Saturday 30 May 2015

उजली तमस - Hindi poem by mithilesh on summer, rain season

by on 23:07

घेरने हैं आ गयी वो फ़ौज देखो
बदलियों की फिर से मौज देखोHindi-poem-on-summer-rain-by-mithilesh-anbhigya
छुप गया सूरज गगन की ओट में
मुस्कान है लगी खिलखिलाने लोटने
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जेठ की तपती अगन में भी मगन
खेत में चलता न दुखता उसका मन
बीज जो डाले हैं उसने जतन से
इस बार भी रोये न अपने पतन से

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शहरों में भी कम नहीं दुश्वारियां
बदहवास हो भागते नर नारियां
अस्पताल में रोगियों की कतार है
लाखों दुखी, वैक्टीरिया से बीमार हैं

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देखते पंछी हैं बड़ी आशा से तुमको
नदियां और झरनों में अब रस भर दो
तड़पे ना कोई जीव अब इस उमस से
बढ़ती बेचैनी जा रही उजली तमस में

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- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

Hindi poem by mithilesh on summer, rain season
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Friday 29 May 2015

अनसुलझा ही न रहे कश्मीर

by on 07:28

आज़ाद भारत की सबसे बड़ी भौगोलिक और ऐतिहासिक समस्या के बारे में यदि पूछा जाय तो 90 फीसदी से ज्यादा नागरिक अवश्य ही कश्मीर का नाम लेंगे. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के ही काल से यह हमारे देश का ऐसा राजनैतिक घाव बन चुका है, जो हमेशा रिसता और दुखता रहता है. इसकी पृष्ठभूमि में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह समस्या क्यों उत्पन्न हुई और उस दौर के राजनैतिक नायकों, राजाओं का रोल तब क्या रहा, हम सब इससे भली - भांति परिचित हैं. लेकिन, आज जब भारत वैश्विक ताकत के रूप में तेजी से उभर रहा है, और साथ में उसके दुश्मन उसी तेजी से उसे घेरने का यत्न कर रहे हैं तो ऐसे में कश्मीर को लेकर हमारी स्पष्ट नीति होने की पुरजोर जरूरत महसूस हो रही है. ऐसा भी नहीं है कि विभिन्न समय की सरकारों ने इस सीमाई राज्य की समस्या सुलझाने को लेकर प्रयत्न नहीं किया है, किन्तु सच तो यही है कि आज तक कोई भी नीति उस गहराई से इस राज्य को आत्मसात नहीं कर सकी है, जैसा उसे होना चाहिए था. अब तो, पाकिस्तान द्वारा अधिकृत कश्मीर में चीन अपनी बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना लाने की घोषणा कर चुका है. पाकिस्तान में अब तक के सबसे बड़े निवेश की घोषणा करके भारत के दो पारम्परिक प्रतिद्वंदी (शत्रु) राष्ट्रों ने भारत के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरा दिया है. इन अंतर्राष्ट्रीय दबावों से बढ़कर, घाटी में हो रही भारत-विरोधी घटनाएं माहौल को तनावपूर्ण बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं. हालाँकि, जम्मू कश्मीर में हुए बार-बार के चुनावों ने यह साबित कर दिया है कि वहां की अधिसंख्य जनता भारत के साथ अपना भविष्य देखती है, किन्तु अलगाववादी गुटों के नेता और सीमा-पार से मदद प्राप्त आतंकी माहौल को हल्का नहीं होने देते. वहां की कुछ विशेष जनसभाओं में बार-बार पाकिस्तानी झंडे लहराना, राष्ट्रीय अस्मिता पर ऊँगली उठाता है तो वहां मौजूद भारतीय फौजों के खिलाफ नारेबाजी, पत्थरबाजी जैसी घटनाएं देश के नागरिकों को चिंता में डाल देती हैं. हालाँकि, वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि भारत में पाकिस्तानी झंडे लहराने की घटना को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसी हरकतें करने वाले लोगों पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा चाहे वह भारत के किसी भी हिस्से के क्यों न हों. मोदी सरकार का एक साल पूरा होने के मौके पर पत्रकारों से बातचीत में गृह मंत्री ने आगे यह भी कहा कि जो लोग भी ऐसी गतिविधियों में शामिल होंगे उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. प्रश्न यह है कि सिर्फ इस तरह की बयानबाजियां ही की जाएँगी, या इस सरकार द्वारा कुछ ठोस करने का साहस भी दिखाया जायेगा. कश्मीरी पंडितों को घाटी में बसाने की योजना की चर्चा इसमें से एक है, लेकिन इस योजना की रफ़्तार इतनी सुस्त है कि यह न तो पलायित कश्मीरियों में जोश भर पायेगी और शायद पूरी भी नहीं होने पायेगी. इसके अतिरिक्त रिटायर्ड फौजियों को वहां बसाने की बात जाने कबसे कही जा रही है. अंतर्राष्ट्रीय दबाव तो बनेंगे ही, किन्तु दृढ इच्छाशक्ति के साथ जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा संसद द्वारा ख़त्म किये जाने का फ्लोर मैनेजमेंट आखिर कब दिखाया जाएगा, यह राजनैतिक प्रबंधन करने वाले ही जानें. विदेश नीति के स्तर पर, आर्थिक संबंधों को आगे रखकर हम चीन और पाकिस्तान को कितना दूर रख पाते हैं, यह भी हमारे प्रधानमंत्री की कार्यकुशलता पर निर्भर करेगा, हालाँकि इस बात के विपरीत आसार ज्यादा दिख रहे हैं. मतलब हमारी आर्थिक क्षमताओं का लाभ तो चीन जरूर ले रहा है, किन्तु सामरिक स्तर पर वह हमें ज़रा भी भाव देने के मूड में नहीं दिखता है. बन्दूक के साये में ही सही, कश्मीर में पर्यटन को एक या दो नहीं, दस कदम आगे बढ़कर बढ़ावा देने की नीति काम आ सकती है, लेकिन इससे पहले हमें पर्यटकों को वहां सुरक्षा का माहौल देना ही होगा. इन सब दिखने वाले समाधानों के अतिरिक्त, तेज-तर्रार रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के अनुसार सेना और उनका मंत्रालय गुप्त अभियानों पर काम कर रहा है, जो हमारी रक्षा नीति को विशेष धार देगी. हालाँकि उम्मीद कायम है, लेकिन यदि इस समस्या को हम अब भी सुलझाने में नाकाम रहे, तो यकीन मानिये, कश्मीर के साथ सम्पूर्ण भारत समस्या से घिर जायेगा. आखिर, किसी व्यक्ति की गर्दन पकड़ ली जाय तो उसका शेष धड़ आप ही पकड़ में आ जाता है. ठीक इसी प्रकार से कश्मीर हमारे राष्ट्र का शीश ही तो है. राष्ट्र अब तुष्टिकरण की सरकारों वाले दौर से बाहर निकल चुका है, उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय अस्मिता को बार-बार चुनौती देने वाले तत्वों पर लगाम कसने में वर्तमान सरकार सफल रहेगी.

Thursday 28 May 2015

आरक्षण का दावानल

by on 07:10

आरक्षण शब्द के ऊपर हमारे देश में इतना कहा सुना जा चुका है कि अब कुछ शेष नहीं है. 21वीं सदी में यह बात बेहद आश्चर्यजनक लगती है कि आरक्षण के लिए कुछ लोगों द्वारा रेल की पटरियां तक उखाड़ दी जा रही हैं. एक तरफ हमारे प्रधानमंत्री मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और दुसरे ऐसे ही नारे अपने सूटकेस में रखकर पूरे विश्व का भ्रमण कर रहे हैं और दूसरी ओर राजनीतिक शह पर बेतरतीब हो हल्ला मचाया जा रहा है. इस हंगामे से हो रहे नुकसान का आंकलन करने बैठा जाय तो सर दुखने लगता है. मौजूदा गुर्जर आंदोलन के कारण रेलवे को करीब 100 करोड़ रूपये का नुकसान झेलना पड़ा है. आंदोलन के चलते अभी तक कोटा-मथुरा मार्ग पर 326 मेल एवं एक्सप्रेस ट्रेनों को रद्द करने या मार्ग परिवर्तित करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसके अतिरिक्त 21 मई से आईआरसीटीसी पर करीब 1.9 लाख टिकट रद्द किये गये हैं. इस रुट पर जाने वाले ग्राहकों को भारी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं. कोटा.मथुरा मार्ग पर दक्षिण एवं उत्तर तथा उत्तर एवं पश्चिम के बीच प्रमुख रेल यातायात चलता है तथा आंदोलन के कारण यह मार्ग बाधित हो गया है. अब समझ यह नहीं आ रहा है कि कानून व्यवस्था का मजाक उड़ाने की अनुमति भला क्यों और कैसे दी जा रही है. इस पूरी कड़ी में हाई कोर्ट के सख्त संज्ञान के बाद भी आंदोलकारी आरक्षण के लिए किसकी शह पर डंटे हुए हैं, यह शोध का विषय हो सकता है. हालाँकि तमाम सियासी उठापटक और रेल से सड़क तक प्रदर्शन के बीच गुर्जर आंदोलन मामले में नया मोड़ आने की सम्भावना बढ़ी है. एक अपुष्ट खबर के अनुसार राजस्थान सरकार आख‍िरकार गुर्जरों को सरकारी नौकरी में पांच फीसदी आरक्षण को लेकर राजी हो गई है और वसुंधरा सरकार ने इसके लिए विधेयक लाने की बात कही है. पर प्रश्न और उसका हल यहीं तक हो तो बात समाप्त की जा सकती है, लेकिन आरक्षण से सम्बंधित छोटी सी भी सकारात्मक या नकारात्मक बात निकलती है तो दूर तलक जाती है. जाट आरक्षण, मुस्लिम आरक्षण और ऐसे ही अंतहीन यात्रा का साक्षी बनता रहा है यह शब्द. अर्थ तो खैर, आज तक समझ ही नहीं आया है इसका, क्योंकि संविधान बनाते समय इसका प्रावधान मात्र कुछ वर्षों के लिए दबे-कुचलों के लिए किया गया था, लेकिन कौन नहीं जानता है कि 'क्रीमी-लेयर' शब्द इसके साथ मजबूती से चिपक गया है और आरक्षण का 90 फीसदी से ज्यादा लाभ अयोग्य व्यक्ति ही ले रहे हैं. असली गरीब और इस आरक्षण का हकदार आज भी ठोकरें खाने को मजबूर है. कई जाने माने विद्वान और स्वतंत्र एजेंसियों ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक आधार पर आरक्षण करने की वकालत की है, जबकि जातिगत आधार पर इसे ख़त्म करने की सिफारिशें भी हुई है, लेकिन इस दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ा जा सका है. सच बात तो यह है कि जब तक आरक्षण ख़त्म करने की पहल नहीं की जाएगी, तब तक गुर्जरों के इस आंदोलन की तरह विभिन्न समुदाय अपने स्वार्थ के लिए सरकारों पर दबाव बनाते रहेंगे. लेकिन, संविधान में आरक्षण समाप्त करने की बात भला कौन सुने, कई सरकारें इस बात पर आमादा हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 फीसदी की सीमा को भी पार कर लिया जाए. राजनैतिक स्वार्थ से घिरी आरक्षण की काली दुनिया, देश की प्रतिभाओं का कब तक सत्यानाश करती रहेगी, यह अपने आप में यक्ष प्रश्न है. इस प्रश्न के उत्तर ढूंढने की ओर भला किसका ध्यान है कि गरीब और गरीब क्यों हो रहे हैं, जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि सार्वजनिक संसाधनों पर अयोग्य और अनैतिक व्यक्तियों का कब्ज़ा होता जा रहा है. बेहतर यह होगा कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन करे, जो जातिगत आरक्षण ख़त्म करके आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की दिशा में नए सिरे से रिपोर्ट पेश करे. इस रिपोर्ट को लागू करने की अवधि 10 साल, 20 साल तक हो सकती है, लेकिन उसके बाद हमारी आने वाली पीढ़ियां कम से कम आरक्षण की इस काली आग से तो छुटकारा पा सकेंगी, अन्यथा.... धुंआ उठता रहेगा, इस काली आग का धुंआ, आरक्षण के अंतहीन दावानल का धुंआ !!

Wednesday 27 May 2015

बोफोर्स का भूत

by on 06:18
वो कहते हैं न कि भूत कभी पीछा नहीं छोड़ता है. आम जनमानस में प्रचलित भूतों की तरह राजनीति में भी लेकिन इन बड़े घोटालों की श्रृंखला में यदि बोफोर्स घोटाले को इन सभी घोटालों का पितामह कहा जाय तो कोई गलत नहीं होगा. आखिर, इस घोटाले के कारण राजीव गांधी की सरकार कुर्बान हो गयी. उसी दौर के नेता और अब वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर इस जिन्न को बोतल से बाहर निकाल दिया है. इस बार इस जिन्न या भूत जो भी कहिये, इतना ताकतवर है कि इसने सरकार और राष्ट्रपति भवन दोनों को उलझाकर रख दिया है. बवाल सामने आने के बाद न तो सरकार की ओर से कोई स्पष्ट सफाई दी जा रही है और न ही पार्टी प्रवक्ता द्वारा. कोढ़ में खाज यह हुआ है कि स्वीडिश अखबार दॉगेंस नेहेदर ने दावा किया है कि भारत ने उससे भारतीय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के इंटरव्यू से बोफोर्स वाला हिस्सा हटाने के लिए कहा था. गौरतलब है कि इसी अखबार को इंटरव्यू देते हुए राष्ट्रपति मुखर्जी ने बोफोर्स मामले में बयान दिया था, 'अभी तक किसी भी भारतीय कोर्ट ने इस मामले में कोई फैसला नहीं दिया है. ऐसे में इसे घोटाला करार देना उचित नहीं है. यह एक मीडिया ट्रायल था.' यह इंटरव्यू दॉगेंस नेहेदर के एडिटर-इन-चीफ पीटर वोलोदास्की ने लिया था. सामने आये रहस्योद्घाटन से ऐसा लगता है कि इस मामले में लीपापोती करने की भरपूर कोशिशें हुई हैं, लेकिन अख़बार वाले भी अपना समय पहचानते हैं. उन्होंने इतना बढ़िया मसाला आखिर हाथ से क्यों जाने देना था. राष्ट्रपति मुखर्जी के इस बयान पर राष्ट्रपति भवन से कोई प्रतिक्रिया तो नहीं आई, लेकिन केंद्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस मामले में बोफोर्स तोपों की पैरवी जरूर कर दी. खैर, इन तोपों की गुणवत्ता कारगिल युद्ध के समय सिद्ध हो चुकी है, लेकिन जो सिद्ध नहीं हुआ है वह है हमारी कार्यप्रणाली. आखिर इतने साल पुराने केस के बार बार उठाये जाने के औचित्य को क्या कहा जाय? साथ में हमारी न्याय व्यवस्था पर किस प्रकार से अपनी राय रखी जाय जो एक बड़े राष्ट्रीय मुद्दे पर सीधा फैसला देने में इतना समय लगा देती है. आम मुद्दों पर भला न्याय के सन्दर्भ में क्या उम्मीद रखी जा सकती है. न्याय-व्यवस्था के अतिरिक्त यह प्रश्न रक्षा सौदों की दलाली से भी बेहद गहरे से जुड़ा हुआ है. आपको याद होगा कि हाल ही में जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ़्रांस की यात्रा पर थे, तो उन्होंने राफेल विमानों का सौदा करने का समझौता किया. इस पर भाजपा के ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने अदालत जाने तक की बात कह दी थी. इस मुद्दे के अतिरिक्त भी रक्षा सौदों में पारदर्शिता पर हमेशा प्रश्न उठता रहा है. न्याय-व्यवस्था के साथ, बोफोर्स का जिन्न जिस तरफ अपना मुंह घुमा रहा है, वह रक्षा सौदों में पारदर्शिता का प्रश्न उठाता है. बोफोर्स के भूत के द्वारा याद दिलाये गए इन दो महत्वपूर्ण मुद्दों को सुलझा लिया जाय तो, निश्चित रूप से इस भूत की आत्मा को शांति मिल जाएगी, अन्यथा समय-समय पर यह अपना सर उठाता ही रहेगा.
तमाम तरह के भूत पाये जाते हैं और राजनीतिक गलियारों में सबसे बड़ा भूत किसी घोटाले का भूत होता है. यूं तो आज़ाद भारत के इतिहास में तमाम घोटाले हुए,

Tuesday 26 May 2015

बात खुल गयी है अब

by on 10:36
भाजपा नेता और कार्यकर्त्ता बड़े ज़ोर शोर से अपनी सरकार के एक साल पूरा होने का जश्न मना रहे हैं. जश्न आखिर मनाएं भी क्यों नहीं, एक तो उनकी पार्टी के लम्बे संघर्ष के बाद केंद्र में कोई पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है, और न सिर्फ सरकार बनी है, बल्कि नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेतृत्व भी मिला है, जिसने अपना अश्वमेघ का घोड़ा ही दौड़ा दिया है पूरे विश्व में. ज़मीनी स्तर पर सरकार के कार्यों का लेखा जोखा में करने में कोई आलोचक किन्तु परन्तु बेशक करे, किन्तु सरकार के इकबाल में कोई कमी नहीं दिखती है. कई समाचार-पत्र समूहों ने भी सरकार को अच्छे नंबर दिए हैं, तो जनता में भी उसकी लोकप्रियता लगभग यथावत बनी हुई है. किन्तु, इन सभी बातों पर नरेंद्र मोदी के चेले पानी फेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. पुराने बयानों को छोड़ भी दिया जाय तो, कुछ दिन पहले तेज-तर्रार रक्षा मंत्री का बयान बड़ा हैरत में डालने वाला था, जिसमें उन्होंने आतंकियों के खिलाफ आतंकियों के इस्तेमाल की पैरवी की थी. हम आप कह सकते हैं कि इसमें उन्होंने कुछ गलत या सही कहा, किन्तु एक रक्षा मंत्री का बयान देश की छवि और नीतियों के ऊपर लम्बे समय तक प्रभाव छोड़ता है. इसका तात्कालिक प्रभाव भी तुरंत ही पड़ा और पाकिस्तान जैसे कुख्यात और खतरनाक राष्ट्र ने भारत के ऊपर कूटनीतिक हमला कर दिया और कई मनगढंत आरोप जड़ दिए. आईआईटी से पढ़े मनोहर पर्रिकर भावना में बह गए या किसी नीति के तहत उन्होंने यह बयान दिया, यह तो वही जानें, लेकिन भारतीय सन्दर्भ में यह एक नयी बात थी, जो खुलेआम कही जा रही थी. ऐसा भी नहीं है कि किसी देश की सरकार किसी अन्य देश में छुपकर कोई कार्य नहीं कराती है, लेकिन इस तरह की खुली स्वीकारोक्ति या आतंक के लिए समर्थन देश की कूटनीति के लिए घातक साबित हो सकता है. खैर, इनके बयानों पर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जैसे तैसे लीपापोती की. इसके बाद नरेंद्र मोदी के सेनापति अमित शाह की बारी थी. दिल्ली चुनाव के पहले उन्होंने काले धन वाली बात को 'जूमला' कह कर जो लानत-मलानतें झेली थीं, वैसा ही कुछ बयान सरकार के एक साल पूरा होने के समय उन्होंने दिया है. प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि 'राम मंदिर' जैसे बीजेपी के कोर मुद्दों पर सरकार इसलिए काम नहीं कर पा रही, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त बहुमत नहीं है.' अमित शाह ने आगे कहा, 'सरकार को अब भी इतना बहुमत नहीं मिला है, जितना कोर मुद्दे पर कार्य करने के लिए होना चाहिए. यही नहीं, प्रश्न पूछने वाले को संविधान पढ़ने की सीख देते हुए शाह ने कहा कि आपको पता होना चाहिए कि सरकार को इसके लिए लोकसभा में 370 सीटें चाहिए, संविधान पढ़ लीजिए'. अब भला अमित शाह जी को कौन समझाए कि जनता अब इतनी भी अनपढ़ नहीं है. वह संविधान भी पढ़ना जानती है और आपके राजनीतिक एजेंडे को भी बखूबी समझती है. सच बात तो यह है कि अब कोई बात दबी छुपी नहीं रह गयी है, जिसे अमित शाह या राजनाथ सिंह दोबारा समझाएं. राम मंदिर के मुद्दे पर ही बयानबाजी से तंग होकर संतों के एक प्रमुख समूह ने भाजपा नेतृत्व से प्रार्थना की थी कि वह राम मंदिर की फिक्र छोड़ दें और देश की अर्थ व्यवस्था सहित किसानों की दुर्दशा इत्यादि को पटरी पर लाने की सोचें, राम मंदिर, कोर्ट के फैसले के बाद संत समुदाय खुद ही बना लेगा. देश की जनता भी यही चाहती है अमित शाह जी कि अब आप लोग चुनावों में वोट मंदिर या धारा ३७० के नाम पर न मांगें. अब बात खुल चुकी है और आप अपनी राजनीति रोजी, रोजगार और अर्थ व्यवस्था पर ही केंद्रित रखिये, अन्यथा नरेंद्र मोदी अपने कामों से जितना डिस्टिंक्शन हासिल करेंगे, आप लोग गुड-गोबर करते जायेंगे. एक साल पूरा होने के समय जनता ने यही भावना व्यक्त की है, सुन सकते हैं तो सुन लीजिये. अन्यथा बिहार चुनाव के समय जनता अपना फैसला सुनाने को उत्सुक है ही.
- मिथिलेश, नई दिल्ली.

Sunday 24 May 2015

तनु, मनु और सामाजिक बदलाव

by on 10:29
विश्व में सर्वाधिक फिल्में बनाने वालीं इंडस्ट्री बॉलीवुड में बेहद कम ऐसी फिल्में बनती हैं, जो अपने मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ साहित्यिक उद्देश्य को भी पूरा करती हैं. साहित्य को समाज का दर्पण बताया गया है और यह बेहद आवश्यक है कि किसी दर्पण की ही भांति समाज को उसका बदलता चेहरा दिखाने की कोशिश करते रहा जाय. पत्नी के काफी ज़ोर देने पर 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' की टिकट लेकर हम लोगों का सिनेमा जाना, कतई निराशाजनक नहीं रहा. हालाँकि, पिछले कुछ दिनों से आ रही फिल्मों को देखकर लगातार निराशा हो रही थी. कभी प्रयोगात्मक फिल्में बनाने के नाम पर, तो कभी चालू किस्म की मसाला फिल्मों के नाम पर दर्शकों का भेजा- फ्राय करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गयी. सच कहूँ तो इस पूरी फिल्म को देखते समय, सोचने समझने की जरूरत ही नहीं पड़ी और कथानक का एक-एक भाग स्वतः ही समझ आता गया. बिना तनाव के गुदगुदाते हुए इस फिल्म ने आज की ज्वलंत समस्या को बेहद मजबूती से सामने रखा. बॉलीवुड में अधिकतर रोमांटिक या रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों में लड़का-लड़की को आख़िर में एक साथ दिखा देते हैं और फिल्म वहीं ख़त्म हो जाती है. लेकिन क्या फिल्में हमें उसके आगे की कहानी बताती हैं? आम ज़िंदगी के कई जोड़े शादी कर लेते हैं, लेकिन कुछ सालों में ही उनका रोमांस ख़त्म होने लगता है. इसके बाद दोनों एक-दूसरे की उन आदतों से वाकिफ होते हैं जो उन्हें शादी से पहले नहीं पता थीं या पता होते हुए भी वह उन आदतों को अनदेखा कर दिया करते थे. आज जब तमाम रिश्ते नाते बिखर रहे हैं, ऐसे में सात जन्मों का मजबूत रिश्ता समझा जाने वाला पति-पत्नी का बंधन भी इससे अछूता नहीं है. सात जन्म तो क्या, सात साल भी इन रिश्तों को निभाना आज की पीढ़ी के लिए कठिनतम कार्य साबित हो रहा है. फिल्म की कहानी हिमांशु शर्मा ने लिखी है जो बेहतरीन है और इस कहानी में एक तरफ जहाँ आज की लड़कियों को रूढ़िवादिता से मुक्त होते हुए अपने जीवन के बारे में स्वतंत्र निर्णय लेते हुए दिखाया गया है, वहीं 'वफ़ा' की भारतीय परंपरा के प्रति भी फिल्म अपना असर छोड़ जाती है. चार साल की शादी शुदा ज़िन्दगी में एक-दुसरे से परेशान हो चुके तनु और मनु एकबारगी तो अलग चलने का फैसला कर लेते हैं, किन्तु फिल्म की अभिनेत्री का वह डायलॉग आपका दिल छू लेगा, जिसमें मनु कहती है "वाह शर्मा जी! हम थोड़े से बेवफा क्या हुए, आप तो बदचलन हो गए!"
देखा जाय तो इस संवाद में बदलते समाज की आहट स्पष्ट सुनायी देती है. लड़का, लड़की अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी से बेहद जल्दी बोर होने लगे हैं और इस क्रम में बेवफाई और बदचलनी की राह चुन लेना, उनके लिए बेहद साधारण सी बात बन गयी है. और इसके बाद, तलाक और अकेलापन. फिर कुछ दिन बाद, संभवतः दूसरी शादी, लिव-इन  और फिर वही असंतुष्टि. इस क्रम में, पढ़े-लिखे युवा समझ ही नहीं पाते कि बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स और प्रोग्राम्स को हल करने की क्षमता रखने वाले वह लोग शादीशुदा ज़िन्दगी के दो-चार साल में उलझ क्यों जाते हैं और न सिर्फ उलझ जाते हैं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत रूप से भारी असुरक्षा को जानबूझकर सब्सक्राइब कर लेते हैं. आश्चर्य की बात है कि, यह समस्त ऊहापोह शादी के 5 साल के दौरान ही उत्पन्न होती है. यदि, इतने साल बेहतरीन सामंजस्य बिठाने की कोशिश पति पत्नी की ओर से होती है और वह एक दुसरे को समय के साथ सम्मान देते हैं तो फिर यह रिश्ता चल जाता है. संयुक्त परिवार के दौर में सामाजिक दबाव, ऐसे रिश्तों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, लेकिन बदलता समय नयी चुनौतियों के साथ आया है. हालाँकि, कुछ मूलभूत संशोधन किया जाय, तो संयुक्त परिवार नामक संस्था औचित्यविहीन नहीं हुई है. संशोधन जैसे, व्यक्तिगत आर्थिक आज़ादी को सुनिश्चित कैसे किया जाय और नारी के आज़ादी अभियान के साथ परंपरा का तालमेल किस प्रकार बिठाया जाय. इसके अतिरिक्त भी विचारक कई अन्य व्यवहारिक उपायों पर चिंतन कर सकते हैं. बिडम्बना यह है कि परंपरा और आधुनिक बदलाव को कुछ विचारक परस्पर विरोधी समझने की भूल करते हैं, जबकि 'बदलाव' किसी पुरानी ईमारत के रख-रखाव जितना ही आवश्यक होता है. यही कारण है कि बदलते सामाजिक परिवेश को, विशेषकर नारी के सन्दर्भ में हमारे समाज में स्वीकृति आने में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लग रहा है. 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' जैसी फिल्में प्रश्न को उठाती जरूर हैं, किन्तु इन प्रश्नों का उत्तर तो समाज और सामाजिक चिंतकों को ही ढूंढना होगा. नारी के साथ रिश्तों को लेकर हमारे भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी रूढ़िवादी बना हुआ है, जबकि वैश्विक बदलावों के बढ़ते असर ने तनु और दत्तो जैसी बिंदास, आज़ाद ख़याल लड़कियों की संख्या में बड़ा इजाफा किया है. हालाँकि, इन प्रश्नों का वन-शॉट-सॉल्यूशन ढूंढने की उम्मीद पालना बचकाना ही है, किन्तु प्रयास जारी रखना ही मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है और यह फिल्म भी इस तरह की सार्थक उम्मीद की एक कोशिश दिखती है. अपने तरीके से, स्पष्ट बात कहती हुई.... !!
- मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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तीन बहुएँ - Teen Bahuein, hindi short story by Mithilesh Anbhigya

by on 07:27

कैसी हो रश्मि! मार्च में पड़ने वाले अपनी देवरानी के बच्चे के बर्थडे पर आनंदी उसके घर आयी थी.
ठीक हूँ दीदी, आप कैसी हैं!
मैं भी ठीक हूँ, रागिनी आ गयी है.
आने ही वाली है, फोन आया था उसका.
गाँव से आकर बड़े शहर के अलग-अलग हिस्सों में रहने वालीं तीन संपन्न बहुओं में रागिनी सबसे छोटी थी.
शाम को केक कटने के बाद किचेन में तीनों की गपशप शुरू हो गयी, उधर उनके तीनों पति दुसरे कमरे में बैठकर ठहाके लगाने लगे.
गाँव जा रही हो रश्मि इस गर्मी की छुट्टी में, आनंदी ने पूछा!
इस बार तो मैं नहीं जा पाऊँगी दीदी. पिछली बार राहुल की तबियत कितनी ख़राब हो गयी थी और कई बार कहने के बाद पापा हॉस्पिटल ले read-free-e-book-in-hindi-by-mithilesh2020गए थे.
और तुम रागिनी!
कहाँ दीदी, इस बार इनके ऑफिस वालों ने छुट्टी ही नहीं दी है, जल्दी से रागिनी ने भी बोला.
बढ़िया है, मुझे लगा मैं ही नहीं जा रही हूँ. वैसे भी, गाँव में गर्मी की छुट्टी एक बोझ बन जाती है. कुछ सामान मँगाओ तो आलस करके पापा लाएंगे जरूर, लेकिन कई दिन बाद.
हाँ यह तो है, आनंदी की देवरानियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई और तीनों मिलकर गाँव की असुविधा की बड़े मन से चर्चा करने लगीं.
गपशप के दौरान तीनों का हाथ किचेन में तेजी से चल रहा था.
मिक्सी देना रश्मि, चटनी के बिना इन भाइयों को खाना हज़म नहीं होता है.
मिक्सी तो पिछले हफ्ते से ख़राब है दीदी. इनको कई दिनों से बोल-बोल कर थक चुकी हूँ और यह टालमटोल कर जाते हैं. यही हाल तब हुआ था, जब पिछले महीने आयरन ख़राब हुआ था.
ये आदत तो इनकी भी ख़राब है, रागिनी ने अपने पति की पोल खोलनी शुरू की. ऑफिस जाते वक्त रोज अलग भुजिया टिफिन में चाहिए, लेकिन सब्ज़ी लाने को कह दो, तो यह चिढ जाते हैं. ज्यादा बोलो तो नौकरी में आ रहे प्रेसर को मुझे समझाने लगते हैं.
मेरे पति परमेश्वर तो सबसे बढ़कर हैं. घर पर बेशक पड़े रहे, लेकिन कोई काम बोल दो तो काटने को दौड़ पड़ते हैं. बच्चे का एक टीका बचा हुआ है, चिल्ला-चिल्ला कर थक चुकी हूँ और वह आज कल, आज कल कह कर टालते रहते हैं. मुझे समझ नहीं आता कि घर का काम ये लोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
इनसे अच्छे तो फिर गाँव पर पापा ही हैं...
थोड़ी देर के लिए, उनके बीच ख़ामोशी छा गयी, किन्तु पढ़ी लिखी बहुओं ने आँखों ही आँखों में जाने क्या इशारा किया और मुस्कुरा उठीं.
कुछ दिन बाद तीनों बहुओं के पति, समर वेकेशन में उनको गाँव पहुंचाकर वापस आ गए.
एक दिन रश्मि के पति ने उसको गाँव पर फोन करके पूछा, रश्मि! वह 'चटनी' कैसे बनाती हो....
अच्छा... !! मिक्सी बनवा ली आपने... !!
यह बात रश्मि ने जल्दी से अपनी जेठानी और देवरानी को बताया तो तीनों ठहाका मारकर हंस पड़ीं. आखिर, तीन बहुओं ने अपने पतियों का आलस जो दूर कर दिया था, वह भी इतने सीधे रास्ते से!
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

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Friday 22 May 2015

अनिवार्य है बिहार का नवोत्थान - Development of Bihar and the Politics

by on 09:55
यूं तो ऐसा कोई दिन नहीं, जब बिहार से सम्बंधित खबरें राष्ट्रीय सुर्खियां न बनती हों. बात चाहें राजनीति की हो, गरीबी की हो, पलायन की हो, जर्जर सड़कों की हो या स्कूल की चारदीवारियों पर चढ़े नक़ल कराते लोगों की हो, बिहार हर रोज राष्ट्रीय परिदृश्य पर चर्चा में बना रहता है. आज के दिन दो ख़बरों ने इस प्रदेश की ओर देखने और सोचने पर पुनः मजबूर कर दिया. पहली खबर थी, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी कृतियाँ 'संस्कृति के चार अध्याय' और 'परशुराम की प्रतीक्षा' के 50 वर्ष पूरा होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम, जिसमें हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित बिहार से सम्बंधित केंद्रीय मंत्री, साहित्यकार इत्यादि मौजूद थे. यूट्यूब इस कार्यक्रम के 1 घंटे के वीडियो को देखने पर आपको सुखद अनुभूति होगी. हम जैसे नयी पीढ़ी के लोग, जिन्हें बिहार की गौरवमयी संस्कृति का बहुत कम ज्ञान है, या जिन्हें बिहार के बारे में बहुत सकारात्मक ज्ञान नहीं है, उन्हें नरेंद्र मोदी की वेबसाइट या यूटूब पर मौजूद यह वीडियो जरूर देखना चाहिए. कहने को तो यह एक साहित्यिक कार्यक्रम था, किन्तु राजनीति के माहिर हमारे प्रधानमंत्री ने इस अवसर का प्रयोग बिहार विधानसभा के आने वाले Development of Bihar and the Politics, hindi article by mithilesh2020 - 22 mayचुनावों के लिए बड़ी ख़ूबसूरती से किया. रामधारी सिंह दिनकर के सहारे, प्रधानमंत्री ने अपनी चिर-परिचित शैली में बड़ी आत्मीयता से बिहार के लोगों को जाति की राजनीति से निकलने की सलाह दी. इशारे-इशारे में प्रधानमंत्री यह भी बताने से नहीं चुके कि यदि राजनीति की जातिवादी शैली से बिहार के लोगों ने किनारा नहीं किया, तो भारत के हृदय स्थल की तरह, हिंदी बेल्ट का यह महत्वपूर्ण प्रदेश, पिछड़ेपन की आग में जलते रहने को अभिशप्त होगा. देखा जाय तो, यह तथ्य कोई नया नहीं है कि बिहार के पिछड़ेपन और जाति-व्यवस्था पर आधारित राजनीति ने विकास की कमर तोड़कर रख दी है. विज्ञान भवन की इस खबर के अतिरिक्त जिस दूसरी खबर ने ध्यान खींचा, वह मशहूर लेखिका मधु किश्वर का एक बयान था. सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर का कहना है कि बिहार को 50 सालों के लिए ठेके पर सिंगापुर को दे दिया जाना चाहिए, और कुछ बेहतरी होने पर वापस ले लिया जाना चाहिए. ऐसा उन्होंने अपने ट्वीट में 19 मई को कहा, जब वे बिहार में सासाराम से पटना की ओर जा रही थीं. ख़राब रास्ते के साथ-साथ उन्हें ट्रेफिक जाम का भी सामना करना पड़ा था. उनके इस ट्वीट पर प्रतिक्रिया आज 22 मई को हुई, जब सोशल मीडिया के यूजर्स ने भारी संख्या में प्रतिक्रिया देनी शुरू की. हालाँकि, बाद में उन्होंने अपने ट्वीट पर सफाई जरूर दी, किन्तु वह मुद्दा तो उठ ही गया, जिसको लेकर सुशासन और विकास बाबू के नाम से मशहूर नीतीश कुमार अपनी पीठ ठोकते रहते हैं. वैसे नीतीश और उनके समर्थक कुछ भी कहें, किन्तु यह एक तथ्य है कि यदि कानून व्यवस्था में थोड़े सुधार को छोड़ दिया जाय, तो बिहार के हालात में दूसरा कुछ ठोस बदलाव हो नहीं पाया है. और वह बदलाव हो भी तो कैसे, क्योंकि राजनीतिक उठापठक का कई दशकों से कुरुक्षेत्र बना हुआ है बिहार. लालू यादव के जंगलराज के बाद, नीतीश और भाजपा को बहुमत मिला, किन्तु नीतीश कुमार की अव्यवहारिक राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा ने बिहार राज्य के राजनैतिक भविष्य को गहरे अनिश्चितता के भंवर में फिर फंसा दिया. और बिडम्बना देखिये कि जिस बिहार को राष्ट्रीय फलक पर बदनाम करने के लिए लालू यादव कुख्यात रहे हैं, वह एक बार फिर अपने दांव-पेंच के साथ बिहार के भविष्य का फैसला करने का खम ठोक रहे हैं. इस विधानसभा चुनावी गणित को छोड़ भी दिया जाय, तो हिंदी बेल्ट का प्रमुख राज्य होने के कारण और कई महत्वपूर्ण राज्यों से सीमाएं लगी होने के कारण, बिहार राजनीतिक रूप से हमेशा शक्तिशाली बना रहेगा. इसके अतिरिक्त, यहाँ से निकले तमाम प्रभावशाली लोग विभिन्न राज्यों में अपने पैर मजबूती से जमा चुके हैं और कई राज्यों में बिहारी लोग बाकायदा राजनैतिक रूप से भी सक्रीय हैं. इन सबके बावजूद, मूल बिहार की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, तो इसका हल जातिगत राजनीति से छुटकारा पाने में ही है, जैसा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा है. इसके अतिरिक्त किसी भी राज्य या देश की सबसे दुखद स्थिति तब हो जाती है, जब वहां से स्थाई रूप से प्रतिभा-पलायन हो जाता है. थोड़ा दुसरे शब्दों में कहा जाय तो जो सक्षम लोग हैं, यदि वही अपने गाँव, समाज, प्रदेश अथवा देश से भाग जायेंगे, तो उनकी मिटटी की रखवाली और उसकी सेहत का ध्यान कौन करेगा? इस भाव को प्रख्यात भोजपुरी नाटककार भिखारी ठाकुर ने भी अपने नाटक 'विदेशिया' में बड़ी सुंदरता से दर्शाया है. भोजपुरी साहित्य को थोड़ा भी प्यार करने वाले इस नाटक को जरूर पढ़ना चाहेंगे. इसके अतिरिक्त, अत्यधिक राजनीति भी हिंदी भाषी क्षेत्रों की एक समस्या बन चुकी है. चूँकि, बेरोजगारों के पास कोई काम नहीं है, इसलिए खाली समय में बेवजह की राजनीति करना इस क्षेत्र के पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह में शुमार हो चुकी है. बिहार के नवोत्थान के लिए इन तीन चीजों जातिगत-सोच, प्रतिभा-पलायन और बेवजह की राजनीति से मुक्त होना अति आवश्यक हो गया है, तभी यह प्रदेश अपना पुराण गौरव फिर से प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगा, और वगैर इस प्रदेश के नवोत्थान के भारतवर्ष का समग्र विकास भला कैसे हो सकता है. समग्र विकास का मतलब तो यही है कि प्रत्येक भाग विकास की दौड़ में समान रूप से सहभागिता करे. उम्मीद है आने वाले समय में, राजनेता और बिहार के प्रतिभाशाली लोग इस दिशा में कार्य करने की रफ़्तार को तेज़ गति देंगे.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Development of Bihar and the Politics
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Thursday 21 May 2015

लोकतंत्र की बाहें न मरोड़ी जाएँ - Respect the democratic system, hindi article

by on 10:26
बुद्धिजीवियों के एक समूह में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को हल्के रूप में पेश करने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है. आप तमाम विचारकों के लेखों को देखिये अथवा सोशल मीडिया पर नए रंगरूटों द्वारा चलाये जा रहे अभियानों पर गौर करें तो पाएंगे कि दिल्ली सरकार जैसी-तैसी, लड़खड़ाती, संभलती राजनीति के लंगड़े पावों को पूरी तरह तोड़ने की मजबूत कोशिश की जा रही है. हालिया विवाद का ऊपरी चेहरा दिल्ली के राज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई दिखती है, किन्तु परदे के पीछे इस अनुभवहीन सरकार को फेल करने की पूरी रणनीति नजर आ रही है. जहाँ तक बात अरविन्द केजरीवाल की है, तो उनका अड़ियलपन, अराजकता की हद तक अति उत्साह, तानाशाही की हद तक महत्वाकांक्षा और विरोधियों को ज़रा भी बर्दाश्त न कर पाने जैसी कमियां लगभग सिद्ध हो चुकी हैं. इन कमियों के बावजूद हम सबको भूलना नहीं चाहिए कि वह अभी भी जनता के चुने हुए नुमाइंदे ही हैं और इन तमाम अनुभवहीनता और बेवकूफियों के बावजूद लोकतंत्र का गला नहीं घोंटा जा सकता है. हो सकता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न मिलने के कारण उपराज्यपाल के पास ज्यादा शक्तियां हों लेकिन राजनीतिक और लोकतांत्रिक पैमाने पर देखें तो केजरीवाल अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, शिवराज चौहान, नवीन पटनायक जैसे अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तुलना में कहीं से भी कमतर जनप्रतिनिधि नहीं हैं. तो प्रश्न यहाँ उठता ही है कि आखिर इस तरह का टकराव क्यों? इस प्रश्न का उत्तर आपको आसानी से मिल जायेगा, जब आप हमारी मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का बड़ा ढोंग देखेंगे. दिल्ली की परिस्थिति में यह बात लगभग साफ़ है कि इसको पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि इसके एक नहीं हज़ार कारण हैं. देश के चुनावी लोकतंत्र में, जहाँ वोट के लिए जाति, सम्प्रदाय, आरक्षण, बदले की राजनीति जैसे हथियार आजमाए जाते हों, वहां दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मतलब देश की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाना होगा. ऐसी परिस्थिति में राजनीति में व्याप्त हिप्पोक्रेसी की परतें आसानी से खुलती दिखती हैं, जब सभी दल जान-बूझकर झूठा शोर मचाते हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए. साफ़ समझने वाली बात है कि पिछले दस साल तक दिल्ली और नई दिल्ली दोनों में कांग्रेस की ही सरकार थी, और ऐसे में यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य देने की ज़रा भी व्यवहारिक गुंजाईश होती तो यह कार्य हो चूका होता. भाजपा भी ढोंग करते हुए इसे पूर्ण राज्य बनाने का चुनावी वादा करती रही है. ऐसी ही परिस्थिति में हमारे देश में कुछ भी अनाप-शनाप चुनावी वादा करने वालों पर लगाम कसने की जरूरत दिखती है. जहाँ तक केंद्र और राज्यों के संबंधों में राज्यपाल की भूमिका का प्रश्न है तो इन सभी परिस्थितियों का ज्ञान वर्तमान प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा किसे होगा भला. आपको याद होगा कि लोकायुक्त की नियुक्ति हो अथवा दुसरे मामले, नरेंद्र मोदी और कमला बेनीवाल में कभी नहीं बनी और नरेंद्र मोदी राज्यपाल के तथाकथित हस्तक्षेप से खुद को पीड़ित बताते रहे. उत्तर प्रदेश के नवनियुक्त राज्यपाल राम नाइक और वहां के मंत्रियों के बीच में भी कई विवाद सामने आये. केंद्र और राज्य-संबंधों के पुराने पन्नों को टटोला जाए तो हम पाएंगे कि पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरी द्वारा नियुक्त राज्यपालों को समिति ने अपनी रिपोर्ट (1971) में इस बात की पुष्टि की कि, “राज्य के मुखिया के रूप में राज्यपाल के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में संविधान में लिखा हुआ है और किसी भी तरह वो राष्ट्रपति का एजेंट नहीं हैं (यानी केंद्र सरकार के).” इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सरकारिया ने केंद्र और राज्य संबंधों पर अपनी रिपोर्ट में राज्यपालों के चुनाव के बारे में कुछ दिशा निर्देश तय किए थे. रिपोर्ट में कहा गया था कि केवल उसी व्यक्ति को राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिए जिसने किसी क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया हो और प्रतिष्ठित व्यक्ति हो. इसमें यह भी सुझाव दिया गया है कि राज्यपालों के चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री को उपराष्ट्रपति और लोकसभा के स्पीकर से सलाह मशविरा करना चाहिए. हालाँकि बाद की सरकारों ने इन सुझावों पर कितना अमल किया, यह न ही पूछा जाय तो बेहतर रहेगा. तमाम नजीरों को देखकर यह साफ़ हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र की परंपरा में केंद्र और राज्यों के संबंधों में टकराहट होती ही रही है और शायद यही कारण है कि देश के विकास में संघ और राज्य उस तरह से सहभागी नहीं बन सके हैं, जिस प्रकार उन्हें होना चाहिए. दिल्ली तो खैर, पूर्ण राज्य है ही नहीं. पूर्ण राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री अक्सर केंद्र पर राज्यपाल के मार्फ़त हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते ही रहते हैं. दिल्ली की जंग में, थोड़ी अति होती जरूर दिख रही है. यह बात अलग है कि केजरीवाल सफल राजनेता होंगे या असफल, किन्तु हम उन्हें जल्दबाजी में लोकतंत्र की बाँहें मरोड़ कर असफल कैसे कर सकते हैं. मुख्य सचिव की नियुक्ति जैसे छोटे विवाद में मुख्यमंत्री की इच्छा का ध्यान रखा जाना चाहिए था. हालाँकि, केजरीवाल की कोई एक समस्या हो तब तो कोई सुलझाये. अपने समझदार साथियों को तो वह अपने कुनबे से कब का बाहर कर चुके हैं. योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े सहित तमाम अनुभवी लोग उनकी टीम से बाहर हो चुके हैं. और यह बात भला किसे नहीं पता होगी कि सरकारें ऊपर से बेशक संविधान द्वारा चलती दिखें, किन्तु अंदर से वह राजनीति से ही चलती है. 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर कोर्ट का नोटिश और आईएएस एसोशियेशन का विपरीत रूख, आने वाले दिनों में दिल्ली के मुख्यमंत्री की मुश्किलें बढ़ाएगा ही. इस पूरे प्रक्रम में जल्दबाजी करने के बजाय अति उत्साही केंद्र को भी केजरीवाल को सफल या असफल होने का स्वयं ही मौका देना चाहिए. अन्यथा केजरीवाल खुद को शहीद दिखाने को तैयार बैठे हैं. भाजपा और कांग्रेस, दोनों इस शहीद होने का राजनीतिक खामियाजा दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनवा में भुगत चुके हैं. इसलिए, लोकतंत्र की गरिमा तो करनी ही होगी, क्योंकि लोकतंत्र लोक - लाज पर ही तो चलता है. केजरीवाल सहित भाजपा और दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाय, लोकतंत्र को अपनी मरोड़ी जा रही बांह से राहत मिल जाएगी. जनता तो खैर, हर स्थिति में भुगतेगी ही.
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Saturday 16 May 2015

शिक्षा की दशा और दिशाहीनता - Our directionless education system

by on 09:51
ऑनलाइन खबरें पढ़ती हुईं दो ख़बरों पर मेरी नजर रूक गयी. हालाँकि, यह मुद्दा सनसनी पैदा करने वाला नहीं है, किन्तु हमारी जड़ों को खोखला करना अथवा मजबूत करना बहुत कुछ इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमता रहता है. पहली खबर बिहार से है, जहाँ पटना में आयोजित एक सम्मलेन में शामिल होने गए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक बच्चे ने निशब्द कर दिया. दरअसल सम्मेलन में नालंदा के रहने वाले सात साल के कुमार राज को बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर भाषण देने के क्रम में हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते हुए कहा कि सरकारी और निजी स्कूलों की व्यवस्था दो तरह की शिक्षा व्यवस्था कायम करती है, अमीरों के लिए अलग जिनके बच्चे नामी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने जाते हैं और गरीबों के लिए अलग जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं. इससे साफ मालूम चलता है कि प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों में शिक्षा का घोर अभाव है. आखिर क्या कारण है कि कोई भी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील यहां तक कि उस स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहते. यही वजह है कि हम बच्चे हीन भावना का शिकार हो जाते हैं.' बच्चे के भाषण पर तालियां तो खूब बजीं, किन्तु चिकने घड़ों पर एक मासूम की बात का भला क्या असर होगा. शिक्षा व्यवस्था से सम्बंधित, जिस दूसरी खबर ने ध्यान खींचा, वह जम्मू कश्मीर से है. जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने ओपन कोर्ट में एक टीचर को गाय पर लेख लिखने और क्लास चार के गणित के सवाल को हल करने के लिए कहा. जब टीचर इसमें नाकाम रहा तो कोर्ट ने मुकदमा दर्ज करने को कहा. इसके साथ ही जज ने राज्य के एजुकेशन सिस्टम पर कड़ी टिप्पणी करते हुए जज ने कहा कि निर्जीव प्रशासन को शिक्षा की दुकानें बंद कर देनी चाहिए. इन दोनों ख़बरों से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था Buy-Related-Subject-Book-beआखिर किस दशा में है. आपको इस तरह के हज़ारों उदाहरण, लगभग भारत के हर एक प्रदेश से मिल जायेंगे. कुछ प्रदेशों में तो बाकायदा स्कूलों की छतों और दीवालों पर चढ़कर नक़ल कराती तस्वीरें सोशल मीडिया पर जबरदस्त तरीके से वायरल हो जाती हैं. शिक्षा की इस दुर्दशा से अलग हटकर यदि हम इसकी दिशाहीनता की बात करते हैं तो यहाँ भी तस्वीर बेहद निराशाजनक है. इस सन्दर्भ में, मैंने आज ही इंटरनेशनल बेस्ट-सेलर किताब 'रिच डैड, पूअर डैड' किताब पढ़नी शुरू की. इस किताब के लेखक रोबर्ट टी. कियोसाकी ने शुरूआती पन्नों में ही बड़े स्पष्ट ढंग से समझाया है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था बदलते समय और चुनौतियों से मुकाबला करने में कतई सक्षम नहीं हैं. इसी किताब में कहा गया है, जो लगभग प्रत्येक रिसर्च में सिद्ध भी हो चुका है कि अमीरों और गरीबों के बीच फासला लगातार बढ़ता जा रहा है और ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है. थोड़ा अलग हट कर सोचें तो यह साफ़ दिखता है कि दुनिया के जो भी मिलेनियर या बिलेनियर हैं, वह स्कूली अथवा कालेज शिक्षा में बहुत मेधावी नहीं रहे हैं. इन समस्त कड़ियों को मिला दिया जाय तो यह बात भी कही जा सकती है कि आज की शिक्षा-नीति व्यक्तियों को पैसे बनाने के तरीके बताने में भी बहुत सक्षम नहीं है. ढेर सारे साक्षर, मगर बेरोजगार युवकों की फ़ौज भी इस बात की तस्दीक करती है. पैसा कमाने के अतिरिक्त, शिक्षा का जो दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलु है वह है किसी व्यक्ति के जीवन-स्तर में सुधार आना. इस विषय पर यदि बातचीत न ही की जाय तो बेहतर रहेगा. आखिर, तनाव, बीमारियां, परिवारों का टूटन, तलाक इत्यादि बढ़ रही मानवीय समस्याओं से हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था किस हद तक निपट पा रही है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. गाहे-बगाहे नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग चलती रहती है, किन्तु शामिल तो क्या होगा जो पुराना सम्बंधित पाठ्यक्रम है, उसे ही समूल रूप से हटा दिया गया है. हमारी नयी सरकार की 12 वीं पास मानव संशाधन मंत्री पर काफी कुछ कहा जा चुका है, किन्तु शिक्षा पर उठ रहे सवाल जस के तस हैं. भारत में आखिर, अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे पाठ्यक्रम से हमें क्या हासिल हो रहा है और हमें शिक्षा-नीति में किस तरह के बदलावों की जरूरत है, इस पर जब तक सरकार एक श्वेत-पत्र जारी करके बदलाव करने की कोशिश शुरू नहीं करती है, तब तक हमें निराशा के भंवर में ही डूबे रहना होगा. साथ ही साथ हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'कौशल-विकास' का सपना अधूरा ही रह जायेगा.
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Friday 15 May 2015

किसानों के साथ हमदर्दी या दिखावा देश के लिए घातक - Sympathy or something else with Indian Farmers

by on 09:44
भाजपा की पहली पूर्ण बहुमत सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी को अगर किसी मुद्दे पर सरदर्द हुआ है तो वह निश्चित रूप से किसानों की बदहाली का ही मसला है. यदि यह बात कही जाए कि किसानों की यह हालत कोई एक दिन में नहीं हुई है तो कोई गलत नहीं होगा, किन्तु इसके साथ यह भी उतना ही सच है कि किसानों के मसले पर अपने एक साल के कार्यकाल में मोदीजी ने ध्यान नहीं दिया है. एक बार वह रेडियो पर बहुचर्चित 'मन की बात' में किसानों से मुखातिब जरूर हुए, लेकिन जिन्होंने वह प्रोग्राम सुना होगा वह जान गए होंगे कि उसमें कोरे दिलासे और घुमावदार बातों के अतिरिक्त कुछ नहीं था, बल्कि उल्टे 'भूमि-अधिग्रहण' के मुद्दे पर मोदी किसानों की चिंताओं का समाधान करने के बजाय उसमें उलझते ही जा रहे हैं. यह तो रही सरकार की बात, किन्तु अपनी बहुचर्चित छुट्टी से लौटे राहुल गांधी किसानों के मुद्दे पर खूब शोर मचा रहे हैं. अपने शस्त्रागार से राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला करने के लिए एक से बढ़कर एक हथियार निकाल रहे हैं. कभी कांग्रेस में ही रहे वर्तमान में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को 'मिनी मोदी' कहते हुए राहुल ने अपनी तेलंगाना यात्रा के दौरान आरोप लगाया कि मोदी की तरह केसीआर भी किसानों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं. राहुल ने अपनी हमदर्दीenabling-agricultural-markets-for-the-small-indian-farmer-hindi-article सीरीज के अगले एपिसोड में कहा कि, 'जब ओलों, तूफानों और बेमौसम बारिश से किसान तबाह थे तब मोदीजी उनसे मिलने नहीं गए, तेलंगाना में 'मिनी मोदी' भी किसानों की बदहाली देखने नहीं गए.' अब भला कांग्रेस के युवराज को कौन समझाए कि पिछले 60 साल के दौरान उनकी पार्टी और उनके परिवार ने ही देश को नियंत्रित किया है और यदि किसानों की यह हालत है तो उसकी वास्तविक जिम्मेवारी के उत्तराधिकारी भी वही हैं. खैर, उनकी बेचैनी समझी जा सकती है. बिचारे की पार्टी तो सत्ता से बाहर है ही, उससे ज्यादा उन्हें अपने ऊपर लगी 'पप्पू' की इमेज से छुटकारा पाना ज्यादा जरूरी लगता है, लेकिन इस हमदर्दी और दिखावे के बीच किसानों की समस्याओं का कोई अंत नजर नहीं आ रहा है. देश में अभी भी सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि-क्षेत्र की हालत बद से बदतर होती जा रही है. देश के आम-ओ-खास सबने, मन ही मन यह मान लिया है कि खेती अब घाटे का ही सौदा है. हमारे देश के प्रधानमंत्री भी इस बात को मन ही मन स्वीकार कर चुके हैं, शायद इसीलिए वह 'मेक इन इंडिया' को लेकर उत्तेजना की हद तक छटपटा रहे हैं, जबकि किसानों की समस्याओं से उनकी सरकार ने पुराणों के रूख पर चलते हुए मुंह मोड़ रखा है. प्रश्न यह है कि यदि कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है, तो उस पर अध्ययन कराकर यह सरकार एक श्वेत-पत्र क्यों नहीं जारी करती है कि किसान भाइयों! अब खेती छोड़ दो, क्योंकि इसमें तुम्हारी आजीविका और भविष्य नहीं है. इस घोषणा के साथ यह सरकार यह हल भी दे कि कृषि के बदले किसान भाइयों को 'मेक इन इंडिया' या इस जैसे अन्य 'स्किल-डेवलपमेंट' अभियानों में ही रोजगार मिलेगा. यहाँ दो बातें निकलती हैं, जिसे दुहराना जरूरी है कि यदि खेती घाटे का सौदा है तो 60 करोड़ से ज्यादा किसानों से उसे छोड़ने के लिए सरकार स्पष्ट कहे और उन सभी को दूसरी जगह एडजस्ट करे. आंकड़े सुनकर आप चौंक जरूर जायेंगे, किन्तु क्या किसी प्रोग्राम में इतनी कूवत है कि वह किसानों को किसी और क्षेत्र में एडजस्ट कर सके? तो इसका साफ़ जवाब है- नहीं!
तो फिर यह बड़ा क्षेत्र अनदेखा क्यों? एक तरफ विदेशी-संबंधों को मजबूत करने के लिए विश्व में शायद नरेंद्र मोदी सर्वाधिक सक्रीय राजनेता हैं और उद्योग-धंधे लगाने के लिए तमाम उद्योगपतियों, सरकारों से बातचीत भी कर रहे हैं, किन्तु कृषि-क्षेत्र को लेकर उनकी नीतियों में 'शून्यता' क्यों है, इस बात का जवाब ढूंढें नहीं मिलता है. क्या अपनी विदेश-यात्राओं में प्रधानमंत्री देश की कृषि में भी इन्वेस्टमेंट और वैज्ञानिकता को आमंत्रित कर रहे हैं, या उन पर लगा यह आरोप कुछ हद तक सच है कि वह उद्योगपतियों के लिए काम कर रहे हैं. लगता है गुजरात के विकास और समृद्धि की क्रेडिट लेने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने वहां की समृद्धि के कारणों को ठीक से समझा नहीं है, अन्यथा वहां डेयरी-उद्योग और सहकारी व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने के लिए कोई मेक इन इंडिया जैसा ही 'रिवाईव द एग्रीकल्चर' जैसा कोई अभियान छेड़ते, जिसमें किसानों का हित निश्चित होता. किसानों की समृद्धि के लिए क्या सरकार अपने स्तर पर और व्यापारियों पर दबाव बनाकर कालाबाजारी पर लगाम नहीं लगा सकती है अथवा सप्लाई-चेन को दुरुस्त करने का मजबूत फैसला क्यों नहीं ले सकती है. लघु-उद्योग और स्वदेसी के पैरोकार बाबा रामदेव भी शायद मोदी महाशय को समझा नहीं पा रहे हैं कि जैसे उनके पतंजलि ने मार्केटिंग और पैकिंग से लम्बा-चौड़ा साम्राज्य खड़ा किया है, वैसी पैकिंग और मार्केटिंग यूनिट, किसानों के लिए प्रत्येक जिले में क्यों नहीं स्थापित की जा सकती है, जो किसी मैगी, कुरकुरे, पेप्सी इत्यादि को टक्कर दे सके. स्किल डेवलपमेंट पर ज़ोर देने वाले प्रधानमंत्री कृषि से सम्बंधित विशिष्ट पाठ्यक्रमों को शुरू करने की सम्भावना पर विचार क्यों नहीं कर सकते. वैसे भी उनकी टीम पर शिक्षा में भगवाकरण करने का आरोप लगता ही रहता है तो वह क्यों नहीं विश्वविद्यालओं के पाठ्यक्रमों में कृषि और उनके उत्पादों से सम्बंधित विषय शुरू कराने की पहल करते हैं. आखिर, सर्व शिक्षा अभियान या पल्स-पोलियो की तरह ऐसा कोई अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता, जिसमें युवा पीढ़ी का कुछ भाग ही सही, कृषि-क्षेत्र में अपना भविष्य Buy-Related-Subject-Book-beदेखे. आखिर, आज ऐसे कितने रिसर्च संस्थान हैं या प्राइवेट इंस्टिट्यूट हैं जो कृषि पर रिसर्च करते हैं. यदि यह सारा कार्य मोदी सरकार नहीं कर सकती तो नई दिल्ली स्थित आरपीजी फाउंडेशन थिंक टैंक के अध्यक्ष डी.एच.पाई का आंकलन सही होगा, जिसमें उन्होंने कहा है कि, 'ऐसी धारणा बन रही है कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा संकट से निपटने के लिए बहुत ही धीमी प्रतिक्रिया दे रही है. स्थिति से सही ढंग से अगर नहीं निपटा गया तो संकट पैदा होगा और आर्थिक सुधारों की योजना पर पानी फेर देगा.' हालांकि भारत की 2000 अरब डॉलर की इकॉनमी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा महज 15 फीसदी ही है, लेकिन इससे हिंदुस्तान के 60 फीसदी लोगों को आजीविका मिलती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका गहरा राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा. एक साल पहले मोदी सरकार ने जिस विपक्षी कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह शिकस्त दी थी और इस शिकस्त के बाद कांग्रेस पार्टी राजनीतिक पटल से करीब-करीब गायब हो गई थी अब कांग्रेस पार्टी के युवराज इसका फायदा उठाने में जी-जान से जुट गए हैं. लेकिन, राजनैतिक असर से ज्यादा नुक्सान समग्र भारत के विकास पर पड़ना तय है और यदि किसानों की समस्याओं को समय रहते हल करने की कोशिश नहीं की गयी, तो भारत शायद 'तीसरी दुनिया का देश' ही बना रहेगा और पश्चिमी देश उसके राजनीतिक, व्यापारिक और सामाजिक कर्णधारों पर हँसते रहेंगे और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं के माध्यम से कहते रहेंगे कि देखो! यह भारत का नेता है, उद्योगपति है, जहाँ 40 करोड़ लोग एक समय भूखे सोते हैं या वह यह कहकर इन आकाओं को शर्मिंदा करेंगे कि इस गरीब देश में लोग आजीविका के लिए हज़ारों की तादात में आत्महत्या करते हैं. फिर, प्रधानमंत्री जी! आप देश को सुपर-पावर बनाते रहिएगा और काला चश्मा पहनकर चीन की टेराकोटा आर्मी को निहारते हुए गौरवान्वित होते रहिएगा, उससे असली भारत या किसानों को भला क्या फर्क पड़ेगा!!
Sympathy or something else with Indian Farmers
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Thursday 14 May 2015

अँधेरे में कूटनीतिक तीर - India China relations and world politics

by on 08:08
प्रधानमंत्री की बहुचर्चित चीन यात्रा की बड़ी चर्चाएं हैं. चूँकि अब संघी ही सत्ता में हैं, इसलिए चीन के प्रति बड़े मधुर बयान देकर कूटनीति को साधने की कोशिश हो रही है. भाजपा तो खैर पीआर की कोशिशों में लगी ही है. इस कड़ी में यथार्थवादियों को कोई खास उम्मीद नहीं है और उसका कारण भी बड़ा स्पष्ट है, जो सरकारी अमले के अतिरिक्त पूरी दुनिया को दिखता है. वह कारण है चीन के सरकारी महकमों द्वारा लिए जाने वाले फैसले, वहां की सरकारी मीडिया द्वारा उकसावे वाली खबरें 'बेपरवाह' होकर छापना, भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में गहरी मगर नकारात्मक दिलचस्पी रखना और अरुणाचल प्रदेश को लेकर बेहद अव्यवहारिक रवैया अख्तियार करना. यह कुछ तार्किक कारण हैं, जिनसे साफ़ जाहिर होता है कि चीन अपने मजबूत पड़ोसी से दोस्ती को ज़रा भी राजनैतिक अहमियत नहीं देता है. थोड़ा और गहराई से संबंधों की पड़ताल की जाए तो चीन और भारत की जनता ही नहीं, बल्कि दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे को शत्रु ही मानती हैं और ऊपर से चाहे कितनी ही बयानबाजी क्यों न की जाय, सच यह है कि यह शत्रुतापूर्ण रवैया घटने की बजाय लगातार बढ़ ही रहा है. भारत के उप सेनाप्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फिलीप कैम्पोस का वह बयान बिलकुल भी हैरान करने वाला नहीं है, India-China-Relations-hindi-articleजिसमें उप सेनाप्रमुख ने कहा है कि इस सदी में कभी भी चीन और भारत के बीच जंग हो सकती है. यदि कारणों की पड़ताल की जाय तो, यह बयान कोई भावनात्मक बयान भी नहीं दिखता है. भारत का पारम्परिक शत्रु और इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान एक मूर्ख और अक्षम देश साबित हो चूका है. इस देश ने पिछले दशकों में कई आत्मघाती कदम उठाये हैं, ठीक किसी आत्मघाती हमलावर की ही तरह, जो विस्फोट में खुद को उड़ाकर यह भ्रम रखता है कि जन्नत में उसे कई हूरों के दर्शन होंगे. शीत युद्ध के समय और उसके बाद के काल में अमेरिका के चंगुल में यह देश रहा है. किन्तु सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका की सक्रियता इस देश में धीरे-धीरे कम हुई है और चीन की उतनी ही तेजी से बढ़ी है. थोड़ा अतिश्योक्ति से कहा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका, चीन को भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने की खुली छूट दे चूका है. रणनीतिक लिहाज से ऐसा करना अमेरिका की मजबूरी भी हो सकती है. आखिर, वह भारत, पाकिस्तान या चीन के आपसी पचड़े में अपना नुक्सान क्यों करे? उसके आर्थिक हित जितने भारत के साथ हैं, उतने ही चीन के साथ. आखिर, एप्पल आईफोन की बिक्री पूरे विश्व में सर्वाधिक चीन में होने का रिकॉर्ड बना है. इसके साथ-साथ अमेरिका का चेहरा इस्लाम-विरोधी न बने, इसलिए पाकिस्तान का महत्त्व भी उसके लिए समाप्त नहीं हुआ है. अब उसने इन तीनों देशों के साथ एक सामान रणनीति अपना रखी है. भारत के नीति-निर्माता इस बात का भ्रम पाले बैठे हैं कि अमेरिका की वैश्विक गद्दी खतरे में है, इसलिए वह चीन के विरुद्ध भारत का खुलकर साथ देगा, जबकि यह सोचना सिरे से गलत है. न तो अमेरिका की सुपर-पावर स्टेटस पर कोई खतरा है और चीन अकेले तो क्या, रूस और भारत इत्यादि जैसे एशियाई गुट एक होकर भी पश्चिमी वर्चस्व के खिलाफ काम करें तो भी उस पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला. न तो आर्थिक रूप से, न सामाजिक रूप से और न ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से. चीन और भारत समेत एशियाई देश अभी कई मानकों पर बेहद पिछड़े हैं. यही कारण है कि उनके सामाजिक, राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक मुद्दे बेहद उलझी हुई स्थिति में हैं. ऐसे में वह वैश्विक नेतृत्व कहाँ से करने लगे? चीन में आतंरिक लोकतंत्र और लगभग सभी पड़ोसियों से दुश्मनी की स्थिति उसके वैश्विक चेहरे को झूठा साबित करती है, वहीं भारत की स्थिति भी कमोबेश यही है, सिवाय लोकतंत्र के. क्या कभी आपने कनाडा और अमेरिका के बीच राजनैतिक या दूसरी किसी बड़ी समस्या के बारे में सुना है? या फिर अमेरिका और मेक्सिको के बीच? या फिर उसके सहयोगी यूरोपीय राष्ट्रों के बीच? सच तो यह है कि अमेरिका की वैश्विक राजनीति और उसकी लॉबिंग इतनी मजबूत है कि जी-20 के सिडनी सम्मलेन में वह रूस जैसे मजबूत देश के राष्ट्राध्यक्ष पुतिन की खुलेआम बेइज्जती कराता है और कभी शीर्ष वैश्विक ताकत रह चुके रूस को सम्मलेन बीच में छोड़कर भागना पड़ता है. अमेरिका के इस सहित दुसरे तमाम वैश्विक क़दमों का विरोध करने का साहस चीन में भी नहीं है. हाँ! इतना जरूर है कि वह भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभाव बढ़ाने को लेकर अमेरिका को नजरअंदाज करने की स्थिति में पहुँच चुका है. अमेरिका का भी इस क्षेत्र में तनाव बना रहे, इसी में आर्थिक और वैश्विक हित छुपा हुआ है. इसीलिए राजनीति के नियमानुसार अमेरिका अभी चीन और भारत के बीच तनाव को और बढ़ावा देने वाला ही है. इस पूरे परिदृश्य में भारतीय नेतृत्व आज़ादी के बाद से ही बेबश रहा है, विशेषकर चीन के सन्दर्भ में. वस्तुतः भारत-पाकिस्तान विवाद और चीन के साथ 1962 की जंग ने भारतीय कूटनीति के लिए वैश्विक स्तर पर बहुत गुंजाइश छोड़ी ही नहीं है. इस बीच में भारत के ढुलमुल लोकतंत्र और स्वार्थपरक राजनीति ने उसके आर्थिक, सामाजिक, सैन्य और वैज्ञानिक प्रगति की संभावनाओं को पीछे ही धकेला है, जबकि इस दरम्यान चीन के सख्त सरकारी तंत्र ने इन मामलों में बेहद प्रगति करने में महत्वपूर्ण रोल अदा किया है. हालाँकि, भारतीय लोकतंत्र ने उसे शेष विश्व के साथ जोड़ा जरूर है, किन्तु दुःख की बात यह है कि शेष विश्व से हम एकतरफा संवाद ही कर पाये हैं और अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों ने हमारी क्रीम 'मानव संसाधन' का अपने लिए, बेहद चालाकी से इस्तेमाल ही किया है. प्रधानमंत्री की चीन यात्रा के सम्बन्ध में चाहे जो भी कहा जाय, किन्तु यह तय है कि हाल-फिलहाल भारत और चीन आपस में लड़ते ही रहने वाले हैं. इसमें सर्वाधिक फायदा अमेरिका का है और वह भारत का साथ कतई नहीं दे सकता, यह भी लगभग तय है. इस कड़ी में वगैर लॉग-लपेट के कहा जा सकता है कि भीषण आर्थिक और सामाजिक प्रगति के साथ उच्चतम वैज्ञानिक प्रगति के वगैर चीन से मुकाबला कठिन ही नहीं, नामुमकिन भी है. अब प्रश्न यह है कि क्या मेहनतकश (?) भारतीय और भारतीय राजनीति इस मुकाबले के लिए तैयार है या वह व्यक्तिगत सक्षम होते ही अमेरिका और दुसरे यूरोपियन कंट्री में पलायन का दौर जारी रखेगी और राजनेता, स्वार्थप्रेरित राजनीति को जारी रखकर सामाजिक प्रगति को नुक्सान पहुंचाते रहेंगे या उनकी नीति बदलेगी? हालाँकि, वर्तमान भारतीय नेतृत्व ने कुछ आस जरूर जगाई है, किन्तु यह ऊंट के मुंह में जीरे जैसा ही है. यकीन मानिये, यदि इन प्रश्नों से पार पा लिया गया तो न सिर्फ चीन के साथ, बल्कि शेष विश्व के साथ भी संबंधों में हम 'अँधेरे में तीर' चलाने वाली कूटनीति से पार पा जायेंगे.
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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Wednesday 13 May 2015

अपरिपक्व लोकतंत्र - Immature Democracy

by on 09:18
azam-khansakshi-maharajsikkhलोकतंत्र मूर्खों का तंत्र है, ऐसा किसी विचारक ने कहा है तो दुसरे विचारकों ने इस भीड़ बनाम भेड़-तंत्र की संज्ञा देने से भी गुरेज नहीं किया है. भीड़ तंत्र से अभिप्राय यह निकाला जा सकता है कि वगैर सही अथवा गलत की परवाह किये, एक के पीछे दूसरा और फिर उसके पीछे अंधी दौड़ लगाने का सिलसिला चल निकलता है. यूं तो इस सन्दर्भ में तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन हालिया उदाहरण तमाम समुदायों के तथाकथित धर्मगुरुओं या ठेकेदारों के उन बयानों का है जो एक से बढ़कर एक तर्क-कुतर्क देकर आबादी बढाने की पैरवी कर रहे हैं. जी हाँ! अभी पिछले दिनों आये एक सर्वे में भले ही 40 करोड़ गरीब व्यक्तियों द्वारा मात्र एक समय ही भोजन करने की बात सामने आयी हो या फिर विकसित देश, विभिन्न मंचों पर भारत की गरीबी और बदहाली का भले ही मजाक उड़ाते हों, किन्तु आज भी बड़े ज़ोर-शोर से अपने समुदाय की आबादी बढ़ाने की न सिर्फ खुलेआम वकालत की जा रही है, बल्कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की तर्ज पर विभिन्न लुभावने प्रस्ताव भी पेश किये जा रहे हैं. जी हाँ! कोई बयानवीर यह बयान देता है कि उसके समुदाय में जिस घर में 10 से ज्यादा बच्चे होंगे, उस दंपत्ति को लाख रूपये देकर सम्मानित किया जायेगा, तो दुसरे समुदाय का ठेकेदार ढेरों बच्चे पैदा करने को ऊपरवाले की नेमत बताने से नहीं चूकते हैं. इस कड़ी में जो सबसे शर्मनाक कुतर्क दिया जाता है, वह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र पर ही गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता दिखाई देता है. यह सभी बयानवीर लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए अपने लोगों को खुलेआम कहते दिखते हैं कि यदि ज्यादा बच्चे पैदा करोगे, तो तुम्हारे पास ज्यादा वोट होंगे और ज्यादा वोट होंगे तो सरकार में तुम्हारी और तुम्हारे समुदाय की ही सुनी जाएगी. इस बात को बेशक हंसी में टाल दिया जाय, किन्तु यह बात शर्मनाक चिंता की हद को भी पार कर चुकी है. बढ़ती आबादी के आलम की बात करें तो देश के बड़े महानगर जिनमें दिल्ली, मुंबई या किसी दुसरे शहर का नाम लिया जाय, सामान्य नागरिक सुविधाओं से महरूम हैं. देश की राजधानी दिल्ली की ही बात की जाय तो यहाँ की आधी से अधिक आबादी को पीने के पानी के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता है. अनगिनत अनधिकृत कालोनियां, जिनमें सीवर, सड़क और दूसरी बुनियादी चीजों की आवश्यकता होती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. तमाम राजनेता इन सभी समस्याओं के लिए बढ़ती आबादी के भार को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी राजनीति करते रहते हैं. मुंबई जैसे शहरों में बाकायदा इसी आबादी और अधिकारों की लड़ाई के लिए सड़कों पर मारपीट होती रहती है. गरीबी का देश में आलम यह है कि शहरों से लेकर गाँव के किसी सड़क-चौराहे पर आप कुछ देर खड़े हो जाएं, वहां आपको देश का तथाकथित विकास हाथ फैलाये नजर आ जायेगा. पर प्रश्न यहाँ बढ़ती आबादी और दमघोंटू समस्याओं पर चर्चा करने का नहीं है, बल्कि प्रश्न अपने लोकतंत्र के उस मोड़ पर पहुँचने को लेकर है, जहाँ अशिक्षा को बरकरार रखने और उस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के खुलेआम षड़यंत्र किये जाते हैं और देश की व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के रूप में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ या तो मूक-दर्शक बनकर यह सारे दृश्य देखता रहता है, अथवा इस पाप में खुद भी सहभागी बनता है. इस तंत्र को आखिर क्यों अपराधी नहीं माना जाय? विभिन्न समुदायों के लिए वह आखिर एक समान कानून का निर्माण क्यों नहीं कर सकता है, जिसमें दो से ज्यादा बच्चे पैदा करना अपराध घोषित हो जाय. फिर कोई भी समुदाय या उसका तथाकथित ठेकेदार इस विषय पर राजनीति कैसे कर पायेगा. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में अशिक्षा और अपरिपक्वता यहीं नजर आती है क्योंकि समस्याओं को हल करने के बजाय यह नेता इन तथाकथित ठेकेदारों का चुनावी राजनीति में जमकर प्रयोग करते हैं और न्यायपालिका की अपनी सीमाएं हैं. मीडिया भी इन बयानों पर सनसनीखेज खबरें बनाकर अपनी टीआरपी बढाने में लगा रहता है और बढ़ती आबादी के भार तले भारत का लोकतंत्र हमेशा की तरह सिसकता रहता है.
-मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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Tuesday 12 May 2015

न्यायिक अन्तर्विचार की आवश्यकता - Justice in Indian Democracy

by on 06:27
पिछले दिनों दो उच्च न्यायालयों द्वारा दो फैसले आये हैं, जिसने सोशल मीडिया समेत विभिन्न माध्यमों में व्यापक बहस छेड़ दी है. एक फैसला सिने-स्टार सलमान खान की मुंबई हाई कोर्ट द्वारा तीन घंटे में ज़मानत दिया जाना है तो दूसरा बहुचर्चित फैसला अन्नाद्रमुक की सुप्रीमो जे.जयललिता की चेन्नई हाई कोर्ट द्वारा बल्कि दोनों मामलों की सरसरी तुलना भी कर दे रहे हैं. ध्यान से देखा जाय तो दोनों मामलों की तुलना न्यायिक फैसले की सतही समझ है, क्योंकि दोनों मामलों की प्रवृत्ति में ज़मीन आसमान का अंतर है. जयललिता के खिलाफ श्रोत से अधिक आमदनी का मामला चलाया गया, जो पिछले दशक में विरोधियों के खिलाफ एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. इसके तार निश्चित रूप से कहीं न कहीं केंद्रीय जांच एजेंसी 'सीबीआई' से भी जुड़े हुए हैं, जिसका आरोप राजनेता लगाते ही रहते हैं. थोड़ा राजनैतिक दृष्टि से देखा जाय तो अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सत्तासीन है. नरेंद्र मोदी की जयललिता से नजदीकियों की खबर लगभग प्रत्येक अख़बार में छपती ही रहती है. ऐसे में हम सीबीआई के रोल का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं. सीबीआई के इसी तरह के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इस जांच एजेंसी को 'तोता' तक कह दिया था, जिस पर तब बड़ा हो हल्ला मचा था. जयललिता की ज़मानत के फैसले को देखा जाय तो आम जनमानस की वैसे भी इसमें कोई ख़ास रुचि नहीं हो सकती, क्योंकि नेता शब्द ही इस तरह के मामलों की लीपापोती करने में काफी साबित होगा. यह केस सोशल मीडिया इत्यादि माध्यमों पर चर्चा में इसलिए आ गया क्योंकि सलमान पर आये हाई-कोर्ट के फैसले ने मध्यम-वर्ग की सोच में एकबारगी उबाल तो ला ही दिया था, इसी बीच जयललिता पर कोर्ट का फैसला आ गया, अन्यथा यह मामला उतना चर्चित न होता. दूसरी ओर सिने स्टार सलमान खान पर हाई कोर्ट के फैसले से न सिर्फ आम जनमानस, बल्कि पूर्व पुलिस कमिश्नर और अब भाजपा के एमपी सत्यपाल सिंह, किरण बेदी सहित कई जाने माने न्यायविदों ने भी दबे स्वर में अपनी राय जाहिर की. वैसे भी सलमान खान का मामला कोई राजनीतिक मामला तो था नहीं, बल्कि उनकी लापरवाही से भारतीय नागरिकों के जान जाने और घायल होने का था. निचली अदालत ने बड़े स्पष्ट स्वरों में सलमान खान को दोषी साबित करते हुए अपने फैसले में कई मजबूत दलीलें पेश की थीं, जिसमें घटना के समय उनका भाग जाना और घायलों को अस्पताल न पहुँचाने जैसे चारित्रिक सवाल भी उठाये गए थे. इस मानवीय केस के हाई-प्रोफाइल होने से भी आम-ओ-ख़ास सबकी नजर बनी हुई थी और लोगों ने देखा कि कैसे भारत के बड़े वकीलों ने पूरे मामले को मैनेज किया. यही नहीं, जजों ने भी तय परम्पराओं से अलग हटते हुए देर शाम तक ऑफिस में कार्य किया और सिने स्टार की जमानत सुनिश्चित की. ऊपर से महाराष्ट्र सरकार ने सलमान को मिली ज़मानत का विरोध न करने का फैसला लेकर लोगों को यह व्याख्या करने को मजबूर किया कि कहीं सलमान खान के तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री के साथ पूर्व में 'पतंग उड़ाने' का सरकारी लाभ तो नहीं मिल रहा है.  सच पूछा जाय तो दोनों मामलों में मूल अंतर यही था कि एक केस को आम आदमी खुद से जोड़कर देख रहा था, जबकि दूसरा केस निरा-राजनीतिक था. बुद्धिजीवी यह आशा करते हैं कि सलमान खान के बारे में आयी हाई कोर्ट की ज़मानत ने जिस तरह इस मुद्दे को हाई-लाइट किया, उससे आतंरिक तौर पर ही सही, भारत की न्याय-व्यवस्था भी आत्म-मंथन को तैयार हुई होगी. आखिर, इस देश में न्यायिक सुधार की बात कब से कही जा रही है, उस पर कुछ कार्यवाही तो होनी ही चाहिए क्योंकि जनता यह महसूस करती है कि संविधान की नजर में देश का प्रत्येक नागरिक समान है. आखिर यह कैसा लोकतंत्र और उसकी न्याय-व्यवस्था है कि लाखों कैदी बिना आरोप के जेलों में सड़ें और एक रसूखदार व्यक्ति को सुपर-स्पीड से ज़मानत मिल जाए, इस बात पर अन्तर्विचार होना ही चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की न्यायिक मर्यादा सिर्फ इस अन्तर्विचार से ही सुरक्षित रह सकती है.
पिछली यूपीए की सरकार में जयललिता की विरोधी पार्टी द्रमुक शामिल थी, और
निचली अदालत के फैसले को रद्द करके पूर्व मुख्यमंत्री को ज़मानत दिया जाना है. सोशल मीडिया पर चल रही चर्चा में दोनों मामलों की एक सिरे से तुलना करके न्याय के ऊपर पैसे और रसूख के हावी होने की चर्चा की जा रही है. हालाँकि, अदालती आदेश की अवहेलना अपने आप में एक अपराध है, फिर भी नपे-तुले, दबे स्वरों में लोग अलग तरीकों से दोनों फैसलों पर न सिर्फ नाराजगी जाहिर कर रहे हैं,
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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Thursday 7 May 2015

बॉलीवुड - short story on bollywood by mithilesh anbhigya

by on 07:28

बड़ी सरगर्मी थी फिल्म इंडस्ट्री में. गलाकाट प्रतिस्पर्धा और कास्टिंग काउच के सबसे बड़े केंद्र के रूप में कुख्यात बॉलीवुड में लोग एकता का प्रदर्शन करते हुए सुपर स्टार सल्लू चौहान के घर पहुँच रहे थे. उनको किसी गरीब की हत्या के मामले में कोर्ट द्वारा सजा सुनायी गयी थी और वह ज़मानत पर अपने फ्लैट पर मौजूद थे.
उधर गैलरी के बाहर कैमरे वाले हीरो-हीरोइनों के पोज लेने के लिए दम साधे खड़े थे.
एक-एक करके स्टार पहुँचते रहे और बाहर कैमरे वालों की पौ-बारह थी. आखिर, उनको दुखीहोने के विभिन्न पोज जो मिल रहे थे. मि. चौहान के dabangg-2-salman-khanसाथ हुए अन्याय की दुहाई दे देकर तमाम कैरेक्टर दुखी हो रहे थे. कुछ अभिनेता और अभिनेत्रियां तो कई-कई नैपकिन साथ लेकर चल रहे थे, क्योंकि उन्हें कई पत्रकारों के सवालों का सामना जो करना था.
सुपर स्टार चौहान की को-स्टार रहीं मिस रागिनी किसी नए फ़िल्मी पत्रकार से अपना दुःख साझा कर रहीं थी कि सल्लू चौहान एक महान अभिनेता और मानवता से परिपूर्ण इंसान हैं, उनको इस हत्या के लिए माफ़ कर दिया जाना चाहिए. और यह कहते हुए फफक पड़ीं.
मैडम... मैडम ... थोड़ा बाएं घूम जाइये, फोटो ठीक नहीं आ रहीं है. एक 'टेक' और ... प्लीज!
ओके! और मिस रागिनी सही पोज में खड़े होकर एक बार फिर रो पड़ीं.
मैडम .. मैं... थोड़ा रुक जाइये प्लीज! थोड़ा और बाएं .... पत्रकार शायद नया था!
क्या यार, कहाँ से चले आये हो... ये लास्ट है मेरा...
और इस हसीना ने रोने का तीसरा टेक दिया.
बहुत खूब मैडम, जबरदस्त तस्वीर आयी है आपकी, कल 'दैनिक सिनेमा अख़बार' में आप सब पर भारी ... ... ..
सच, अभिनेत्री के चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी... पर जल्द ही अगले पत्रकार के लिए बॉलीवुड के चरित्र ने अपनी सूरत फिर रूआंसी बना ली.
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ' (More @ www.mithilesh2020.com)

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Tuesday 5 May 2015

अनसुलझा प्रश्न - Unsolved question, hindi short story by Mithilesh Anbhigya

by on 22:59

रोज की तरह निर्मल अपने नर्सरी में पढ़ने वाले बेटे को छोड़ने स्कूल गया तो गेट पर उसकी क्लास टीचर खड़ी थीं.

स्वभाववश निर्मल ने अभिवादन किया तो इशारे से मैडम ने उसे अपने पास बुलाया तो उसे लगा कि बेटे के बारे में कुछ सुझाव या शिकायत होगी शायद!

जी मैडम!

वो आपसे कुछ बात करनी है...

जी!

प्रिंसिपल सर से नहीं कहियेगा!play-school-nursery-rhymes

जी.

वो मैं इन्सुरेंस का काम भी करती हूँ, तो बेटे के भविष्य के लिए आप एक पालिसी... ..

पहले तो निर्मल को आश्चर्य हुआ, फिर उसने खुद को संभाल लिया. आखिर, इन्सुरेंस वालों से कइयों की तरह उसका भी पाला पड़ चूका था.

झट से झूठ बोला- वो मैडम मैं जरूर कराता लेकिन मेरा भाई भी यही काम करता है.

अपना भाई है, मैडम भी कम न थीं.

जी! बिलकुल सगा और बड़ा भाई.

तभी स्कूल की प्रार्थना शुरू हो गयी और निर्मल जल्दी से जान छुड़ाकर निकला.

घर आकर उसने अपनी पत्नी को इस बारे में सावधान किया तो पत्नी सहानुभूति से बोली कि- अच्छे कहे जाने वाले प्राइवेट स्कूलों में भी इन टीचरों को मिलता ही क्या है! यही 3 - 4 या 5 हजार और किसी-किसी स्कूल में तो 2 तक ही देते हैं. ऐसे में उन बिचारियों का काम कैसे चले!

इतना कम, आश्चर्य से निर्मल की आँखें फ़ैल गयी. इतने में तो झाड़ू-पोछा भी .. ..

हाँ! झाड़ू पोछा वाली भी इससे ज्यादा लेती है.

निर्मल सोच रहा था कि बच्चों का भविष्य वाकई किधर जा रहा है और इसके लिए जिम्मेवार कौन है.

क्या वह क्लास टीचर, या स्कूल प्रबंधन या हमारा ताना बाना..... ...

पर वह भी तमाम बुद्धिजीवियों और कर्णधारों की तरह इस अनसुलझे प्रश्न को सुलझा नहीं पाया !!

- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

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Sunday 3 May 2015

नामकरण - Naming, hindi short story by mithilesh anbhigya

by on 06:52

अभी नवजात को आये कुछ ही घंटे हुए थे और हॉस्पिटल से जच्चा बच्चा डिस्चार्ज भी नहीं हुए थे कि उसके नामकरण को लेकर परिवार में सियासत शुरू हो गई.

उसके दादा ने डिक्टेटरशिप हांकते हुए कहा कि मैंने दो महीने पहले से ही नाम सोच रखा है और वह है देवांश. किसी को कोई ऐतराज है क्या?
उसकी दादी ने बोला कि चूँकि वह शंकर भगवान की शादी के दिन पैदा हुआ है, इसलिए उसका नाम शम्भू होगा, जो उसके स्व. परदादा के नाम का एक अंश भी था, या फिर विश्वनाथ रखा जायेगा, जो भगवान शंकर का ही एक प्रसिद्द नाम है.
नहीं देवांश ठीक है, दादा कड़क स्वर में हेकड़ी से बोले.
इससे पहले दादी मुंह खोलतीं कि लड़के के पापा ने बात टालते हुए कहा, मैं इसके बड़े ताऊ से फोन पर पूछता हूँ.
उसके बड़े ताऊ इंटरनेट से अलग मॉडर्न नाम सोचकर बैठे थे और जब उनको पता चला कि नामकरण की राजनीति में वह पिछड़ गए हैं तो वह बिगड़ते हुए बोले-
मुझसे पहले क्यों नहीं पूछा, उसका नाम आर्जव रहेगा, बिलकुल मॉडर्न. उसके दोस्तों को कितना गर्व होगा.
जैसे ही लड़के के पापा ने फोन रखा, उसके फोन पर लड़के के मामा का फोन आ गया.
छूटते ही लड़के के मामा ने कहा, मेरा देवांश भांजा दिखने में कैसा है.
देवांश ? अभी तो नामकरण हुआ ही नहीं है.
फोन रखते ही फिर उसकी बुआ, बड़ी मम्मी सबका फोन आया और सबने उस नन्हें को देवांश कहकर पुकारा तो लड़के के पापा और दादी का माथा Buy-Related-Subject-Book-beठनका कि आखिर यह चक्कर क्या है?
हॉस्पिटल के कोने में खड़े दादा को मुस्कराते हुए देखकर दादी तुरंत समझ गयीं कि इन्होंने फोन करके सभी रिश्तेदारों को लड़के का नाम देवांश बता दिया है.
अपना दांव चलते न देखकर दादी ने एक मजबूत पासा फेंका कि लड़के के ऊपर सबसे ज्यादा अधिकार उसकी माँ का होता है, इसलिए वह जो नाम बताएगी वही नाम रखा जायेगा.
दादा अपना पासा पलटता देखकर जोर से बोले - अरे बहु से पूछने की जरूरत क्या है? वैसे भी उसका सुझाव वही होगा जो मेरा है. उसका नाम देवांश होगा.
मैं बहु से पूछकर आती हूँ, दादी खुश होते हुए बहु की ओर भागीं. अब बाजी उनके हाथ में जो थी.
बेड पर लेटी बहु को धमकाते हुए बोलीं, उसका नाम शम्भू ही बोलना, आखिर मैं उसकी दादी हूँ.
तभी उसके दादा दरवाजे से बोले- बहु इसकी बात मत सुनना, उसका नाम देवांश रखना. डरना मत अपनी सास से, मैं हूँ ना !
हटिये, हटिये आप लोग. यहाँ मरीज को परेशान क्यों कर रहे हो? लेडी डॉक्टर अपनी विजिट पर थीं.
दादा तो खिसक लिए, जबकि दादी को जमकर लेक्चर पिलाया डॉक्टर ने.
बाहर आकर दादा ने फिर से अफवाह फैला दी कि बहु ने देवांश नाम पर अपनी सहमति दे दी है.
और सियासत की यह बाजी भी दादा के हाथ में आ गयी और लड़के का नाम देवांश हो गया.
खार खाए बैठे दादी, बड़े ताऊ, बड़ी मम्मी और लड़के के पापा समेत सभी अगली बार के नामकरण की गोटी सेट करने में लग गए, जबकि दादाजी अपनी मूंछों पर ताव देते फोन पर अपनी विजय सूचना फैलाने में लगे हुए थे.
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

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