Sunday 16 November 2014

अति का भला न ... Ati ka Bhala n - Political Article by Mithilesh

यूं तो प्रत्येक साहित्य में काफी कुछ होता है सीखने को, और जब वह साहित्य कबीर जैसे स्पष्टवादी संत के मुख से प्रस्फुटित हुआ हो, तो फिर क्या कहने! कबीर के दोहे पढ़ने पर प्रतीत होता है कि एक ही दोहे में एक ही बात को दो, तीन या उससे ज्यादा उदाहरण देकर सिद्ध किया गया है. न कोई क्लिष्टता, न कोई गूढ़ शब्द, लेकिन गूढ़तम भावार्थ. उनके एक दोहे को पढ़कर वर्तमान राजनीति के सन्दर्भ में 'अति' शब्द पर विचार करने की इच्छा हुई. पहले उनके दोहे को स्मरण करना उचित होगा, जिसमें कबीरदास बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि-

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।


भारत भूमि की यह खासियत रही है कि यहाँ हर प्रकार के महापुरुषों के दर्शन होते रहते हैं. आप कहेंगे कि महापुरुषों के भी प्रकार होते हैं क्या? जी हाँ! एक सिर्फ नाम के महापुरुष होते हैं, दुसरे प्रकार के वे महापुरुष होते हैं, जिन पर महापुरुषत्व थोपा गया होता है. तीसरे प्रकार के महापुरुष, श्रेष्ठ आत्म-प्रवंचक होते हैं. आज कल एक अन्य प्रकार के महापुरुषों का बड़ा जोर है, जिन्हें 'मार्केटिंग महापुरुष' भी कहा जा सकता है. एक और प्रकार के महापुरुष ध्यान में आते हैं, जिन्हें 'खास महापुरुष' भी कहा जा सकता है और यह किसी विशेष उद्देश्य हेतु निर्मित किये जाते हैं, उसके बाद इनके महापुरुषत्व पर ग्रहण लग जाता है. यह बताना उचित होगा कि उपरोक्त वर्णित 'महापुरुषों' को लोकहित, मर्यादा इत्यादि से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है. वह मर्यादा जिसको निभाकर राम, मर्यादा पुरुषोत्तम बने, वह लोकहित जिसके लिए कृष्ण के मुख से गीता-उद्घोष हुआ और दाधीच जैसे महर्षि ने अपना शरीर बलिदान कर दिया.

मतलब साफ़ है कि आज कल महापुरुष 'ब्रांडिंग' के द्वारा बनाये और बिगाड़े जाते हैं. जी हाँ! और इस कार्य के लिए कई बड़ी मार्केटिंग कंपनियां कतार में खड़ी रहती हैं. वह आपके उठने, बैठने से लेकर चलने, मुलाकात करने की कुछ ऐसी तस्वीरें गढ़ती हैं कि क्या कहने? भारत में २०१४ के आम चुनाव से पहले बड़ी चर्चाएं हुईं कि अमुक पार्टी ने या अमुक नेता ने इस या उस कंपनी को ब्रांडिंग के लिए ५०० करोड़, ५००० करोड़ का ठेका दिया. लेकिन यहाँ फिर कबीरदास की 'अति..." वाली वाणी याद आ जाती है. आधुनिक युग में थोड़ा बहुत तो एडजस्ट हो जाता है, लेकिन 'अति' नुकसानदायक ही होती है, यह लोकसभा के परिणाम से फिर सिद्ध हो गया था. इसी कड़ी में आज के समय में कथित रूप से भारत की विदेशों में छवि चमकाने और डंका बजवाने का बड़ा ज़ोर चल रहा है. कभी-कभी तो लगता है कि कबीरदास की 'अति...' वाली वाणी ऐसी ही परिस्थिति के लिए तो नहीं बनी है. वर्तमान में भारतीय प्रधानमंत्री के लिए विश्वविजयी, अश्वमेघ यज्ञ करने वाला और न जाने क्या-क्या संज्ञाएं प्रयोग में लाई जा रही हैं. कही उनके नाम से ट्रेन चल रही है तो कहीं रेस्टोरेंट खुल रहे हैं. खैर, यह किसी की व्यक्तिगत श्रद्धा भी हो सकती है, मार्केटिंग भी हो सकती है. लेकिन प्रश्न उठता है कि भारत को इन सब गतिविधियों से क्या हासिल होगा? भारतीय जनमानस का जीवन-स्तर किस प्रकार सुधरेगा? ऐसा नहीं है कि सिर्फ वर्तमान में ही ऐसा व्यक्तित्व दिखा है, बल्कि पहले भी ऐसे तमाम व्यक्ति और व्यक्तित्व विश्व-स्तर पर ब्रांडिंग करते रहे हैं. कई लोग इस बात को नकारात्मक कहेंगे, लेकिन एकाध और भारतीय ब्रांडों की चर्चा सामयिक होगी. आपको ब्रांडिंग से सम्बंधित रविंद्रनाथ टैगोर की बात बताता हूँ. बड़े नाम थे, बड़ा व्यक्तित्व था, नोबेल पुरस्कार से सम्मान प्राप्त थे. एक बार वह जापान की किसी यूनिवर्सिटी में बड़ी-बड़ी बातें कह रहे थे, अच्छी बातें, सुन्दर बातें. वहां के एक छात्र ने उठकर सीधे-सीधे पूछा यदि आपके पास इतनी अच्छी बातें हैं, आप का देश इतना महान है तो वहां भूखे-नंगे क्यों हैं? उसे तीसरी दुनिया का देश क्यों माना जाता है? इस बात का जवाब नहीं था इस भारतीय ब्रांड के पास.
स्वामी विवेकानंद का भारतीय समाज में बड़ा योगदान है, लेकिन यह सन्दर्भ उनके उभार के दिनों का है. शिकागो धर्म-सम्मलेन से स्वामीजी विश्वविख्यात हो चुके थे. लेकिन इस प्रश्न ने उनका भी पीछा नहीं छोड़ा, जिसके बात उन्होंने विदेश-प्रवास करना छोड़कर भारत में भूखों को भोजन कराना बेहतर समझा और अपना सम्पूर्ण जीवन गरीबों, पिछड़ों की सेवा में अर्पित कर दिया और कहा 'नर सेवा, नारायण सेवा है'. महात्मा गांधी को भी बड़ा वैश्विक ब्रांड माना जाता है, लेकिन इतिहास को खंगालने पर स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेज उन्हें अपनी उँगलियों पर ही घुमाते रहे. इंग्लैण्ड में हुए गोलमेज सम्मलेन से वह खाली हाथ तो लौटे ही, भारत पाकिस्तान का विभाजन भी उनकी बड़ी भूलों में शामिल था. यह वैश्विक राजनीति चढ़ाकर उतारने में बड़ी सिद्धस्त है. पहले खूब चढ़ाती है, फिर ऐसा गिराती है कि पानी तक नहीं मिलता है. आज़ादी के बाद बड़े भारतीय वैश्विक नेता कहे जाने वाले पंडित नेहरू की चर्चा किये बिना यह सूची अधूरी ही रहेगी. हिंदी-चीनी, भाई-भाई के नारे के बाद हमारी अस्मिता की जो दुर्दशा हुई, उससे हम आज तक मुक्त नहीं हो पाये हैं. बड़े-बुजुर्ग भी छोटों को समझाते हुए कहते हैं कि अपने घर को ठीक करो पहले, बाद में बाहर डींगे मारना, और राजनीति का भी यही सिद्धांत है, यह बात वर्तमान में भारतीय नेतृत्व को समझ आ जानी चाहिए.

महंगे कुर्ते, महंगा चश्मा पहनने से भारत की छवि नहीं बदल जाएगी. विश्व के नागरिकों को भारत की स्थिति के बारे में ठीक से पता है, और वह बस परिस्थिति का फायदा उठाने की फिराक में ही हैं. हो-हल्ला करने से बचना चाहिए, यह नादानों का काम है. ढोल पीटने की 'अतिवादिता' कहीं से लाभकारी नहीं है. उद्यम करना चाहिए, लोगों को सशक्त करना चाहिए, इसी में भारतवर्ष की असल गरिमा है. हमारे चेहरे की बजाय हमारा कार्य हमारी पहचान बने, इस बात का प्रयास हो. वर्तमान सरकार का हनीमून पीरियड समाप्त हो चूका है, उसे विदेशी टूर के प्रति आकर्षण पैदा करने से बाज आना चाहिए. साधारण और उद्देश्यपरक यात्रा, लो-प्रोफाइल दिखने वाली यात्रा लाभ पहुंचाती है, यह बात राजनीति और कूटनीति समझने वाले नीतिज्ञ ठीक मानते हैं. यदि नहीं, तो फिर 'अति' का परिणाम भी इस नेतृत्व को समझ लेना चाहिए. 'भूखे-नंगों' का प्रश्न कल भी था, आज भी है. अशिक्षा, स्वास्थ्य-समस्याएं, क्षेत्रीय समस्याएं, आर्थिक समस्याएं, रोजगार हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं, इस पर ध्यान कब आएगा? कुछ लोग कहेंगे कि प्रधानमंत्री बने उन्हें चंद दिनों ही तो हुए हैं. जवाब में कहा जा सकता है कि वह प्रधानमंत्री बेशक आज बने हैं, लेकिन उनकी उम्र ६० से ज्यादा है. क्या वह इस प्रश्न का जवाब देंगे? या छवि चमकाने की अतिवादिता में ही उलझे रहेंगे?

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Ati ka Bhala n bolna, ati ki bhali n chup. ati ka bhala n barasna, ati ki bhali n dhoop... Hindi, Political Article by Mithilesh

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