Tuesday 4 October 2011

क्या भ्रष्टाचार को लेकर आप गुस्सा हैं? You hate corruption or not, be clear please

by on 17:17
आपके चारो तरह निराशा का माहौल होने के बावजूद, भ्रष्टाचार से घिरे होने पर भी, भारतवर्ष की महानता के भाव से आपका मस्तक ऊँचा होता होगा, हमेशा नहीं तो कभी-कभार तो जरूर ही. नहीं, नहीं मै ठिठोल नहीं कर रहा हूँ, यह एक विपरीत वास्तविकता है, कम से कम मुझ-जैसो के साथ तो निश्चित ही है. यदि दुसरे व्यक्तियों की बात छोड़ दे तो भी स्वयं का अर्ध-विकसित मस्तिष्क निश्चय ही चारो तरफ बुराइयों का भंडार दिखाता है, लेकिन कहीं कोने में छुपी मस्तिष्क की पूर्णता कहती है, नहीं यह बुराइयां हमारे भारतवर्ष की निश्चित ही नहीं हैं, यह तो बाहर से आयी हुई हैं. इन बातों में सच्चाई हो भी सकती है. लेकिन एक बात तो तय है की यदि इन बुराइयों का अस्तित्व है तो भी अभी पूर्ण रूप हम पर हावी नहीं हो पाई हैं, सिर्फ हमारा उपरी आवरण ही इनसे प्रभावित हुआ है. यह बात मै बहुत विश्वास से कह सकता हूँ की हर भारतीय की अंतरात्मा अभी भी उसे रास्ता दिखाती है, लाख वह बुरा दीखता है, पर एक छोटी सी घटना उसके असली सच्चे स्वरुप को उजागर कर ही देती है. आखिर हम यह कैसे भूल जायें की अंगुलिमाल जैसों की अंतरात्मा पर पड़ी धुल यदि साफ़ हो गयी, तो हमारी अंतरात्मा से भी बुराइयों का पर्दा हट सकता है और फिर सामने होगी भारत की स्वक्ष, निर्मल और विश्व गुरू की छवि. यही हमारा भारत है, जिसके बारे में सोच-सोच कर छाती चौड़ी होती रहती है, कि कभी तो हम उस जगह पर पहुंचेगे जो हम सिर्फ अतीत में सुनते आयें है. लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि आत्मा पर पड़ी धुल साफ़ हो और इसके लिए निश्चित ही हर बार कोई बुद्ध नहीं आयेंगे. हमें स्वयं अपने बीच में से ही बुद्ध खोजना होगा और उन्हें आदर देना होगा. इस बात पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे.

एक वाकया आज मेरे साथ घटित हुआ, मैं अपनी मोटरसाइकिल से बैंक में अपनी कंपनी का रूपया जमा कराने जा रहा था, रास्ते में दिल्ली पुलिस की खाकी वर्दी में ३-४ कांस्टेबल और ट्रैफिक पुलिस वैरिकेड लगाकर चेकिंग कर रहे थे. यदि आपने दिल्ली में मोटरसाइकिल से सफ़र किया है तो आप परिचित होंगे इस तरह कि चेकिंग से, ड्राइविंग लाइसेंस, प्रदुषण और इन्सुरेंस के कागज दिखाओ, ऐसा निर्देश हुआ एक कांस्टेबल का. मै अपने कागजात पुरे रखता हूँ, सो आश्वस्त था. मैंने अपने पर्स में देखा तो इंसोरेंस का पेपर नहीं था. याद आया, पिछली बरसात में गीला होने के कारन मेरी पत्नी ने उसे सुखाने के लिए निकाला था. गाड़ी साइड में लगाओ, फिर कांस्टेबल की आवाज आई और इन्सुरेंस का पेपर न पाकर मेरी मोटरसाइकिल की चाभी निकाल कर अपने हाथ में ले ली. कर दूं चालान, ११०० रुपये का होता है इन्सुरेंस का, कर दूं ? लगातार वह दबाव बनाने का प्रयत्न करने लगा. इधर मै नम्रता से पेश आ रहा था, नहीं तो झूठ-मूठ का और समय लगता. मेरी ऊपर की जेब फूली हुई थी, इस बात का एहसास उसे बखूबी हो चूका था, और अब वह कुछ और ही चाह रहा था. मै इस इशारे को समझ रहा था, लेकिन मै ऐसी लेन-देन से भरसक बचने की कोशिश करता हूँ. वह कांस्टेबल भी आश्वस्त था की अब कहाँ? अब तो कुछ बन ही जायेंगे. यदि १०० रुपये का चालान होता तो मै कब का भर चुका होता पर ११०० रुपये का चालान सुनकर मेरा आदर्श लगातार अंकल जी, अंकल जी की रट लगा रहा था, उसे अपनी सफाई पेश कर रहा था. ‘जाने दो यार उसे’, लड़का झूठ बोलता नहीं लग रहा है, एक बुजुर्ग की आवाज थी, बगल के फुटपाथ पर शायद टहल रहे होंगे. यह बोलकर वह महानुभाव आगे चले गए. आप यकीं नहीं करेंगे, वह बुजुर्ग चले गए और कांस्टेबल ने मेरी तरफ गाड़ी की चाभी कर दी. मुझसे नजरे मिलाये बिना, कहा ‘जाओ बेटा’ . दो बातें इससे निकलती हैं. पहली भारतीय व्यवस्था, सभ्यता, अंतरात्मा नाम की चीजें अभी भी अस्तित्व में हैं, जरूरत है उस पर जमी हुई धुल पर कपडा मारने की. दूसरी बात, हम सभी को बार-बार लगातार सही रास्ता दिखाने की भी जरूरत है और जो वर्ग, ज्यादा से ज्यादा प्रभावी हो सकता है, वह ‘सीनियर सिटिजन’ वर्ग ही है. भारतीय सभ्यता में बुजुर्गो का एक खास स्थान रहा है. उसके पास व्यापक समझ होने के साथ-साथ पर्याप्त समय भी है.

मै सकारात्मक लेखन में हमेशा से विश्वास करता हूँ. हमसे पूछा जाता है, क्या भ्रष्टाचार को लेकर आप गुस्सा हैं? लेकिन यह प्रश्न अधूरा है. सही प्रश्न यह है कि- आप भ्रष्टाचार More-books-click-hereको लेकर किस से गुस्सा हैं ? निश्चय ही जवाब आएगा, दूसरों से, सरकार से, दूधवाले से. और खुद से ?? हाँ, जी आपने सही सुना, क्या आप भ्रष्टाचार को लेकर खुद से भी गुस्सा है ? यदि नहीं तो यह मान लीजिये की आप दोहरी मानसिकता के शिकार है. छोटे से लेकर बड़े-बड़ो तक को सांप सूंघ जायेगा इस प्रश्न से. लेकिन सवाल यहाँ सिर्फ समस्या का नहीं है, समस्या से हम सभी कहीं न कही अवगत तो हैं ही, प्रश्न है समस्या के समाधान का. यकीं मानिये, यह समाधान एक लम्बी प्रक्रिया है और वह भी सावधानी से अपनाई जाने वाली प्रक्रिया. इस संपूर्ण समस्या का हल देश के नौनिहालों का चरित्र-निर्माण है, नैतिक विकास है और वह संभव है सिर्फ और सिर्फ ‘भारतीय संयुक्त परिवार’ से. मै आगे की पंक्तियों में इस बात को तथ्यात्मक तरीके से रखूँगा.

वैसे भी आज की पीढ़ी काफी हद तक तार्किक और वैज्ञानिक है. संयुक्त भारतीय परिवार में लाख अन्य बुराइयां हो सकती है, पर मै कुछ प्रश्न रखता हूँ समाज के सामने खालिस तार्किक और वैज्ञानिक भी-
एक युवा की शादी की औसत उम्र २५-३५ साल के बीच में होती है. इसी उम्र में सामान्यतः संतानोत्पति भी होती है. पहला प्रश्न- क्या इस उम्र में इस युवा के पास अपने बच्चे के लिए समय होता है, ध्यान रहे, यह कैरियर का सुनहरा दौर होता है हर एक के लिए. दूसरा प्रश्न- क्या इस उम्र में इस युवा के पास इतना पर्याप्त अनुभव होता है जो बच्चे के विकास में सहायक हो सके. जी नहीं, वह तो अपने जीवन-साथी तक को न समझ पाता है न समझा पाता है. अदालतों में तलाक के बढ़ते मामले इसकी कहानी स्वयं कहते हैं. तीसरा प्रश्न- यदि मान भी लिया जाये कि इस युवा के पास इतना समय भी है और पर्याप्त अनुभव भी है, तो भी आप समाजशास्त्र के मूल सिद्धांत का पुनरावलोकन करें, जो स्पष्ट कहता है कि- “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है”.
उस छोटे बच्चे को मनुष्यों से भरे माहौल में विकसित होने दो, मेरे आदरणीय और महान देशवासियों. उसे दादा कि कहानियाँ सुनने दो, उसे चाचा कि डांट पड़ने दो, बड़ी माँ को लाड करने दो, उसे भाइयों-चचेरे भाइयों से मेलजोल बढ़ाने दो. मत पालो उसे मशीनों के बीच में. विडिओ गेम, कंप्यूटर, बुद्धू-बाक्स उसे स्वार्थी, संकुचित और आत्मकेंद्रित बनाते है. यह प्रक्रिया हमारे संपूर्ण समाज को बीमार कर रही है. जिस एकल परिवार में बाप घूस कि मोटी रकम से लम्बी-लम्बी गाड़ियां खरीदता है, क्या कोई उस से पूछता है इसकी नैतिकता के बारे में? बच्चा छोटा है और पत्नी तो आनंदित होती है हीरा-जडित मोटे हार को पाकर. बच्चा बड़ा होकर ठीक इन्ही आदतों का मुरीद बन जाता है.

इसके विपरीत भारतीय समाज में संयुक्त परिवार कि व्यवस्था इन सबका निदान है, बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी है. मै इसका अंध-समर्थन नहीं कर रहा हूँ, इस में भी तमाम बुराइयां हो सकती है, समाजशास्त्र के विशेषज्ञ इसके बारे में बेहतर तर्क दे सकते हैं. पर मै उन्ही विशेषज्ञ-बंधुओं से पूछता हूँ कि आज ‘संसदीय-व्यवस्था’ से सबका भरोसा उठ चुका है, नेता संपूर्ण विश्वसनीयता खो चुके हैं, तो यह व्यवस्था ख़तम कर के हम कोई तानाशाही-माडल क्यों नहीं विकसित कर लेते हैं ? फिर तो यहाँ एक अन्ना हजारे के आन्दोलन से समाजशास्त्रियों कि भृकुटियाँ तन जाती है. राहुल गाँधी को संसदीय-परंपरा पर खतरा दिखने लगता है. और पूरा समाज एक सुर में इस सड़ी-गली संसदीय व्यवस्था को सुधारने का समवेत प्रयास करता दीखता है. ठीक इसी प्रकार हमें संयुक्त परिवार के दोषों को हटाकर समाज के हित में इस व्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहिए. स्वयंसेवी संगठनो को इसकी महत्ता समझकर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिए. यदि बहूत जरूरी हो तो सरकार को भी इसके संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए, क्योंकि चरित्र-निर्माण के बिना वास्तविक बदलाव कि आशा करना दिवा-स्वप्न ही है. आंदोलनों से सिर्फ सत्ता बदलती है, व्यवस्था नहीं. व्यवस्था के लिए चरित्र-निर्माण अति आवश्यक तत्व है. और चरित्र-निर्माण की प्रथम और अति प्रभावी सीढ़ी परिवार ही है. नहीं, नहीं मै सिर्फ परिवार कि बात नहीं कर रहा हूँ, एकल परिवार तो बच्चो को मशीन में परिवर्तित करते जा रहे हैं. मै तो भारतीय संयुक्त परिवार की बात कर रहा हूँ, जिसके बल पर भारतीयों ने एक होकर विकास किया, कृषि रुपी उद्यम को चरम पर पहुँचाया और सोने की चिड़िया, विश्व-गुरु इत्यादी उपनामों से कृतार्थ किया देश को. इस व्यापक भारतीय महानता का आधार सिर्फ भारतीय-चरित्र था, जिसने हमें निर्विवाद शिखर पर पहुँचाया और भारतीय चरित्र की एकमात्र जन्मदात्री भारतीय संयुक्त परिवार परंपरा ही थी.

सोचिये ! सोचिये ! सोचिये !

- Mithilesh

You hate corruption or not, be clear please, article in Hindi by Mithilesh

Wednesday 14 September 2011

हिंदी दिवस की शुभकामनाएं !! ....... Hindi Diwas ki Shubhkamna

by on 09:48
सिर्फ यही भाषा हमें आगे की ओर ले जा सकती है, चौकिये मत आपको एक भारतीय की तरह आगे जाना है हर तरह से प्रोफेसनली, पर्सनली और/या पब्लिकली !! ..........

Hindi-Diwas-14-September
Hindi Diwas ki Shubhkamna in hindi language

Monday 12 September 2011

राजनीति :: The Politics; The First & Last Option !!

by on 18:19
दोस्तों,

आपने मेरा पिछला लेख पढ़ा अन्ना हजारे के आन्दोलन पर (Click to read again…), आपकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर मन इसलिए भी खुश हुआ की यह थोडा अलग तरह का लेख था, अक्सर हम किसी भी मुद्दे पर सीधे फायदे की ओर नजरें गड़ाएं रहते है जबकि उसके साथ तमाम और भी बातें होती है, जो कभी-कभी तो मूल बातों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रभाव छोडती है | खैर, अन्य लेखकों की तरह मेरा उत्साह भी बढ़ा और ढूंढने लगा कोई अन्य मुद्दा, पर अभी लेखन का शुरूआती दौर होने से कोई मुद्दा जंचा ही नहीं | लेकिन पिछले सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समाचार टी.वी. चैनलों पर पुरे दिन छाया रहा और हो भी क्यों नहीं, यह एक ऐसे विवादित राजनीतिज्ञ के बारे में था जिसे आम जनता और देश के बुद्धिजीवी तो राष्ट्रीय स्तर पर देखने की सोचते है पर उसे राजनीतिक रूप से अछूत करने का पिछले दस वर्षों से लगातार प्रचार चल रहा है |

जी हाँ! मै नरेन्द्र मोदी की ही बात कर रहा हूँ, जिसे अपनी पार्टी भाजपा में ही तमाम बिरोधों का सामना करना पड़ता है, कांग्रेस और अन्य दलों की तो बात ही छोडिये| ना, ना मै गुजरात-दंगो की वकालत करने के बिलकुल भी पक्ष में नहीं हूँ और कोई सच्चा/ शांतिप्रिय देशवासी उस नरसंहार को कैसे भूल सकता है, जिसने पुरे विश्व का ध्यान इस्लामी-आतंकवाद से हटाकर एकबारगी भारत पर केन्द्रित कर लिया था| मै उस वक्त अभी युवावस्था की दहलीज पर था, पर मेरी समझ आज भी यह इशारा कर रही है की अगर केंद्र में भाजपा की ही सरकार संयम से काम नहीं लेती तो शायद इस पुरे देश में एक दूसरा वक्त ही शुरू हो सकता था जो की किसी भी अवस्था में किसी देशप्रेमी को स्वीकार नहीं होता| माननीय बाजपेयी जी और अन्य देशवासियों की ही तरह मुझे भी ‘गुजरात दंगो में राष्ट्रीय-शर्म‘ ही नजर आती है और आनी चाहिए भी| लेकिन हम यहाँ चर्चा कुछ अन्य बिन्दुओं पर करेंगे, और आप खुद ही निर्णय करेंगे की देश को हम किस दिशा में ले जाना चाहते हैं|

भारत के सफल ब्यक्तियों की हम बात करें तो निःसंदेह उद्योगपतियों का नाम सबसे ऊपर आएगा| रतन टाटा, नारायणमूर्ति और अन्य पूरा उद्योग जगत एक स्वर में नरेन्द्र मोदी की न सिर्फ प्रशंशा करता है वरन उन्हें भारत के सर्वोच्च राजनैतिक पद पर आसीन देखना चाहता है| रतन टाटा जैसा उद्योगपति खुलेआम उनको ‘प्रधानमंत्री’ पद के More-books-click-hereकाबिल बता चूका है| दूसरी तरफ प्रगतिशील मुस्लिम-वर्ग की बात करे तो वह भी गुजरात के सांप्रदायिक-सदभाव की खुलेआम तारीफ करता रहा है, देवबंद के प्रो. वस्तानावी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, हालाँकि बाद में उनको उपकुलपति के पद से हाथ धोना पड़ा इसी सच्चाई को स्वीकारने के लिए| सामाजिक चेहरों की बात करें तो अभी-अभी एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे अन्ना हजारे जी को भी तारीफ के बाद सहयोगियों के दबाव में पीछे हटना पड़ा था| दो प्रश्न उठते हैं यहाँ पर, पहला क्या उपरोक्त सारे प्रतिनिधि गुजरात-दंगो को भूल चुके हैं या यह सभी संवेदनहीन है ? हम सब इसका जवाब जानते है, और वह यह है की न तो ये सारे व्यक्तित्व संवेदनहीन हैं और न ही गुजरात दंगो को भुला पाएं है, तो फिर ऐसी कौन सी मजबूरी है की इन्हे नरेन्द्र-मोदी की प्रशंशा करनी ही पद रही है, कोई मुर्ख तो है नहीं ये सारे, इसका उत्तर आगे खोजने की कोशिश करेंगे इस लेख में|

दूसरा प्रश्न यह है की नरेन्द्र मोदी के इतना विकास करने के बावजूद, अपनी छवि स्वक्ष, प्रशाशन और उद्यम-आकर्षण के बावजूद उन्हें ही क्यों राजनीतिक निशाने पर लिया जा रहा है बार-बार, लगातार, बहार से भी और घर के अन्दर से भी, क्या इसके गर्भ में सिर्फ गुजरात दंगा ही है या बात कुछ आगे है| यदि उपरोक्त दोनों प्रश्नों के उत्तर हम ढूढ़ ले तो यकीन मानिये, हमारा देश राजनीतिक रूप से स्थिर तो होगा ही साथ-ही-साथ आर्थिक, सैन्य और तमाम अन्य मोर्चो पर हम भरी बढ़त हासिल कर पाएंगे|

प्रश्न सिर्फ नरेन्द्र मोदी का हो तो कोई भी इसे गंभीरता से नहीं लेगा पर प्रश्न एक-राजनीतिक व्यवस्था का है, प्रश्न भ्रष्टाचार का है, प्रश्न विकास और सुशाशन का भी है, जिसके बिना असंभव है लोकतंत्र में खुशहाली ला पाना. खुशहाली की बात कौन कहे एक नागरिक के तौर पर किसी भी भारतवासी का भारत में रह पाना असंभव है, न उसके अधिकारों की बात होगी ना उसकी सुरक्षा की. हर बंद राम-भरोसे ही चलने को मजबूर होगा| ज्यादा गंभीर भाषण हो गया ऊपर की पंक्तियों में, मै कुछ हल्के-फुल्के प्रश्न आपके सामने रखता हूँ, जरा सोचिये भारतवर्ष में अभी कितने ऐसे राजनैतिक-महापुरुष है, जो न सिर्फ सोचते है बल्कि उनका दिल बार-बार यकीन दिलाता है की यार! कभी न कभी तो मै बनूँगा ही “प्रधानमंत्री” … बताइए-बताइए, ऐसे कितने लोग होंगे, मै कोशिश करता हूँ सही संख्या पता करने की – राहुल गाँधी, आडवानी जी, चिदंबरम साहब, लालू प्रसाद जी, माननीया मायावती बहन, साउथ की अम्मा, मुलायम सिंह जी भी मुलायम बनने की कोशिश में हैं और ऐसे न जाने कितने नाम है जिनकी न तो कोई छवि स्वक्ष है, न कोई योग्यता है, किसी की पार्टी की सिर्फ २-४ सीटें है, तो किसी की अपनी है पार्टी में स्वीकार्यता भी नहीं है, कोई उम्र के आखिरी पड़ाव में है तो कोई जातिवाद के सहारे शीर्ष पर पहुचने का ख्वाब संजोये है.

मैंने यह सामयिक प्रश्न इसलिए पूछा है की क्या ‘प्रधान-मंत्री’ का पद अभी भी इतना सस्ता है की कोई जन्म से ही प्रधानमंत्री है तो कोई जाति के आरक्षण से प्रधानमंत्री के शीर्ष पर विराजमान होने की चेष्टा कर रहा है. क्या अन्य विकसित देशो जैसे अमेरिका में भी ऐसा ही सोचते है लोग, चीन, जापान, इंग्लैंड में सारे राजनीतिज्ञ ऐसे ही बिना किसी Buy-Related-Subject-Book-beआधार के उम्मीद लगाये बैठे रहते है. हर अपराधी, हर नाकारा जिसे हर जगह से तिरष्कृत किया गया हो, वह राजनीति में फीट क्यों होता है, क्या यह राजनीति की मनमानी है या लोकतंत्र की अपरिपक्वता| कोई राजनीति का मानदंड ही नहीं है, बस मुह उठाये और हो गया हर ब्यक्ति राजनीतिज्ञ, बन गया मंत्री, बन गया मुख्यमंत्री और बना डाला अफजल को माफ़ करने का कानून| क्या राजनीति का यही मानक है हमारे देश में आज़ादी के ६४ साल बाद भी| जी हाँ! महानुभाव, यही सत्य है, जिसने जीवन का कोई भी काम खुद से नहीं किया हो, पैदा हुआ बाप के पैसे पर, पला बाप के पैसे पर, आवारा बना बाप के पैसे पर, ना कोई अनुभव, ना कोई संघर्ष, वही व्यक्ति आप के लिए कानून बनाता है और वह कानून कहता है की अफजल की फांसी की सजा माफ़ कर दी जाये, अन्ना हजारे को जेल में डाल दिया जाये, अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी को कुचल दिया जाये, नरेन्द्र मोदी को फांसी दे दिया जाये …

फिर गंभीर हो गयी पंक्तियाँ, क्या करू नया-नया लिखना शुरू किया है ना, खैर ऊपर के दोनों प्रश्न आपको याद होंगे, उनमे से पहला यह था की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो नरेन्द्र मोदी की तरफ बुद्धिजीवी समाज का ध्यान खींच रही है| सबसे बड़ा कारन है- अति मजबूत राजनीतिक इक्षाशक्ति (यह ‘अति’ शब्द नरेन्द्र मोदी को अपनों के बिच भी नुक्सान पहुंचा रहा है परन्तु इंदिरा गाँधी के बाद शायद मोदी ऐसी इक्षाशक्ति वाले इकलौते राजनेता हैं जिसकी देश को सख्त जरूरत है), इससे देश निश्चित तौर पर राजनैतिक स्थायित्व की तरफ अग्रसर होगा; दूसरा महत्वपूर्ण कारन है विकाश की उद्यमशीलता जो लगातार रोजगार और युवाओं में विश्वास पैदा करती जा रही है; तीसरा शशक्त प्रशाशन भी एक अति महत्वपूर्ण कारन है जो साम्प्रदायिकता से आगे सोचने को प्रेरित करता है, अल्पसंख्यको में विश्वास जगाता है, न्याय की उम्मीद जगाता है| इसके अलावा नरेन्द्र मोदी का अपना व्यक्तित्व, सजगता, अनुभव और राजनीतिक समझ उन्हें अलग ही श्रेणी में खड़ा करती है| ये सारे गुण, विशेषकर उपरोक्त तीन मुख्य गुण बुद्धिजीवियों को सिर्फ नरेन्द्र मोदी में ही दिख रहें है. प्रधानमंत्री के किसी अन्य उम्मीदवार में इन तीनो में से एक के भी दर्शन दुर्लभ है, यही एकमात्र कारन है नरेन्द्र मोदी को समर्थन के पीछे| ये सारे बुद्धिजीवी जानते है की देश में पहले भी दंगे हुए, ८४ में सिक्खों पर हुआ जुल्म आज तक कांग्रेस को परेशान कर रहा है, पर इस सिक्ख दंगे का मूल नेहरु परिवार तो राजनैतिक अछूत नहीं है, फिर मोदी ही क्यों ?? देश के सभी उद्यमी और बुद्धिजीवी जानते है की राजनीतिक लचरता से देश का क्या नुकसान होता है, यह कोई पश्चिम बंगाल से पूछे| दंगे की बात एक जगह है, पर कहीं भी यह सत्यापित नहीं हुआ है की नरेन्द्र मोदी ही साजिशकर्ता थे, किसी न्यायालय ने उन्हें दोषी करार नहीं दिया है| मै इससे आगे की बात करता हूँ, माना की नरेन्द्र मोदी दोषी है राजनीतिक रूप से, एकबारगी यह मान भी लिया जाये तो पिछले १० सालो से क्या इस नेता ने प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष अपनी गलती मानकर प्रायश्चित नहीं किया है, यकीन मानिये आज गुजरात में किसी भी प्रदेश के मुकाबले सबसे ज्यादा भाईचारा है, सबसे ज्यादा विकास है| नरेन्द्र मोदी ने कोई जान-बूझकर अपराध नहीं किया है, प्रशाशन में उनसे जरूर गलती हुई है और भरी गलती हुई है, पर वह उसका प्रायश्चित कर चुके है गुजरात के जनजीवन का स्तर ऊपर उठाकर, और सजा भुगत चुके है पिछले १० बर्षों से राजनीतिक-अछूत बनकर| क्या अब भी आप रतन टाटा, वस्तान्वी, अन्ना हजारे को गलत कहेंगे | उन्होंने जाने-अनजाने देश के भलाई की ही बात कही है और उनका यह मानना भी सत्य है की राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्तित्व ही कुछ कर सकता है, भारत को ऐसे ही राजनेता की जरूरत है|modi-narendra-modi

दूसरा प्रश्न इस व्याख्या से भी महत्वपूर्ण है की नरेन्द्र मोदी के लाख कोशिश करने के बावजूद क्यों राजनैतिक-वर्ग उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं है| इसका उत्तर कुछ सकारात्मक है तो कुछ नकारात्मक, सकारात्मक पहलू कहता है की नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगो की कालिख धोने के लिए अभी और प्रयास की जरूरत समझता है, वही कुछ वर्ग का यह भी मानना है की नरेन्द्र मोदी की तानाशाह छवि कही घातक न सिद्ध हो, कुछ उनके अकडू स्वाभाव को गलत मानते हैं, पर ये गलतियाँ अथवा सुधर संभव हैं और इसको नरेन्द्र मोदी भी बखूबी समझते हैं इसीलिए उनके अब के भाषणों और पिछले वक्त्ब्यों में साफ़ अंतर देखा जा सकता है| नकारात्मक पहलू कांग्रेस की अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण की नीति रही है, जो इन दिनों कुछ ज्यादा ही मुखर हो उठी है, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और बिहार में लालू प्रसाद के कमजोर होने से मुस्लिम वोट-बैंक असमंजस में है और कांग्रेस येन-केन-प्रकारेण इस वोट बैंक को अपना बनने की कोशिश कर रही है बिना किसी रिस्क के| वह चाहे कांग्रेस के दिग्विजय सिंह का ‘लादेन-जी और ठग-रामदेव’ का बयान हो, बटाला हाउस की छीछालेदर हो, अफजल की फांसी को लटकाना हो, या अभी कांग्रेस के समर्थन से कश्मीर-विधानसभा से अफजल की माफ़ी का प्रस्ताव हो, हर जगह इसकी बू आराम से महसूस की जा सकती है, आखिर कांग्रेस ऐसा क्यों ना करे, अब धीरे-धीरे मतदाता समझदार हो रहे है, सिर्फ मुस्लिम समुदाय ही ऐसा है जो कम-शिक्षित अथवा अशिक्षित माना जाता है, इनके बल पर राहुल को २०१४ में प्रधानमंत्री का पद सौपना आसान जो होगा| नरेन्द्र मोदी के नकारात्मक विरोध की एक और बड़ी वजह आर.एस.एस. से सम्बद्ध होना भी है, कांग्रेस स्वीकार करे ना करे परन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक बड़ी राजनीतिक और सामाजिक ताकत बनकर उभरा है, और जनमानस पर इसका सामाजिक प्रभाव काफी पहले से माना जाता रहा है, पर इन दिनों इसने राजनीति में भी कांग्रेस की जड़े हिलाने तक चुनौती दी है| अब आप सभी निष्कर्ष खुद निकाले और राजनीतिक रूप से जागरूक हो और अपने आसपास का वातावरण जागरूक करें, क्योंकि हमारे देश का राजनीतिक परिपक्व होना निहायत जरूरी है, इसके बिना किसी आन्दोलन का ठोश परिणाम नहीं आ सकता, चाहे जे.पी. का आन्दोलन रहा हो, या वी.पी. सिंह का अथवा वर्तमान नायक अन्ना हजारे का आन्दोलन हो| देश को अब एक शशक्त राजनीतिज्ञ चाहिए जो संपूर्ण देश को आगे लेकर चल सके, देश उसके लिए मिटने को भी तैयार है और देश उसके लिए संघर्ष करने को भी तैयार है, चाहे वह राजनीतिज्ञ नरेन्द्र मोदी हो अथवा कोई और|

यदि कोई अन्य विकल्प नहीं हैं तो नरेन्द्र मोदी को जवाबदेह बनाकर भाजपा को आगे लाना चाहिए और कांग्रेस को भी अपनी दो मुख्य नीतियों में सुधार की गुन्जाईस खोजनी चाहिए, ताकि देश विकास के पथ पर अग्रसर हो ना की अस्थिर राजनीति की ओर | इन्ही बातों के साथ आपसे बिदा लेता हूँ|

जय हिंद !!

Author- Mithilesh Kumar Singh (mithilesh2020@gmail.com)
The Politics; The First & Last Option, article in Hindi by Mithilesh

Saturday 27 August 2011

जन-आन्दोलन के निहितार्थ, थोडा आगे सोचें - Anna Movement and its meaning, August Revolution

by on 18:08
सच्चाई को नमन || राष्ट्र को नमन !! राष्ट्र की जनता को नमन !! अन्ना हजारे को नमन !! अन्ना हजारे की टीम को नमन !!
दोस्तों,
“कुरुक्षेत्र फिल्म में एक गरीब लड़की का बलात्कार मुख्यमंत्री के बेटे द्वारा करने पर ईमानदार पुलिस आफिसर केस दर्ज करके कड़ी कार्रवाई करता है, थोड़े राजनीतिक सपोर्ट से केस को बल मिलता है और मुख्यमंत्री समझौते की कोशिश करता दीखता है, माफ़ी मांगता दीखता है और अपने बेटे को भी माफ़ी मांगने को कहता है | खैर, यह तो सामान्य बात हो गयी, मै जिस मुख्य बात कि तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहता हु, वह इस प्रकार है-
” जब मुख्यमंत्री का बेटा माफ़ी मांगता है तो उसके शब्द कुछ ऐसे है – “मै माफ़ी मांगता हु इन्स्पेक्टर, अगली बार से बलात्कार नहीं करूँगा| छोड़ न यार, कुछ ले-देकर ख़तम कर मामला, नहीं तो परिणाम भुगतने को तैयार रह″ !!

जरा गौर करें इस माफ़ी पर, इस माफ़ी के शब्दों पर | ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे से पहले नेताओं ने कोशिश नहीं कि पर वह इन्ही शब्दों में फंसकर रह जाते हैं और जन-भावनाओ के साथ न्याय नहीं कर पाते| न्याय से मेरा अभिप्राय है जनता के सम्मान की सचमुच रक्षा, हकीकत में अभिव्यक्ति| नेताओं ने पहले घोटाले किये, जनता को नौकर समझा, इनको घुटनों पर आकर माफ़ी मांगनी ही चाहिए थी, और वह भी ऐसी माफ़ी की उसके अलावा कोई रास्ता न हो, और जनता ताकतवर की तरफ माफ़ करे न की कमजोर की तरह| इसलिए भी यह जीत यादगार बन जाती है, क्योंकि यह जीत हमें जीत की ही तरह मिली है, किसी ने दी नहीं है यह जीत हमने लड़कर अपने बल से हासिल की है| कमजोरो की तरह नहीं मिली हमें यह जीत, इसी बात पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की एक पंक्ति याद आती है -

“क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल(विष) हो, उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो |”

जनता ने इस बार अन्ना हजारे के माध्यम से इस पंक्ति को चरितार्थ करते हुए जन-प्रतिनिधियों को चेतावनी देकर माफ़ी दी है कि जाओ और अपना काम ठीक से करो नहीं तो ….

लोकपाल तो सिर्फ एक निमित्त-मात्र है, और असली जीत भी नहीं है, असली जीत तो यह है की जनता ने ताकतवर की तरह जन-प्रतिनिधियों को माफ़ किया है और राजनीति More-books-click-hereके अलावा बिजनेस, मनोरंजन, आर्थिक इत्यादी सभी क्षेत्रो के प्रतिनिधियों को चेतावनी दी है कि सुधर जाओ, अन्यथा अपने अंजाम के जिम्मेवार खुद ही होगे तुम| और लोकतंत्र में निश्चय ही सभी को इस चेतावनी-सन्देश को गंभीरता से लेना ही होगा | महिंद्रा एंड महिंद्रा के चेयरमैन आनंद महिंद्रा कि टिपण्णी इस बारे में उल्लेखनीय है-

”रामलीला मैदान में जो कुछ हो रहा है, वह बड़े बदलाव का प्रतीक है। लोग अब न केवल राजनेताओं, बल्कि उद्योगपतियों से भी जवाबदेही चाहते हैं।”

जो समझदार है, इस चेतावनी को गंभीरता से लेगा ही, लालू प्रसाद यादव जैसे जन-प्रतिनिधि सब कुछ समझते हुए भी इसका मखौल ही उड़ायेंगे, क्योंकि जनता ने उनको नकार दिया है शायद उनको आलाकमान से कुछ हासिल हो जाये |

कुछ और भी है चर्चा के लिए, जो शायद राजनीति कि समझ को ब्याख्यायित करें, आम जनता के लिए ये बहुत ही जरूरी है, कृपया देखें इसे -

कुछ जन-प्रतिनिधि तो कोशिश ही नहीं करते मुद्दे को समझने को और अपने हित साधने के अलावा उनके पास कोई दूसरा मसौदा नहीं पाया जाता है, जैसे कपिल सिब्बल, अग्निवेश (मै स्वामी कहना नहीं चाहूँगा ऐसे व्यक्ति को) |

कुछ समझ तो जाते हैं पर उनके अपने स्वार्थ होते है जिसके कारण वो मुद्दे को भटकाने कि पुरजोर कोशिश करते है | लालू प्रसाद कहते है कि वो गावं से आयें है, सब समझते है, निश्चित ही किसी को शक नहीं है उनकी जन-समझ पर, परन्तु इसका क्या करें कि “बिहार में राजनैतिक जमीन उनको दिख नहीं रही है और कांग्रेस का अंध-भक्त होने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है” | अपने १५-वर्ष के शाशन के दौरान उन्होंने बिहार कि जनता को न सिर्फ भारत में अपितु विश्व में पहचान दिलाई| वह यदि मुर्ख होते या हवाई नेता होते तो शायद दिल को संतोष होता, लेकिन वो जे.पी. आन्दोलन से निकले हुए जन-नेता थे और जन शब्द को उन्होंने अपनी जेब (पाकेट) से ज्यादा कुछ नहीं समझा | ऐसे ब्यक्ति राजनैतिक कलंक होते है, और ऐसों को राजनैतिक-अपराधी घोषित करने का विधेयक आना चाहिए | इसी कड़ी में माननीय अमर सिंह ‘ब्रोकर’ , राजा दिग्विजय सिंह इत्यादी का नाम ससम्मान लिया जा सकता है|

Buy-Related-Subject-Book-beतीसरी जमात राजनैतिक-मूर्खों की होती है, जो जनता की शक्ति में अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा होने का माध्यम देखते हैं| इस कड़ी में मै जिसका नाम लूँगा शायद आप-सब के गुस्से का शिकार भी होना पड़े, पर आज मन मान नहीं रहा है और कलम चलती ही जा रही है | जी हाँ ! बाबा रामदेव जी इस कड़ी में मजबूती से प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जनता उनके पास अपने दुःख-दर्द दूर करने आई थी, उसे उम्मीद थी की यह बंदा कुछ करेगा, योग के माध्यम से आस भी जगाई थी रामदेव ने| परन्तु, हाय रे राजनीति! तू फिर जीती और रामदेव होटलों में समझौते की बाट जोहते रहे| मै प्रत्येक क्षण टी.वी. पर लाइव उनकी भाव-भंगिमा देखता रहा ४ जून को, लगातार वो इस कोशिश में लगे रहे की कोई ऐसा समझौता हो जिससे की उनका कद बढ़ जाये, जनता का भला हो या नहीं, ये प्रश्न रामदेव के आन्दोलन में पीछे छूट गया था| अगला नाम आपको आश्चर्य में डालेगा, जी हाँ राहुल गाँधी जी! आज वो ज़माना पीछे छूट रहा है की सिर्फ विरासत के नाम पर भारतीय जनता आपको आँखों पर बिठा ले और हमेशा अपना भगवान बनाये रक्खे| राहुल गाँधी इस भ्रम में हैं की कुछ किसानो के घर उन्होंने भोजन कर लिया और वह ताउम्र उनका भक्त हो गया| बारीकी से देखें तो आप पाएंगे की शायद वह किसान भक्त हो भी जाए, पर उसी किसान/ गरीब का लड़का पढ़ा लिखा है और वह राहुल के भावनात्मक जाल में फंसने वाला नहीं है| राहुल जी आगे बढें हमारी शुभकामना है, पर जनता की क़द्र करना सीखना ही होगा उन्हें और राजनीति के ऊपर देश-सेवा को तरजीह देना ही होगा, ये आदेश है जनता का, रिक्वेस्ट नहीं है| मैंने सुना है की प्रियंका चाणक्य की भूमिका में है राहुल गाँधी के, पर प्रियंका इंदिरा गाँधी नहीं हैं की जन-समूह को अच्छे से समझ सकें, राहुल को अपनी समझ विकसित करनी ही होगी, दिग्विजय सिंह जैसों का मार्गदर्शन क्षणिक लाभ भले ही दिलाये पर दीर्घकालीन नुकसानदायक ही सिद्ध होगा |

जनलोकपाल के बारे में चाहे जो भी निर्णय संसद करे, पर इससे बड़ी जीत जनता को हासिल हो चुकी है| यह बात मै इसलिए कह रहा हूँ कि नेता कलाबाजी को अपना हथियार मानते है और अधिकांशतः नेता सुपिरियारिटी-काम्प्लेक्स से ग्रसित होते हैं और अपने करियर के अंतिम समय में अपनी सारी इज्ज़त/ प्रतिष्ठा खो देते है इसी कारण | अमर सिंह, लालू प्रसाद, ए.राजा, नटवर सिंह, दिग्विजय सिंह और तमाम नाम, शायद आपके आस-पास भी तमाम लोग हो ऐसे या शायद हम भी | सांसद बहुत ईमानदारी से बिल पास शायद ही करें, लेकिन उस निर्णय के पहले जो करारी चोट उनकी इगो पर होनी चाहिए, वो चोट हुई है और इससे बेहतर चोट नहीं हो सकती |

इसलिए देश अभी जश्न मनाये, क्योंकि जश्न मनाने का इससे बेहतर मौका एक देशवासी का शायद ही मिला हो, कमसे कम हमारी इस पीढ़ी को तो कतई नहीं |

दोस्तों, अहंकार की हंसी यदि न ही हंसी जाये तो बेहतर है, क्योंकि दुर्योधन पर द्रोपदी कि हंसी अभी भी मेरे कानो में गूंज रही है| लाख बुराइयों के बावजूद हमारा लोकतंत्र बहूतanna-movement-article-in-hindi-by-mithilesh-popular-article मजबूत स्थिति में है | मेरा ये लेख इस आन्दोलन की मूल भावना को उभारना है, न कि किसी को चोट पहुँचाना, जनता भी इस बात को समझे, इसी में हम सब कि गरिमा है, क्योंकि संसद और सांसद भी हम में से ही है, लोगो को राजनीति से नफ़रत नहीं होनी चाहिए,वरन राजनीति को सुद्ध करने के प्रयास होने चाहिए, अच्छे जन-प्रतिनिधिओं का चुनाव और अपने संवैधानिक अधिकारों को समझाना इसी प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है, क्योंकि इसके आभाव में तानाशाही कि संभावनाओं को इंकार नहीं किया जा सकता| लेकिन इन बातों को लेकर जन-प्रतिनिधि जनता को ब्लैकमेल नहीं कर सकते और लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेवारी सर्वाधिक जन-प्रतिनिधियों की ही है, क्योंकि वह जन-प्रतिनिधि है ही इसलिए, आम जनता से बुद्धि में आगे है, इसलिए उनकी भावनाओ का ख्याल रखते हुए लोकतंत्र को यही बचाएँ | इस सन्दर्भ में मै यही कहना चाहूँगा की लोकतंत्र को सिर्फ तानाशाही का डर दिखाकर जनता को मुर्ख नहीं बनाया जा सकता| योगीराज कृष्ण का उपदेश मुझे याद आ रहा है -

‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत, अभित्तुथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम’


परित्राणाय साधुनां, विनाशाय च दुष्कृताम, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे !!’


एक कडवी ब्याख्या यह भी है कि यदि ईश्वर भी आते हैं तो वह लोकतंत्र नहीं होगा, छुपे शब्दों में वह तानाशाही ही होगी| अब इन नेताओं को बहुत ही गंभीरता से सोचना होगा लोकतंत्र के बारे में क्योंकि जब-जब सच्चाई कि हार होगी भगवान तो आयेंगे ही और यदि वह आते है तो लोकतंत्र कहा होगा ? वह तो राजतन्त्र होगा| जनता का क्या है, उसके लिए वह भी ठीक, यह भी थोड़े-बहुत अंतर के साथ ठीक| तानाशाही में सर्वाधिक तकलीफ प्रतिनिधियों को ही होती है, इस बात का विशेष ख्याल रखें| आम जनता को मैंने यह कहते हुए सुना है की इससे अच्छा तो इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी ही थी, कुछ सनकी लोग तो यहाँ तक कहते है की ‘इन भारतीय लूटेरो से अच्छा तो अंग्रेज ही थे| लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए धर्म कि सुरक्षा करनी ही होगी, सच्चाई कि सुरक्षा करनी ही होगी, न्याय का शासन स्थापित करना ही होगा, तब ही लोकतंत्र कि रक्षा हो सकती है और वह लोकतंत्र ऐसा होगा कि शायद रामराज्य कि जगह हम उसका उदाहरण दें, और उसकी सर्वाधिक जिम्मेवारी सत्ता-प्रतिष्ठान की है|

-जय हिंद

Author- Mithilesh Kumar Singh (9990089080)

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