Friday 12 December 2014

एक नया पैगंबर लाइए, ... जनाब! - Hindu, Muslim and The Nation !

भारत में इस समय जिस घटना पर सड़क से संसद तक हंगामा मचा हुआ है, वह निश्चित रूप से धर्मान्तरण का मुद्दा है. विपक्ष तो इस बात पर जो हंगामा मचा रहा है, वह है ही, लेकिन हिन्दू संगठनों से जुड़े बुद्धिजीवी भी इस पूरे प्रकरण पर अंदरखाने बेहद नाराज बताये जा रहे हैं. उनके अनुसार आरएसएस कोई आज से हिंदुत्व के समर्थन में कार्य तो कर नहीं रही है, बल्कि इससे बेहतर कार्य, जिनमें घर-वापसी और मिशनरियों से आदिवासी, पिछड़ों की रक्षा के कार्य शामिल थे, पिछली यूपीए सरकार के दौरान हो रहे थे. संघ के कई नेताओं का मुस्लिम नेटवर्क बहुत जबरदस्त था (अब भी है) और लाखों मुसलमानों को राष्ट्रवादी विचार से जोड़ने का श्रेय इसी संगठन को है. तब चूँकि कार्य बेहद सुनियोजित ढंग से हो रहा था और छुटभैये और हल्के लोग सरकारी डर के कारण सामने आने से कतराते थे. अब जिसको देखो, संघ, बीजेपी और मोदी की नज़रों में अपना नंबर बढ़ाने में लगा हुआ है और इस चक्कर में बहस कहीं से कहीं रास्ता भटक रही है. इसके अतिरिक्त आम चुनावों के बाद मोदी की छवि जिस प्रकार आम जनता में और मजबूत हुई है, उसने संघ को कहीं न कहीं चिंतित भी किया है. पत्रकारीय हलकों में इस बात पर जोरदार चर्चा हो रही है कि मोदी को साधने में संघ ने अपने घोड़ों को तेजी से दौड़ाया है.

संसद में इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू से यह कहते हुए सदन से वाकआउट किया कि आप के हाथ में यदि सत्ता रही तो आप देश को तोड़ दोगे. खैर, मुलायम का चरित्र भी कोई कम सांप्रदायिक नहीं रहा है, जो उनको देश का खैरख्वाह माना जाय. मसला यह है कि अंदरखाने More-books-click-hereइन बातों से पक्के हिंदूवादी छवि वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी खुश नहीं बताये जा रहे हैं. वह चूँकि भारत के प्रधानमंत्री हैं और उनके नाम पर ही आम भारतवासियों ने वोट किया है, इसलिए यह दोहराना आवश्यक है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर उनका रूख अपनी छवि के विपरीत ही रहा है. गुजरात में जब वह मुख्यमंत्री थे, तब कहा जाता है वहां संघ या उसके आनुषंगिक संगठनों की बोलती बंद थी. आग उगलने वाले प्रवीण तोगड़िया को तो उन्होंने कई बार चुप कराया था. यही नहीं, सड़कों के विकास में कई मंदिरों को तोड़ने में उन्होंने ज़रा भी संकोच नहीं दिखाया. अब जब उन्हें प्रधानमंत्री बने 6 महीने से ज्यादा हो चुके हैं, तो खालिस संघी राजनीति से उन्हें भी दो-चार होना पड़ रहा है. हाल ही में आयोजित हिन्दू कांग्रेस बड़ी चर्चित हुई. उस सम्मलेन में विहिप के अशोक सिंघल ने कहा कि 800 सालों बाद कोई हिन्दू शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठा है. इसके तुरंत बाद जब सांसद साध्वी ने रामज़ादों, हरामजादों का बयान दिया तो मोदी फूट पड़े. कड़ी चेतावनी देते हुए उन्होंने संघी राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश भी की, जिसमें साध्वी को मांफी तक मांगनी पड़ी. लेकिन केंद्रीय राजनीति और प्रदेश की राजनीति में अंतर मोदी को अब समझ आ रहा होगा. साध्वी को दी गयी चेतावनी का कोई खास असर संघ पर हुआ नहीं, बल्कि उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने का असमय मुद्दा छेड़ा गया और अब धर्मान्तरण के मुद्दे पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ दी गयी है. कितने मुसलमान या ईसाई हिन्दू बने, यह प्रश्न पीछे छूट गया और मीडिया में यह छवि प्रचारित हो गयी कि इस सरकार पर हिंदूवादी हावी होने की कोशिश कर रहे हैं, या हिंदूवादी राजनीति के जरिये समाज को बांटने की कोशिश में सरकार साथ दे रही है. नरेंद्र मोदी की आम चुनाव से पहले चाहे जो छवि रही हो, लेकिन आम चुनाव के समय से उनके बारे में जो धारणा बनी, विशेषकर युवा-वर्ग में, वह निश्चित रूप से यही थी कि यह बंदा किसी खास सम्प्रदाय का तुष्टिकरण नहीं करेगा, बल्कि उससे आगे बढ़कर लोगों की रोजी-रोटी की समस्या सुलझाने पर जोर देगा.

नरेंद्र मोदी खुद भी इस अपेक्षा से अनजान नहीं हैं. उनका राजनैतिक कौशल ही कहा जायेगा कि एक के बाद एक विदेश यात्राएं, निवेश कार्यक्रम, आर्थिक अवधारणाएं इत्यादि उद्देश्यों की पूर्ति में इतनी तेजी से चले हैं कि किसी और विवाद के लिए बीते छः महीनों में किसी को समय ही नहीं मिला है. विरोधी तो विरोधी संघ के गहन विचारकों तक को उनकी इस योजना को समझने में समय लग रहा है. संघ बेशक, विचारकों को तैयार करता है, राष्ट्रवाद - हिन्दुवाद की घुट्टी पिलाकर उन्हें जवान करता है, मुसलमानों के बारे quran-islamमें तमाम ऐतिहासिक चर्चाओं को सुन सुनकर, रट रटकर वह विचारक प्रौढ़ होता है, और यह बात उद्धृत करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि मुसलमानों को हिंदुत्व और राष्ट्र के लिए संघ बड़ा खतरा मानता है. यह विचार कोई नया नहीं है और इस्लाम को लेकर यह अवधारणा स्थानीय या भारतीय भर नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक अवधारणा बन चुकी है. लोग अपने आस पास किसी मुसलमान को देखकर सजग हो जाते हैं, अपनी सोसायटी में उन्हें रखना उन्हें सहज नहीं लगता है. आखिर विश्वास जमे भी तो कैसे, अलकायदा के लादेन को गए अभी कुछ साल भी नहीं हुए कि ख़लीफ़ाई, कबीलाई तर्ज पर इस्लामिक स्टेट नामका संगठन खड़ा हो गया. यही नहीं, भारत के कई मुसलमान युवक इसमें पकडे गए. और तो और यह लेख लिखे जाने तक पता चला है कि 'आईएस' के आफिशियल ट्विटर अकाउंट पर ट्वीट भारत के 'बंगलौर' से की जा रही थी. ऐसे में सिर्फ आरएसएस को मुस्लिम विरोधी कैसे कहा जा सकता है. यह एक कटु सच है कि इस्लाम की मतान्धता को लेकर सम्पूर्ण विश्व में उसको संदिग्ध नजर से देखा जा रहा है. चरमपंथी, आतंकवादी, जेहाद, हिंसा, मुसलमान जैसे शब्द अब समानार्थी लगने लगे हैं. पर हल क्या है? हल इतना सरल भी नहीं है कि तुरत फुरत में मिल जाय और दुनिया में शांति व्याप्त हो जाय. विचारकों के अनुसार इस्लाम और दुसरे धर्मों में जो सबसे मूल अंतर समझ आता है, वह इसका जड़ होना बताया जाता है. इस्लाम की पवित्र पुस्तक कुरआन की कई आयतों का उदाहरण देकर विरोधी उसे हिंसा को बढ़ावा देने वाली बातें मानते हैं. ऐसा नहीं है कि यह पहला ऐसा धर्म-ग्रन्थ है जिसकी कमियों की चर्चा होती है, बल्कि हाल ही की बात है जब रूस में गीता को कुछ ऐसे ही कारणों से प्रतिबंधित करने की गलत कोशिश हुई थी. हालाँकि रूसी सरकार को अपना प्रतिबन्ध वापस लेना पड़ा. लेकिन हिंदुत्व के बारे में सोचने पर यह लगता है कि इसमें विचारों की आज़ादी से बदलते युग के साथ धर्म में नूतनता तो आती ही है, धर्म के नियम-कायदे भी प्रैक्टिकल बने रहते हैं. ज़रा सोचिये, यदि हिन्दू धर्म में सिर्फ एक ही ग्रन्थ की मान्यता होती और यदि वह गीता होती तो हिन्दुओं का जीवन कैसा होता. लेकिन यह हिंदुत्व का सौभाग्य है कि किसी परिस्थिति में गीता के श्लोक मानव जीवन को अपना कर्त्तव्य करने की प्रेरणा देते हैं तो दूसरी परिस्थिति में रामायण के राम त्याग करने की प्रेरणा देते हैं. स्वामी दयानंद उसी विशेष परिस्थिति में मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं तो स्वामी विवेकानंद हिन्दू-दर्शन को एक नयी ऊंचाई प्रदान करते हैं. कोई ग्रन्थ, व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, लेकिन परिस्थिति के अनुसार उसमें बदलाव आवश्यक है, नहीं तो उसका अस्तित्व मिट जायेगा. श्रीमदभगवद गीता के ही शब्दों में कहें तो 'परिवर्तन संसार का नियम है', इस्लाम और उसके फालोवर इस परिवर्तन के सिद्धांत को नकार देता है. जहाँ तक आम लोगों की समझ है, इस मान्यता में न तो नवीन विचारों की जगह है और नवीन विचारों के प्रति असहिष्णुता तो जगजाहिर है.

एक चुटकुला इस सन्दर्भ में बड़े ज़ोरों से चलता है. एक किसी दुसरे धर्म के व्यक्ति को मुसलमान बनने का शौक चढ़ा, तो उनका खतना किया गया, बिचारे को बड़ा दर्द हुआ. बातूनी थे महाशय, वहां गए तो बोलने पर पाबन्दी लगा दी गयी, इसलिए उक्त कर इस्लाम छोड़ने की बात बोल दी. बस फिर क्या था- चार धर्मांध युवक तलवार लेकर उनके Buy-Related-Subject-Book-beसामने खड़े हो गए और बोले- इस्लाम से जाने की बात बोलोगे तो गला काट देंगे. बिचारे डरते हुए बुदबुदाये- अजीब जगह है यार! आओ तो नीचे से काटते हैं, जाओ तो ऊपर से ... !! जिस धर्मान्तरण पर इतनी हाय-तौबा मची है, वह बिचारे गरीब मुसलमान डरे हुए हैं. हालाँकि भारत की सुप्रीम कोर्ट ने 1977 के अपने एक फ़ैसले में कहा था कि अपनी मर्ज़ी से धर्म परिवर्तन करना ग़लत नहीं है, लेकिन इस्लाम इस मामले में अब तक उदार नहीं बन पाया है. यदि ऐसा नहीं होता तो तस्लीमा नसरीन, सलमान रूश्दी जैसे व्यक्तियों को अपनी जान बचाने की खातिर यहाँ-वहां भागना नहीं पड़ता. यदि गौर से देखा जाय तो तस्लीमा जैसे लोग वास्तव में इस्लाम का भला चाहते हैं, इसलिए उसे अपडेट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं. इन उदाहरणों के अतिरिक्त नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफ़ज़ई का नाम हमारे सामने है. जहाँ एक तरफ पूरे विश्व में उसकी सोच और हिम्मत की ख्याति हो रही है, वहीं दूसरी ओर मुस्लमान उसे बुर्के वाली पर्दानशीं बनाये रखने पर आमादा हैं. भारत में भी आमिर खान बड़े समाज-सुधारक के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे हैं. 'सत्यमेव जयते' नामक कार्यक्रम से उन्होंने बड़ी ख्याति अर्जित की है, लेकिन इस्लाम की तमाम बुराइयों में एक की तरफ भी देखने की हिम्मत वह नहीं कर सके हैं, क्योंकि वह जानते हैं यदि उन्होंने बुरका-प्रथा, बहु-विवाह, हिंसा का मुद्दा छुआ भी तो भारत जैसे धर्म-निरपेक्ष देश की पुलिस और प्रशासन भी उनकी रक्षा नहीं कर पायेगी और उन्हें भी किसी लन्दन या पेरिस में शरण लेना पड़ेगा. यही नहीं, वह हज की यात्रा करके अपनी मुस्लिम छवि को पुख्ता करने का प्रयास करते हैं. यह हालत तो तब है जब अधिकांश बड़े मुस्लिम नाम समाज सुधारक का चोला ओढ़ने की कोशिश करते हैं, bhagavad-gita-lord-krishnaयदि उन्होंने धर्म पर एक शब्द भी बोला तो उनकी जान गयी समझो. एकाध जो निकलते हैं, वह राजनीति के शिकार बन जाते हैं और किसी जिन्ना की भांति मानवता का खून बहाने की ठान लेते हैं. लेकिन इसके अलावा रास्ता क्या है? मुझे नहीं लगता कि यदि खुद मुसलमान अपने धर्म को आधुनिक नहीं बना सकते, ज़माने के साथ तालमेल नहीं बिठा सकते तो यह कार्य कोई हिन्दू संगठन या किसी ईसाई देश की राजनीति कर सकती है. जरूरत इसी बात की है कि इस्लाम के अंदर से विचारक बाहर निकलें और उन्हें दुनिया सपोर्ट करे, यदि जरूरत हो तो कोई नया पैगंबर बनाया जाय. यदि हिन्दुओं के अवतार हो सकते हैं, ईसाइयों के ईसामसीह दुबारा आ सकते हैं या पोप के माध्यम से ईसाई समाज का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं तो मुसलमानों के दुसरे पैगंबर भी हो सकते हैं और अपने धर्म को मानव समाज के कल्याण के लिए प्रेरित कर सकते हैं. यदि मुसलमान आज शक की निगाह से देखे जा रहे हैं, गुमराह हो रहे हैं, अशिक्षित बन रहे हैं, जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं, उनकी वैश्विक पहचान संदिग्ध हो रही है तो उनको बेहतर जीवन दर्शन देने के लिए एक नया पैगंबर क्यों नहीं बनाया जा सकता है. आरएसएस ने मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ाने का जो क्रम शुरू किया था और अमेरिका ने मलाला के माध्यम से इस्लाम की बुराइयों को उभारने का जो प्रयास शुरू किया है, इन प्रयासों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है. हाँ! इन प्रयासों में दिक्कत तब शुरू हो जाती है जब अमेरिका लादेन जैसों को, मुशर्रफ जैसों को पहले पैदा करता है और बाद में अत्याचारों पर पर्दा डालने उसके सीआईए के अधिकारी सामने आकर जासूसी संस्था द्वारा मानवाधिकारों को कुचले जाने को जायज़ ठहराते हैं. यही बात हिंदुत्व के समर्थकों को भी समझ लेनी चाहिए कि क्या वह देश के 20 करोड़ मुसलमानों को हिन्दू धर्म में वापिस लाने की सोच रखते हैं या उनकी सोच को राष्ट्रवादी बनाने का विकल्प बेहतर है. और 20 करोड़ ही क्यों, विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के बारे में अमेरिका का आंकलन भी बदल गया है. मेरे ख़याल से इस्लाम को अपनी रूढ़िवादिता पर विचार करने के लिए तैयार करना ज्यादा बेहतर विकल्प साबित होगा.

एक तो भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में प्रत्येक नागरिक अपने धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन यदि कहीं कुछ राष्ट्रहित में नहीं दिखता है तो उसके प्रति व्यापक rss-sanghदृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. यह बात अब कुतर्क की श्रेणी में ही आएगी कि 'मुसलमानों ने हिन्दुओं पर अत्याचार करके उन्हें मुसलमान बनाया, तो अब हम वही करेंगे.' आँख के बदले आँख वाले सिद्धांत से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी. हिन्दू संगठनों को यह बात याद रखनी चाहिए कि आम हिन्दू उदार है और उस सिद्धांत का पोषक है जिसमें उसके भगवान विष्णु की छाती पर एक व्यक्ति लात मार देता है और वह सह जाते हैं. बहुत खून बह चूका है पिछले 800 सालों में, जिम्मेवार कौन है इस पर बहस से क्या फायदा! वैसे भी यदि बाबर ने 500 सालों पहले तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया और अब हिन्दू संगठन वही करने की कोशिश करें तो इसे निरा बेवकूफी ही कही जाएगी. यूं भी हमारे देश के युवक मंगल पर जाकर पूरी वसुधा का मंगल करने की कोशिश कर रहे हैं और हम इस बहस में उलझे हैं कि भगवान या खुदा की प्रार्थना हाथ जोड़कर करें या घुटने मोड़कर. सोच बदलो, देश बदलेगा!

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Hindu, Muslim and The Nation, Article by Mithilesh in Hindi

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