Friday 27 February 2015

नौकर या उद्यमी : एक विश्लेषण - Job or Business, in context of India, article in Hindi

by on 04:38

dhandha-bookआर्थिक मुद्दे सदा से मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं, किन्तु आज के समय में लोग 'अर्थ' की प्रधानता को सर्वव्यापी व सभी समस्याओं के एकमात्र समाधान के रूप में भी देखते हैं. इस हवा में दूसरी बहुत महत्वपूर्ण चीजें भी गौण हो चुकी हैं, मसलन सम्बन्ध, चरित्र, सहयोग, शिक्षा, उद्यम इत्यादि. भारतवर्ष के वर्तमान प्रधानमंत्री भी तमाम जतन कर रहे हैं कि देश के किसान, नौजवान सशक्त हों, उनको रोजगार मिले. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी जैसे तमाम बिल को तर्क-कुतर्क देकर संसद में पास कराये जाने की जरूरत बताई जा रही है. खैर, राजनीति एक अलग विषय है, और अर्थनीति अलग. भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि अर्थनीति पर आप ध्यान देंगे तो समझ जायेंगे कि यहाँ 'उद्यम' के अवसर पैदा करने की बजाय 'नौकरी' शब्द पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. 'नौकरी' शब्द मूलतः 'नौकर', 'सर्वेंट', चाकर, सेवक, दास इत्यादि से ही बना है, जिसे हर हाल में 'मालिक' के अनुसार ही चलना होता है, ठीक किसी सामंतवादी या जमींदारी प्रथा की तरह (आधुनिकता के लिहाज से इसका प्रारूप जरूर बदला है, पर मूल भाव 'मानसिक गुलामी' का भाव वही है). हम सबको पता है कि यह शब्द 'नौकरी' कितना कचोट भरा होता है, और इसीलिए आज का शिक्षित युवक उद्यम करने की सोच रखता है, शुरू भी करता है, किन्तु तमाम अन्य समस्याओं के अलावा शुरुआत में 'मानव संशाधन' की कमी, उनकी वफादारी और संघर्ष के दौर में उनमें समर्पण का अभाव मुख्य समस्या के रूप में सामने आता है. जी हाँ! आप कोई भी रोजगार शुरू करते हैं तो उसमें पूँजी की सर्वाधिक खपत 'मानव संशाधन' पर ही खर्च होती है, उसके बावजूद भी अधिकांश उद्यमी शुरुआत में ही दम तोड़ देते हैं और फिर नौकरी की तरफ मुड़ जाते हैं. आखिर इसका कारण क्या है? इस बात को समझने के लिए मैंने कई पारम्परिक व्यापारियों (बनियों), पंजाबी परिवारों, जैन बंधुओं, मारवाड़ियों, बड़े और सफल किसान परिवारों का अध्ययन करने की कोशिश की तो निम्न बातें सामने आयीं-

  • इन सभी सफल उद्योगपतियों के अधिकांश परिवार 'संयुक्त' हैं. ध्यान रहे, इस एक शब्द 'संयुक्त' परिवार से मानव संशाधन की शुरूआती सभी समस्याओं में अधिकांश स्थाई रूप से हल हो जाती हैं, मसलन उनकी वफादारी, सहयोग, समर्पण और उद्योग शुरू होने के समय कम से कम जरूरतें इत्यादि.

  • इन सभी परिवारों के बच्चों को लगभग शुरू से ही उद्योग के प्रति प्रोत्साहित किया जाता है और वयस्क होते-होते उसकी मानसिकता स्वतः ही एक उद्यमी की हो जाती है और साथ में उसको व्यवसाय का व्यवहारिक ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है. (ध्यान रहे, यह भी संयुक्त परिवार के होने से ही संभव हो पाता है, जब वह बच्चा अपने परिवार में चाचा, ताऊ, भाई इत्यादि को रोजगार करते देखता है और उसके विभिन्न पहलुओं पर घर में चर्चा होते सुनता है.)

  • More-books-click-hereइन परिवारों के युवा बच्चे जब रोजगार करते हैं, तो उनकी गलतियां आप ही न्यून हो जाती हैं, क्योंकि परिवार एक होने से बड़े-बुजुर्ग बारीक नजर रखते हैं. (यहाँ ध्यान रखने वाली बात है कि उन बुजुर्गों का हस्तक्षेप कम से कम होता है और सहयोग ज्यादा).

  • व्यवसाय सेट हो जाने के बाद यदि दो भाइयों में किसी विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, तो इसका निपटारा बड़ी सरलता से घर के बुजुर्ग कर पाते हैं क्योंकि उनके दिमाग में यह विचार बहुत पहले से आया होता है और साथ में वह इसके समाधान पर भी लम्बे समय तक विचार कर पाते हैं.

  • इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि संयुक्त परिवार के बैकग्राउंड से होने के कारण सफल या औसत सफल व्यक्ति भी अनयंत्रित नहीं होता है, बल्कि एकल परिवार के किसी व्यक्ति की तुलना में वह एक हद तक समाज के दबाव को स्वीकार भी करता है और इस दबाव में वह जनविरोधी फैसले लेने से पहले हज़ार बार सोचता है.

  • इन संयुक्त परिवारों में एक बेहद मजबूत 'सहकारी व्यवस्था' का दर्शन भी होता है, मसलन ऋण लेना-देना, किसी संकट के समय तत्काल एक हो जाना इत्यादि. यह निश्चित रूप से परिवारों की साख के कारण हो पाता है और कोई सरकार मदद करे, न करे, उसका निचले लेवल पर कुछ ख़ास असर नहीं पड़ता है.

मेरा निष्कर्ष यही निकला कि आधुनिक युग में उद्यम के लिए 'संयुक्त परिवार' सबसे उत्तम प्लेटफॉर्म है, यदि सच में उसके सदस्य 'नौकरी' जैसे शब्द के 'कचोट' से सफलतापूर्वक बचना चाहते हैं और यदि साथ में कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, सफलता की सर्वाधिक गारंटी के साथ. आप सब का क्या कहना है, इस विषय पर? साथ ही सरकार की इस नीति पर भी अपनी राय रखिये कि वह 'नौकरों' की संख्या बढ़ाना चाहती है कि 'उद्यमियों' की. - मिथिलेश कुमार सिंह Job or Business, in context of India, article in Hindi by Mithilesh.

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थैंक्यू से क्या होगा... ? Thank you se kya hoga, Hindi Short Story by Mithilesh

by on 00:46

थोड़ा तेज भगाओ भाई इस रेगिस्तान के जहाज को, सचिन ऊंट वाले से बोला!

premchand-ki-lokpriya-kahaniyanजैसलमेर के रेगिस्तान में ऊंट पर मैं अपने दोस्त सचिन के साथ बैठा हुआ था. उस रेगिस्तान में दूर-दूर तक पेड़ पौधों का नामोनिशान तक नहीं दिख रहा था सिवाय कुछ कंटीली झाड़ियों के. और साथ में रेत पर ढ़ेर सारी बियर की बोतलें भी बिखरी हुई थीं. इसके अतिरिक्त देश विदेश के तमाम सैलानी ऊंट की सवारी करते हुए जरूर दिख रहे थे. बातचीत के क्रम में पता चला कि वहां के लोगों की आजीविका का साधन टूरिज्म ही है. बियर! बियर! बियर! ठंडी बियर! एक 14 -15 साल का लड़का कंधे पर झोला लटकाए ऊंट के पीछे दौड़ने लगा. सचिन ने उसे छेड़ने के लिए पूछ लिया- कितने की दे रहा है? किंगफिशर की केन 150 की, टर्बो की 200 की! इतनी महँगी! दिल्ली में तो इसकी कीमत बहुत कम है. साहब! दूर से लाना पड़ता है और यह हमें 140 की पड़ती है, बस 10 रूपये लगाया है अपन ने! ऊंट के पीछे भागते हुए उसने बोला. नहीं चाहिए भाई. ले लो न साहब! अच्छा 140 में ही ले लो, उसने मोलभाव किया. नहीं चाहिए यार, थैंक यूं! सचिन ने जरा कठोरता से कहा... थैंक्यू से क्या होगा... ? वह बुदबुदाते हुए निराश हो गया, साथ में उसकी चाल भी धीमी हो गयी. वह पीछे छूट गया, और मेरे कानों में यूपी के गुटखा बेचने वाले छोटे बच्चों से लेकर, दिल्ली के फूटपाथ पर सोने वाले बच्चों तक के स्वर गूंजने लगे. थैंक्यू से क्या होगा... ?

-मिथिलेश 'अनभिज्ञ'

Thank you se kya hoga, Hindi Short Story by Mithilesh
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Saturday 14 February 2015

कैंसर - Cancer the Dangerous Disease, Short story by Mithilesh in Hindi

by on 22:46
अरे, वह तुम्हारी आंटी कैसी हैं? रेस्टोरेंट में बैठे हुए गौरव ने आदी से पूछा. कैंसर निकला यार ! दुखी होते हुए आदी बोला. फिर दोनों में कैंसर पर चर्चा शुरू हो गयी. आजकल खाने वाली प्रत्येक चीज में यूरिया, केमिकल्स, प्लास्टिक इत्यादि की मिलावट ही तो होती है, कैंसर नहीं होगा तो और क्या होगा! गौरव ने गूगल की तरह तुरंत सर्च रिजल्ट पेश किया. हां! और लोग भी आज कल पिज्जा, बर्गर, सैंडविच पर ही ज़िन्दगी गुजार रहे हैं, फास्टफूड्स के बिना तो जीभ का स्वाद जैसे फीका ही रहता है उनका! आदी ने भी चर्चा में जोरदार उपस्थिति दर्ज की. बात घुमते- घुमते सरकार की नाकामी पर आ गयी. दोनों एक स्वर में बोले, यह नयी सरकार तो पूंजीपतियों की खिलौना भर है. देश में हज़ारों हज़ार की संख्या में फ़ूड चेन्स खुल रही हैं और इनसे कैंसर जैसे देशवासियों के स्वास्थ्य की चिंता ने दोनों को भावुक कर दिया. चर्चा में उन्होंने तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों को धो डाला. रेस्टोरेंट में बैठे हुए कई लोगों का ध्यान भी इन दोनों की सीट की तरफ हो गया था. चर्चा का स्वर भी उनका ऊँचा होता जा रहा था, शायद और भी ऊँचा होता, तब तक वेटर ने उन्हें डिस्टर्ब कर दिया! सर! यह आपके दो 'एग-सैंडविच' और दो 'सॉफ्ट ड्रिंक'! दोनों को भूख लग गयी थी, चर्चा भूलकर एक साथ ट्रे की ओर लपके. वाऊ! बहुत टेस्टी है! आदी ने सैंडविच को मुंह में दबाते हुए कहा. कुछ बटर उसकी उँगलियों पर भी लग गया था, उसको चाटने लगा. क्यों भाई, तुझे बहुत हंसी आ रही है. तभी गौरव ने बगल में खड़े वेटर से पूछा! वेटर शायद हंस रहा था, पर गौरव की डांट से सकपका गया, कुछ बोला नहीं, वापस जाने लगा. गौरव को शायद उसकी हंसी चुभ गयी थी. उसने उसे रोकते हुए दोबारा पूछा- भाई बता, क्यों हंस रहा है. कुछ नहीं सर ! आप लोग बड़ी अच्छी चर्चा कर रहे थे. 'कैंसर' बड़ा खतरनाक रोग है.
रोग ही तो फ़ैल रहे हैं, आदी ने मजबूत तर्क पेश करते हुए तमाम आंकड़े पेश किये. देशभक्ति के भाव और
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Cancer the Dangerous Disease, Short story by Mithilesh in Hindi
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Friday 13 February 2015

परिवार एवं धन का सामंजस्य - Family and Fund Priority

by on 00:33
परिवार से सम्बंधित मूल्यों पर विचार करें तो 'अर्थ' की बड़ी विचित्र स्थिति सामने आती है. निश्चित है कि यदि तीन-चार भाई हैं तो उसमें से कोई ज्यादा धन कमायेगा, कोई कम. अब यहाँ समीकरण बिगड़ने शुरू हो जाते हैं. जो ज्यादा धन कमाता है, वह परिवार से कटना शुरू हो जाता है. भाई तो भाई, कई बार वह लड़का अपने माँ-बाप के प्रति बेहद छोटी जिम्मेवारियां पूरी करने से बचने लगता है. ध्यान रहे कि यह वह लड़का होता है, जो अपने परिवार में सबसे ज्यादा धन कमाता है, और जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता है, परिवार से वह उतनी ही तेजी से कटने भी लगता है. शादी के बाद वह अपना व्यक्तिगत स्टैण्डर्ड बढ़ाने की झूठी और भागमभाग वाली कोशिश करता है, और परिवार कहीं दूर छूट जाता है.... ... .. .
या तो ऐसे ही उसका जीवन यूँही कट जाता है या फिर अचानक उसको अहसास होता है कि अपने लिए, अपने बच्चों के लिए एक सोशल सर्कल भी होना जरूरी है, और वह अपना कमाया हुआ धन उन अनजान दोस्तों के साथ पार्टियों इत्यादि में खर्च करता है, जिनकी कुछ विशेष जिम्मेवारी हो नहीं सकती और न ही उसके बच्चों को इससे कुछ संस्कार मिल सकता है. वह अपना पैसा वाटर-पार्क, मूवी, देशी-विदेशी टूर जैसी जगहों पर बेतहाशा खर्च करता है, करता रहता है. और उसे आखिर में अहसास होता है कि इन सबके बावजूद वह अकेला है, उसकी पत्नी डिप्रेस्ड है, उसके बच्चे नालायक निकल गए हैं और उसके हाथ में अंततः शून्य है, क्योंकि संस्कार और अनुशासन तो 'संयुक्त परिवार' में ही विकसित हो सकता है.
फिर कई लोग अपने परिवार और अपने उन भाइयों की तरफ लौटने की सोचते भी हैं, जिन्हें वह अपना पैसा बचाने के लिए छोड़ आये थे, पर समय उनके हाथ से निकल चूका होता है. ...
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जरा सोचिये, यदि 'अर्थ' की इस दूषित प्रवृत्ति को कथित 'योग्य और काबिल लोग' संतुलित करें, और अपने विकास के साथ अपने संयुक्त परिवार के लिए यथासंभव सिंचन का भाव जीवित रखें, तब शायद हमारे भीतर, हमारी पत्नी के भीतर और हमारे आने वाले बच्चों के संस्कारों पर कितना बड़ा प्रभाव पड़ेगा! परिवार में संबंधों को सींचने के लिए हमारा पैसा जरूर खर्च होगा, किन्तु क्या ईश्वर ने हमें इसीलिए काबिल नहीं बनाया है कि हम अपने कमजोर भाइयों, बहनों, भतीजों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करें. आखिर, वह धन इसीलिए तो है कि हम अपने वास्तविक संबंधों को जिम्मेवारी से विकसित करें, क्योंकि परिवार के विकास में ही हमारा विकास भी है. अन्यथा हम तमाम सम्पदा के बावजूद अंततः 'भिखारी' ही साबित होते हैं.
जरूर विचार कीजिये !

-मिथिलेश कुमार सिंह

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Family and Fund Priority
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Wednesday 11 February 2015

दो रिक्शेवाले - Do Rikshewale, Hindi Short Story on Common Justice

by on 10:35

अरे साहब! उस रिक्शे पर मत बैठो, उसने चढ़ा राखी है. मुझे अपनी कंपनी के काम से मीटिंग करने के बाद दिल्ली की पाश कॉलोनी से मेट्रो स्टेशन तक जाना था. थोड़ी दूर का ही रास्ता था, लेकिन अनजान होने के कारण मैंने रिक्शा लेना ठीक समझा. शाम का समय था. उस मरियल से रिक्शे वाले ने कातर दृष्टि से मुझे देखा. मैं भी भाव वश उसके रिक्शे पर बैठने लगा. उसने सचमुच पी रखी थी. रिक्शे पर बैठते समय एक भभका सा लगा. पर चाहकर भी मैं उतर नहीं पाया. कालोनी के अंदर की सडकों पर वह अपनी तरफ से संभाल कर ही चलाता रहा, किन्तु मुझे उसको लगातार टोकना पड़ा. धीरे भाई, बाएं ले लो, आराम से. कालोनी के बाहर रिक्शा में रोड पर आ गया. मेट्रो स्टेशन सामने chetan-bhagat-booksही दिख रहा था. मैं सावधानी वश उतर गया और उसको किराया देने के लिए जेब में हाथ डाला. संयोग से छुट्टे पैसे थे नहीं. पास की दुकानों पर भी पूछ आया, पर नहीं. मैंने उससे कहा कि मेट्रो स्टेशन तक आ जाओ, वहां अपना मेट्रो कार्ड रिचार्ज करा कर तुम्हें पैसे देता हूँ. हम रॉन्ग साइड थे. मैं फूटपाथ पर पैदल और वह मेरे पीछे रॉन्ग साइड से ही आने लगा. अचानक एक ट्रैफिक हवलदार प्रकट होकर बिना कुछ पूछे उसके रिक्शे की हवा निकालने लगा. पता नहीं दिल्ली पुलिस की यह कौन सी व्यवस्था है. खैर, वह रिक्शे वाला सहम सा गया. दारू चढ़ा रखी थी, इसलिए अपना कुछ बचाव भी नहीं कर पाया. उसने रिक्शा वापस मोड़ लिया. मैं असहाय भाव से उसे देखता रहा. मैं भी जल्दी से स्टेशन में कस्टमर केयर पर गया, वहां भी लाइन लगी थी. खैर, कुछ देर में पैसे छुट्टे हो गए. मैं जल्दी से रिक्शे वाले की तरफ भाग कि उस बिचारे को पैसे तो दे दूँ. वहां दुसरे रिक्शे वाले खड़े थे, पर वह नजर नहीं आया. मैंने एक रिक्शे वाले को उसकी पहचान बताई, लेकिन वह कन्फ्यूज हो गया. फिर उससे पूछा कि रिक्शे, साइकिल की दूकान आस पास में है क्या? पर दूकान दूर थी. मैंने उसे किराया पकड़ा दिया और उस रिक्शे वाले को देने की बात कही. पास से दो-तीन और रिक्शे वाले आ गए और कहने लगे कि नहीं भैया जी! आप इसे मत दीजिये, आप भले आदमी हो, पर यह नहीं देगा. उस बिचारे ने सबकी बात सुनकर पैसा मेरे हाथ पर वापस रख दिया. मैं ऊहापोह में पड़ गया और यह सोचकर कि देश में रिक्शेवाले अभी बेईमान नहीं हुए हैं, उसी के हाथ पर पुनः पैसे देते हुए कहा कि आप को मिल जाए तो उसे दे देना नहीं तो आप रख लेना. वह नहीं, नहीं करता रहा, लेकिन मैंने अधिकारपूर्वक कहा तो वह इंकार न कर सका. फिर मैं मेट्रो कि तरफ लौट पड़ा... पर बड़ी देर तक वह दोनों रिक्शेवाले दिमाग में घुमते रहे. पता नहीं यह कैसा न्याय था, पर मन कुछ हद तक ही सही संतुष्ट था.


- मिथिलेश ‘अनभिज्ञ’
Do Rikshewale, Hindi Short Story on Common Justice


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संघ, मोदी और केजरीवाल: बदलते दौर का हिंदुत्व - Indian Youth and New Flavour of Hindutv Politics with Modi, Kejriwal!

by on 08:58
दिल्ली के चुनाव परिणामों ने देश की राजनीति में आ रहे बदलावों को व्यापक रूप से पुख्ता किया है. इसे समझने के लिए हमें पिछले लोकसभा चुनावों का पन्ना फिर से पलटना होगा. 9 महीने पहले जब लोकसभा में नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत लेकर लोकसभा में पहुंचे थे तो यह swaraj-book-written-by-arvind-kejriwalबात बड़ी जोर शोर से कही गयी कि उनकी जीत 'हिंदुत्व के एजेंडे' की जीत है. दूसरी ओर यह कहने वालों की भी कमी नहीं रही कि यह हिंदुत्व की बजाय मोदी की विकासवादी छवि के लिए किया गया वोट है. मैं समझता हूँ यह दोनों ही तर्क सिरे से गलत थे. तीसरे तरह के वह लोग थे, जिन्होंने कहा कि यह मोदी की विकासवादी छवि और हिंदुत्व का मिला जुला रूप है, जिसने राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को समाप्त करने की हद तक तोड़ दिया है. गौर से सोचने पर यह तीसरी तरह का तर्क भी आंशिक रूप से ही सही प्रतीत होता है. आंशिक रूप से सही इसलिए क्योंकि मोदी की हिन्दुत्ववादी छवि और विहिप अथवा संघ की हिन्दू राजनीति में व्यापक अंतर आ चूका है. तह में जाने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों हिन्दुत्ववादी छवियाँ एक दुसरे की विरोधी भी हैं. मोदी की शपथ ग्रहण से दिल्ली विधानसभा चुनाव तक हिंदुत्व की इन दोनों विचारधाराओं में टकराहट साफ़ दिखी है. स्वाभाविक है कि इन कथनों को पहली बार सुनने पर एक तरह की कन्फ्यूजन उत्पन्न होती है, लेकिन देश की राजनीति में आये व्यापक बदलावों का अध्ययन करने पर यह भ्रम दूर हो जाता है. आइये देखते हैं.

अंग्रेजों के देश में आने से पहले भारत हज़ारों साल तक गुलामी भुगत चूका था. न सिर्फ राजनीतिक बल्कि आम हिन्दुओं का धार्मिक-जीवन More-books-click-hereभी गुलामी से भरा हुआ था. समय-समय पर उस काल में भी हिन्दुओं की बगावत विभिन्न रूपों में जारी रही, किन्तु राजतन्त्र के प्रभाव एवं शिक्षा, संचार के अभाव ने उन आन्दोलनों को कभी संगठित होने ही नहीं दिया. खैर, उस राजतंत्रीय प्रणाली में जन मन के भावों की बजाय सैनिक-शक्ति एवं विरोधियों को कुचलने की क्रूर प्रणाली ज्यादा प्रचलन में रही. अंग्रेजों के देश में आने के साथ ही आधुनिकता का भी प्रवेश हुआ और उस आधुनिकता का लाभ भारतवासियों ने भी आन्दोलनों के लिए उठाया, जो कि स्वाभाविक बात थी. अंग्रेज हज़ारों साल के हिन्दू - मुस्लिम वैर को भांप चुके थे और उन्होंने इसका राजनीतिक लाभ भी उठाया. यूं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म 1925 में हुआ, किन्तु उसका पोषण उन हज़ारों साल की धार्मिक गुलामी की प्रतिक्रिया थी जो संगठित होने के लिए अनुकूल माहौल का इंतज़ार कर रही थी. संघ के उभार के लिए आज़ादी के पहले के बीस साल और आज़ादी के बाद के 10 साल बड़े महत्वपूर्ण एवं अनुकूल रहे. यह वह काल था जब 'गुरूजी' के नाम से मशहूर एम. एस. गोलवलकर ने संघ का नेतृत्व एक लम्बे समय तक किया. देश विभाजन से महात्मा गांधी का पराभव हुआ और पाकिस्तान से आये शरणार्थियों एवं दंगों से प्रभावित हिन्दुओं ने संघ की राजनीतिक narendra-modi-a-political-biography-bookमहत्वाकांक्षा को एक आधार दिया. इस ऐतिहासिक सन्दर्भ को उद्धृत करना आवश्यक था क्योंकि इसी हिंदुत्व के इर्द-गिर्द संघ की राजनीति आर्थिक सुधारों की शुरुआत यानि 90 के दशक तक चली. 92 में देश विभाजन के बाद सबसे अनुकूल राजनीतिक स्थिति संघ और भाजपा के लिए तब बनी जब बाबरी ढांचे को ढहा दिया गया. लेकिन, इन तमाम समीकरणों के बावजूद संघ अभी सत्ता के नजदीक पहुँचने के बावजूद उस पर काबिज नहीं हो पायी थी. आर्थिक उदारीकरण के दौर में अटल बिहारी बाजपेयी ने समय की अनुकूलता को समझा और संघ के हिंदुत्व की बदली परिभाषा एवं नए प्रयोगों के साथ सत्ता का ज़रा सा स्वाद संघियों को मिला. धीरे-धीरे राज्यों में संघ की सरकारें बनने लगीं. गुजरात दंगों से भाजपा को तत्कालीन लोकसभा चुनावों में हार जरूर मिली, किन्तु कई राज्यों में उसके संगठनों को एक तेज धार भी मिली.

बस यही वह समय था, जब नरेंद्र मोदी और संघ के हिंदुत्व में अंतर पनपना शुरू हो गया था. नरेंद्र मोदी ने अपनी हिंदुत्व की परिभाषा को नए Buy-Related-Subject-Book-beजमाने के साथ तेजी से जोड़ा. उन युवाओं के साथ मोदी का जुड़ाव लगातार मजबूत हुआ, जो आर्थिक उदारीकरण के बाद आर्थिक रूप से, मानसिक और बौद्धिक रूप से सशक्त हो रहे हैं. संघ इस स्थिति में कोसों पीछे रह गया है. उन युवाओं के साथ वह नहीं जुड़ पाया है जो संचार के माध्यमों का इस्तेमाल करने में अपनी पुरानी पीढ़ी से कोसों आगे हैं. यह वही युवा हैं जो किसी #टैग के साथ देश भर में किसी मुद्दे पर 24 घंटे से भी काम समय में एक राय बना लेते हैं. यह वही युवा हैं, जो किसी जनलोकपाल के लिए पूरे देश में एक महीने से भी कम समय में ऐसा आंदोलन खड़ा कर देते हैं जिसके सामने संसद के सदस्य गिड़गिड़ाते हुए नजर आते हैं. और यही वह युवा हैं, जिन्होंने भाजपा एवं संघ को दिल्ली विधानसभा चुनाव में भरी दोपहरी में तारों के दर्शन करा दिए. सब कुछ बेहद जल्दी! इससे पहले कि कोई कुछ समझे, कोई कुछ रणनीति बनाये, कोई बूथ प्रबंधन करे या कोई पार्टी उन तमाम पारम्परिक समीकरणों को दुरुस्त करे... तब तक युवा सब कुछ कर चूका होता है. अब फिर से प्रश्न उठता है कि जब नरेंद्र मोदी इन युवाओं से जुड़े थे, तब वह इस मूड को क्यों नही भांप पाये? यही नहीं, सरकार में आने के बाद इन युवाओं की सलाह को सुनने और उनकी भागीदारी के लिए बेहद सक्रीय डिपार्टमेंट और डेडिकेटेड वेबसाइट बनाई गयी और आश्चर्य की बात तो यह है कि युवाओं का एक बड़ा वर्ग इसमें रुचि भी ले रहा है. तो क्या नरेंद्र मोदी यहाँ चूक गए हैं अथवा बात कुछ और है!

एक बार और थोड़ा पीछे की ओर चलते हैं. नरेंद्र मोदी जब गुजरात में मुख्यमंत्री थे, तब गुजरात दंगों के बाद के काल में उन पर मंदिरों को तोड़ने के साथ अन्य हिंदुत्व विरोधी आरोप लगाए गए और यह आरोप खुद संघियों और हिंदूवादियों ने ही लगाए थे. यही नहीं, उन पर गुजरात में संघ और विहिप इत्यादि संगठनों को बर्बाद करने का भी आरोप लगा, जो काफी हद तक सच भी था. केंद्र में आने के समय यह प्रश्न संघियों golvalkar-rss-sanghके बीच में चर्चा का विषय बना रहा. राजनीति को समझने वाले बेहद सतर्कता से इस बात को समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद के 9 महीनों में नरेंद्र मोदी ने इन संगठनों पर कुछ खास लगाम लगाने की कोशिश नहीं की. किसी एक भाजपा सांसद को डांट जरूर पड़ी, परन्तु भाजपा के तमाम सांसद और दुसरे संगठन हिंदुत्व के नाम पर अनर्गल बयानबाजी करते रहे. प्रधानमंत्री की चुप्पी पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी खूब हो-हल्ला मच रहा है, किन्तु प्रधानमंत्री खुद को विदेश दौरों और प्रशासनिक गतिविधियों तक ही सीमित रख रहे हैं. यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दो- दो बार धार्मिक सहिष्णुता पर ऊँगली उठाये जाने के बावजूद प्रधानमंत्री अपने होठों को सिले हुए से क्यों दिख रहे हैं? यह उनके जाँचे परखे गुजराती स्वभाव के भी विपरीत है और उनकी छवि के भी. आखिर, उन्होंने अपने राजनैतिक करियर में हिंदुत्व को लेकर न कभी बयानबाजी की है और अपने अधिकार क्षेत्र में किसी और को भी बयानबाजी नहीं करने दी है. यहाँ पर भी मोदी का हिंदुत्व संघ के हिंदुत्व से इस प्रकार भिन्न हो जाता है कि बयानबाजी के बजाय वह चुपचाप बड़ी कार्रवाई करने में यकीन रखते हैं. मोदी के समर्थक जानते हैं कि वह अपनी हिन्दुत्ववादी छवि के लिए उचित समय पर, पाकिस्तान पर सैनिक कार्रवाई करने में भी गुरेज नहीं करेंगे. इस सन्दर्भ में अमेरिकी संसद में एक रिपोर्ट भी पेश की जा चुकी है. जबकि तमाम बयानबाजी करने वाले बड़े से बड़ा संघी भी पाकिस्तान से युद्ध के नाम पर गोल-मोल बातें buy-books-hereकरने लगता है. अपनी तरह के हिंदुत्व का नायक, गुजरात में हिन्दुत्ववादी संगठनों को नेस्तनाबूत करने वाला, संजय जोशी के माध्यम से संघ को चुनाव के पहले ही घुटने टेकने पर मजबूर करने वाले शख्स की चुप्पी कुछ हजम नहीं हो रही है. इसका अर्थ जितना उलझा हुआ है, उतना स्पष्ट भी है. दिल्ली चुनाव परिणामों के बाद ही नहीं, आप पहले के राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय अख़बारों को उठकर देख लीजिये, सबमें मोदी के बहाने संघ पर ही निशाना साधा गया है. मोदी की चुप्पी संघ को और घायल करती जा रही है. अपने कार्यकर्ताओं को वह कैसे कहे कि वह गोडसे, घर-वापसी, मुसलमानों, बच्चे पैदा करने जैसे बयान न दें, क्योंकि सरकार तो उसे रोक ही नहीं रही है. अब मोदी के दोनों हाथों में लड्डू हैं. उनकी लोकप्रियता पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, विशेषकर युवा वर्ग में और संघ और दुसरे हिन्दुत्ववादी संगठन लगातार निशाने पर आते जा रहे हैं. इस स्थिति के बाद एक ही विकल्प बचता है कि यदि मोदी को सरकार चलानी है और भाजपा को जीत दिलानी है तो वह एजेंडा मोदी का होगा. उनका 'अपना हिंदुत्व' का एजेंडा और उनका अपना 'विकास का एजेंडा'. थोड़ा और साफ़ कहा जाय तो, अब मोदी के एजेंडे के अनुसार संघ को अपने एजेंडे में भारी बदलाव करने होंगे, अन्यथा अपने स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री होने के बावजूद उसे राजनीतिक उपेक्षा का शिकार होना पड़ेगा. मोदी और उनके समर्थक बड़े साफ़ शब्दों में कह रहे हैं कि दिल्ली में हार इसलिए हुई क्योंकि रामजादा- ह....दा, गोडसे, घर वापसी इत्यादि पर बयानबाजी हुई थी. यही बात कश्मीर घाटी में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलने पर उछली थी. इस बात का संघी और विश्व हिन्दू परिषद वाले विरोध भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि यही बात अंतर्राष्ट्रीय जगत पर भी हो रही है, देश का युवा भी यही बोल रहा है, देश का मुसलमान भी यही बोल रहा है. जी हाँ! आपने सही सुना, देश का मुसलमान मोदी को वोट दे न दे पर उनके समर्थन में इसलिए बोल रहा है क्योंकि उसे हमेशा से संघ ज्यादा नापसंद है.

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सच बात तो यह है कि केंद्र में मोदी के इतने बड़े उभार की आशंका संघ को भी नहीं थी और उभार हो जाने के बाद भी संघ मोदी से निपटने के लिए कोई कारगर योजना नहीं बना पाया, ठीक उसी प्रकार जैसे वह देश के युवा को खुद से जोड़ नहीं पाया. आज यह प्रश्न chetan-bhagat-booksलाजमी है कि देश में अनेक क्षेत्रों में युवाओं के सक्रीय भूमिका निभाने के बावजूद संघ के मूल शिविर में कितने युवा हैं. राजनीति में हर तरफ युवाओं की व्यापक एंट्री हुई है, यहाँ तक कि भाजपा में भी, साहित्य से लेकर समाज सेवा और उद्योग में युवा जबरदस्त तरीके से खुद को प्रस्तुत कर रहे हैं. केजरीवाल की टीम को छोड़ ही दीजिये क्योंकि वहां तो लगभग सौ फीसदी युवा ही हैं, खुद मोदी की कोर टीम में युवाओं की भरमार है. ऐसे में संघ युवाओं को कितनी महत्वपूर्ण भूमिका में ला रहा है या फिर उनको सिर्फ संख्या बढ़ाने की दृष्टि से ही रखा गया है. जो कुछ थोड़े बहुत युवा हैं भी, उनको प्रेरित करने के विकल्प में संघ क्या बदलाव ला पाया है यह भी देखने वाली बात है. पहले के संघी, शादी नहीं करते थे, अब युवा भी नहीं करना चाहते हैं. संघी पहले सक्रीय रहते थे, अब युवा उनसे ज्यादा सक्रीय हैं, अध्ययन भी करते हैं. पहले के संघी देश सेवा के भाव से कार्य करते थे, किन्तु अब संघ में प्रवेश भाजपा जाने का राजमार्ग बन गया है. वैसे, युवाओं में राष्ट्रप्रेम के प्रति जागरूकता के भावों का विभिन्न कारणों से संचार भी हुआ है. पहले संघ के लोग आपस में चर्चा करके अनुभव को बढ़ाते थे, अब युवा, सोशल मीडिया पर उनसे कहीं ज्यादा और बहुकोणीय चर्चा करता है. अब उस युवा को यह कहना कि अरविन्द केजरीवाल, विदेशी शक्तियों द्वारा, हिंदुत्व के विरुद्ध खड़ा किया गया षड्यंत्र है, अविश्वसनीय लगता है. उस युवा को अब गोडसे, घर-वापसी जैसे शोरगुल वाले हिंदुत्व से ज्यादा प्रेम नरेंद्र मोदी वाले हिंदुत्व से है, जो चुपचाप कार्य करने और समस्या का इलाज करने में यकीन करती है. वह युवा वर्ग जानता है कि हिंदुत्व को अब असली खतरा इस्लाम से नहीं है, बल्कि चीन से है जो कि भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने से ही सुरक्षित रहेगा. आधुनिक काल में, धर्म और अर्थ की जो मिक्स्ड संस्कृति तैयार हुई है, उसे समझने को संघ अभी तैयार नहीं दीखता है. उसके नेता मूर्खतापूर्ण बयान देते हैं कि देश की मस्जिदों में वह गौरी-गणेश की मूर्ति रखवा देंगे. अब देश की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी को यह हास्यास्पद और क्रोध किये जाने लायक लगता है. ऐसा नहीं है कि देश का युवा धर्म के मामले में सजग नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर इन तमाम मुद्दों पर चर्चा होती ही रहती है. हिंदुत्व के समर्थक नेता यदि मोदी के हिंदुत्व का अध्ययन करें तो देश के युवाओं से कनेक्ट कर पाएंगे और इससे भी महत्वपूर्ण वह 80 और 90 के दशक की राजनीति से बाहर निकल पाएंगे. और मोदी ही क्यों, More-books-click-hereहिंदुत्व समर्थक नेता 'अरविन्द केजरीवाल के हिंदुत्व' का भी अध्ययन करें. उनकी पार्टी ने जामा मस्जिद के शाही इमाम के मुंह पर थप्पड़ मारते हुए ऐन चुनाव से पहले उनका समर्थन लेने से इंकार कर दिया था. न सिर्फ इंकार किया था, बल्कि इस मुद्दे को आप नेता संजय सिंह ने देशभक्ति से जोड़ते हुए, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को अपने बेटे की दस्तारबंदी में बुलाने और नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाने को लेकर इमाम की बेइज्जती तक कर डाली. सावधान हो जाओ संघियों! ऐसी हिम्मत तुम भी न कर पाते. यही नहीं, भारत माता की जय और वन्दे मातरम के गाने केजरीवाल की सभा में पूरे जोश से गाये जा रहे हैं. मोदी भी यही करते हैं, पाकिस्तान से बातचीत एक झटके में समाप्त करते हैं और अमेरिका से गठबंधन करके चीन के माथे पर पसीना ला देते हैं. यह असली हिंदुत्व है, बदलते ज़माने का हिंदुत्व, मोदी का हिंदुत्व और केजरीवाल का हिंदुत्व जो देश प्रेम से सीधे कनेक्ट करता है, न कि शोरगुल मचाकर पाखंड!
संघ में बड़े व 'बूढ़े' विचारक होते हैं, उम्मीद है इस नए युवा हिंदुत्व पर विचार-मंथन होगा, अन्यथा मोदी अपने उद्देश्य से चूकते नहीं हैं, और पहली बाजी उनके हाथ रही है !!
- मिथिलेश

Indian Youth and New Flavour of Hindutv Politics with Modi, Kejriwal

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Tuesday 10 February 2015

Delhi Election Result Poem by Mithilesh

by on 01:19

दावा ध्वस्त विकास का, फेल हुआ सब ज्ञान |
अहं छोड़ के 'श्रेष्ठ' का, जन मन को दे सम्मान ||
जन मन को दे सम्मान, काम कर के दिखलाओ |
जाति- धर्म के नाम पर, अब ना बहकाओ ||
नीति, विदेश, निवेश, नहीं दो झूठा नारा |
विपक्ष मिला तुमको, यही 'अनभिज्ञ' का दावा ||



-मिथिलेश 'अनभिज्ञ'


Delhi Election Result Poem by Mithilesh

Friday 6 February 2015

Go and Vote Today

by on 17:03

लो भाइयों, आ गया लोकतंत्र का एक और दिन ... ..
हाँ! जल्दी जाकर लाइन में लगो
और लोकतंत्र को जिताओ, क्योंकि यह है तभी हम हैं!
जय लोकतंत्र, जय भारत, जय दिल्ली !!



‪#‎VoteToday‬ ‪#‎DelhElection‬ ‪#‎Vote4Democracy‬


Go and Vote Today, appeal by Mithilesh

Wednesday 4 February 2015

मनुष्य- निर्माण की फैक्ट्री क्या थी? Human Character Building Factory Recognition

by on 10:59

मित्रों, यह एक तथ्य है कि आज मनुष्य के चरित्र में, सुरक्षा में, सहयोग में व्यापक कमी आयी है और इसका सूचकांक लगातार नीचे ही जा रहा है, वहीं दूसरी बुरी आदतें, असुरक्षा, आर्थिक जरूरतें, हताशा इत्यादि बढ़ती ही जा रही है. कई चर्चाओं में विद्वान वक्त इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब वह 'फैक्ट्री' बंद हो गयी है, जिसमें अच्छे मनुष्यों का निर्माण हुआ करता था. प्रश्न यही है, वह अच्छी फैक्ट्री, मूल रूप से क्या थी? यदि एक शब्द में बात की जाय तो वह कौन सी संस्था है, जो मनुष्यों को मनुष्य बनने की ट्रेनिंग देती थी, प्रेरणा देती थी और उद्देश्य के साथ अनुशासित करती थी, यह अलग बात है कि कालांतर में वह संस्था विभिन्न कारणों से गायब हो गयी या कमजोर हो गयी. लेकिन उसकी पहचान तो हो. कृपया अपनी राय जरूर दें...




  1. संस्कारवान विद्यालय/ गुरुकुल




  2. उत्तम समाज/ एनजीओ




  3. संयुक्त परिवार की संस्था




  4. एकल परिवार




  5. अन्य...




कमेंट बॉक्स में राय जरूर दें.


Human Character Building Factory Recognition in Hindi.

Keyword: Family Discussion, United Family, Good Schools, NGOs, Factory of Character Building, Joint Family Discussion

मुद्दे और दृष्टिकोण - Mudde Aur Drishtikon, Book Written by Dr. Kiran Bedi, Must Read

by on 10:19
किरण बेदी बहुत पहले से ही किसी परिचय की मुहताज नहीं रही हैं और अब तो वह राजनीति के अखाड़े में रोज चर्चा का विषय बन रही हैं. उनकी हिंदी में लिखी पुस्तक 'मुद्दे और दृष्टिकोण' को पढ़ने का अवसर मिला. इस पुस्तक को यदि किरण बेदी के अनुभव का खज़ाना कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. किरण बेदी को जैसा कि आम जनमानस समझता है, वह एक सकारात्मक परिणाम देने वाली महिला हैं. इस किताब में भी व्यवहारिक दृष्टिकोण और उस पर आधारित कार्ययोजना की बात कही गयी हैं. खुद किरण बेदी के शब्दों में-
"मैं उन तमाम चीजों का क्या करूँ जिन्हें मैं देखती, सुनती पढ़ती और बनाती हूँ? अब या तो मैं उन्हें अनदेखा करूँ या भूल जाऊं या उनके बारे मैं शिकायत करूँ या फिर अपनी भड़ास निकालूँ. परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि जिन चीजों ने मुझे झंझोड़ा या प्रभावित किया है मुझे उन्हें सबके साथ बाँटना चाहिए."
एक स्वावलम्बी महिला, पुलिस विभाग जैसे सक्रीय महकमे में नौकरी और अब राजनेता जैसी तमाम भूमिका में एक सक्षम व्यक्तित्व की तरह डॉ. किरण बेदी सामने आयी हैं. उनकी इस पुस्तक में मुख्यतः छः भाग हैं-

  • नेतृत्व, शासन एवं भ्रष्टाचार: उन तमाम मुद्दों का संकलन जो नेतृत्व की संरचना, आम जनमानस के जीवन में उसका महत्त्व, कानूनी पहलू, वोट का अधिकार, न्याय व्यवस्था इत्यादि से सम्बंधित हैं. इस भाग में किरण बेदी ने बेहद व्यापक दृष्टिकोण का परिचय दिया है और कई समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करने की बात More-books-click-hereस्पष्टता से कही है.

  • भारतीय पुलिस: इसमें भारतीय पुलिस व्यवस्था की बारीक पड़ताल की गयी है. निश्चित रूप से यह किरण बेदी का सिद्धहस्त क्षेत्र है तो इसमें लेखन का अधिकांश भाग अनुभव की कसौटी पर खड़ा है. तकनीकी रूप से किताब का यह भाग बेहद दुरुस्त दीखता है.

  • महिला सशक्तिकरण: यदि भारतवर्ष को विकास करना है तो भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पर गंभीर चिंतन एवं उसमें अपेक्षित बदलाव किया जाना जरूरी है. लड़कियों की शिक्षा, बाल-विवाह, नारी की पहचान, विवाहेत्तर समस्याएं एवं समाधान, महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण, चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका जैसे सामयिक विषय इस भाग में सम्मिलित किये गए हैं. किरण बेदी का लेखन इस भाग में कई जगहों पर भावुक हुआ है और भारतीय परिवार को लेकर वह उलझती भी दिखी हैं, किन्तु हार माने बिना वह समाधान खोजने की बात करती हैं. वस्तुतः यह मुद्दा इतना आसान है भी नहीं, किन्तु किरण बेदी के लेखों में उम्मीद की किरण अवश्य ही दिखती है.

  • कार्यस्थल पर: 'मुद्दे और दृष्टिकोण' पुस्तक के इस भाग में किरण बेदी का पुलिस विभाग के साथ दुसरे कार्यों का अनुभव शामिल किया गया है. संयुक्त राष्ट्र संघ में किरण बेदी का अनुभव, पुरुष एवं महिलाओं का कार्यस्थल इस भाग के मुख्य बिंदु हैं.

  • विदेशी परिदृश्य: आज के वैश्वीकरण के दौर में इस सेक्शन में भारत और दुसरे देशों की सुविधाओं, वास्तविकताओं पर चर्चा की गयी है, वहीं कई जगहों पर किरण बेदी ने भावनात्मक रूप से देश-प्रेम के चित्र को उकेरा है. 'मेरे शहर से प्यारा को नहीं' शीर्षक से लिखे गए लेख में आपको इस बात का बखूबी भान हो जायेगा.

  • इस किताब के अंतिम भाग में किरण बेदी ने माता-पिता, युवा और बुजुर्गों की देखभाल शीर्षक से मुद्दा उठाती हैं. यह बात खलती है कि भारतीय परिदृश्य में इस भाग पर पहले चर्चा क्यों नहीं की गयी. इस सेक्शन के विभिन्न लेखों को पढ़ने के बाद यह बात साफ़ हो जाती है कि किरण बेदी ने इन मुद्दों को किताब के अंतिम भाग में क्यों रखा है. अपने तमाम दुसरे अनुभवों के विपरीत किरण बेदी इस सेक्शन में काफी कमजोर नजर आती हैं. इस भाग में किरण बेदी इस बात पर चर्चा जरूर करती हैं कि 'हमारा अस्तित्व परस्पर निर्भरता में है', किन्तु वह भारतीय व्यवस्था की रीढ़ 'संयुक्त परिवार' व्यवस्था को भूल जाती हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय समाज के इस हिस्से के बारे में काफी कम जानकारी के साथ लेखन हुआ है. फिर भी बच्चों की शिक्षा, वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम जैसे मुद्दों को उठाया गया है और कुछ हद तक ही सही समाधान की बात भी कही गयी है.


 

इन विभिन्न भागों की विस्तृत चर्चा भी अपने अगले लेखों में जरूर करूँगा और साथ ही आप सबसे अपील भी करूँगा कि देश, समाज की विभिन्न समस्याओं को समझने के लिए आप डॉ.किरण बेदी की यह पुस्तक जरूर पढ़ें.

– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.kiran-bedi-delhi-politics-article

Mudde Aur Drishtikon, Book Written by Dr. Kiran Bedi, Must Read

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दिशा भ्रम - Disha Bhram, Poem on Life Confusion in Hindi by Mithilesh

by on 08:34

होता है अक्सर
जी हाँ!
बस में, ट्रेन में
पैदल यात्रा में
दिशा भ्रम
सही रास्ते पर होने के बावजूद
लगता है उल्टी दिशा के
यात्री हैं हम



पढ़ने जाता हूँ
साइन बोर्ड्स, लेकिन
भटक जाता है मन
देख चमकीले विज्ञापन
रुकता हूँ तब
और पूछता हूँ
साथ खड़े सहयात्रियों से
उनकी बातें सुनकर
आँखों के नेह स्वर
देखता हूँ स्थिर मन से



इतने पर भी जबMore-books-click-here
मन नहीं मानता
झटक देता हूँ
विचार, विकार
और चल पड़ता हूँ एक ओर
या तो लौट जाता हूँ
थोड़ी दूरी से ही
या बढ़ते जाता हूँ



यह सोचकर कि
गिरते पड़ते चलनाToo-many-directions-disha-bhram-poem-mithilesh-anbhigya
संभलना
ही तो जीवन है
चलते ही जाता हूँ
और तब आप ही
दूर हो जाता है
दिशा भ्रम ||



- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'
Disha Bhram, Poem on Life Confusion in Hindi by Mithilesh


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दिल्ली चुनाव पर मिथिलेश की कुण्डलिया - Poem on Delhi Election, Politics, BJP, AAP, Congress by Mithilesh

by on 00:18

आया चुनाव नजदीक है, बन लोकतंत्र की लाज
देखो, सुनो परखो जरा, यह है ज़रूरी काज।
यह है ज़रूरी काज, नाच नेता की देखो।
छल कपट दंश प्रपंच, वक्त पर तुम भी समझो।
कहते 'अनभिज्ञ' सही, दूर हो मोह व माया
शांत बुद्धि से वोट दो, दिन तुम्हारा आया।




साठ साल तक राज में, ना उभरा दूजा और |
कांग्रेस की दुर्गति में, यही मूल बात करो गौर ||
यही मूल बात करो गौर, योग्यता को न दबाओ |
मिट जाओगे जड़ से, इतिहास को ना दुहराओ ||
कहते 'अनभिज्ञ' सही, राहुल को दो यह पाठ |
गृहस्थ बनें शादी करें , उमर आयी अब साठ ||



जीत-जीत अभिमान ने, ला पटका फिर मैदान |Buy-Related-Subject-Book-be
विज्ञापन जारी करे, मर्यादा का नहीं ध्यान ||
मर्यादा का नहीं ध्यान, मोदी बेदी सब उतरे |
कार्यकर्त्ता मूल उपेक्षित, नेता सब बिखरे बिखरे ||
कहते 'अनभिज्ञ' सही, बदल दो अपनी रीत |
सम्मान अपने को दो, मिलेगी तब फिर जीत ||



आम आम कहते रहे, अब बन गए वह ख़ास |
चार आदमी टीम ने, जनता को किया निराश ||
जनता को किया निराश, जोर से गाल बजावें |
मूल सोच यही इनकी, सभी कुछ जल्दी पावें ||
कहते 'अनभिज्ञ' सही, दिल्ली को बहुत है काम |
ना करो तंग हमें रोज, आदमी हम हैं आम ||



-मिथिलेश 'अनभिज्ञ'


 

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Poem on Delhi Election, Politics, BJP, AAP, Congress by Mithilesh

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