Monday 23 January 2017

वगैर लाग-लपेट के सेना में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है! Reform in Indian Army

by on 11:09
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इस लेख के शीर्षक का यह अभिप्राय कतई नहीं है कि हमारी सेना में कोई भारी कमी है, बल्कि इसे कुछ यूं समझा जाना चाहिए कि 'बदलते दौर के साथ थोड़े बदलाव' की आवश्यकता है. भारतीय सेना विश्व की सर्वाधिक अनुशासित सेनाओं में से एक मानी जाती है, किंतु दुर्भाग्य से पिछले दिनों सोशल मीडिया पर जवानों द्वारा जो कुछ वीडियो शेयर किए जा रहे हैं उसने भारतीय सेना के आलोचकों को एक मौका दे दिया है. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय सेना और सरकार को हालिया उथल-पुथल हल्के में लेने की बजाय बेहद गंभीरता से तथ्यों पर विचार करना चाहिए. सेना की साख के लिए तो यह आवश्यक है ही, साथ ही साथ जवानों और अफसरों में सामंजस्य बिठाने के लिहाज से भी यह उतना ही उपयोगी है. अगर सेना के ढाँचे की बात की जाए तो  तो इंडियन आर्मी में सेना के अफसरों और जवानों के बीच जेसीओ (जूनियर कमीशंड ऑफिसर्स) का रोल बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. एक तरह से यह अनुभवी जवान होते हैं जो हवलदार रैंक के बाद नायब सूबेदार, सूबेदार और सूबेदार मेजर के रूप में जवानों और अफसरों के बीच मजबूत पुल का कार्य करते हैं. ऐसे में अगर इस तरह एक के बाद दूसरा मामला सामने आता जा रहा है तो इस पुल में कहीं न कहीं "गैप" जरूर आया है. इससे भी हटकर अगर हम सामाजिक पहलुओं की ओर देखें तो पहले से कई ऐसे बदलाव नज़र आएंगे, जिसने समाज का स्ट्रक्चर जबरदस्त ढंग से बदल दिया है. आप पिता-पुत्र के रिलेशन को ही देख लीजिये. पहले जहाँ पुत्र पिता के सामने कोई बात कहने में झिझकता था, वहीं कालांतर में छोटे-छोटे बच्चे भी डिस्कस करते हैं और विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय भी रखते हैं. थोड़ी व्यापकता से कहें तो तकनीक ने इन मामलों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और जो हासिल करना चाहते है उसे ज्ञान भी उपलब्ध कराया है. जाहिर है कि पहले जूनियर्स के सामने जहाँ बड़ों का अनुभव ही था, वहीं अब गूगल से लेकर विकिपीडिया और दूसरे ऐसे आंकड़ें इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं जिन्हें देखर क्या कुछ नहीं समझा जा सकता है. निश्चित रूप से 'अनुभव' की कीमत आज भी बनी हुई है, पर दुनिया अब सिर्फ 'अनुभव' पर ही नहीं चल रही है, बल्कि 'तकनीक और आंकड़े' इस सम्बन्ध में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन कर रहे हैं. Reform in Indian Army, Transparency, Corruption, Technology, Hindi Article, New

अगर इस तथ्य को सेना के मामले में अप्लाई करते हैं तो आज के जो जवान सेना में जा रहे हैं, वह पढ़ लिखकर जा रहे हैं न कि पहले की तरह वह दसवीं या आठवीं पास हैं. गौर करने वाली बात है कि पहले जहाँ यह अपवाद होता था, अब यह सामान्य हो गया है. बेशक पद और क्रम में फ़ौज का कोई मेजर उन्हें हुक्म दे और वह मान लें, किन्तु अपने अधिकार और सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं को वह जानते भी हैं, समझते भी हैं. तो ऐसे में एक जवान को सरकार खाने में क्या-क्या देती है, इसका आंकड़ा उनके पास भी है और फिर जब उसमें कमी आती है तो मामला यहाँ से बिगड़ने लगता है. कहने का तात्पर्य है कि अब चाहे घर हो अथवा सेना जैसा कोई बड़ा संगठन हो, इन बदली हुई परिस्थितियों को हर एक को ध्यान रखना चाहिए. शीर्ष स्तर के लोगों को इस बाबत अवश्य ही विचार करना चाहिए कि हर संगठन में एक डेमोक्रेसी और ट्रांसपेरेंसी का होना समयानुसार आवश्यक हो गया है. यह बात भी ठीक है कि 'फ़ौज' जैसी संस्था में हम बहुत आज़ादी भी नहीं दे सकते तो सुविधाओं की भरमार भी नहीं कर सकते. सोशल मीडिया पर अपनी समस्याओं का रोना रोने वाले सिपाही भाइयों को यह भी समझना चाहिए कि अगर लड़ाई के दौरान वह किसी देश में बंदी बना लिए गए तो क्या वहां भी 'तड़का लगी दाल' और सूखे मेवा की मांग करेंगे? अगर बर्फीले इलाकों में सभी सुविधाएं पहुंचाई ही जा सकती तो फिर वह क्षेत्र दुर्गम ही क्यों होता और कोई भी आम नागरिक वहां जाकर ड्यूटी कर लेता फिर तो! यह बात ठीक है कि सेना के कुछ अधिकारियों और उससे जुड़ी टोली भ्रष्ट है और वह आम जवानों का हक़ मार लेती है, किन्तु सिस्टम में रहकर इस भ्रष्टाचार से लड़ने की राह उन्हें खोजनी ही होगी, अन्यथा अनुशासन टूटने से तो फिर सेना का मतलब ही 'शून्य' रह जायेगा. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जिस तरह से सेना और सुरक्षा बल के जवानों की शिकायतें आ रही हैं, वह बेहद दुखद है. सेना में जाने का सपना देखने वाले 'देशसेवा' और दुश्मन के दांत खट्टे करने का अरमान पाले रहते हैं और उन्होंने इस तरह के वाकयों की कल्पना भी नहीं की होगी. सेना के जवानों की जो शिकायतें सामने आयी हैं, उन शिकायतों में रत्ती भर भी झूठ नहीं है, इस बात को सभी जानते हैं, किन्तु सवाल वही है कि क्या कुछ अधिकारियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार के लिए समस्त सेना पर प्रश्नचिन्ह उठाया जाना न्यायसंगत है. Reform in Indian Army, Transparency, Corruption, Technology, Hindi Article, New

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किसी मित्र ने फेसबुक पर लिखा कि "सैन्य अधिकारियों की ईमानदारी पर ज्यादा भावुक मत होइए. अगर आप सेना /अर्द्ध सेना के सिपाहियों की भर्ती प्रक्रिया के बारे में या कुछ सिपाहियों को व्यक्तिगत जानते हैं तो आपको ये भी पता होगा कि फिजिकल, जो सबके सामने ग्राउंड पर होता है, निकालने के बाद लिखित और मेडिकल आदि निकलवाने के लिए अधिकारी लोगों का समय समय पर क्या रेट चलता है?" वस्तुतः भ्रष्टाचार एक ऐसा 'कोढ़' हो गया है, जो हमारे देश के विभिन्न संस्थानों को दीमक की भांति खोखला करता जा रहा है. और यह आज से नहीं हो रहा है, बल्कि आज़ादी के बाद से अनवरत हो रहा है. इसे लेकर सेना और सरकार को विभिन्न पहलुओं पर कार्य करना चाहिए. सबसे अधिक कार्य भ्रष्टाचार पर रोक, दूसरा सेना में ट्रांसपेरेंसी लाने की कवायद, खासकर जवानों से जुड़ी सुविधाओं को लेकर और इससे आगे आवश्यकता है नए ज़माने के हिसाब से सेनाधिकारियों और जवानों को शिक्षित करने की! सोशल मीडिया क्या है और उस पर विडियो पोस्ट करने से क्या परिणाम निकल सकते हैं और कैसे वह हमारे देश की सुरक्षा से जुड़ा विषय है, इन सभी पर ट्रेनिंग दिए जाने की आवश्यकता है. सेना के जवान और अधिकारी दुश्मन देशों द्वारा किये गए जासूसी कांडों में खूब फंसे हैं और इसका हथियार सोशल मीडिया जैसा प्लेटफॉर्म ही बना है, तो क्या उचित नहीं होगा कि अब सेना को इस तरह के माध्यमों की उपयोगिता और खतरों के प्रति लगातार जागरूक करते रहा जाए. ऐसे कदम बहुत पहले उठा लिए जाने चाहिए थे, तो शायद यह दिन देखने को न मिलता. खैर, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है और जिन तीन जवानों द्वारा सोशल मीडिया पर विडियो पोस्ट किया गया है, उससे सेना को सीख लेने और आगे बढ़ने की आवश्यकता है. जम्मू कश्मीर में तैनात सीमा सुरक्षा बल के जवान तेज बहादुर यादव ने फ़ौजियों को मिलने वाले खाने की गुणवत्ता को लेकर प्रश्न उठाया तो सीआरपीएफ़ में कार्यरत कॉन्सटेबल जीत सिंह ने फ़ेसबुक और यूट्यूब पर वीडियो डाला, जिसमें सुविधाओं की कमी और सेना-अर्धसैनिक बलों के बीच भेदभाव की बात कही गई थी. ऐसे ही, लांस नायक यज्ञ प्रताप सिंह ने आरोप लगाया कि अधिकारी, जवानों का शोषण करते हैं. आप ध्यान से देखें तो इन तीनों ने सेना से असंतोष नहीं जताया है, बल्कि भ्रष्टाचार और नीतिगत मामलों पर ही अपनी राय रखी है. क्या अब यह आवश्यक नहीं है कि सेना खुद ही सेमिनार रखे जिसमें जवानों को खुलकर बोलने दिया जाए और उस अनुरूप रणनीति बनाकर मामलों को सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ा जाए. Reform in Indian Army, Transparency, Corruption, Technology, Hindi Article, New



यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने मन की बात कहना चाहता है और सेना जैसे संस्थानों को भी अनुशासन के दायरे में ही रहकर इसका मंच उपलब्ध कराया जाना चाहिए, ताकि एक व्यापक समझ का दायर विकसित हो. अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो फिर लोगबाग सोशल मीडिया की ओर जाएंगे ही. हालाँकि, अभी गृह मंत्रालय ने पैरामिलिटरी जवानों द्वारा सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है, किन्तु यह प्रतिबन्ध बहुत देर तक नहीं लगाया जा सकता है और बेहतर यह होगा कि दूरगामी परिणामों के लिए इस सम्बन्ध में दूरगामी योजनाएं भी निर्मित की जाएँ. द टेलिग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, अगर कोई भी जवान ट्विटर, फेसबुक, वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम या यू ट्यूब आदि सोशल मीडिया पर तस्वीर या विडियो पोस्ट करना चाहता है तो उसके लिए अपनी फोर्स के डायरेक्टर जनरल से इजाजत लेनी होगी. खैर, तात्कालिक रूप से यह कदम जरूरी था, अन्यथा सेना का अनुशासन भंग होने का खतरा था, पर आगे के लिए स्थाई रणनीति का निर्माण करना ही होगा, इस बात में दो राय नहीं!

मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Thursday 15 December 2016

'नोटबन्दी' के विभिन्न पहलुओं पर आकाशवाणी में चर्चा - Discussion at All India Radio, Delhi Centre with Dr. Vinod Babbar ji, Madam Shruti Puri

by on 08:13


आकाशवाणी के राजधानी चैनल पर 4 दिसम्बर की सुबह 7 बजे, पूरे भारत में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ब्रज माधुरी में 'नोटबन्दी' के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा में डॉ. विनोद बब्बर 'जी' के साथ मिथिलेश कुमार सिंह।
कार्यक्रम का संचालन मैडम श्रुति पुरी ने किया, जिसमें आकाशवाणी के मदन भैया भी सम्मिलित रहे।
4 दिसंबर 2016 की सुबह 6.55 पर संस्कृत समाचारों के तुरंत बाद आप इस परिचर्चा को सुन सकते हैं। 
(मीडियम वेव = 450.5 मीटर, यानि 666 किलोहर्ट्ज़ पर )
सार्थक संवाद के लिए टीम आकाशवाणी को हार्दिक साधुवाद...

कार्यक्रम में शामिल किये गए मुद्दे:
  1. नोटबंदी से उत्पन्न परेशानी कब तक रहने वाली है?
  2. नोटबंदी से भारत की वैश्विक स्थिति पर क्या फर्क पड़ा है?
  3. 'कैशलेश इकॉनमी' से आखिर कस्बाई और ग्रामीण भारत किस प्रकार और कब तक जुड़ सकेगा?
  4. 'काला धन और जन-धन' अकाउंट से सम्बंधित प्रश्न ... जो सीधे तौर पर आम आदमी के सरोकारों से जुड़े हुए हैं.
  5. और भी बहुत कुछ...
Discussion at All India Radio, Delhi Centre with Dr. Vinod Babbar ji, Madam Shruti Puri

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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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Friday 29 January 2016

रात के बाद दिन - Hindi poem on success, failure

by on 09:49
'चिराग' उन्हें फीका लगा होगा 
हमने जो 'दीपक' जलाया अभी

खुशियाँ भी कुछ कम लगी होंगी
खुल के हम जो 'मुसकराये' अभी

गफ़लत में थे देख परतें 'उदास'
आह भर भर के वो पछताए अभी

कद्र कर लेते रिश्ते की थोड़े दिनों
जब फंसे थे मुसीबत में हम कभी 

तब उड़ाई हंसी ज़ोर से हर जगह
मानो दिन न फिरेंगे हमारे कभी 

ऐसा भी न था जानते कुछ न 'वो'
रात के बाद दिन जग की रीत यही 

- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Hindi poem on success, failure, day night, mithilesh, poet

Monday 21 December 2015

पुरुषार्थ उद्यम के सहारे 'यज्ञ' कर - Purusharth, udyam ke sahare yagya kar

by on 20:55
चादर तान कर किसको
सोना अच्छा नहीं लगता
अधखुली आँख से तब और
सपने बेहतर से दिखते हैं

आह! मगर ज़िन्दगी के थपेड़े
जगाते हैं, झिंझोड़कर अचानक
टूटते हैं तब 'दिवा-स्वप्न' बरबस
और मजबूर होते हैं सब, क्योंकि

वह खोजते रहे पल ख़ुशी के
पिछली दुनिया की लड़ियों में
जोड़ते रहे ख्वाब को कड़ियों में
ख्वाब की ही तरह फिसले यूं पल

आओ जलाएं दीप हम अब अभी
दिख जाये रौशन राह उनको कभी
करो बात और ना 'अनभिज्ञ' बन
पुरुषार्थ उद्यम के सहारे 'यज्ञ' कर

Purusharth, udyam ke sahare yagya kar, 
past, present, future, bhoot, vartmaan, bhavishya, reality, do real, face to face

Monday 14 December 2015

एक बेहतरीन हिंदी न्यूज पोर्टल कैसा हो? प्लेटफॉर्म, सुविधाएं, यूजर-इंटरैक्शन, होस्टिंग और भी बहुत कुछ... How to start a news portal?

by on 04:24
आज के समय में यह बात लगभग साबित हो गयी है कि भारत में हिंदी ही एकमात्र भाषा है जो सबसे ज्यादा बोली और समझी तो जाती ही है, साथ ही साथ इंटरनेट पर अब यह इतनी ही सुगमता से उपलब्ध है, जितनी सुगमता से अंग्रेजी या कोई अन्य भाषा. चूँकि, इंटरनेट पर हिंदी में सहजता कुछ ही वर्ष पहले आयी है तो इसमें करने के लिए काफी कुछ अपॉरचुनिटी नज़र आती है. हज़ारों विषय ऐसे हैं, जिनके बारे में बेहतर तरीके से अगर आप कंटेंट ही डालते हैं तो आपकी वेबसाइट लगातार अपडेट होने से जल्द ही टॉप-वेबसाइट की श्रेणी में आ जाएगी. अगर आप किसी एक विषय को चुनकर, उसके विभिन्न पक्षों को अंग्रेजी से हिंदी में, अपने शब्दों में अनुवाद ही करते हैं तो आपके पास बेहतरीन कलेक्शन उपलब्ध होगा. अगर, आप लेखक/ कवि हैं तो आप अपनी रचनाओं को लगातार अपडेट करके अपने पोर्टल को ऊंचाई तक पहुंचा सकते हैं. अगर आप पत्रकार हैं तो ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव न्यूज से तमाम संस्थानों को अपनी खबरें दे सकते हैं या सेल कर सकते हैं. जब आपके पास, आपकी ही भाषा में एक बेहतरीन वेबसाइट रेगुलर अपडेट होती है तो यकीन मानिये आप एक बढ़िया ऑनलाइन माध्यम विकसित कर चुके हैं, जो आपको बेहतरीन कमाई देने के लिए बिलकुल तैयार है. नीचे कुछ बिन्दुओं पर गौर करेंगे, जो एक बेहतरीन न्यूज-व्यूज पोर्टल के लिए लाभकारी साबित हो सकता है:
  1. विषय का चुनाव: अगर आप सच में कंटेंट बेस्ड ऑनलाइन पोर्टल बनाने की ठान चुके हैं तो विषय का चुनाव सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है. ध्यान रहे, इंटरनेट अपने आप में एक बहुत बड़ा संसार है, जहाँ प्रत्येक चीज पहले से ही उपलब्ध है, तो जब तक आप के दिमाग में स्पेसिफिक सब्जेक्ट नहीं है, अलग प्रजेंटेशन नहीं है, तब तक आगे की राह कठिन ही नहीं, बल्कि खुद को भ्रम में रखने जैसी ही है. आप किसी अंग्रेजी की वेबसाइट पर आर्टिकल पढ़ जरूर सकते हैं, उससे आईडिया भी ले सकते हैं, किन्तु हूबहू कॉपी-पेस्ट आपको नीचे ले जाएगा. अपने सब्जेक्ट की समझ लगातार विकसित करना यहाँ बेहद आवश्यक है. इसी तरह अगर आप न्यूज पोर्टल बना रहे हैं तो यह न सोचें कि आजतक, कल तक या जागरण जैसी किसी वेबसाइट से कॉपी-पेस्ट करके आप अपनी वेबसाइट को ऊंचाइयों तक पहुंचा देगी? बल्कि, इसके लिए आपको ख़बरों को अलग नज़रिये से पेश करना होगा, उसमें नयी जानकारियां जोड़नी होंगी, अगर एनालिटिकल डाटा दे सकें तो और बढ़िया होगा और अगर उस विषय पर लेख आ जाये, तस्वीरों के माध्यम से उसकी व्याख्या आ जाये तो सोने पर सुहागा. कुल मिलाकर, आपकी वेबसाइट, आपकी लगनी चाहिए ताकि पाठक-वर्ग को कुछ नया मिले और वह आपकी वेबसाइट पर आकर निराश न हो!
  2. प्लेटफॉर्म का चुनाव: मार्किट में तमाम प्रोग्रामिंग लैंगुएज, सीएमएस और कस्टम सल्यूशन उपलब्ध हैं, किन्तु अगर आपको कम पैसे में परफेक्ट सल्यूशन और बेहतरीन फीचर चाहिए तो आप निश्चिन्त होकर वर्डप्रेस प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल कीजिये. आसान, ओपन-सोर्स, अंतराष्ट्रीय मानक, ब्रेकिंग न्यूज से लेकर कैटगरी-ऑप्शंस, सैकड़ों मुफ्त प्लगिन्स जो आप डेवेलप कराने जाएँ तो लाखों लग सकते हैं, बैकप ऑप्शन, एससीओ ऑप्शन, फोटो-वीडियो गैलरी ऑप्शन इत्यादि तमाम फीचर तो आपको मिलेंगे ही, साथ ही साथ अगर आप डिज़ाइन में बहुत अधिक छेड़छाड़ नहीं कराते हैं तो आपको यह शुरूआती स्तर पर सस्ता भी पड़ेगा. सबसे बड़ी बात की अगर भविष्य में आप किसी और प्लेटफॉर्म पर जम्प करना चाहें तो आपकी वर्डप्रेस वेबसाइट का डेटा आसानी से माइग्रेट हो जायेगा.
  3. प्रमोशन टेक्निक्स: शुरुआत में जब तक आपकी वेबसाइट पर 100 से ज्यादा क्वालिटी पोस्ट न हो जाएँ तब तक इसका प्रमोशन करना 'बाउंस-बैक' करता है. अगर किसी एक पोस्ट के लिंक से आपकी वेबसाइट पर ऑडियंस आता है तो पोर्टल पर कम से कम इतनी सामग्री अवश्य हो जो ज्यादे से ज्यादे समय तक आपके पाठक को रोके रख सके. धीरे-धीरे आप फेसबुक, ट्विटर जैसे तमाम सोशल मीडिया से ग्राहकों को वेबसाइट पर ला सकते हैं तो वीकली या मंथली कंटेंट का न्यूजलेटर भेजना आपकी वेबसाइट को जबरदस्त तरीके से बूस्ट करता है. निश्चित रूप से आपकी वेबसाइट पर कमेंट बॉक्स में प्रतिक्रिया आने पर आपको इसका अंदाजा होगा तो वेबसाइट स्टेट्स से आपको कस्टमर का टेस्ट पता चल सकता है. एनालिटिक्स पर बारीक निगाह गड़ाएं रखें.   फिर कम से कम 1000 क्वालिटी पोस्ट होने के बाद आप पेड-प्रमोशन की तरफ भी ध्यान दे सकते हैं जिसमें गूगल एडवर्ड/ फेसबुक प्रमोशन इत्यादि शामिल हैं.
  4. डिज़ाइन / कस्टमाइजेशन: अगर आपकी वेबसाइट पर ट्रैफिक आने लगता है, एडसेंस इत्यादि से अर्निंग शुरू हो जाती है, फिर आप यूनिक डिज़ाइन, कस्टमाइजेशन की तरफ जा सकते हैं, जिससे कस्टमर को नया लुक और बेहतर से बेहतर एक्सेस मिल सके. यह पॉइंट मैंने अंतर में इसलिए रखा है, क्योंकि अगर शुरू में ही आप डिज़ाइन पर अँटक जाते हैं तो कंटेंट से आपका फोकस हट जाता है, साथ ही साथ शुरू में एक अच्छी खासी इन्वेस्टमेंट भी हो जाती है, जिसका कोई तुक नहीं होता. ध्यान रहे, कस्टमर आपकी वेबसाइट पर आपके विचारों, एक्सक्लूसिव ख़बरों को पढ़ने के लिए आएगा, न कि लाल-पीला-नीला डिज़ाइन देखने. इसलिए अपना ध्यान बेहतर कंटेंट पर फोकस करें. 
  5. ब्रांडिंग: उपरोक्त सभी पॉइंट्स से गुजरने के बाद आपको अहसास हो जायेगा कि आपके मॉडल में कितना दम है. अगर उसमें पोटेंशियल दिखता है तो उसकी हर स्तर पर ब्रांडिंग शुरू कर सकते हैं. मीडिया घरानों से पब्लिसिटी करा सकते हैं तो इन्वेस्टर या वेंचर कैपिटलिस्ट की मदद से आगे के बड़े सपनों के ऊपर छलांग लगा सकते हैं. फिर आपके ऑनलाइन माध्यम के साथ ऑफलाइन मॉडल भी जुड़ सकता है. जैसे, अगर आप न्यूज पोर्टल ही चलाते हैं तो उसके सफल होने पर आप किसी सहयोगी के इन्वेस्टमेंट से अखबार शुरू कर सकते हैं. अगर आपके आर्टिकल हिट हैं तो आप मैगजीन शुरू कर सकते हैं. अगर आप ट्रेवल ब्लॉग के माध्यम से पॉपुलर हो गए हैं तो टूरिज्म कंपनी के माध्यम से सर्विस दे सकते हैं या फिर अगर आप की वेबसाइट फूडिंग/ रेसिपीज के बारे में है तो फिर आप रेस्टोरेंट शुरू कर सकती हैं. डिपेंड करता है, किस हद तक आपने कॉन्फिडेंस गेन किया है और अंततः आपका पोर्टल आपको यह बता देता है कि आप कितने पानी में हैं. यकीन कीजिये, अगर आपने सीरियसली और डेडिकेटली अपने पोर्टल को 1 साल का समय दे दिया तो आपके सामने एक बड़ा मैदान होगा, जहाँ आपकी महत्वाकांक्षाएं सच हो सकती हैं. आप अपने विचार, सुझाव मुझे मेल कर सकते हैं. मेरी मेल आईडी है: mithilesh2020@gmail.com; Ph. 9990089080; Web: www.mithilesh2020.com


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Saturday 3 October 2015

धर्मान्धता को तज भी दो... (Hindi Poem)

by on 10:08

तोड़ दे हर 'चाह' कि

नफरत वो बिमारी है

इंसानियत से हो प्यार

यही एक 'राह' न्यारी है  

 

बंट गया यह देश फिर

क्यों 'अकल' ना आयी

रहना तुमको साथ फिर

क्यों 'शकल' ना भायी

 

'आधुनिक' हम हो रहे

या हो रहे हम 'जंगली'

रेत में उड़ जाती 'बुद्धि'

सद्भाव हो गए 'दलदली'

 

हद हो गयी अब बस करो

नयी पीढ़ी को तो बख्स दो

'ज़हरीलापन' बेवजह क्यों

धर्मान्धता को तज भी दो

 

- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

Hindi poem on religious environment, hindu, muslim

Friday 2 October 2015

बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड, घटिया सोच ...

by on 23:58

शिकायत के बाद भी 'भारतीयों को कुत्ता' कहने वाली लाइन नहीं हटाई 'बीबीसी हिंदी' ने ... !!

जी हाँ! अपनी रिपोर्टिंग से नाम कमाने वाला बीबीसी एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड है. लेकिन,BBC Hindi bad comment about INDIANs इसके कई लेख और भारत विरोधी सोच काफी कुछ सोचने को मजबूर करती है. पिछली बार, निर्भया के साथ हुए हादसे पर बीबीसी की लेस्ली उडविन ने 'भारत की बेटी' नाम से डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिस पर भारत सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया... किन्तु, प्रतिबन्ध को खुली चुनौती देते हुए इस संस्थान ने अमेरिका में इस फिल्म का प्रीमियर किया. खैर, वह मुद्दा पीछे छूट गया...
 
हाल ही में मैं बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर एक फोटो गैलरी देख रहा था कि बनारस की एक फोटो और उस पर लिखा कैप्शन देखकर मुझे गहरा दुःख हुआ. क्या बीबीसी जैसा इतना बड़ा संस्थान भारत के गरीबों को 'कुत्ता' और भारतीय परिवारों को 'कुत्ते का परिवार' कह सकता है... जबकि, तस्वीर में कहीं भी वास्तविक जानवर रुपी कुत्ते नहीं दिख रहे हैं. मन में कई ख्याल आये कि कई सालों तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों की मानसिकता आज भी 'नस्लवादी' किस प्रकार हो सकती है... !!
 
फिर भी, इस संस्थान को एक मौका देते हुए मैंने सोचा कि शायद यह  'टाइपिंग या एडिटिंग' की गलती हो सकती है... और तब मैंने इसकी कम्प्लेन की, इसको मेल लिखा. आश्चर्य है, कम्प्लेन किये हुए आज 48 घंटे से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन न तो इसकी कोई सफाई आयी और न ही वेबसाइट से भारतीयों को 'कुत्ता' कहने वाला कैप्शन हटाया गया. ..
 
अब मैं इसके खिलाफ 'कानूनी विकल्पों' पर विचार कर रहा हूँ, लेकिन इससे पहले चाहता हूँ कि आप सब मित्रों का इस विषय पर सहयोग मिले. कृपया नीचे दिए गए खबर के लिंक को देखें और सोचें कि ऐसी ख़बरों से भारत के बारे में क्या छवि बना रहा है 'बीबीसी' ...
साथ ही साथ बीबीसी का कम्प्लेन पेज का लिंक भी मैंने दिया है, आप सब वहां अपनी कम्प्लेन दर्ज कराएं और साथ ही दिए गए बीबीसी के ईमेल पर भी इस लाइन 'कुत्तों के परिवार' को हटाने को कहें, ताकि हर बात का रिकॉर्ड रहे. अगर बीबीसी ने इस खबर को जल्द से जल्द नहीं हटाया, तो भारतीय कानूनी विकल्पों में आप सबका सहयोग भारत के खिलाफ मानसिकता रखने वालों को सबक देने में सहभागी बनेगा.
 
इस खबर को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें, अपने दोस्तों को बताएं ... ताकि हमारे देश पर अगर कोई ऊँगली उठाये तो उसकी ओर एक अरब से ज्यादा उंगलियां उठें ...  ध्यान रखें, बीबीसी एक बड़ा संस्थान है और उसकी वेबसाइट पर दिखाई गयी तस्वीरें, न्यूज पूरे विश्व में देखी जाती हैं, इसलिए इस 'राष्ट्रीय छवि' से जुड़े मुद्दे को अनदेखा न करें. व्यक्तिगत रूप से दोस्तों को इस न्यूज का लिंक भेजें. आपका मात्र एक मिनट लगेगा, लेकिन इससे ऐसी संस्थाओं की नस्लवादी सोच पर अंकुश लगेगा!
 

धन्यवाद सहित,

मिथिलेशब्लॉगरपत्रकार...

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Racist news, caption by BBC hindi website, says Indians are Dog
Racist comment by BBC Hindi

Thursday 1 October 2015

असल राजनीति और भारत पाकिस्तान

by on 12:40
शुरुआत में जब नयी नयी 'समझ' की कोंपलें फूट रही थीं, तब ऐसी कई बातें थीं जो दिमाग के बहुत ऊपर से निकल जाती थीं. भारत जैसे देश में चूँकि चुनाव होते ही रहते हैं, कभी लोकसभा, कभी विधानसभा, कभी ग्राम-पंचायत और इनके बीच में भी तमाम दुसरे चुनाव. इन चुनावों में एक कॉमन बात यह सुनने को मिलती रहती थी कि अमुक पार्टी या अमुक उम्मीदवार ने 'लाशों पर राजनीति' करने की कोशिश की है. नहीं समझ आती थीं तब ये बातें... और ... ऐसा पहला अनुभव तब हुआ, जब मेरे गाँव में ग्राम पंचायत का चुनाव हुआ. यह 1995 के आस पास का समय था, जब मेरी उम्र 10 साल की थी... बड़े उत्साह से गाँव के प्राइमरी स्कूल पर मैं भी जमा रहा था कि शाम को तकरीबन चार बजे भगदड़ सी मची और ... प्रधान पद के एक उम्मीदवार को अपने खून से सने पेट को पकड़े गिरते हुए देखा. दो चार और खून से लथपथ लोग दिखे ... जल्द ही लाठियां और बांस हवा में लहराने लगे थे. डर के मारे मैं भागतेMithilesh's poem in hindi, extra zeal for Investment in India, Indian flag हुए घर आया और तब मेरा बालमन यही सोच रहा था कि कहीं मेरी मम्मी और चाची तो वोट देने नहीं गयी हैं. मेरे पहुँचने के थोड़ी देर बाद एक प्रत्याशी का समर्थक भी रोते हुए मेरे घर पहुँच गया और गिड़गिड़ाते हुए बोला कि 'उ सहबुआ, दतुअन काटे आला छूरी कई आदमीं के भोंक देले बा, अब पुलिस के कई गो गाड़ी आ गइल बाड़ी सन, चल के वोट दे द लो ए रमेशर भइया... कइसहूं जिता द लो... बाद में ए ससुरन के देख लिहल जाइ'...  जीवन में पहली घटना का ऐसा प्रभाव होता है कि आज 20 साल बाद भी उस घटना का चित्र हूबहू याद आता है. हालाँकि, उसके बाद तो लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में 'लाशों पर राजनीति' की खबरें देखना सुनना आम बात हो गयी. हाँ! जैसे-जैसे चुनाव और राजनीति बड़े होते गए, गाँव की 'छुरियों' का स्वरुप भी बंदूकें, एके-47, बम, दंगे, रासायनिक हथियार और परमाणु हथियारों तक में परिवर्तित होता गया.  इसी कड़ी में प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, जिसका अध्ययन वैश्विक राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है. इन दो युद्धों, विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र संघ में कई देश अक्सर अपनी राजनीति को साधने के लिए मोहरे के रूप में कई देशों को आगे बढ़ाते रहे हैं. बेशक, वह मोहरा कुर्बान हो जाय, देश बर्बाद  हो जाय! थोड़ा और स्पष्ट करें तो, विश्व में आज के समय में 'सीरिया संकट' सबसे बड़े संकट के रूप में दिख रहा है. लाखों की संख्या में शरणार्थी समस्या और उस पर अरब देशों का विपरीत रूख, अमेरिका रूस इत्यादि की अस्पष्ट नीतियां देखने के बाद, लगभग महीने भर तक यह समस्या मुझे ठीक से समझ ही नहीं आयी कि आखिर 'सीरिया संकट' की जड़ में है क्या? संयुक्त राष्ट्र की महासभा में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में कहा कि इस्लामिक स्टेट चरमपंथियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में 'सीरिया की सरकार' की मदद न करना एक बड़ी भूल है, तब इस संकट के पीछे की हवाओं को समझने में मदद मिली. अब इसी के साथ जरा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का बयान भी देख लीजिये, और राजनीति के मोहरों को समझने की कोशिश कीजिये. ओबामा ने महासभा में कहा कि सीरिया संघर्ष को समाप्त करने के लिए अमरीका, रूस और ईरान समेत किसी भी देश के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार है, लेकिन ज़रूरत यह है कि बशर अल असद से सत्ता का कामयाब हस्तांतरण हो.... मतलब, सीरिया में लाखों लोग जान गँवा चुके हैं, करोड़ों बेघर हो चुके हैं, 40 लाख से ज्यादा लोग पलायन कर चुके हैं ... और विश्व की दो सबसे बड़ी महाशक्तियां एक राष्ट्र-प्रमुख को हटाने और बनाये रखने पर राजनीति की चालें चल रही हैं.. कारण चाहे जो भी हो, क्या फर्क पड़ता है... मौत तो बेगुनाहों की हो ही रही है! और चूँकि, मामला दो महाशक्तियों के वर्चस्व का है, इसलिए विश्व के दुसरे देश भी सीरिया मामले पर कन्फ्यूजन में हैं. जाहिर है, इस्लामिक स्टेट को बढ़ावा देना, सीरिया को अस्थिर करना और उसके जरिये अपने हित साधने की कुटिल राजनीति चली जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे लादेन को बढ़ावा दिया गया था, या भारत में भिंडरवाले को बढ़ावा दिया गया था, या फिर पाकिस्तान में हाफीज़ सईद, हक्कानी गुट और दुसरे आतंकी समूहों को बढ़ावा दिया जा रहा है.
 
Pakistani Terrorists new target, child and youth for brainwash, hindi article by mithileshइस भूमिका के बाद, अब अगर पाकिस्तान की बात करते हैं तो इस देश की नीतियों के मामले में ऐसा कुछ भी धुंधला नहीं है जो किसी को न पता हो! आखिर, वह हमारा भाई जो रहा है और इसके अलावा चार बड़े युद्ध और 70 सालों की मारामारी ने दोनों देशों के नागरिकों और सरकारों को एक-दुसरे के बारे में काफ़ी कुछ समझा दिया है. हाँ! पाकिस्तान के बारे में एक और बात जो समझने वाली है वह यह है कि एक फटेहाल, लगभग नाकाम देश को इतनी ऊर्जा कहाँ से मिलती जा रही है, जो वह भारत जैसी बड़ी इकॉनमी के सामने खड़े होने की लगातार हिम्मत दिखा रहा है, युद्ध की धमकी देता है, यूएन और दूसरी जगहों पर मुंह फाड़ता रहता है... क्या वाकई, इसके पीछे कोरी भावुकता और दुश्मनी ही है?  आइये, एक बार फिर भारत पाकिस्तान के रिश्तों के पन्नों को पलटते हैं... 1947 के बंटवारे की भावुकता में पहली लड़ाई तुरंत ही हुई तो 1965 की लड़ाई में 'चीन द्वारा भारत की हार' ने पाकिस्तान को उकसाया. इसके बाद, पूर्वी पाकिस्तान पर अत्याचार के रूप में 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान बुरी तरह टूट चुका था, और शीतयुद्ध के दौर में उसकी कमजोरी का भरपूर फायदा उठाया अमेरिका ने! तब भारत को मजबूरन रूस का साथ लेना पड़ा और एशियाई महाद्वीप में ये दोनों देश वैश्विक राजनीति का दशकों तक मोहरा बने! 1991 में सोवियत यूनियन के विखंडन और भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत ने वैश्विक समीकरणों को तेजी से बदला और साथ में बदली भारत की छवि! इस बीच 1999 का कारगिल युद्ध जरूर हुआ, लेकिन उसका सबसे बड़ा कारण अटल बिहारी बाजपेयी का पाकिस्तान के प्रति अति 'भावुक' दिखना रहा... हालाँकि, इस बात पर विश्लेषक एकमत नहीं रहे हैं और उनके अनुसार एक फौजी जनरल का पागलपन और भारत में तत्कालीन गठबंधन राजनीति का ढुलमुलापन भी पाकिस्तान के दुस्साहस का कारण हो सकते हैं. खैर, उसके बादHindi article on world politics, analysis of India Pakistan relations by Mithilesh, Lal bahadur Shashtri हालात बदले और भारत के आर्थिक उभार के साथ ही, पाकिस्तान तेजी से चीन की गोंद में जा गिरा. तमाम युद्धों में फेल होने और वैश्विक शक्तियों के बार-बार 'मोहरा' बनने के कारण पाकिस्तान के आतंरिक हालात जर्जर हो गए तो उस पर परदा रखने के लिए भारत का विरोध और चूँकि सीधा विरोध उसके लिए अब मुमकिन नहीं रहा था, इसलिए आतंक का पोषण उसकी सरकारी नीति बन गयी. इस बीच भारत में हालात लगातार सुधरे और 2014 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के साथ ही राजनीतिक उथल पुथल के दौर से भी भारत एक झटके से बाहर आ गया. अब मजबूत राजनैतिक नेतृत्व, वैश्विक बिरादरी में भारतवंशियों की सशक्त पहचान, सक्षम युवाओं की विशाल फ़ौज, इन्वेस्टर्स का पसंदीदा स्थल और अपनी संस्कृति और भाषायी सक्षमता के कारण भारत आज न केवल चीन, बल्कि रूस और अमेरिका की नज़रों में भी खटक रहा है. चूँकि, अमेरिका द्वारा भारत का समर्थन इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि चीन और रूस की आतंरिक खेमेबंदी से निपटने के लिए एशिया में और कोई दूसरा सक्षम है ही नहीं. अब ज़ाहिर है कि भारत पर लगाम लगाने के लिए इन महाशक्तियों के पास एक ही अस्त्र बचता है, और वह है 'पाकिस्तान'! और उसके लिए सबसे आसान तरीका है कश्मीर मुद्दा और पाक अधिकृत कश्मीर... इस क्रम में पाक अधिकृत कश्मीर के रस्ते चीन ने भारी भरकम इन्वेस्टमेंट से अपनी बड़ी चाल चल दी है तो कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में हाईलाइट किए जाने से महाशक्तियों का दूसरा उद्देश्य भी पूरा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70वें अधिवेशन में भाषण देते हुए नवाज़ शरीफ़ ने कश्मीर मुद्दे को न सुलझा पाने को संयुक्त राष्ट्र की नाकामी बताते हुए कहा कि सुरक्षा परिषद के कई प्रस्ताव इस सिलसिले में लागू नहीं हुए हैं. जाहिर है, पाकिस्तान जैसा देश, जो ठीक से लोकतान्त्रिक भी नहीं है, वह संयुक्त राष्ट्र को नाकाम बता रहा है तो इसके पीछे की हवाओं को देखना आवश्यक हो जाता है. नवाज़ शरीफ़ ने इस सिलसिले में और भी काफी कुछ कहा जिसमें भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में लड़ाई के बजाए सहयोग पर बल देना और भारत द्वारा सीमा रेखा पर संघर्ष-विराम का उल्ल्घंन न करने की बातें भी शामिल हैं, जिस पर शायद उन्हें खुद ही यकीन नहीं रहा होगा! खैर, नवाज शरीफ की इन बातों पर भारत ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, जिसमें नयी बात यह थी कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर पाकिस्तान को घेरने का प्रयास हुआ. भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरुप ने एक एक करके नवाज शरीफ के यूएन में भाषणों की धज्जियां उड़ाते हुए ट्वीट कर दिए... हालाँकि, इस  प्रतिक्रिया से पहले यह समझने की कोशिश की जानी चाहिए थी कि अब तक भारत के अधिकृत रूख में पाक द्वारा कब्जाए गएsecurity council, united nations, uno - hindi article by mithilesh कश्मीर के हिस्से पर इतना कड़ा रूख क्यों नहीं दिखाया गया था? क्या वाकई, पहले की तमाम भारतीय सरकारें इस मुद्दे पर लचर ही थीं, या बात कुछ और थी! भारत ने अपनी प्रतिक्रिया में यह भी कहा कि पाकिस्तान पहले पाक अधिकृत कश्मीर को खाली करे, क्योंकि पाकिस्तानी फौज पीओके में ह्यूमन राइट्स का लगातार धज्जियां उड़ा रही हैं तो वहां विरोध कर रहे लोगों को यह कहते भी सुना जा रहा है कि ‘हम इंडिया जाना चाहते हैं’. पीओके पर लगभग यही बात भाजपा के दुसरे नेता भी कहते रहे हैं. हालाँकि, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुषमा स्वराज के बयान में ज्यादा परिपक्वता दिखी. संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भाषण देते हुए कहा कि भारत संयुक्त राष्ट्र का पूरा समर्थन करेगा, इसलिए नीले झंडे के तले तमाम लोग काम कर रहे हैं.180000 शांतिसैनिक भारत ने उपलब्ध कराए हैं, जिसमें से 8000 तो काफी चुनौती पूर्ण स्थिति में काम कर रहे हैं. हम अपना योगदान बढ़ाने को तैयार हैं, लेकिन तमाम राष्ट्र जो इस मिशन में अहम भूमिका निभा रहे हैं उनकी निर्णय प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है. कश्मीर मुद्दे को अनदेखा करते हुए सुषमा ने नवाज को भी साफ़ कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद छोड़े तो भारत 'द्विपक्षीय' बातचीत के लिए तैयार है. साफ़ है कि विश्व भर में आतंक के लिए बदनाम पाकिस्तान को 'आतंक' के ही नाम पर घेरा जा सकता है, न कि कोई 'पीओके' का मुद्दा उठाकर!Hindi article on world politics, analysis of India Pakistan relations by Mithilesh, pakistan and china
 
जाहिर है, पूरे कश्मीर और अपने काफ़िर-नियमों के तहत पूरी दुनिया पर हक़ ज़माने की मंशा वाला पाकिस्तान अपने देश और पीओके के नागरिकों के जीवन-स्तर को नरक से भी बदतर बना चुका है, लेकिन सवाल वही है कि यह बात किसे पता नहीं है? यह बात तो खुद पाकिस्तान के ही कई बुद्धिजीवियों द्वारा समय-समय पर कही जाती रही है कि पाकिस्तान कश्मीर तो मांग रहा है, लेकिन पहले वह पाकिस्तान को ही संभाल कर और उसका विकास करके दिखाए! स्पष्ट है कि चर्चा चाहे जम्मू कश्मीर की हो या 'पाक अधिकृत कश्मीर' की, इस मुद्दे पर भारत की उलझनें बढ़ेंगी ही. पहले भारत इस तरह की चर्चाओं को अनदेखा करता रहा है, यहाँ तक कि कई युद्धों में सीधी हार के बाद भी कश्मीर पर लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने बातचीत में 'इग्नोर' करने वाला रूख ही अपनाया. यहाँ तक कि अटल बिहारी बाजपेयी ने भी इस मुद्दे को ज्यादे हवा नहीं दी, लेकिन ग्राउंड पर सभी सरकारों ने जबरदस्त ढंग से कार्य किया और आतंक को पूरी तरह से काबू भी किया. बातचीत की इसी 'इग्नोरेंस नीति' का ही परिणाम है कि आज भारत एक महाशक्ति के रूप में खड़ा हो रहा है. भारत में मोदी का बड़ा उभार हुआ है तो एक बात यह भी सच है कि पुरानी नीतियों और उसके प्रभावों का हस्तांतरण नए राजनीतिक प्रशासकों को ठीक ढंग से नहीं हो पाया. मोदी इससे पहले एक प्रदेश के नेता रहे हैं तो भाजपा के अन्य वरिष्ठ चिंतक, पुराने नेता साइड किए जा चुके हैं और मोदी की 'अति मजबूत' छवि से सुषमा, राजनाथ जैसे धुरंधर भी कुछ कह पाने की स्थिति में Hindi article on world politics, analysis of India Pakistan relations by Mithilesh, yashwant sinhaनहीं हैं. नौकरशाह बिचारे कितना कर सकेंगे, क्योंकि उनका एक निश्चित दायरा होता है जो 'सेलरी और प्रमोशन' से जुड़ा होता है. वह अक्सर वही कहते और करते हैं, जिससे उनके आका खुश हों. इसका बड़ा उदाहरण तब मिला, जब ग्रुप-4 के देशों के साथ मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट के लिए लॉबिंग करने का प्रयास किया. अब उन्हें किसी ने बताया नहीं कि सुरक्षा परिषद के लिए भारत का विरोध तो खुले तौर पर सिर्फ पाकिस्तान ही करता आ रहा है, लेकिन जर्मनी, जापान और ब्राजील के कई विरोधी हैं. इसकी आलोचना खुद को 'ब्रेन डेड' घोषित करने वाले यशवंत सिन्हा ने तुरंत की. यूं भी, संयुक्त राष्ट्र संघ फोटो खिंचाने भर का मंच ही तो है, अन्यथा कौन देश इस संस्था की बात कब मान रहा है? चीन अपनी मनमर्जी कर रहा है दक्षिणी चीन सागर और हिन्द महासागर में... रूस यूक्रेन में अपनी कर रहा है... तो अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान में अपनी चलाई और जमकर चलायी. सीरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ 'बिचारा' बना तमाशा देख रहा है और थोड़ी बहुत 'चैरिटी' कर रहा है. इज़रायल से लेकर तमाम अन्य देश इस संस्था को 'टोकन' भर ही मानते हैं. सोचने वाली बात है कि अगर संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर पर कोई प्रस्ताव पास ही कर दिया तो क्या भारत या पाकिस्तान उसे मानने को बाध्य होंगे? कतई नहीं...!! मुझे यह भी नहीं लगता है कि विश्लेषक इस तर्क से असहमत होंगे कि भारत की पावर वगैर सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बने ही काफी तेजी से आगे बढ़ रही है. हाँ! एक टैग मिले तो बढ़िया ही है, लेकिन यह टैग इतना बड़ा नहीं है कि उसके लिए फालतू के चोंचले किये जाएँ. ऐसे में कश्मीर मुद्दे पर बेवजह के होहल्ले से परहेज किया जाना चाहिए और बच, बचाके कुछ दशकों तक अपने विकास को रफ़्तार देना चाहिए.. ताकि हम पाकिस्तान जैसे देश से युद्ध की रेंज से काफी आगे निकल जाएँ. इस बात का यह कतई मतलब नहीं है कि हम पाकिस्तान के उकसावे पर कुछ नहीं करें, बल्कि पाकिस्तान के उकसावे के लिए पूरी तरह तैयार रहना और ईंट का जवाब पत्थर से देना ही होगा, लेकिन वगैर शोर शराबा किये .. !! अगर हम शोर शराबा करने लग जाएँ तो पाकिस्तान सहित चीन का मंतव्य ही पूरा करेंगे और खामख्वाह अपनी उलझनें ही बढ़ाएंगे. उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर पिछली 70 साल की नीतियों का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही केंद्र सरकार आगे की नीतियां बनाएंगी. हाल फिलहाल इसमें किसी बड़े बदलाव की आवश्यकता नहीं नजर आती है. हाँ! मोदी बिजनेस और घरेलु मोर्चे पर अपना प्रबंधन खूब दिखाएँ, इसमें उनको महारत भी है, लेकिन विदेश नीति पर कम से कम अगले पांच साल धैर्य बरता जाना आवश्यक है. समय की यही मांग है.
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Hindi article on world politics, analysis of India Pakistan relations by Mithilesh
 

Wednesday 23 September 2015

मीडिया की संकुचित, दूषित भूमिका

by on 12:22
 
Media reporting and content analysis, hindi article about journalism, indian channelsयूं तो मीडिया द्वारा दोषपूर्ण, सनसनीखेज रिपोर्टिंग और पक्षपाती रवैये की खबर आती ही रहती है, लेकिन जब किसी विधानसभा या लोकसभा का चुनाव सामने हो तो यह अपने चरम पर होता है. 2014 के आम चुनाव में हमने स्पष्ट देखा कि तमाम मीडिया घराने और पत्रकार किस प्रकार विशेष पार्टी या नेता का पक्ष लेने में दिलचस्पी ले रहे हैं, मसलन कोई चैनल या रिपोर्ट कांग्रेसभक्त था तो कोई भाजपाई मानसिकता का. खैर, वह समय गुजर गया और अब जब बिहार विधानसभा का चर्चित चुनाव घोषित हो चुका है तो कमोबेश वैसी ही स्थिति, बल्कि उससे भी बदतर स्थिति सामने आती दिखाई दे रही है. कुछ हालिया उदाहरणों और नामी पत्रकारों की बात की जाय तो आज तक के पुण्य प्रसून बाजपेयी का नाम लेना उचित रहेगा. यह वही बाजपेयी साहब हैं, जो किसी मुद्दे पर सामने बैठ जाएं तो नख से सर तक के बाल उधेड़ डालते हैं और काफी सधे हुए अंदाज में एंकरिंग करने के लिए भी खासे मशहूर हैं. पुण्य प्रसून जी के इसी अंदाज से उनके हज़ारों प्रशंसक हैं, जो उन्हें देखना और सुनना चाहते हैं. लेकिन, बिहार चुनाव से सम्बंधित एक बड़े नेता का इंटरव्यू करते समय अपने चैनल पर जिस प्रकार से पुण्य प्रसून जी ने उस नेता को खुला मैदान दिया, उसकी जबरदस्त ढंग से आलोचना हो रही है. ऐसा लगा, मानो उस नेता के पक्ष में खड़े होकर पुण्य प्रसून साहब उसे मुद्दे दर मुद्दे याद दिला रहे थे और वह नेताजी अपने विशेष अंदाज में इंटरव्यू की जगह अपना भाषण प्रस्तुत कर रहे थे. पुण्य प्रसून बाजपेयी के कैरियर में तब भी प्रश्न उठा था, जब उन्होंने दिल्ली के बड़े और नवेले नेता के इंटरव्यू को 'क्रन्तिकारी, बहुत ही क्रन्तिकारी' कहकर उत्साहित किया था. खैर, इस कड़ी से थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो हम पहुँचते हैं मशहूर पत्रकार राजदीप सरदेसाई की ओर. जी हाँ! आप इनके बारे में भी सुन ही चुके होंगे. यह वही पत्रकार महोदय है, जिनकी अमेरिका में कुछ उत्साही प्रशंसकों ने धुनाई कर दी थी, क्योंकि वह गलत जगह पर लोगों को गलत तरीके से उकसा रहे थे. खैर, हिंसा की आलोचना होनी ही चाहिए, लेकिन राजदीप सरदेसाई एक बार फिर चर्चा में आये हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को ओपन-लेटर लिखकर. सरदेसाई साहब ने सोचा होगा कि आम तौर पर मुख्यमंत्री किसी बात का जवाब देते नहीं हैं और मैं आरोप लगाकर अपनी टीआरपी बढ़ाऊंगा और निकल लूंगा.maharashtra-CM-Devendra-Fadnavis-written-open-letter-to-Sardesai-shock-Words-slap-news-in-hindi लेकिन, यह महोदय तब बुरी तरह घिर गए जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने तमाम मुद्दों पर स्पष्ट जवाब देते हुए राजदीप सरदेसाई को ही कठघरे में ला खड़ा किया. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि पर्यूषण पर्व पर मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का आदेश उनकी सरकार ने नहीं दिया था, बल्कि 2004 में कांग्रेस सरकार ने पर्यूषण-पर्व के दौरान दो दिन कत्लखाने बंद रखने का फैसला किया था और मुंबई को लेकर ऐसे निर्णय पर 1994 से अमल किया जा रहा है, मगर आश्चर्य है कि हमारे सत्ता में आने से पहले आप में से किसी ने आपत्ति नहीं जताई. यानी पहले की सरकार कितनी भी भ्रष्ट रही हो, उसकी ढोंगी एवं कथित धर्मनिरपेक्षता आपके विचारों से मेल खाती थी, इसलिए आपको आक्षेप नहीं था. मुख्यमंत्री ने अपने विस्तृत जवाब में आगे लिखा कि आम तौर पर मैं वरिष्ठ पत्रकारों के सार्वजनिक पत्रों का जवाब नहीं देता, लेकिन आपका पत्र पढ़ने के बाद सोचा कि अगर जवाब नहीं दिया तो 'गोबल्स नीति' सफल हो सकती है. आपका पत्र "सही जानकारी न लेकर सरकार को फटकारने" की शानदार मिसाल है. मुख्यमंत्री यहीं नहीं रुके, बल्कि पत्रकार महाशय को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा कि 'आपने मुझे 2010 में देखा है, ऐसा कहा है, पर मैं तो patrakarita, fake journalism, hindi article by mithileshआपको 2000 से देख और सुन रहा हूँ. एक साहसी पत्रकार कालांतर में "निजी एजेंडे" और विशिष्ट "वैचारिक निष्ठा" से अभिभूत होकर किस तरह बेहद पक्षपाती हो सकता है यह देखना वेदनापूर्ण है'. राज्य सरकार के नाम पर कई अच्छे कामों की मुहर लगने के बावजूद आप अपनी मर्जी से 3 मुद्‌दे चुनकर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहते हैं.
असल सवाल यही है भी कि एक स्थापित पत्रकार हर तरह से जनता की राय को प्रभावित करने की ताकत रखता है, वह कइयों का आदर्श होता है, लेकिन जब वह आधी अधूरी जानकारी और पक्षपात या निहित स्वार्थों के कारण पत्रकारिता की कलम को कमजोर करता है, तो उसे जवाबतलब क्यों नहीं किया जाना चाहिए. क्या न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स असोशिएशन या ब्रॉडकास्टर्स एडिटर्स एसोसिएशन और दूसरी ऐसी संस्थाएं इस पर कोई नियामक लागू नहीं कर सकती हैं. कोई कानूनी न सही, सार्वजनिक आलोचना ही कर दी जाती, जिससे गलत या पक्षपात करने वालों पर कुछ तो दबाव पड़ता. इस कड़ी में सिर्फ पुण्य प्रसून बाजपेयी या राजदीप सरदेसाई ही हों, ऐसा नहीं है, बल्कि ज़ी न्यूज के मैनेजिंग एडिटर सुधीर चौधरी भी इस मामले में बेशक बदनाम हैं और उन पर भाजपा के प्रति अति झुकाव का मुद्दा उठाया ही जाता रहा है. इसी सन्दर्भ में, अब इण्डिया न्यूज में जा चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम साहब को बिहार चुनाव पर ही चर्चा करते हुए जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पक्षपाती होने का आरोप लगाया तो मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, हालाँकि पुराने रिकॉर्ड मैंने नहीं देखे हैं, लेकिन उस वक्त ऐसा लगा मानो अमित शाह थोड़े अतिवादी होकर किसी पुरानी यादों में बह गए थे, जिससे बचा जा सकता था. खैर, उनका कुछ तो अनुभव रहा होगा अन्यथा कोई राष्ट्रीय नेता पत्रकारों से पंगे क्यों लेगा भला? इस कड़ी में यह तो सिर्फ चंद नाम हैं, वरना सच्चाई तो यह है कि पत्रकारिता में 'विशेष निष्ठा' रखने का आरोप अब बेहद आम हो गया है. सिर्फ पत्रकार ही क्यों, बल्कि चैनल मालिकों पर भी आरोप लगने की विधिवत शुरुआत हो चुकी है.
वह तो भला हो सोशल मीडिया का, कि आज के समय में मेन स्ट्रीम मीडिया सहित अनेक ख़बरों का पोस्टमार्टम करने में इसके यूजर्स देरी नहीं करते हैं और इसी चीरफाड़ से घबड़ाकर एक और पत्रकार ने सोशल मीडिया पर 'गाली गलौच और गुंडागर्दी' का बेहद बचकाना और स्वार्थप्रेरित आरोप लगाने का रवैया अख्तियार किया है. वह पत्रकार हैं एनडीटीवी के रविश कुमार जी और संयोग से उनके भी हज़ारों लोग फैन हैं, क्योंकि वह गहराई में जाकर पत्रकारिता करने में यकीन करते हैं. लेकिन, हालिया मामलों में उन्होंने सोशल मीडिया को बेवजह और आधारहीन मुद्दों पर निशाना बनाने की कोशिश की है और उसका कारण यही है कि सोशल मीडिया यूजर्स ने उनकी रिपोर्टिंग को भी पक्षपाती बताते हुए पोस्टमार्टम कर दियाMedia reporting and content analysis, hindi article about journalism, ravish kumar था. क्या रविश कुमार बताएँगे कि आज किस चैनल पर गाली-गलौच (... अब तो मारपीट भी) नहीं हो रही है, तो क्या वह चैनल छोड़कर भी घर बैठ जायेंगे? प्राइम टाइम पर तो कोई भी चैनल लगा ले, वहां चिल्ल-पों के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता हैं. रविश जैसे पत्रकारों को यह समझना ही होगा कि विशेष विचारधारा के प्रति व्यक्तिगत लगाव रखना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन पत्रकारिता करते समय न केवल उसे मिक्स कर देना, बल्कि उसको अपने ऊपर पूरी तरह हावी कर लेना अपने दर्शकों और पाठकों के प्रति पूरी तरह से अन्याय ही है. इस संकुचन का ही परिणाम है कि अब मीडिया पर लोगों का भरोसा लगातार कम होता जा रहा है. पक्षपात, अधूरी मेहनत के अतिरिक्त, बाजारवाद की अतिवादिता, चैनल मालिकों की घोर व्यावसायिकता, सनसनीखेज टीआरपी विषयक कंटेंट (उदाहरणार्थ: इन्द्राणी-शीना रिपोर्टिंग) भी महत्वपूर्ण कारक हैं मीडिया के बदनाम और अविश्वसनीय होने के, जिन से निपटने की सबसे ज्यादा जिम्मेवारी बड़े और जिम्मेवार पत्रकारों की ही है. दुखद यही है कि जिनके कन्धों पर सबसे ज्यादा जिम्मेवारी है, वही कंधे बदनाम हो रहे हैं... और लगातार यह प्रक्रिया संक्रामक रोग की तरह बढ़ती ही जा रही हैं. हमाम में नंगों की तरह ... !!
 
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Monday 14 September 2015

बेस्ट अवार्ड

by on 11:16
Hindi short story based on Awards and Audience, laghu kathaदेश के बड़े न्यूज चैनल द्वारा घोषित यह अपनी तरह का पहला पुरस्कार था, इसलिए युवा गिरीश बेहद उत्साहित था. आखिर हिंदी सेवा के नाम पर पुराने धुरंधर और उनके जुगाड़ू चेले तमाम पुरस्कारों पर कब्ज़ा जमाये बैठे थे और वैसे भी 'ब्लॉगिंग' जैसे फिल्ड का साहित्य की दुनिया में क्या काम! हालाँकि, बदलते समय में ऑनलाइन दुनिया में गिरीश 25 साल की उम्र में ही जाना माना नाम बन गया था और उसके ब्लॉग पर न केवल भारी संख्या में विजिटर आते थे, बल्कि हिंदी में लिखने के कारण 'सब्सक्राइबर्स' की संख्या भी बढ़ती ही जा रही थी. न्यूज चैनल की वेबसाइट पर हिंदी दिवस के अवसर पर उसने 'देश के सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर्स' के लिए तत्काल आवेदन करते हुए अपने ब्लॉग की स्पेसिफिकेशन भी लिख दी, मसलन यूजर फ्रेंडली इंटरफेस, टेक्निकली एफिशिएंट, ऑनलाइन ब्लॉगर कम्युनिटियों द्वारा बेस्ट रैंकिंग, राजनीतिक सामाजिक मुद्दों पर अनवरत लेखन इत्यादि...
अब उसे बेसब्री से उस दिन का इन्तेजार था, जब विजेता ब्लॉगर्स के चयन की घोषणा होने वाली थी. .. उसकी इस बेचैनी को उसकी पत्नी ने भी भांप लिया और अति उत्सुकता से बचने हेतु उसने गिरीश से कहा कि आप तो इंटरनेट पर अपने क्षेत्र में बहुत आगे हैं, इन अवार्ड्स से कहीं आगे...
यद्यपि गिरीश भी अब तक इस तरह के अवार्ड्स को ज्यादा तवज्जो नहीं देता था, क्योंकि इसमें चापलूसी, गुटबाजी इत्यादि कलाओं से वह नफरत सी करता था. ...
मगर जाने इस बार क्या बात थी कि वह अपनी उत्सुकता पर नियंत्रण रखने में विफल साबित हो रहा था.
तभी गिरीश की मोबाइल की घंटी बज उठी... झारखण्ड से कोई युवा था.
सर, मैंने नेट पर आपका हिंदी सम्मेलन और उसके प्रसार पर लेख पढ़ा, ... सर मैं भी हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ!गिरीश, एक पल को अवार्ड के बारे में भूलकर फोन पर तल्लीनताHindi short story based on Awards and Audience से समझाता चला गया कि ऑनलाइन माध्यमों में ब्लॉग कैसे बनाया जाय, अपने ब्लॉग को सोशल मीडिया और सर्च इंजिनों से कैसे जोड़ा जाए... किस प्रकार हिंदी सुधारने के लिए ऑनलाइन एप्लीकेशनों का प्रयोग किया जाय ...
फोन रखते ही गिरीश अपनी पत्नी को मुस्कुराते देखकर प्रश्नवाचक नजरों से देखने लगा!
पत्नी ने उसके बोलने का इन्तेजार किये वगैर कहा कि 'आपका बेस्ट अवार्ड कौन है? वह पाठक जो आपसे फोन पर बात कर रहा था या वह जिसका आप इन्तेजार कर रहे हैं?'
मेरा पाठक! बरबस ही गिरीश के मुंह से निकला... !!
और दोनों एक दुसरे को देखकर हंस पड़े...
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
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Friday 11 September 2015

पब्लिक प्लेस पर … (लघुकथा)

by on 11:09
स्टेशन पर मेट्रो के रूकते ही दो लड़कियां चढ़ीं और भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए कोने में खड़ी हो गयीं. एक उनमें फ्रिक्वेंट इंग्लिश में गिटपिट करने लगी तो दूसरी रूक-रूक कर हिंग्लिश में जवाब दे रही थी. बगल में गिरीश खड़ा था, जो रोमांचवश उनकी बातें सुनने लगा. एक बॉस की तरह इंटरव्यू ले रही थी तो दूसरी शायद फ्रेशर थी. अपॉरचुनिटी, इनोवेशन .. सेल्स .. वेबसाइट ... और ऐसी ही शब्दावलियों के साथ मेट्रो की भीड़भाड़ में इंटरव्यू देने वाली लड़की असहज महसूस कर रही थी, मगर उसकी सीनियर धड़ाधड़ प्रश्न किये जा रही थी.
बी कम्फर्टेबल! आय हैव टू सबमिट माय फीडबैक ... सीनियर ने कहा!
येस मैम, बट कैन आई ... ऑफिस में ... अगर .. आप
बी रिलैक्स, एंड आय हैव टू यूटिलाइज माय टाइम . ..
देखते देखते जब गिरीश से नहीं रहा गया तो उसने कह ही दिया, मैडम पब्लिक प्लेस पर इंटरव्यू, वह भी ऑफिशियल लेने की कोई नयी रिसर्च है क्या?
दिस इस नन ऑफ यूअर बिजनेस ... सीनियर ने बेरूखी से कहा!
नहीं जी, मेरा बिजनेस है ... कपड़े की दुकान है, गिरीश ने जानबूझकर छेड़ा.
इससे पहले कि सीनियर कुछ कहती, जूनियर ने हस्तक्षेप किया
कहाँ पर है आपकी दुकान... ?
जी, तिलक नगर में ... मुस्कराते हुए गिरीश ने जवाब दिया तो सीनियर मैडम को गुस्सा आ गया और उसने जूनियर की ओर देखते हुए अपना डिसीजन सुना ही दिया - 'यू आर रिजेक्टेड फ्रॉम दी कंपनी' ... और तुनकते हुए मेट्रो के दुसरे डिब्बे की ओर बढ़ गयी.
उसके जाने के बाद गिरीश ने जूनियर से कहा 'दैट कंपनी इज़ नॉट एलिजिबल फॉर यू, प्रॉबेबली ...'
और दोनों हंस पड़े.
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
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Thursday 10 September 2015

बहन कहने वाले हैं मुझे... (लघुकथा)

by on 09:56
छोटे ऑफिस में नयी आयी थी वह, थोड़ी शर्मीली भी. फ्रेशर्स को किसी ऑफिस में किस सिचुएशन से गुजरना पड़ता है, यह बात नेहा को जल्द ही पता चल गयी थी. उसकी सीनियर रजनी पहले तो उससे ठीक से पेश आयी लेकिन कुछ ही समय बाद उसका व्यवहार रूखा होने लगा. इसके विपरीत नेहा के मेहनती स्वभाव को ऑफिस में पसंद किया जाने लगा. उसे जो नहीं समझ आता था, वह दीदी- दीदी कहकर रजनी से भी पूछ कर सीखने का प्रयत्न करने लगी. उधर रजनी के मन में ईर्ष्या अपना आकार बढ़ाने लगी, जिसे नेहा के साथ-साथ उसके बॉस ने भी महसूस कर लिया. उसने सोचा कि दोनों को बुलाकर सामंजस्य बनाने का प्रयास करना चाहिए. अपने संक्षिप्त लेक्चर में बॉस ने दोनों को बताया कि उन्हें आपस में मिल जुलकर रहना चाहिए, तभी ऑफिस का कार्य ठीक प्रकार से हो सकेगा. नेहा ने सहज भाव से कहा कि रजनी उसकी बड़ी बहन जैसी ही हैं!
'बहन कहने वाले हैं मेरे पास ...'
मुझे और बहनों की जरूरत नहीं है! यह कहकर रजनी गुस्से में केबिन से बाहर अपनी सीट पर आ गयी.
ईर्ष्या और क्रोध का यह रूप देखकर नेहा के साथ उसके बॉस भी अवाक भी रह गए. हालात को समझते हुए उन्होंने कठोर निर्णय लिया और रजनी की मेल पर 1 महीने का नोटिस- पीरियड आ गया.
मेल देखते ही उसे सांप सूंघ गया, मगर ईर्ष्या कब गुस्से के रास्ते अहम तक पहुँच गयी, यह उसकी समझ में आता तो वह बहन बनने से इंकार ही क्यों करती भला! मेल में वह कभी नोटिस तो कभी अपने रिज्यूम फोल्डर को पलटने लगी ... आगे का सफर जो उसे तय करना था. मन-मस्तिष्क उसका यह प्रश्न भी पूछ रहा था कि अगर दूसरी जगह भी उसे 'बहन' कहने वाली मिल गयी तो ...
 
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Wednesday 9 September 2015

सम्मेलनों, दिवसों से काफी आगे है हिंदी

by on 12:13
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, logo, iconदसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के सन्दर्भ में दो केंद्रीय मंत्रियों के बयान आये हैं जो अलग होने के बावजूद एक दिशा में ही दिखते हैं. पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाषा पर जोर रहेगा न कि साहित्य पर. यह बयान कुछ हद तक कन्फ्यूज करने वाला था, क्योंकि भाषा और साहित्य एक दुसरे के पूरक ही माने जाते रहे हैं. इस बयान से उत्पन्न संदेह तब दूर हो जाता है, जब विदेश राज्यमंत्री और पूर्व जनरल वी.के.सिंह का बयान आता है. केंद्रीय मंत्री ने कहा, 'पहले के नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों में साहित्य और साहित्यकारों पर जोर होता था. लोग आते थे, लड़ते थे, आलोचना करते थे और वह खत्म हो जाता था. विदेश राज्यमंत्री यहीं नहीं रुके, आगे की परतें खोलते हुए उन्होंने नहले पर दहला मारा कि इस दौरान लेखक और साहित्यकार खाना खाने के लिए आते थे और शराब पीकर अपनी किताब का पाठ करते थे. अपने बयान में आगे जोड़ते हुए सिंह ने कहा कि इस बार के आयोजन में 'वैसे लेखकों' को निमंत्रण ही नहीं भेजा गया है. अब सुषमा स्वराज के बयान और जनरल वी.के.सिंह का बयान एक क्रम में हैं या नहीं, इसका फैसला हम सबके स्वविवेक के ऊपर ही छोड़ देना चाहिए, मगर मूल प्रश्न यह है कि 'साहित्य' और 'साहित्यकारों' के ऊपर इस हद तक की कड़ी और 'जूतामार' टिप्पणी करने की जरूरत क्यों पड़ी, वह भी तब जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 10 से 12 सितंबर तक 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें भारत और 27 अन्य देशों से लगभग 2,000 प्रतिनिधियों के हिस्सा लेने की संभावना है. इसका उत्तर हम आगे की पंक्तियों में ढूंढने का प्रयत्न करेंगे, इससे पहले वी.के. सिंह के बयान पर एक स्वनामधन्य साहित्यकार की प्रतिक्रिया बतानाVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, sushma swaraj, vk singh आवश्यक है. आपसी बातचीत में, उन साहित्यकार महाशय ने तुरंत वी.के.सिंह की जन्मकुंडली निकाल ली और उसमें तमाम दोषों को गिना बैठे! वह यहीं नहीं रुके, बल्कि 'फौजियों' के बारे में टिप्पणी कर उठे कि 'इसीलिए सेना में रहे लोगों को किसी 'बौद्धिक' पद पर नहीं बिठाया जाना चाहिए. वह आगे न जाने क्या-क्या कहते कि हमने उन्हें टोक दिया कि 'क्या पूर्व जनरल ने वाकई असत्य बात कही है?' उन्होंने आग उगलते नेत्रों से मुझे देखा और चट कह उठे कि 'तुम्हारे जैसे लेखकों की वजह से ही लेखक-बिरादरी पर कोई भी ऊँगली उठा देता है, और ऐसे बयानों को उत्साहित करता है.' मैंने उन्हें तत्काल सफाई दी कि अभी तो हम दो चार लाइन लिख लेते हैं और मैं किसी साहित्यिक गुट में शामिल भी नहीं हूँ, न ही मुझे कोई हिंदी का जुगाड़ू अवार्ड प्राप्त हुआ है, साथ ही साथ मेरा सात - आठ साल का लेखकीय अनुभव भी आप गहराई वाले सुविज्ञों की तुलना में कुछ भी नहीं है, इसलिए हे सामाजिक दर्पण रुपी साहित्यकार महोदय! आपके इस आरोप के लायक मैं हूँ ही कहाँ? मेरा इतना कहना था कि मुंह बिजकाते वह तेजी से बाहर निकल गए. वैसे, उन जैसे अनेक महोदय आजकल नाराज दिख रहे हैं, जिनकी पीड़ा फेसबुक पर रुक-रुक कर निकल रही है कि आखिर उन जैसे महानतम साहित्यिक, सामाजिक, चारित्रिक, मानवीय गुणों के संवाहक, युवाओं को प्रेरित करने वाले मर्मज्ञों को विश्व हिंदी सम्मलेन में बुलाया क्यों नहीं गया?
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, hindi bloggerखैर, उनके जैसी पीड़ा, बल्कि उनसे भी ज्यादे पीड़ा को हम युवा लेखकों से ज्यादा कौन समझता है भला, क्योंकि युवा ब्लॉगर्स के रूप में हिंदी की सेवा थोड़े ही होती है, यूट्यूब पर हिंदी वीडियो बनाकर तमाम तकनीक की जानकारियों को आम भारतीयों तक पहुंचाना हिंदी की सेवा कैसे हो सकती है भला? गूगल, फेसबुक और ऐसी ही विश्व की बड़ी से बड़ी कंपनियां आज हिंदी में अपने उत्पादों को लाने के लिए मजबूर हैं तो इसमें युवाओं का योगदान क्योंकर माना जाए? एडसेंस से लेकर, तमाम अफिलिएट नेटवर्क से हिंदीभाषियों के लिए, सरकार की मदद के बिना रोजगार के एक बड़े क्षेत्र को आयाम देने में युवाओं का योगदान किधर से हो गया भला? ई- बुक के रूप में सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का कार्य भाषा-सेवा है क्या? नहीं, नहीं, नहीं ... यह सभी प्रयास मुख्यधारा के थोड़े ही हैं. मुख्यधारा के प्रयास तो यही साहित्यकार लोग करते हैं, जिनमें किसी की बत्तीस तो किसी की छत्तीस किताबें छपी हैं, भले ही उसका प्राक्कथन भी पढ़ने योग्य न हो! मुख्यधारा साहित्य और भाषा की उन्नति का श्रेय तो उन्हीं मठाधीशों को जाता है, जो तमाम सरकारी संस्थानों और पुरस्कारों के साथ सरकारी संशाधनों पर भी कुंडली मारकर बैठे हैं! जी हाँ! ये मठाधीश कभी इस हिंदी भवन तो कभी उस साहित्य अकादमी में 25 -25 लाख या उससे भी ज्यादा राशि के बड़े-बड़े कार्यक्रम कराते हैं और हिंदी को शिखर पर पहुँचाने में युग परिवर्तनकारी भूमिका का निर्वहन करते हैं. यह अलग बात है कि उनके कार्यक्रम में, उन्हीं के सर्कल के 40 - 50 लोग आते हैं, मगर इससे क्या हुआ, एक शेर ही सौ गीदड़ों पर भारी पड़ता है और इन कार्यक्रमों में आने वाले 40 -50 लोग, चार-पांच हजार के बराबर होते हैं. ऐसे ही अनेक कारण हैं, जिसके कारण इनका महिमा-मंडन अवर्णनीय हो जाता है.
Vishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, hindi is our mother tongueजहाँ, तक विश्व हिंदी सम्मेलन का प्रश्न है तो प्रधानमंत्री के द्वारा इसका उद्घाटन होना यह बताता है कि सरकार की प्राथमिकता इस भाषा को लेकर कितनी गहराई तक है. यूं भी केंद्र सरकार हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर प्रयत्नशील है. इस कड़ी में महेश श्रीवास्तव द्वारा रचित दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी गान 'हिंदी का जयघोष गुँजाकर भारत माँ का मान बढ़ेगा' के शीर्षक वाली रचना में सभी पक्षों को संतुलित करने की कोशिश की गयी है, जिसमें अन्य भारतीय भाषाओँ को हिंदी की बहनें तो, युवा शक्ति और कंप्यूटर का ज़िक्र ऊर्जा के सन्दर्भ में सुन्दर ढंग से किया गया है. नागरिकों को देवनागरी के प्रयोग करने और हिंदी को लेकर हीन भावना से मुक्त होने की अपील सार्थक ही है. दिलचस्प यह है कि इस गान में भी साहित्य का ज़िक्र नहीं है. इसी कड़ी में, तीन दिवसीय सम्मेलन में होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा और बेहतर की जा सकती थी. विदेशों में हिंदी, प्रशासन, विज्ञान एवं संचार में हिंदी, विधि एवं न्याय क्षेत्र, बाल साहित्य, प्रकाशन, पत्रकारिता जैसे विषयों के अतिरिक्त 'ब्लॉगिंग शब्द (विषय) का न होना खटकता है. यह विषय अपने आप में दुसरे विषयों से ज्यादा नहीं तो बराबर महत्त्व अवश्य ही रखता है, और यह शब्द सिर्फ एक औपचारिकता भर नहीं हैं, जैसे कि उपरोक्त वर्णित तमाम विषय हैं, बल्कि 'ब्लॉगिंग' हिंदी को अर्थोपार्जन से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास बन रहा है. आखिर हिंदी इसीलिए तो पीछे हो रही है, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ने वाले वर्ग को धनार्जन का बड़ा मार्ग दिखता है. इस सन्दर्भ में देश के बड़े चैनल ABP न्यूज़ का प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसने इस सम्मलेन से पहले ही भारत के बेस्ट हिंदी ब्लॉगर्स को प्रोत्साहित करने का प्रयास करने का संकल्प लिया है. दैनिक जागरण जैसे बड़े हिंदी अख़बार को अगर कोई सरकारी नौकरशाह बारीकी से पढता होता तो उसे समझ आती कि यह अखबार भी 'जागरण जंक्शन ब्लॉग ' के नाम से अपने प्रिंट-एडिशन में परिवर्तन लाने की शुरुआत कर चुका है. ऐसे ही तमाम प्रयास होने शुरू हो गए हैं तो फिर दसवां विश्व हिंदी सम्मलेन इससे अछूता क्यों? हिंदी ब्लॉगिंग की वजह से ही आज हिंदी ऐसे सम्मेलनों और दिवसों की औपचारिकता से काफी आगे निकल चुकी है. इस सम्मलेन और इससे जुड़ेVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, bhopal pandal image कार्यक्रम निर्धारकों का एक यह भी कर्त्तव्य बनता था कि वह ऑक्सफ़ोर्ड जैसी विश्व-स्तरीय शब्दावलियों में आये परिवर्तन को भी समझने की कोशिश करता. हाल ही में अंग्रेजी भाषा में 1000 नए शब्दों को शामिल किया गया है, तो क्या हिंदी में इस तरह के प्रयास की आवश्यकता नहीं है जो भाषा के प्रवाह को बनाये रख सके. इस महत्वपूर्ण विषय का सम्मलेन में अलग सेशन न होना अपने अपने आप में चिंतनीय और दुख़द है. खैर, इन तथ्यों के साथ यह भी सत्य है कि सुधार प्रक्रिया धीरे-धीरे ही आगे बढ़ती है. इस सम्मलेन की और भी उपलब्धियां तो इसके समापन के बाद आंकलित की जाएँगी, किन्तु विदेश मंत्रियों के बयान ने साहित्यकारों को आइना जरूर दिखाया है. आइना यह दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजकों को भी है कि वह किस प्रकार दारूबाजी, गुटबाजी और चापलूसी से आगे इस सम्मेलन को ले जाते हैं, क्योंकि इन शब्दों को अब आधिकारिक ही माना जायेगा. सरकार से पूछा जायेगा कि अगर पिछले सम्मेलन दारूबाजी और गुटबाजी के कारण बर्बाद हो जाते थे तो इस सम्मेलन से क्या हासिल हुआ? देखने और समझने वाली असल बात यही है और इसका इन्तेजार आम-खास सभी को रहेगा... तथाकथित साहित्यकारों को भी, जिन पर सरकार ने खुल कर निशाना साधा है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर.
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