त्यौहारों का मौसम अपने शबाब पर है. नवरात्रों, दशहरा के बाद दीपावली के पावन पर्व का हम स्वागत कर रहे हैं. इस बात में दो राय नहीं है कि त्यौहार हमारे जीवन में न सिर्फ सजीवता लाते हैं, बल्कि मनुष्य को सामाजिक बनाने में इन त्यौहारों की बड़ी भूमिका होती है. और यही त्यौहार जब सामाजिक स्वीकृति के बाद घर-घर में प्रवेश कर जाते हैं, तो संस्कृति का निर्माण होता है. मन में बड़ा रोचक प्रश्न उठता है कि संस्कृति आखिर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक किस प्रकार जाती है. एक सदी से दूसरी सदी तक किस प्रकार ये त्यौहार अपना सफर तय करते हैं? क्या लोक-संस्कृति को भी किसी मानव की जीवन-यात्रा की तरह ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है? तब तो निश्चय ही इन त्यौहारों और लोक-संस्कृति का स्वरुप भी बदलता होगा? कालांतर में इन बदलावों का मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर एक नजर डालना सामयिक होगा.
उपरोक्त कथनों की गहराई में जाने के लिए मैं स्वामी विवेकानंद से लेकर आज के भारतीय प्रधानमंत्री तक, उन तमाम तेजस्वी महानुभावों का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने विदेशी धरती पर भारत को गौरवान्वित करने का प्रयास किया है. सभी महान भारतीय, विदेशी धरती पर उस भारतीय मंत्र का बड़े गौरव से ज़िक्र करते हैं, जो कहता है कि 'सम्पूर्ण विश्व हमारा परिवार है'. जी हाँ! मैं 'वसुधैव कुटुंबकम' की ही बात करता हूँ. यदि किसी भारतीय की मंशा पर कोई प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है, तो वह तत्काल इस मंत्र को उच्चारित करता है.
लेकिन बड़े आश्चर्य का विषय है कि विदेशों में इस मंत्र का बार-बार और लगातार गुणगान करने के बावजूद भारत में इस मंत्र को न कोई बोलता है, न कोई सुनता है, न कोई मानता है. यदि आपको विश्वास नहीं है इस कथन पर तो पिछले दस सालों से छप रहे पत्र-पत्रिकाओं को खंगाल लीजिये. उसमें इस कथन का प्रयोग आपको नहीं मिलेगा. यदा कदा मिल भी गया तो वह विदेशी उद्धरण से सम्बंधित होगा. कुटुंब, यानि परिवार क्या है, जरा इस बात पर फिर से विचार कीजिये. शिक्षण की भाषा में कहा गया है कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला उसका परिवार ही है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो, न सिर्फ प्रथम पाठशाला बल्कि व्यक्ति के पूरे जीवन की सबसे सशक्त पाठशाला है हमारा 'भारतीय परिवार'. जरा शब्दों पर गौर करें, मैंने प्रयोग किया है 'भारतीय परिवार' और भारतीय परिवार का एक ही मतलब है 'संयुक्त परिवार'. निश्चित रूप से इसी संयुक्त परिवार की भावना को आधार मानकर, और इस संस्था के द्वारा निर्मित भारतीयों पर विश्वास करके ही हमारे पूर्वजों ने 'वसुधैव कुटुंबकम' का मंत्र दिया होगा. उन्हें विश्वास था कि संयुक्त परिवार का जो मजबूत स्तम्भ, उन्होंने बनाया है, वह व्यक्ति निर्माण के लिए सर्वोत्तम विकल्प है. यह सर्वोत्तम क्यों है और इसकी वैज्ञानिकता क्या है, इसके बारे में आगे चर्चा करेंगे लेकिन इससे पहले आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि साथ रहने वाले न्यूक्लियर पति-पत्नी के लिए इस दिवाली का मतलब क्या होगा? सामान्यतः दिन में वह किसी मल्टीप्लेक्स में एक मूवी देखने जायेंगे, फिर कहीं रेस्टोरेंट में डिनर कर लेंगे, या घर पर पिज़्ज़ा आर्डर कर लेंगे. हाँ! एकाध मोमबत्तियां भी जला लेंगे. यदि उनका बेटा छोटा है, तो शाम को डर-डरकर एकाध फुलझड़ियाँ जला लेगा और यदि बेटा बड़ा है तो अपने दोस्तों के साथ या फेसबुक पर ....! तथाकथित 'न्यूक्लियर फेमिली' में यही स्थिति, प्रत्येक त्यौहार में बरकार रहती है, एक सामान्य 'हॉलिडे' की तरह. जरा विचार कीजिये! क्या यही मतलब है इन त्यौहारों का! क्या इसी रास्ते से बच्चों में संस्कार पनपेगा? क्या इसी रास्ते से पति-पत्नी का आपसी सम्बन्ध मजबूत होगा? क्या इसी रास्ते से समाज में समरसता आएगी? नहीं! नहीं! नहीं!
यहाँ स्पष्ट करना उचित रहेगा कि यह स्थिति आपके, हमारे चारो तरफ पनप रही है, जिसे लोक-संस्कृति तो कतई नहीं कहा जा सकता है, हाँ! कुसंस्कृति या मशीनी संस्कृति जरूर कह सकते हैं इसे. यह एक बड़ा कारण है कि आज के समय मनाये जाने वाले त्यौहारों से लोक का लोप हो गया है. अब की बार जो दिवाली मना रहे होंगे आप, उसमें न तो कुम्हार के बनाये दिए होंगे, न धुनिये का धुना रुई होगा, न किसान द्वारा उत्पादित सरसों का तेल होगा, न ग्वाले द्वारा निकाला गया देशी घी होगा. इसके बदले होंगे चाइनीज झालर, रेडीमेड नकली मिठाइयां, और देशी घी की पूड़ियों के बदले होगा, बासी और सड़ा हुआ पिज़्ज़ा. सच पूछिये तो 'न्यूक्लियर फेमिली' का कांसेप्ट न सिर्फ हमारे त्यौहारों की अहमियत समाप्त कर रहा है बल्कि हमारे समाज की रीढ़ को खोखला करता जा रहा है, लगातार ! इसके विपरीत आप कुछ बचे हुए संयुक्त परिवार के अवशेषों का ही अध्ययन कर लीजिये. वहां इस दीपावली में घर के मुखिया ने अपने छोटे भाइयों, बेटे-बेटियों को फोन कर दिया होगा कि दीपावली पर सभी को घर की पूजा में सम्मिलित होना है. न चाहते हुए भी आधुनिक किस्म के सदस्य वहां पहुंचेंगे, पूजा में सम्मिलित भी होंगे. एक-दुसरे से मिलेंगे, उनसे बातें करेंगे. दादा- दादी, चाचा- चाची, काका- काकी से औपचारिकता ही सही, लेकिन हाल-चाल पूछेंगे. पड़ोस के ताऊ को भी पूजा की मिठाई देने के बहाने मिल आएंगे, दो बातें सीख पाएंगे. अपने मोहल्ले से मेलजोल बढ़ाने को सज्ज हो पाएंगे. इन भारतीय परिवारों के छोटे बच्चे जो निश्छल हैं, बड़ों के बीच तनाव से बेखबर, वह भी घर के इस माहौल को देखकर आनंदित होंगे और लोक संस्कृति के संवहन की जिम्मेवारी जाने-अनजाने अपने ऊपर लेने को तत्पर होंगे. संयुक्त परिवार में त्यौहार के दृश्य का यह वर्णन आपको थोड़ा अटपटा लग सकता है, लेकिन आज के टूटन के इस दौर में यही सत्य है, शायद सुनने में कड़वा लगे. इसके साथ यह भी सत्य है कि संयुक्त परिवार या भारतीय परिवार अपनी बुरी हालत में भी तथाकथित न्यूक्लियर फेमिली से लाख गुना बेहतर है.
हालाँकि, संयुक्त परिवार के आलोचक भी कम नहीं हैं, इसकी कमियां एक-एक करके वह बता देंगे, जिनमें कई कमियां सच भी हो सकती हैं, मसलन, संयुक्त परिवार में तमाम आर्थिक कठिनाइयाँ हैं, तो नेतृत्व को लेकर टकराहट होती हैं, विकास अवरुद्ध हो जाता है. लेकिन हमें यह समझना पड़ेगा कि इन सभी कमियों को दूर किया जा सकता है. यूनान, रोम सब इस जहाँ से मिट गए और हम भारतीय बचे हैं, तो इसके मूल में हमारी मानव-निर्माण की प्रथम पाठशाला ही है. हिन्दू धर्म के युगों के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग में आखिर संयुक्त परिवार ही तो रहे हैं, जिनके कंधे पर सवार होकर हमारी संस्कृति यहाँ तक पहुंची है. ज्ञात इतिहास में भी आज़ादी के पहले तक हमारी व्यवस्था यही भारतीय पारिवारिक व्यवस्था ही तो थी. अब जब अमेरिका, ब्रिटेन समेत तमाम विकसित देश मानव-निर्माण की प्रक्रिया में असफल होकर हमारे भारतीय दर्शन की तरफ देख रहे हैं, तो हम क्षणिक लिप्सा में फंसकर, संकुचित स्वार्थ की खातिर समाज को तोड़ रहे हैं, एकल परिवार जैसी विकृति फैलाकर भारतीय लोक-संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं. आखिर, भारतीय दर्शन हमारा लोक-व्यवहार ही तो है.
वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाय तो बच्चे की सीखने की उम्र १४ साल तक मानी गई है. १४ साल तक उसके चरित्र, बुद्धि का निर्माण ९० फीसदी तक हो चूका होता है. अब जरा इसको दुसरे नजरिये से देखें. एक युवक, युवती की शादी और संतानोत्पत्ति सामान्यतः २५ से ३५ साल के बीच में संपन्न हो जाती है. यह समय कैरियर के लिहाज से बड़े उथल-पुथल का समय होता है. युवक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से कड़े संघर्ष करता है इस वक्त. समय की कमी होती है, अनुभव की कमी होती है, धन की कमी होती है इस दौरान. अपनी संतान के लिए एकल-दंपत्ति के पास बिलकुल समय नहीं होता है. वह या तो नौकर के सहारे या बोर्डिंग स्कूल के सहारे, कंप्यूटर और टीवी के सहारे अपने बच्चे का पोषण करते हैं. जरा सोचिये! ऐसे पालन-पोषण से उस बच्चे की संवेदना बचेगी क्या? समस्त सुख-सुविधाएं, व्यवस्थाएं मानव-निर्माण से बढ़कर हैं क्या? हम इसकी क्या कीमत चूका रहे हैं? भारतीयता से दूर क्यों भाग रहे हैं हम? इस दीपावली को इस यक्ष प्रश्न पर विचार करना सामयिक होगा. और इस दीपावली को आप इस बात की कोशिश भी करें की यह त्यौहार आपके अपने परिवार के अधिकांश सदस्यों के बीच मनाया जाय. तभी हम भी अपनी महान लोक-संस्कृति को अगली पीढ़ी को सौंप पाएंगे, अन्यथा .... !
मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.
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Tuesday 14 October 2014
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लोक-संस्कृति का संवाहक है संयुक्त परिवार ! - festivals and family
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