Wednesday 3 June 2015

दंगे क्यों और न्याय क्यों नहीं ?

भारतवर्ष की यदि कोई सबसे बड़ी त्रासदी रही है तो वह है दंगों का एक लम्बा इतिहास. पूरे वैश्विक पटल पर यह भारतवर्ष की छवि को धूमिल लेकिन उससे भी ज्यादा कोफ़्त तब होती है जब न्याय व्यवस्था अपनी कछुआ चाल से पीड़ितों के ज़ख्मों को सूखने नहीं देती है. 84 के दंगों पर दिल्ली की एक अदालत ने कभी दिग्गज कांग्रेस नेता रहे जगदीश टाइटलर पर 1984 के सिख विरोधी दंगा मामले में गवाहों को प्रभावित करने का प्रयास करने के आरोपों पर सीबीआई से जवाब तलब किया है, जबकि इस मामले में सीबीआई ने मामला बंद करने की रिपोर्ट दायर की है. सुनवाई के दौरान दंगा पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता एच एस फुल्का ने अदालत को बताया कि टाइटलर ने कथित तौर पर इस मामले में मुख्य गवाह सुरेन्दर कुमार ग्रंथी के साथ सौदेबाजी की थी. इस केस से सम्बंधित यह बात भी सामने आयी कि जगदीश टाइटलर के पक्ष में बयान बदलने के लिए दबाव डाले गए. अब प्रश्न उठता है कि लगभग 30 साल बीत जाने के बाद भी जांच, सबूत इत्यादि की जरूरत भला कहाँ रह जाती है. राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण सीबीआई को 'तोता' की संज्ञा, माननीय उच्चतम न्यायालय दे ही चुका है. ऐसे में पीड़ितों को और अधिक परेशान करने की भला क्या जरूरत रह जाती है. क्यों नहीं इस केस को क्लोज करके पीड़ितों की न्यायिक-आशा पर विराम लगा दिया जाता है. आखिर, उनको यह बात तो पता चल जाएगी कि आम जनमानस को न्याय नहीं मिल सकता, जबकि रसूखदार व्यक्ति प्रत्येक स्थिति में कानून की पकड़ से बच निकलने में सक्षम हैं. यही बात कुछ दिन पहले मशहूर सिने-स्टार सलमान खान के केस में भी सामने आयी थी. 2002 में उन्होंने फूटपाथ पर सोये हुए गरीबों पर शराब के नशे में गाड़ी चढ़ा दी थी और कई साल के मुकदद्मे के बाद सेशन कोर्ट द्वारा 5 साल की सजा होने के बावजूद, उच्च न्यायालय के जज ने, बेहतरीन वकीलों के प्रयासों से देर शाम तक कार्य किया और सलमान खान को एक मिनट भी जेल के अंदर नहीं जाना पड़ा. बुद्धिजीवी इस मसले में अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह गए, किन्तु कुढ़ने और दुखी होने से भला न्याय मिलता है कहीं, जो सिक्ख दंगे के पीड़ितों को या हिट और रन के पीड़ितों को न्याय मिलेगा. न्यायिक व्यवस्था से अलग हटकर देखते हैं तो यह बात सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि गुलामी काल के सैकड़ों, हज़ारों दंगों के बाद आज़ादी के बाद के काल में भी दंगे क्यों होते रहे हैं. क्या इसके पीछे हमारी राजनीतिक सोच ही जिम्मेवार है या दुसरे सामाजिक मुद्दे भी इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं. धर्म के नाम पर लाखों क़त्ल-ए-आम के बाद देश का बंटवारा तक हो गया, लेकिन दंगों से हमें मुक्ति नहीं मिली. दुःख की बात तो यह है कि किसी सशक्त राजनैतिक या सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा इस प्रकार का बवंडर खड़ा ही नहीं हो पाया, या शायद करने का प्रयास ही समग्र रूप में नहीं किया गया. देश में अनगिनत दंगों में से सर्वाधिक चर्चित गोधरा में बंद ट्रेन में कारसेवकों को जलाने के कुकृत्य के बाद भड़के दंगों ने पूरे विश्व में भारत की छवि दागदार कर दी थी. यहाँ तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उन दंगों को 'राष्ट्रीय शर्म' तक की संज्ञा दे डाली थी. तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उन दंगों को लेकर कड़ा निशाना साधा जाता रहा और विश्व के कई देशों ने उनके अपने यहाँ आने पर रोक तक लगा रखी थी. हालाँकि, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें बाइज्जत बरी किया, जबकि नैतिक रूप से उन पर आज भी कई लोग ऊँगली उठाते रहते हैं. हालाँकि, नरेंद्र मोदी की एक बात के लिए खुलकर तारीफ़ करनी होगी कि 2002 के बाद उनके गृह राज्य में छोटा दंगा भी नहीं भड़का. इसके पीछे तमाम तर्क-कुतर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन हाल ही जब प्रधानमंत्री से एक मुस्लिम-प्रतिनिधिमंडल मिला तो उनके उदगार में सांप्रदायिक राजनीति से मुक्ति की हलकी झलक दिखाई दी. मुस्लिम नेताओं से मुलाकात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भरोसा दिया कि आधी रात में भी मदद के लिए उनके दरवाजे खुले हैं. शब-ए-बारात के मौके पर मुस्लिम नेताओं के प्रतिनिधिमंडल में 30 नेता शामिल थे. पीएम ने ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के मुख्य इमाम उमर अहमद इल्यासी के नेतृत्व में गए प्रतिनिधिमंडल के साथ लगभग सवा घंटे बातचीत की और उन्हें अपने हाथों से चाय भी पिलाई. इस दौरान बेहद सफाई से उन्होंने कहा कि वह सांप्रदायिक राजनीति करने में यकीन नहीं रखते हैं.
हालाँकि, उनके आरएसएस बैकग्राउंड के होने से कई लोग उन्हें शक की निगाहों से अब भी देखते हैं, पर देश यदि दंगों की राजनीति से मुक्ति पा जाता है, तो इसे एक युगांतरकारी घटना ही माना जाएगा. भले ही यह नरेंद्र मोदी के हाथों ही क्यों न हो. कड़े और प्रतिबद्ध राजनीतिक नेतृत्व के अलावा, देश में चुनाव सुधार पर भी कार्य किये जाने की विशेष जरूरत है. जब तक धर्म और जाति के आधार पर वोट लिए और दिए जाते रहेंगे, तब तक समाज में विभाजन बना रहेगा. चुनाव सुधार के अतिरिक्त विकास के मोर्चे पर जबरदस्त कार्य किये जाने की आवश्यकता है, जिससे धर्म और जाति के ठेकेदार देश की जनता को अपने लिए इस्तेमाल न कर सकें. इसके अतिरिक्त भी समय-समय पर तमाम आयोगों ने दंगों पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी हैं, उनका अध्ययन करके कारण और निवारण पर जब तक एक सर्वमान्य हल निकालकर उस पर सख्ती से अमल नहीं किया जायेगा, तब तक दंगों की आग से देश को मुक्ति मिलना संभव नहीं होगा. कभी सिक्ख दंगा, कभी गुजरात तो कभी मुजफ्फरनगर दंगा होता ही रहेगा और भारतवर्ष की महान संस्कृति इस आग में झुलसती ही रहेगी. उम्मीद करनी चाहिए कि एक तरफ हमारी न्याय-व्यवस्था पीड़ितों को जल्द से जल्द इन्साफ दे पाने में सक्षम हो पायेगी और दूसरी ओर हमारा देश दंगों की आग से मुक्ति पाने में, २१ वीं सदी में ही सफल हो जायेगा.
करने का कार्य करता रहा है,
Cause and solutions of riots in India and related justice, hindi article by mithilesh2020

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