Friday 16 January 2015

आवाजों के घेरे - कवि दुष्यंत कुमार 'Aawajon ke ghere, Poetry by Dushyant kumar!'

दुष्यंत कुमार अपने आप में एक पहचान हैं. उनकी कविताएं, उनके जीवन की परतों की तरह लगती हैं, जो समय के साथ एक-एक करके उतरती जाती हैं. व्यवस्था के खिलाफ बात कहने की पराकाष्ठा का नाम हैं दुष्यंत कुमार. अपने आप से, अपने परिवेश और व्यवस्था से नाराज कवि के रूप में दुष्यंत कुमार की कविताएं हिंदी का एक आवश्यक हिस्सा बन चुकी हैं. आठवें दशक के मध्य और उत्तरार्ध में अपनी धारदार रचनाओं के लिए बहुचर्चित दुष्यंत जिस आग में होम हुए, उसे उनकी रचनाओं में लम्बे समय तक महसूस किया जाता रहेगा.दुष्यंत कुमार द्वारा लिखित, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'आवाजों के घेरे' को पढ़ने का मौका मिला. इन कविताओं में एक प्रकार की निरर्थकता और ठहराव का जो बोध मौजूद है, वह सार्थक और गतिशील होने की छटपटाहट से भरा हुआ है. दुष्यंत की कविताओं में पर्याप्त गेयता है, जिन्हें पढ़ने के दौरान नीरसता का बोध नहीं होता है.
इस 'काव्य-संग्रह' में 51 कविताएं हैं, जो जीवन के अलग-अलग भावों को उकेरती हैं. अपनी पहली कविता, जिसका शीर्षक 'आज' है, में दुष्यंत कुमार ने वर्तमान की प्रतीक्षा, विफलता, परिस्थिति की नीरसता का बोध कराया है, वहीं अपनी अगली कविता 'दृष्टान्त' में कवि अपने हृदय-व्यथा की तुलना अभिमन्यु की 'वीरगति' से करता है, और इस बात का मलाल करता है कि अभिमन्यु तो लड़ कर मारा, जबकि मेरा मन बिना लड़े ही हार गया. देखिये इन अंतिम पंक्तियों में-

ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओं!
आओ! हर धोकेह से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;
नए महाभारत का व्यूह वरूँ मैं.
कुंठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूं मैं

दुष्यंत का दर्द-ए-हाल बयाँ होता रहता है. 'आग जलती रहे' शीर्षक में कवि 'चरैवेति-चरैवेति' सिद्धांत की बात करता है-
'अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे.

अगली कविता 'सूखे फूल: उदास चिराग' शायद तत्कालीन निराशावादी परिस्थिति से उपजा हुआ असंतोष है. इसकी एक पंक्ति देखिये-
मैं क्या कहता आखिर उस हक लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग

एक पल की ख़ुशी का भी अपना महत्त्व है, यह दुष्यंत की अगली कविता 'साँसों की परिधि' नें परिलक्षित होता है. जबकि 'अनुकूल वातावरण' अाने वाली पढ़ी के प्रति जिम्मेवारी का बोध कराती है. देखिये, इसकी चंद लाइनें-
एक नन्हा-सा गीत
Dushyant-Kumar_postal-stamp_aawajo-ke-ghere-analysisआओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और फेंक दें हवा में उसकी
ताकि सब सुनें,

'कौन-सा पथ...' में कवि का साहस दृष्टिगोचर होता है. देखिये-
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा.

किताब का शीर्षक है 'आवाजों के घेरे' में कवि दिखावे पर कड़ा कटाक्ष करते हुए, पाखण्ड को दुरुस्त करने को कहता है-
मित्रों!
मुझसे हमदर्दी है तो
मेरी बेचैनी का कारण समझो-बूझो
आओ
मेरे संग-संग इन आवाजों से जूझो
इनकी ध्वनियों को बदलो
इनके अर्थों को बदलो
इनको बदलो!

'ओ मेरे प्यार के अजेय बोध' में मनुष्य के संकुचन का रेखांकन हुआ है. इसकी कुछ लाइनों को देखिये-
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,
शायद ऐसा ही हो कि मेरा अहसास मर गया हो
क्योंकि मैंने कलम उठाकर रख दी है.
और अब तुम आओ या हवा
आहट नहीं होती,
बड़े-बड़े तूफ़ान दुनिया में आते हैं
मेरे द्वार पर सनसनाहट नहीं होती
... और मुझे लगता है
अब मैं सुखी हूँ-
ये चंद बच्चे, बीवी
ये थोड़ी-सी तनख्वाह
मेरी परिधि है जिसमें जीना है
यही तो मैं हूँ
इससे आगे और कुछ होने से क्या?

कवि खुद के माध्यम से समाज को जागृत करते हुए इसी कविता में आगे कहता है-
... जीवन का ज्ञान है सिर्फ जीना मेरे लिएdushyant-kumar-poet-book-analysis
इससे विराट चेतना की अनुभूति अकारथ है
हल होती हुई मुश्किलें
खामखा और उलझ जाती हैं.
और ये साधारण-सा जीना भी नहीं जिया जाता है.
मित्र लोग कहते हैं
मेरा मन प्राप्य चेतना की कडुवाहट को
पी नहीं सका,
उद्धत अभिमान उसे उगल नहीं सका.

परंपरा के खिलाफ दुष्यंत कुमार का बगावती सूर उनकी अगली रचना में खुल कर आया है, जिसका शीर्षक है 'अच्छा-बुरा'. देखिये-
यह कि चुपचाप जिए जाएँ
प्यास पर प्यास जिए जाएँ
काम हर एक किये जाएँ
और फिर छिपाएं
वह ज़ख्म जो हरा है
यह परंपरा है
किन्तु इंकार अगर कर दें
दर्द को बेबसी को स्वर दें
हाय से रिक्त शून्य भर दें
खोलकर धर दें
वह ज़ख्म जो हरा है
तो बहुत बुरा है

मनुष्य के विवेक को चुनौती देते हुए कवि अगली कविता 'विवेकहीन' में कहता है-
कब तक सहता रहता
अन्यायी वायु के प्रहारों को मौन यों ही
गरज उठा सागर-
विवेक-हीन जल है, मनुष्य नहीं.

'भविष्य की वंदना' में पुरुषार्थ की बातें प्रमुखता से उठाई गयी हैं-
खंडित पुरुषार्थ
गांडीव की दुहाई देता हुआ, निष्क्रिय है
कर्म नहीं-
केवल अहंकार को जगाता है!

सीता-हरण से वर्तमान में स्त्री-विमर्श और जटायु से वीरता को जोड़ते हुए कवि इसी कविता की अगली पंक्तियों में कहता है-
अव्वल तो जटायु नहीं आज
और हो भी तो कब तक लड़ पायेगा?
...राम युद्ध ठानेंगे सामने मशीनों के ?
वानरों की सेना से!
जो कि स्वयं भूखी है आज!
अपने नगर के घरों में
मुंडेरों पर बैठकर
रोटी ले भागने की फिक्र में रहती है

दुष्यंत जैसा कवि ही आज के कथित 'मनुष्यों' की तुलना उन बंदरों से कर सकता है जिनका खुद का ईमान नहीं है और वह नारी को खसोटने में लगे रहते हैं, वह भला क्या रक्षा करेंगे. उनका पुरुषार्थ तो है ही नहीं.

भटके हुए लोगों को प्रेरणा दी है दुष्यंत ने 'राह खोजेंगे...' शीर्षक की कविता में, इसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं-

आह!More-books-click-here
वातावरण में बेहद घुटन है
सब अँधेरे में सिमट जाओ
और सट जाओ
और जितने आ सको उतने निकल आओ
हम यहाँ से राह खोजेंगे.

'सूना घर' में कवि का हृदय एकांत की पीड़ा महसूस करता है, वहीं 'गांधीजी के जन्मदिन पर' याद करते हुए दुष्यंत कुमार उनको शिद्दत से याद करते हुए उनकी कमी को रेखांकित करते हुए कहते हैं-
तुम मुझको दोषी ठहराओ
मैंने तुम्हारे सुनसान का गाला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझ पर गोलियां चलाओ
मैं मर जाऊंगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊंगा.

अपनी एक और कविता 'स्वप्न-खंड' में कवि की एक निराशावादी लाइन देखिये-
कौन मार्ग-दर्शक ऐसा
गलत पथ सुझा गया ?
छोटा-सा एक स्वप्न
दुनिया दिखा गया!!

'आत्म कथा' नामक कविता में स्वयं का आंकलन करने को प्रेरित करती हुई कविता कहती है-
युग-युगान्तरों का तिमिर
घनीभूत
सामूहिक
सामने खड़ा पाया.

इसी कविता की एक और लाइन है-
अधर सी दिए हैं इनके
बड़े-बड़े तालों ने
जिन्हें मर्यादा की चाबियाँ घुमाती हैं.

'सरस्वती-वंदना' में अपना समर्पण उड़ेलते हुए कवि ने कहा है-
ओ माँ !
मैं पहले था थोड़ा अविनीत
धृष्ट
उद्धत
दुस्साहस-युत, क्रोधी,
पर माँ
इस दुनिया ने
अनुभव ने
पीड़ा ने
मुझमें भी ज्ञान-बेलि बो दी.

'परंपरा-वियुक्त' में दुष्यंत कहते हैं-
मेले में भटके होते तो
कोई घर पहुँच जाता
ये घर में भटके हैं:

इसी तरह हालातों पर कटाक्ष उनकी 'ज़िन्दगी कहाँ?' में भी जारी रहता है, देखिये-
ज़िन्दगी दिखाई देती हैBuy-Related-Subject-Book-be
कब्रों में या दरगाहों में
मंदिर में या शमशानों में
मिटटी से दबी हुई
मिटटी में मिली हुई
पूजा के बेलों पर कँपती
या घुटनों के बल झुकी हुई.

दूर से नज़ारे देखने वालों पर, उथले साहित्यकारों पर दुष्यंत का कड़ा प्रहार दिखता है 'प्रश्न-दृष्टियाँ' में-
...किन्तु जो सैनिक पराहत
भूमि पर लुंठित पड़े हैं
तुम्हारा साहित्य उन तक नहीं जाता
यह तटस्थ दया तुम्हारी
और संवेदना उनको बींधती है.

इसी कविता में अंतिम लाइन है-
इस समर को दूर से देखने वालों,
ये उदास-उदास आँखें मांगती हैं
दया मत दो
इन्हें उत्तर दो.

'एक मित्र के नाम' दुष्यंत की सुन्दर और गेयता से परिपूर्ण रचना है, जिसमें वह कहते हैं-
अर्थ मैं समझता हूँ
इन बुझी निगाहों का
जी रहा ठहाकों पर
पुंज हूँ व्यथाओं का

दुष्यंत की कविता पढ़ते समय आपको यह आसानी से आभाष हो जायेगा कि उनका शब्द-व्यूह ठीक उसी प्रकार बना है, जैसे कोई किला और आप उन रचनाओं में खो से जाते हैं, एकाग्रता भंग नहीं होती है और आप एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच ही जाते हैं. 'साथियों से' शीर्षक से उनकी रचित कविता की अंतिम पंक्तियाँ देखिये-
साथियों, सघन वन के सन्नाटे में
मेरी आवाजें कभी नहीं हारीं,
ये लगा मौन जितना गहरा होगा
आवाज पड़ेगी उतनी ही भारी
साथियों, फर्ज मैं अपना निभा चला
साथियों, तुम्हारी आयी है बारी.

इस पूरी किताब 'आवाजों के घेरे' को आप एक बार में ही पढ़ जायेंगे और भावार्थ आपके अंतर में उतरते चले जायेंगे. किताब पढ़ने के बाद आपको यह भी आभाष होगा कि आप अपने सामने बैठे किसी व्यक्ति से बातें कर रहे हैं और यह किताब कई साल पहले लिखी होने के बावजूद कई सन्दर्भों में आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.

– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

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