भारतवर्ष को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो उसे निश्चित रूप से ही 'त्यौहारों का देश' कह कर सम्बोधित किया जायेगा. यदि जनवरी महीने से शुरू करें तो गुरु गोविन्द सिंह जयंती, मकर संक्रांति, पोंगल के बाद फ़रवरी में बसंत पंचमी, रविदास जयंती, महाशिवरात्रि का बड़ा त्यौहार आता है. फिर एक-एक करके, होली, रामनवमी, वैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, ओणम, दीपावली, गोवर्धन के रास्ते छठ महापर्व के बाद भी यह सिलसिला लगातार आगे बढ़ता जाता है. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में त्यौहारों के ऊपर लगातार लिखा जाता है, कई राष्ट्रीय पत्रिकाओं के त्यौहार विशेषांकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ सामजिक संरचनाओं को मजबूती देने में त्यौहारों की अहम भूमिका बताई जाती है. अपनी रोजमर्रा की जीवनचर्या में भागते-दौड़ते मनुष्य को त्यौहार रस से भर देते हैं और उनको यह एहसास दिलाते हैं, उसे सचेत करते हैं कि इस मशीनी युग में वह मशीन न बनें, बल्कि अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने गाँव-मोहल्ले के प्रति, अपने समाज के प्रति वह मेलजोल रखें, साझी संस्कृति के विकास में अपना योगदान करें.
भारतीय व्यवस्था में जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण माने गए हैं, ठीक उसी प्रकार इन के कार्यों से सम्बंधित चार मुख्यतः त्यौहार रक्षाबंधन, विजयादशमी, दीपावली और होली की मान्यता है. हालांकि आधुनिक काल में इस ऐतिहासिक व्याख्या की कोई ख़ास अहमियत नहीं है, बल्कि अहमियत इस बात की ज्यादा है कि त्यौहार अपने उद्देश्य को पूरा कर पा रहे हैं अथवा नहीं. अपने पिछले लेखों में मैंने कई बार कहा है कि त्यौहारों की भूमिका लोक-संस्कृति के विकास में सबसे महत्वपूर्ण होती है, इसके साथ इस बात का भी ज़िक्र करने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ऊपर वर्णित त्यौहारों में अधिकांशतः एक सरकारी छुट्टी से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं. आधुनिक जीवन-शैली और संयुक्त परिवारों के टूटन के दौर में हमारे पास खुद के लिए वक्त नहीं है, अपनी धर्मपत्नी के लिए वक्त नहीं है, अपने बच्चों के लिए वक्त नहीं हैं, अपने माँ-बाप, चाचा-चाची और परिवार के दुसरे सदस्यों की कौन बात करे. खैर, इन वास्तुस्थितियों के अनेक कारण हैं, और उस मुद्दे पर चर्चा गाहे-बगाहे होती रहती हैं. लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि त्यौहारों का अपना उद्देश्य सीमित होता जा रहा है. हालाँकि उपरोक्त वर्णित व्याख्याएं 'छठ-महापर्व' पर अपना नकारात्मक प्रभाव कतई नहीं छोड़ पाईं हैं. हालाँकि त्यौहारों की तुलना करना थोड़ी अजीब बात होगी, लेकिन शोध की दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो आश्चर्य से कहना पड़ता है कि दुसरे त्यौहार जहाँ अपनी अहमियत को खोते जा रहे हैं, वहीँ छठ महापर्व का बेहद तेजी से देश और विदेश तक में प्रसार हो रहा है.
डूबते सूर्य को अर्घ्य देने वाली एकमात्र ज्ञात परंपरा वाली छठ पूजा की महिमा सर्वव्यापी हो चुकी है. हालाँकि शुरुआत में यह त्यौहार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में ही मनाया जाता रहा है. आज सुबह की एक घटना आप सभी से साझा करना चाहूंगा. प्रत्येक दिन की भांति आज भी अपने बच्चे को सुबह मैं स्कूल छोड़ने पहुँच गया. संयोग से मुझे याद नहीं था कि छठ पूजा के कारण आज उसकी छुट्टी है, तो स्कूल के गेट पर नोटिस लगी थी छुट्टी की, अतः मैं लौटने लगा. इस बीच मेरा ध्यान आस पास के कुछ वरिष्ठ लोगों पर चला गया, जो बड़बड़ा रहे थे कि भाई! वोट की पॉलिटिक्स है, दिल्ली में भी इनकी संख्या ५० लाख से ज्यादा हो गयी है, इसलिए हर नेता इनकी चापलूसी में लगा है, दिल्ली में भी छठ पूजा पर छुट्टी घोषित हो गयी है. थोड़ा अजीब तो लगा फिर विचारमग्न होकर मैं देशभर की स्थितियों पर इस त्यौहार के सन्दर्भ में सोचने लगा. भारत जैसे देश में, मुंबई जैसे आधुनिक शहर में पिछले दिनों जिस प्रकार छठ पूजा का भारी विरोध किया गया, उसने कइयों के रोंगटे खड़े कर दिए थे. अपने प्रदेश में रोजी-रोजगार की व्यवस्था न होने के कारण वह व्यक्ति पलायन करता है, लेकिन अपने देश में भी वह व्यक्ति त्यौहार नहीं मना सकता, सम्मान से जी नहीं सकता, इस बात ने देश भर में छठ पूजा को लेकर भारी उत्सुकता पैदा कर दी. बिहार, यूपी या किसी भी राज्य के लोग हों, जब भी किसी भारतीय पर अपनी संस्कृति को लेकर जरा भी आंच आती है, वह बेहद सजग होकर और भी तीव्र गति से आगे बढ़ता है.
इसके साथ यह भी ऐतिहासिक सच है कि जो यात्रा करते हैं, वह विकास करते हैं. जो एक जगह जम जाते हैं, वह जड़ हो जाते हैं. गुलामी के काल में हमारे पूर्वजों को अंग्रेजों ने गुलाम बनाकर दुसरे देशों में भेजा था, लेकिन अब वह उन देशों की रीढ़ बन चुके हैं, ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं. बल्कि कुछ देशों में तो वह राष्ट्र-प्रमुख के पद तक पहुँच चुके हैं. यही हाल अपने देश में पिछड़े और विकसित राज्यों की मानसिकता को लेकर है. एक जगह के लोग, दुसरे राज्य के कमजोर लोगों को अपने पास बैठाना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि कमजोर व्यक्ति हर तरह का कार्य करने को तत्पर रहता है, और इस कारण स्थानीय व्यक्ति को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है. मेहनती लोग तो मुकाबला करते हैं, लेकिन आलसी लोगों की मानसिकता का फायदा राज ठाकरे जैसे राजनेता अच्छे से उठाना जानते हैं. संयोग कहिये या कुछ और, लेकिन पिछले दशकों में छठ-पूजा 'पिछड़े-लोगों', पिछड़े राज्यों की अस्मिता का प्रतीक बन गयी. मुद्दे का राजनीतिकरण होने से इसका प्रचार-प्रसार तो खूब हुआ लेकिन इस त्यौहार की असली अहमियत हम समझ नहीं पाये. दुःख की बात यह है कि तमाम कुटिल लोग, छठ-पर्व के नाम पर लाखों की लूट करते हैं, वोटर्स का सौदा करते हैं. दिल्ली, मुंबई हो या रायपुर, भोपाल अथवा कोई अन्य शहर हो, छठ पूजा के नाम पर व्यावसायिकता खूब फल-फूल रही है.
इसके राजनीतिकरण से अलग हटकर सोचें तो इस पर्व पर जिस प्रकार का सामजिक एकत्रीकरण होता है, वह किसी और दशा में दुर्लभ है. मैं अपनी बात करूँ तो मेरे गाँव में छठ पूजा पर देश और विदेश तक रहने वाले लोग एकत्र होते हैं और गाँव के तालाब के किनारे शाम को चार घंटे से ज्यादा समय भी देते हैं. अपने सर पर छठ पूजा की सामग्री और प्रसाद से भरी टोकरी लेकर घाट पर जाने का आनंद अनुपम होता है. संस्कृति की छटा इस समरस त्यौहार के माध्यम से न सिर्फ देश में बल्कि देश से बाहर रहने वाले भारतीयों को जोड़ने में किया जा सकता है. इसके साथ इस त्यौहार की मूल भावना जो मैं समझता हूँ, वह यही है कि गिरते को भी सहारा दो, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से डूबते सूरज की महिमा को छठ पूजा के माध्यम से हम स्वीकार करते हैं. क्योंकि जो गिरेगा, वही उठेगा, जो डूबेगा, वही उगेगा. जो संघर्ष करेगा, वही आगे होगा. जो ठहर जाएगा, वह मृत हो जाएगा. आइये, राजनीति से दूर हटकर इस पर्व की महिमा को आत्मसात करें और बोलें- "जय छठ मइया की".
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
Chhath Mahaparv, Article by Mithilesh
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