कुछ ही दिनों पहले की बात है, जब विश्व की सबसे बड़ी आई टी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ से किसी ने प्रश्न किया कि योग्यता में बराबर होने के बावजूद महिलाओं के मेहनताने उनके पुरुष समकक्षों से कमतर क्यों हैं? संयोग से यह सीईओ साहब भारतीय मूल के ही हैं, और भारतीय मूल के व्यक्ति शास्त्रों को बड़े मनोयोग से पढ़ते हैं. तो उन महाशय ने तपाक से जवाब दिया कि महिलाएं कर्म करें और सेलरी की चिंता छोड़ दें! प्रतिक्रिया स्वरुप बवाल होना ही था, और हंगामा इतना हुआ कि इन महाशय को सार्वजनिक माफ़ी तक मांगनी पड़ी. खैर! यह तो एक बात हुई, लेकिन इस हंगामे ने मुझे महिलाओं की स्थिति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया, विशेषकर आज के भारतीय परिदृश्य में. चूँकि हमारा देश पुरातनपंथी और रूढ़िवादी रहा है, यहाँ महिलाओं को लेकर अनेक आंदोलन चले हैं, उनके अधिकारों के लिए, उनके सम्मान के लिए हर स्तर पर कार्य भी हुए हैं, लेकिन फिर भी महिला अधिकारों के सन्दर्भ में हमारे देश को निचले पायदान पर ही रखा जाता है. हालाँकि, देश की आज़ादी को लेकर हम प्लेटिनम जुबली मनाने को तैयार हैं, लेकिन महिलाओं की दशा पर चिंतन करने का समय हमारे पास कम है. यह स्थिति तब है, जब देश विदेश में जिन भारतीयों ने झंडे गाड़े हैं, उनमें महिलाओं की संख्या कहीं से कमतर नहीं है. चाहे कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, किरण बेदी, मैरीकॉम जैसी एक क्षेत्र में बुलंदी छूने वाली महिला प्रतिभाओं की बात करें या इंदिरा नूयी, चंदा कोचर, सावित्री जिंदल जैसी व्यवसायी महिलाओं की बात करें या फिर राजनीति के क्षेत्र में सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी जैसी हस्तियों की बात कर लें, यह सूची बढ़ती ही जाती है. यदि कुछ नहीं बढ़ता है तो वह हमारे देश की सामान्य महिलाओं का जीवन स्तर. यदि कुछ नहीं बदलता है तो वह है हमारे समाज की वही रूढ़िवादी सोच, जो औरतों को माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ की तरह काम करने भर का अधिकार देते हैं. उन जैसों की नजर में वह अपने अधिकारों को मांग नहीं सकती हैं, उन पर विचार नहीं कर सकती हैं अथवा उसके लिए लड़ाई नहीं लड़ सकती हैं.
एक नजर में देखने पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति में पहले की अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है, अब वह उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, नौकरियां कर रही हैं, आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बन रही हैं. लेकिन बारीकी से देखने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह सफलता प्रतीकात्मक स्तर पर ही है, और जो कुछ प्रतीकात्मक भी है, उसके लिए भी उन महिलाओं को कई जगह भारी कीमत तक चुकानी पड़ रही है. प्रश्न यहाँ उठता है और उठना भी चाहिए कि आखिर हमारा समाज और समाज के कथित पढ़े-लिखे लोग, कामकाजी महिलाओं को प्रोत्साहित क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या हमारी सामाजिक संरचना अभी तक इस वैश्विक बदलाव को स्वीकार नहीं कर पायी है? क्या इस नकारात्मक परिदृश्य में महिलाओं की भी भूमिका है? यदि हाँ! तो क्या और उसका समरस हल क्या है?
हालाँकि इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने से पहले हमें अपनी सामाजिक संरचना की मूलभूत बातों पर पुनर्दृष्टि जरूर डालनी होगी, क्योंकि हजारों सालों की सोच को कुछ दशकों में बदल पाना निश्चय ही कठिन अवधारणा है. स्त्रियों को अब तक पति की सेवा करने और बच्चों को सँभालने की मशीन ही समझा जाता रहा है, और सिर्फ मशीन ही नहीं, बल्कि उसे अधिकारविहीन भी समझा जाता रहा है. हालाँकि, समय के साथ यह सोच इतनी जरूर बदली है कि अब हमारा संविधान और समाज दोनों स्त्रियों को अधिकारयुक्त मानने लगा है. अब हर घर की लडकियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं. नौकरी करने का प्रयत्न भी करती हैं, लेकिन उसके बाद .... .... !!!
सारी समस्या उसके बाद उत्पन्न होनी शुरू हो जाती है. रूढ़िवादी और अतिवादी स्वभाव वालों की हम बात नहीं करते, क्योंकि उनकी संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है और उनके विचार भी विकासशील हो रहे हैं. हम बात करते हैं आधुनिक और पढ़ी लिखी जमात की. शादी के बाद सन्तानोत्पत्ती होते ही नौकरीपेशा महिला को अपनी नौकरी का बलिदान करना ही पड़ता है. भारत में ऐसा ९० फीसदी मामलों में होता है, शेष दस फीसदी मामलों में दम्पत्तियों के बीच तनाव की स्थिति बन जाती है. शुरुआत में कुछ लोग जरूर डे-बोर्डिंग / क्रेच को प्राथमिकता देने की सोचते हैं, लेकिन भारत में यह संस्कृति पनप ही नहीं पायी है, और शायद उस रूप में विस्तारित होगी भी नहीं. क्योंकि भारत में बच्चों को न सिर्फ उस परिवार का बल्कि देश का भविष्य तक कहा और माना जाता है. अब यह सोचने वाली बात है कि भारत जैसे भावना - प्रधान देश में बच्चों का लालन-पालन किसी नौकर या प्रोफेशनल के हाथ में कैसे दिया जा सकता है. यह ठीक है कि बच्चों के निर्माण की सर्वाधिक सफल और प्रमाणित प्रक्रिया हमारे देश की संयुक्त परिवार व्यवस्था रही है, लेकिन इस संस्था के लगातार टूटन ने हमारे देश की औरतों पर सबसे ज्यादा कहर ढाया है.
आधुनिकता और अर्थ के साथ स्वाभिमान की कुछ ऐसी मजबूरी है कि देश में पढ़ी लिखी महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं, लेकिन नौकरी करते ही उन्हें अपना परिवार, अपने बच्चों का भविष्य, संस्कार और रिश्ते तार-तार होते नजर आते हैं. जिद्द करके यदि वह शुरूआती कुछ दिनों तक नौकरी करती भी है तो उसे घर के दुसरे कामों के अतिरिक्त बच्चों के पालन का अतिरिक्त दबाव सहन करना पड़ता है. इस दबाव के फलस्वरूप डिप्रेशन समेत अनेक बीमारियां कम उम्र में ही महिलाओं को जकड लेती हैं. यदि फिर भी जैसे-तैसे, अपनों का विरोध करके, लड़ कर वह अपनी जॉब जारी भी रखती है तो कुछ सालों के बाद पता लगता है कि उसका बच्चा उस से काफी दूर चला गया है. टीवी, कंप्यूटर से लगाव के कारण वह मशीन बन गया है, तो माँ के समय न दे पाने के कारण वह इंसानी भावनाओं और संवेदनाओं से भी वंचित रह गया है. आखिर कोई स्त्री कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाय, लेकिन भारतीय माताओं और विदेशी मदर्स में इतना अंतर तो रहेगा ही कि उसे अपने पुत्र से सबसे ज्यादा लगाव होगा, किसी डे बोर्डिंग अथवा क्रेच से अधिक.
इन परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर, औरतों के लिए नौकरी कर पाना काफी मुश्किल हो जाता है. इस के साथ यह बताना मुनासिब होगा कि समाज के साथ, पुरुषों के साथ औरतों की सोच भी कामकाजी नहीं हो पायी है. मैं व्यक्तिगत रूप से कई ऐसी पढ़ी लिखी महिलाओं को जानता हूँ, जिनका अपना घरेलु व्यवसाय है, वह आसानी से अपने पति का हाथ बंटा सकती हैं, जिस से उनका घर भी बचा रहेगा और वह कामकाजी भी बनी रह पाएंगी, लेकिन उन पर बाहर काम करने का, स्वच्छंदता का भूत जाने क्यों सवार रहता है? मतलब यदि वह काम करेंगी तो कहीं बाहर, नहीं तो वह घर बैठकर टीवी और किट्टी में समय ही निकलेंगी. हालाँकि बदली हुई परिस्थिति में यह सबसे सुगम हल है कि पढ़ी लिखी औरतें स्व-उद्योगों के सहारे अपने व्यक्तित्व को निखारें, अपने पति के या घरेलु व्यवसाय में अपनी आर्थिक सम्पन्नता का रास्ता ढूंढने का प्रयत्न करें. यदि हम एक क्षेत्र की ही बात करें तो, आज के समय में जब सूचना प्रौद्योगिकी में भारत अपने झंडे गाड़ रहा है, तो इसको लेकर तमाम स्वरोजगार की संभावनाएं भी उत्पन्न हुई हैं. घर बैठकर छोटे रोजगार के अवसरों जैसे- टाइपिंग, डेटा एंट्री से लेकर व्यापक अवसरों जैसे- बिजनेस कंसल्टिंग, बड़े प्रोजेक्ट्स की कोडिंग तक का काम घर बैठकर ही किया जा सकता है. कई बड़ी कंपनियां घर बैठकर फ्रीलांस करने की सुविधा देती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि सूचना प्रोद्योगिकी में ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे पढ़ी लिखी लडकियां घर बैठकर एक कंप्यूटर के सहारे कर नहीं सकती हैं. यदि काम करने में कोई समस्या आती है तो यूट्यूब, गूगल जैसी सुविधाओं से बेहद आसानी से वह स्टेप-बाई-स्टेप सीख सकती हैं. इसके अतिरिक्त, जिस सॉफ्टवेयर में दिक्कत आती है, वह सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी हर वक्त तैयार रहती है सपोर्ट देने के लिए. पर मुझे बड़ा अजीब लगता है, जब अपने समकक्ष कई लड़कियों को बहाने बनाकर काम से भागते देखता हूँ. शायद, वह भी उसी सोच की शिकार हैं जिसमें पैसा कमाने के लिए पति होता है और वह बच्चे सँभालने की खानापूर्ति करने के लिए. खानापूर्ति शब्द इसलिए मुझे इस्तेमाल करना पड़ रहा है क्योंकि आज कल की लड़की घरेलु हो या कामकाजी, बच्चे को टीवी के सहारे ही छोड़ देती हैं, या स्कूल अथवा ट्यूशन के सहारे छोड़कर खुश हो लेते हैं. हालाँकि यहाँ, पुरुष-वर्ग को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती, क्योंकि एकल परिवार में उनके पास अपनी बीवी के साथ वीकेंड पर मूवी देखने का समय जरूर होता है, लेकिन अपने छोटे बच्चे के साथ शाम को पार्क में घूमना उन्हें समय की बर्बादी लगता है. काश! संयुक्त परिवार में यह युवा रहते और उनके माँ-बाप उनके कान खींचते रहते. उनको थोड़ा बुरा जरूर लगता, थोड़ा कष्ट भी होता, लेकिन खुद उनका भविष्य और उनकी अगली पीढ़ी का भविष्य अपेक्षाकृत अच्छा बनता.
ईमानदारी से देखा जाए तो आज के भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति बेहद उलझी हुई नजर आती है. कई बार इसके लिए समाज की सोच जिम्मेवार होती है तो कई बार खुद महिलाओं की मानसिकता इसका कारण होती है. लेकिन भारतीय समाज का विस्तृत चिंतन करने पर इसके दो हल नजर आते हैं, जिसको परिमार्जित किया जा सकता है. ऊपर की पंक्तियों में संयुक्त परिवार और स्व-रोजगार का वर्णन इसी भारतीय संवेदना को ध्यान में रखकर किया गया है. उम्मीद है, समाज के साथ प्रत्येक व्यक्ति इस समस्या को विकराल बनने से पहले व्यक्तिगत रुचि लेकर इस समस्या पर अध्ययन करेगा एवं इसका बहुआयामी हल देने का प्रयत्न करेगा. इन्हीं शब्दों के साथ, आप से विदा लेते हुए आपकी प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन की उम्मीद करता हूँ.
शुभकामनाओं सहित,
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
Modern India and Working Women, Article by Mithilesh.
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