Thursday 7 August 2014

वृद्धों की दशा: संस्कारविहीनता एवं पीढ़ियों का अंतर - Senior Citizens and Youth

सदियों से जिस धरा पर मनुस्मृति का यह नीति वाक्य बार-बार दोहराया जाता –
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

अर्थात् नित्य गुरुजनों का अभिवादन और वृद्धों की सेवा करने से आयु, विद्या, यश एवं बल की प्राप्ति होती है। उसी भारत भूमि पर हाल ही में बुजुर्गों के सथ दुर्व्यवहार की कुछ घटनाएं चिंतन को विवश करती हैं। जैसे सम्पत्ति के लालच में गाजियाबाद के एक पुत्र द्वारा अपने पिता और अपने भतीजे का बेरहमी से क़त्ल किया। पंजाब में बेटे ने माँ को पीट-पीट कर मार डाला। जयपुर में ताला लगे घर के बाहर एक बुजुर्ग दम्पत्ती कई दिनों तक सड़क पर पड़े रहे। यूं तो बुजुर्गों के प्रति तमाम अपराध हमारे समाज की कुत्सित पहचान बन चुके हैं, लेकिन प्रतिदिन अख़बारों में स्थान पा रही घटनाएं सामाजिक ताने-बाने की नींव पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। प्रश्न खड़ा होना भी चाहिए, क्योंकि एक तरफ इतिहास में भारत के विश्व गुरु होने के बारे में तमाम तथ्य प्रमाणित हैं, तो दूसरी तरफ भविष्य की सुपर-पॉवर बनने की तरफ अगली पीढ़ी कुलांचे भर रही है। ऐसे में उन कारणों पर विचार किया जाना सामयिक होगा, जिसने हमारे समरस, "वसुधैव कुटुंबकम" की सोच वाले समाज की जड़ें तक हिला दी हैं। आखिर कौन सोच सकता है कि समस्त संसार को अपना परिवार मानने की परिकल्पना देने वाले भारतवर्ष में पारिवारिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है। आखिर एक अपंग समाज बनाकर हम सुपर-पॉवर एवं खुशहाली का भ्रम कैसे पाल सकते हैं। बुजुर्गों के कल्याण एवं आधिकारिता के लिए काम करने वाले एक संगठन के ताजा सर्वे के अनुसार 52 फीसदी बुजुर्गों को परिवार में सम्मानजनक माहौल नहीं मिलता है। 57 फीसदी बुजुर्ग सम्पत्ति के लिए प्रताड़ित किये जाते हैं । अब यह बात अपने आप में अजीब है कि जिन बुजुर्गों के इस संसार के जाने अर्थात उनकी मृत्यु के बाद भी हम पितृपक्ष में पिंडदान करते हैं पर उनके जीवित रहते उन्हें उचित सम्मान तक क्यों नहीं देते? आखिर यह हमारे चरित्र का दोहरापन नहीं तो और क्या है? यह समय की मांग है कि बदलती परिस्थितियों में व्यवस्था को मानवीय दृष्टिकोण के लिए हम तैयार करें। एक सुर में युवाओं को दोषी करार देना कोई समाधान नहीं होगा बल्कि समस्या को और पेचिदा बनाने का कार्य करेगा।
निश्चित रूप से शिक्षा से नैतिक मूल्यों की विदाई संस्कार विहीनता के लिए दोषी है। परंतु इसके अनेक अन्य पक्ष भी हैं जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। एक नजर से देखने पर यह सभी समस्याएं हमारे अर्थतंत्र से जुड़ीं दिखती हैं। अधिकांश पारिवारिक विवाद धन की लिप्सा के कारण होते हैं जो बुजुर्गों के प्रति उपेक्षा और अपराध दोनों के कारक हैं। स्वतंत्रता से पूर्व हमारा समाज कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था से संचालित था। परिवार के सभी सदस्य एक जगह पर रहकर शारीरिक श्रम से धनोपार्जन करते थे। चूँकि एक-दूसरे की आवश्यकता थी इसलिए एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव भी था। ऐसे में स्वार्थ कम एवं सहिष्णुता का भाव अधिक रहता था। कालान्तर में कृषि अर्थव्यवस्था की अवनति से संतुलन बिगड़ता चला गया। यह ठीक है कि दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े, लेकिन परिवारों का विखंडन हुआ। सभी पहले शरीर से तो फिर मन से एक-दसरे से दूर होते चले गए। परिणाम सामने है- माता-पिता दो-तीन पुत्रों होते हुए भी अकेले हैं। सभी अलग-अलग स्थानों पर धनोपार्जन में लगे हैं, अतः रिश्ते नाम मात्र के रह गए हैं। अनेक बार दिलों का अंतर पहले रार तो फिर दरार का काम करता है। आज जो हत्यारी मानसिकता दिखाई दे रही है उसका एक कारण यह भी है।
दूसरा कारण जो अनुभव किया जा रहा है वह भी आजादी के बाद की परिस्थितियों से जुड़ा हुआ है। इस दौर में विस्थापन बढ़ा। अपने पारम्परिक व्यवसाय और क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में जाने से पुरानी पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी से कट गई या यूं कहें कि श्रेष्ठता ग्रंथि के कारण वह अपने बच्चों से तालमेल बिठाने से असमर्थ हो गए। ये वे लोग थे जिन्होंने जीवन में विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करके सफलता प्राप्त की। ऐसा अनुभव किया जाता है कि वह पीढ़ी कठोर और अनेक बार आत्मकेंद्रित बन गई। सर्वेक्षणों में यह तथ्य सामने आता है कि अनेक बार बुजुर्गों की कठोरता और युवाओं के जीवन में उनका अत्याधिक हस्तक्षेप उन्हें अपनी ही संतान से दूर करने का कारण बनता है। हालाँकि लगभग सभी बुद्धिजीवी तर्क देते हैं कि ‘कोई बुजुर्ग अपने बच्चों का भला ही चाहता है।’ लेकिन जिस तेजी से दुनिया बदल रही है, जीवनशैली में परिवर्तन हो रहे हैं ऐसे में अपने जमाने की परिस्थितियों जैसे आचरण की आज की पीढ़ी से अपेक्षा करना अथवा उनपर जबरदस्ती अपनी राय थोपना मतभेद से मनभेद, तत्पश्चात खुले विरोध का बड़ा कारण बन जाता है। कई बुजुर्ग ऐसे भी देखे गए हैं जो अपने बच्चों के बच्चे जवान हो जाने के बाद भी उनके दैनिक व्यवहार में बेतरतीब दखल देते हैं। उनका व्यवहार ऐसा होता है मानो उनके 40 साल के लड़के को बुद्धि ही नही है। बेशक यह तर्क थोड़ा अजीब हो लेकिन सच्चाई है कि आज का समाज बेहद तेजी से वैश्वीकरण की तरफ बढ़ा है। ऐसे में यदि पति-पत्नी साथ में कहीं घूमने जाते हैं, कुछ अपनी मर्जी से खाना चाहते हैं, अपने बच्चों की परवरिश अपने ढंग से करना चाहते हैं, तो हमारे वरिष्ठों को इसके प्रति सहिष्णु होने की आवश्यकता है। इसके सही-गलत होने के साथ इसकी व्यवहारिकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

सिर्फ अपने को बुद्धिमान समझना और दूसरों को कमतर आंकना, क्योंकि हमारी उम्र अधिक है, अनुभव अधिक है, आज के परिप्रेक्ष्य में थोड़ा अटपटा जान पड़ता है। आज जब छोटी उम्र के बच्चे विज्ञान, अनुसंधान, टेलीविजन, खेलकूद इत्यादि में झंडे गाड़ रहे हैं, तो हमें उनकी योग्यता का सम्मान करना चाहिए और उनसे तालमेल बिठाना चाहिए, न कि बालिग़ हो जाने के बाद भी उसके जीवन की दिशा निश्चित या नियंत्रित करने का प्रयास करते रहना चाहिए। महाभारत काल में दो ऐसे पिताओं का उदाहरण मिलता है, जिन्होंने अपने पुत्र के लिए सम्पूर्ण जीवन और सब कुछ दाव पर लगा दिया था। एक दुर्याेधन के पिता धृतराष्ट्र और दूसरे अश्वत्थामा के पिता द्रोणाचार्य ने ने अपने पुत्रों के लिए क्या-क्या नहीं किया। पर परिणाम क्या हुआ हम जानते हैं। वहीं दूसरी तरफ पांडव पिता के न होने पर भी निर्णय लेकर सक्षम बनते चले गए। रामायण काल में भी राजा दशरथ की परिधि से बाहर जाकर ही राजकुमार राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम से भगवान श्रीराम बन सके। ऐसे में ‘सिर्फ हम ही अपने बच्चों का भला सोच सकते हैं’ जैसे तर्क थोड़ी अतिवादिता हैं और इससे हमें बचने का प्रयास करना चाहिए। हाँ, बच्चों की योग्यता पर ध्यान देना माता पिता का कर्त्तव्य है, किन्तु बालिग़ हो जाने के उपरान्त उसे निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने से स्वयं निर्णय लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यदि उसका गलत निर्णय हो तो उसे तर्कसंगत ढ़ंग से मार्गदर्शन दिया जा सकता है। ऐसे में वह और सावधान होगा। जबकि सही निर्णय उसका उत्साह बढ़ाएंगे.
इसका अर्थ यह भी नहीं कि दोषी बड़े ही हैं। जब हम युवा-पक्ष की तरफ दृष्टि डालते हैं तो यहां भी असंतुलित तस्वीर ही नजर आती है। आज प्रतियोगिता के कड़े दौर में दो तरह के युवा मुख्य रूप से उभर रहे हैं। एक वर्ग वह है जो इस वैश्वीकरण के दौर में उचित प्रशिक्षण, समर्पण व सजगता से सफलता के शिखर छू रहा है। वहीं एक वर्ग वह है जो सफल नहीं हो पा रहा है। प्रतियोगी परिवेश में कहीं न टिक पाने वाले युवा कुंठा और विकृत मानसिकता के शिकार होते जा रहे हैं। ऐसे में जो युवक अपनी योग्यता, क्षमता का विस्तार नहीं कर पाते और अपनी महत्वांकाक्षा पर नियंत्रण भी नहीं रखना जानते, उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए धन की भी आवश्यकता है, अतः माँ-बाप के रूप में उसे आसान शिकार मिल जाते हैं। ये अपनी असीमित इच्छाओं के लिए अपने बुजुर्गों के प्रति आक्रामक हो जाते हैं। इन कुंठित और सामाजिक अपराधी युवकों को कठोर दंड तो मिलना ही चाहिए, साथ ही साथ इनकी स्थिति बेहतर कैसे हो इसपर भी सम्पूर्ण समाज सहानुभूति से विचार करे. क्योंकि गलाकाट प्रतियोगिता आखिर कब लाभदायी होती है।
अब उन युवकों की बात भी कर ली जाय, जो कथित रूप से सफल होने की श्रेणी में आते हैं, जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं, शिक्षित हैं। यह जानकर बड़ा दुखद आश्चर्य होगा कि ये सभ्य और शिक्षित लोग ही ओल्ड-एज-होम कॉन्सेप्ट को बढ़ावा दे रहे हैं। वे यह समझने को तैयार नहीं कि यह पश्चिमी व्यवस्था हमारे बुजुर्गों के लिए बंदीगृह के समान है। यह सामाजिक विकृति है। पश्चिम का समाज भावनाओं पर आधारित नहीं है। जन्म से मृत्यु तक नाममात्र की भावनात्मक औपचारिकता होती है। जैसे मदर डे- एक दिन माँ के लिए,फादर डे- एक दिन पिता के लिए। इसके विपरीत हमारे समाज की नींव भावनाओं पर आधारित है। हमारे लिए हर दिन माँ-बाप, रिश्ते नातों का है। ओल्ड-एज होम का समर्थन करने वालों को विचार करना चाहिए कि वह अपने बुजुर्गों के लिए जो व्यवस्था चाह रहे हैं, क्या वही सब उन्हें स्वयं अपनेे लिए भी मान्य होगा। शायद कदापि नहीं! तो फिर यह दोहरापन क्यों? यह प्रमाणित तथ्य है कि बच्चे अधिकांशतः वही सीखते हैं, जो अपने माता-पिता को करते हुए देखते हैं। यदि इन प्रश्नों पर युवा पीढ़ी विचार करना प्रारम्भ कर दे तो समाधान भी वह स्वयं ही ढूंढ लेगी। बस हमारे बुजुर्गों को इस प्रक्रिया में युवाओं का साथ देना होगा। उनका उत्साहवर्धन करना होगा। उनको सजग करते रहना होगा। बजाय इसके कि उनके निर्णय लेने की क्षमता को कम किया जाए। बदलाव समाज की सच्चाई हैं, लेकिन यह सच है कि पिछली सदी में समाज जितनी तेजी से बदला है, उतना परिवर्तन कई सदियों में नहीं हुआ होगा। तेजी से बदली तकनीक ओर वैश्वीकरण के दौर में बुजुर्ग और युवा दोनों को आपसी सौहार्द और तालमेल से पारिवारिक व्यवस्था को संतुलित करने का प्रयास करना चाहिए। आखिर तभी हम परिवार की श्रेष्ठ परम्परा को जीवांत कर अपने परिवेश और समाज को बेहतर बना सकेंगे।

– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Article on Senior Citizens and Youth and family structure in Indian perspective

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