Tuesday 2 December 2014

संस्कृति के तथाकथित 'ठेकेदार' - Indian Culture and The Contractors!

समाज कल्याण के लिए एक समय जिस परंपरा को लोग सहर्ष स्वीकार करते हैं, वही परंपरा कई बार अपने सड़े-गले रूप में सामने आती है, जिससे सिवाय दर्द और मवाद के कुछ और नहीं निकलता है. भारतवर्ष में इसका सर्वोत्तम उदाहरण इसकी जाति-व्यवस्था है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के जिस वर्गीकरण के माध्यम से हमारे ऋषि-मुनियों एवं प्राचीन समाज शास्त्रियों ने सामाजिक व्यवस्था को सरल बनाने का प्रयास किया था, कालांतर में वह व्यवस्था दूषित होती गयी. न सिर्फ प्राचीन काल, मध्य काल में बल्कि आधुनिक काल में भी इस जाति व्यवस्था ने समाज को जितनी हानि पहुंचाई है, उतनी हानि शायद परमाणु बम या कोई दूसरा आधुनिक हथियार भी नहीं पहुंचा सकता है. एक तरफ देश भर के राजनीतिज्ञ अपनी राजनीति को साधने के लिए जाति-भेद को टकराव के रास्ते पर ले जाते हैं, तो दूसरी ओर समाज भी देशभक्ति एवं शिक्षा को दरकिनार कर जातिगत टकराव को बढ़ाने का कार्य निरंतर जारी रखे हुए है. अपनी महानता का गुण गाते न थकने वाली विभिन्न जातियों, उपजातियों के पास सिर्फ एक कार्य है, और वह है दूसरी जातियों को नीचा दिखाना और अपने अनुकूल स्थिति होने पर उनके प्रति शारीरिक, मानसिक, आर्थिक हिंसा करना, उनका शोषण करने की कोशिश करना.

यह भी एक कटु सच है कि भारतीय समाज की ऊँची जातियों ने अब तक अपने से कमजोर जातियों का भरपूर शोषण किया है, और जैसा कि परिवर्तन संसार का नियम है तो धारा अब विपरीत दिशा में बहने को तैयार बैठी है. मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय की अगली पीढ़ी के अधिकांश युवक परले दर्जे के नालायक और कामचोर बन रहे हैं. उनके पूर्वजों ने जो ज़मीन इकट्ठी कर रखी थी, उस पर उनसे खेती होती नहीं है, साथ में आधुनिकता के लिहाज से उनसे अध्ययन भी नहीं होता है, जिससे सरकारी नौकरियों में उनके अवसर सीमित हो गए हैं. बिचारे समाज के ठेकेदार रहे हैं, समाज को दिशा देने और उसकी रक्षा करने का गर्व माथे पर लगाये घुमते हैं, तो उनसे छोटा-मोटा काम भी नहीं होता है, मसलन कोई दूकान, कोई प्राइवेट जॉब या कोई चतुर्थ श्रेणी की नौकरी. इतने पर भी अपनी ढोंगी वाणी, पोथी-पत्रा और हेकड़ी से वह काम चला लेते थे, लेकिन पिछले कुछ दशकों में तो राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथ से निकल चुकी है. बड़ी बुरी हालत में हैं बिचारे! अब तो पेंडुलम की भांति बिचारे कभी इधर तो कभी उधर. उदाहरण स्वरुप उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों की हालत देख कर सिवाय दया के कुछ नहीं आता है. लोक-परलोक, आध्यात्म, वेदों के ठेकेदार कभी बसपा में, कभी भाजपा में और कभी अधमरी कांग्रेस में ठोकरें खाते हैं. जिन जातियों को वह अपनी बराबरी में बैठाने से हमेशा संकोच करते रहे थे, अब उसी जाति के नेताओं के चरणों में बैठकर अपना अस्तित्व ढूंढते फिरते हैं. हे ईश्वर! यह तुमने क्या किया? यह तेरा कैसा न्याय है?

राजपूतों की हालत तो इससे भी बुरी है. गाँव के इन बड़े साहबानों के खेत में पहले मजदूरों की लाइन लगी रहती थी, तो अब वह बड़े साहब मजदूरों के घर के चक्कर लगा रहे हैं, उनकी मिन्नतें करते हैं और वह अपनी मर्जी और अपनी शर्तों पर कभी काम करता है, कभी ठेंगा दिखा देता है. एक रोचक बात बताऊँ आपको मेरे गाँव में एक बार किसी मजदूर की अकड़ पर एक राजपूत महोदय बिगड़ गए और क्षत्रिय शान के अनुसार उनकी जुबान गालियां बकने लगीं. अब क्या कहें उन महाशय को, बदले हुए निष्ठुर समय को वह पहचान नहीं पाये, अपने से नीची जाति मानने वालों की बस्ती में थे. बाद में गाँव के लोगों को पता चला कि बिचारे के शरीर पर लाल निशानों के साथ मुंह पर नाखूनों के कई निशान बन गए थे. फिर वह महोदय कभी उस बस्ती की ओर नहीं गए. एक दुसरे राजपूत महाशय तो कई दिनों तक भगवान कृष्ण की जन्मस्थली में पड़े रहे, बड़ी मुश्किल से उनकी ज़मानत हुई.

More-books-click-hereलेकिन, वह रस्सी ही क्या जिसके बल चले जाएँ, बेशक वह जल क्यों न गयी हो. और वह ब्राह्मण, राजपूत ही क्या जो जातिवादी मानसिकता छोड़ दे. हालाँकि नयी, पढ़ी-लिखी पीढ़ी में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है और वह जाति-भेद को नकार रहे हैं. लेकिन अभी भी अधिकांश ब्राह्मण नेता वही हैं जो परशुराम-जयंती के बहाने शक्ति-प्रदर्शन करते हैं और बड़े गर्व से कहते फिरते हैं कि क्षत्रियों को यदि किसी ने ठीक किया तो वह परशुराम ही थे. राजपूत नेता भी भला कम क्यों रहे, वह भी कहते हैं हमारे राम, भीष्म की तो बात छोड़ ही दो, जिन्होंने परशुराम को झुकाया, एक बालक यानि लक्ष्मण ने परशुराम की ऐसी-तैसी कर दी. एक और ख़ास बात है इन जली हुई रस्सियों की कि यह आपस में इतना प्रेम करते हैं कि एक-दुसरे की टांग खींचने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. कई जगहों से एक पत्रकार के नाते मुझे परशुराम-जयंती, क्षत्रिय-सम्मलेन का बुलावा आता है, लेकिन वहां आप कभी मत जाइयेगा क्योंकि वहां आपको कोई सम्मलेन नहीं दिखेगा, बल्कि एक ब्राह्मण दुसरे की टांग खींचता दिखेगा, और एक राजपूत दुसरे राजपूत की ऐसी की तैसी करने का अवसर ढूंढता मिलेगा. ऐसी ही एक जगह एक ब्राह्मण महोदय अपनी विद्वता का घोल पिला रहे थे कि भारत की संस्कृति को मुसलमानों, ईसाइयों से ब्राह्मणों ने ही बचाया है तो मेरा सीधा प्रश्न था कि क्या भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश के 90 फीसदी से ज्यादा मुसलमान एवं ईसाई नीची जाति के लोग नहीं हैं, जिन्हें आप ब्राह्मणों ने मंदिर में घुसने नहीं दिया, अपने पास बिठाया नहीं और बकवास करते हो संस्कृति-रक्षा की. कश्मीरी-मुसलमानों एवं कश्मीरी-पंडितों की कहानी कौन नहीं जानता. इस सवाल पर वह संस्कृतिरक्षक ब्राह्मण महोदय खी-खी करके रह गए. कई सच्चे ब्राह्मण विद्वान ऑफलाइन इस बात को स्वीकार करते हैं कि ब्राह्मणों ने इस देश का जितना अहित किया, उतना अहित अंग्रेजों एवं मुस्लिम आक्रमणकारी भी नहीं कर पाये.

Buy-Related-Subject-Book-beआज-कल में ही छत्तीसगढ़ के किसी मंत्री का बयान आया कि 'ब्राह्मण ही बचा सकते हैं भारतीय संस्कृति'! क्यों भाई, कोई और संस्कृति की रक्षा करने की कोशिश करेगा, वेदों की ऋचाओं का श्रवण करेगा तो उसके कानों में पिघला शीशा डालोगे आप! छत्तीसगढ़ के मंत्री महोदय, आपने अपने राजनीतिक भाई, बिहार के मुख्यमंत्री सर्वश्री जीतनराम मांझी को नहीं सुना शायद! वह कहते हैं कि बड़ी जातियां उन्हें न सिखाएं, क्योंकि वह उनसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं और उनसे ज्यादा बुद्धि उनके पास है. आधुनिक काल में भी यदि मूषक प्रजाति बड़बोले मांझी को अपना शत्रु मानती है तो माने, लेकिन वह अपना सीना ठोक कर कहते हैं कि वह किसी रिमोट-कंट्रोल से नहीं चलते हैं. वह अपनी मेहनत से सीएम बने हैं, और पीएम भी बनेंगे. यह अलग बात है कि उनके सर पर किसका हाथ है, यह सभी जानते हैं. आप शायद उनके उस राजनीतिक दांव को भी भूल गए, जब वह किसी मंदिर गए और बाहर आकर उन्होंने बयान दे दिया कि मैं दलित हूँ, इसलिए मेरे मंदिर में प्रवेश के बाद मंदिर को गंगाजल से धोया गया. इस बयान के बाद पूरा प्रदेश और उस मंदिर का ब्राह्मण पुजारी सकते में था और उस पुजारी ब्राह्मण को अपनी रक्षा भारी पड़ रही थी और छत्तीसगढ़ के मंत्री महोदय, आप कहते हैं कि ब्राह्मण ही संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं. अरे! पहले अपनी रक्षा तो करना उन्हें सिखाइये. उन्हें सिखाइये कि कामचोरी और भगवान की दलाली छोड़कर कुछ काम धंधा करें, मेहनत करके अपनी एवं अपने परिवार की रक्षा करें. संस्कृति का ठेका आप लोग छोड़िये, यह अपनी रक्षा आप ही कर लेगी. आप चुनाव की तैयारी कीजिये और अपनी सीट बचाइये और हाँ! ऐसे बयान जारी मत किया करिये, नहीं तो अपने मंत्रिपद की रक्षा आपको मुश्किल लगने लगेगी. समय की मांग भी यही है कि राजपूत, दलित, ब्राह्मण, व्यापारी इत्यादि का भेदभाव छोड़कर सच्चाई से सब लोग मेहनत से अपने कार्यों में लगें, तब भारतीय संस्कृति की रक्षा आप ही हो जाएगी. अपने-अपने कुछ महापुरुष गढ़ कर आपस में विद्वेष फ़ैलाने वाले ढोंगी कर्मकांडों से इस देश का और मानवता का सत्यानाश ही होगा, हमेशा की तरह. स्वयं विचार कीजिये.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Indian Culture and The Contractors, article on casteism by Mithilesh in Hindi. What is Brahman, Kshatriya, Vaishya and Shudra in today's era. Read clearly here from the pen of Mithilesh.

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