ था कि भारत को वैश्विक राजनीति की जिम्मेवारियों को समझते हुए बड़ा दिल करना चाहिए था. एक और बात जो बड़ी चर्चा में रही वह नेपाली प्रधानमंत्री का भारत और पाकिस्तान को अपने मतभेद भुलाने का उपदेश देना था. वैश्विक शक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहे शक्तिशाली देश के लिए इससे शुभ लक्षण और क्या हो सकता था भला. कई कार्टूनों में मजाक में यह बात लिखी गयी कि किसी की न सुनने वाले प्रधानमंत्री पर आरोप झूठे हैं, क्योंकि वह काठमांडू की सुनते हैं. खैर, जैसा कि होना था यह सम्मलेन हाथ मिलाने, न मिलाने, पत्रिका पढ़ने की बातों तक सीमित रह गया. इसके बावजूद कि भारत की काबिल विदेश मंत्री यह मानती और कहती हैं कि कूटनीति में कभी फुलस्टॉप नहीं होता. प्रश्न जरूर उठता है कि काबिल विदेश मंत्री की सलाहों की इस तरीके से अनदेखी कैसे हो पा रही है. काठमांडू में हमारा अड़ियल रवैया पूरे विश्व ने देखा. क्या सच में हम इस रास्ते से वैश्विक महाशक्ति का दर्ज पा जायेंगे.

जब सम्मेलनों की चर्चा चल रही है तो ब्रिस्बेन में हुए आर्थिक महाशक्तियों के ग्रुप जी-२० की चर्चा न करना नाइंसाफी होगी. जैसा कि हमेशा होता आया है, बड़े सम्मलेन अपने मूल उद्देश्यों को पूरित करें न करें राजनीतिक उद्देश्य कार्यान्वयन में जरूर लाये जाते हैं. जिस प्रकार काठमांडू में नवाज शरीफ को अलग-थलग करने की कोशिशें हुईं, उसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को अलग थलग करने की कोशिश की गयी. लेकिन सार्क सम्मलेन और जी-२० में हुई राजनीति में एक बारीक फर्क पर आप गौर कीजिये. एक तरफ रूस के राष्ट्रपति को ऑस्ट्रेलिया समेत पश्चिमी देशों ने एक सूर में लताड़ा और कनाडा के प्रधानमंत्री हार्पर ने रूसी राष्ट्रपति को यहाँ तक कह दिया कि 'मैं आपसे हाथ मिलाऊंगा, लेकिन आप यूक्रेन से बाहर निकलिए'. निश्चित रूप से इस राजनीति के पीछे अमेरिका का ही होमवर्क था. दूसरी ओर भारत के प्रधानमंत्री को नेपाल जैसे छोटे राष्ट्र ने उपदेश दे दिया कि उन्हें पाकिस्तानी शरीफ से हाथ मिलाना चाहिए. और पूरे वैश्विक मीडिया में शरीफ के प्रति सहानुभूति गयी तो भारतीय पक्ष का नकारात्मक अड़ियल रवैया ही सामने आया. यही नहीं, किसी सार्क देश ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत का साथ भी नहीं दिया. प्रश्न बड़ी बेरहमी से उठाया जा सकता है कि भारत के किस पडोसी के साथ अच्छे सम्बन्ध हैं? अभी हाल ही में भूटान के राजा जिग्मे खेसर ने बयान दिया था कि भारत में उनका सत्कार ठीक ढंग से नहीं किया गया. वहीं नेपाल में चीन जिस प्रकार से अपनी घुसपैठ बढ़ा रहा है, उसकी काट भारत के पास यथार्थरूप में है नहीं. हाँ! भाषणों में हम चाहे जो कह लें, मुंह ही तो है. श्रीलंका के साथ समुद्री विवाद और चीन से उसकी निकटता हमें लगातार परेशान कर रही है. भारत की या कहें कि मोदी की विदेश-नीति की प्रशंसा करने वाले महानुभावों की बुद्धि पर तरस आता है, क्योंकि वह मैडिसन स्कूवेयर पर बड़ी सभा और मोदी-मोदी के नारों को कूटनीति समझते हैं अथवा वह फिजी के समुद्री तट पर मोदी की इंस्टग्रामी फोटो को दूरगामी नीति का परिणाम मानते हैं या आस्ट्रेलिया में मोदी-एक्सप्रेस चलाने वाली मार्केटिंग को वह देशहित में मानते हैं. माफ़ कीजियेगा, लेकिन यह सारे काम तो बॉलीवुड का हीरो ऋतिक रोशन भी करता है, शाहरुख़ भी नाच गाकर मनोरंजन करता है और भीड़ भी हूटिंग करती है... यो, यो ....!!

More-books-click-hereहमें बड़े ही स्पष्ट रूप से समझना होगा कि अमेरिका के अपने पडोसी देशों के साथ सम्बन्ध बड़े प्रगाढ़ हैं, वह चाहे कनाडा हो, बहामास हो, जमैका, कोस्टा रिका, पनामा, अरूबा या फिर मैक्सिको, बरमूडा ही क्यों न हो. गौर करने वाली बात है कि यदि अमेरिका भी कनाडा के साथ सीमा-विवाद में उलझा होता तो क्या वह वैश्विक ताकत बन पाता. कई देशों ने अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों की परवाह न करते हुए वैश्विक शक्ति बनने की कोशिश की, लेकिन उनकी औकात कुछेक दशकों से ज्यादा नहीं टिक पायी. चाहे वह जर्मनी हो या फिर रूस ही क्यों न हो. चीन भी आगे बढ़ने की कोशिश जरूर कर रहा है, लेकिन वैश्विक राजनीति के जानकार जानते हैं कि उसके अपने पड़ोसियों से तनावपूर्ण सम्बन्ध उसे वैश्विक राजनीति का पुरोधा कभी नहीं बनने देंगे. वह पडोसी चाहे भारत हो, जापान हो या वियतनाम ही क्यों न हो.

स्पष्ट है कि जिस रास्ते पर भारत, चीन, पाकिस्तान इत्यादि राष्ट्र चल रहे हैं, उस रास्ते पर कुछेक दशकों की कौन बात करे, कुछेक सदियों तक की स्थिति भी एशिया के अनुकूल नहीं बन पायेगी. अमेरिकी बड़ी सरलता से एशियाई मूल के लोगों आसमान पर चढ़ाकर कहता है कि २१वीं सदी एशिया की सदी है, ताकि एशियाई मानव-संशाधन उसे अपनी सेवाएं प्रस्तुत करता रहे और एशियाई नेता आपस में भिड़ते रहें. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री एवं महान कूटनीतिज्ञ अटल बिहारी बाजपेयी का कहा यह तथ्य कहावत में ही रह जाए कि मित्र तो बदले जा सकते हैं, लेकिन पडोसी नहीं, इसलिए पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध बेहतर करना जरूरी है. आप भी इन एशियाई नेताओं की तरह खुशफहमी में बने रहिये कि अगली सदी, अगले दशक आप ही के हैं. शायद हम नागरिकों के भी हज़ारों मित्र होंगे, फेसबुक पर तो होंगे ही, लेकिन चूँकि हम एशिया के हैं, इसलिए हम अपने पड़ोसियों को नजरअंदाज कर देते होंगे. ठीक कहा या नहीं, जरूर सोचिये.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

You can change friends but not neighbours, so make strong relations with neighbours. Article in Hindi by Mithilesh on foreigh policy of India, China, Pakistan and Asian countries.

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