Sunday 26 October 2014

जम्मू कश्मीर विलय दिवस का औचित्य '२६ अक्टूबर' - Jammu Kashmir Vilay Diwas

पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक गोष्ठी में जाने का अवसर मिला, जिसे जम्मू कश्मीर पीपल्स फोरम नामक एक संस्था ने आयोजित किया था. सभा में जम्मू कश्मीर विषय के विद्वान, सरकारी अधिकारी एवं सेना के रिटायर्ड उच्चाधिकारी भी सम्मिलित थे. गोष्ठी में राष्ट्रवादियों का समूह था तो इस राज्य के इतिहास से लेकर आधुनिक परिदृश्यों पर व्यापक चर्चा हुई, कई नई बातें जानने, सुनने को मिली जो निश्चित रूप से हमारी उस धारणा से अलग था, जो हम मीडिया के माध्यम से या अनधिकृत पुस्तकों से ग्रहण करते आये हैं. जैसा कि हम सभी को ज्ञात है कि २६ अक्टूबर १९४७ को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरी सिंह ने भारत में पूर्ण विलय के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया था, और तभी से ही यह भारत का अभिन्न अंग बन चुका है. तो फिर प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर आज़ादी के बाद से ही कश्मीर क्षेत्र को विवादित क्यों बताया जा रहा है? साथ में इस क्षेत्र को लेकर पाकिस्तान इतना संवेदनशील क्यों है? सिर्फ पाकिस्तान ही क्यों, पश्चिम के देश भी जाने अनजाने, छुपे रूप में पाकिस्तान को उकसाते ही रहते हैं. यहाँ तक कि पाकिस्तान की वैश्विक छवि एक आतंकवादी देश की होने के बावजूद कोई भी पश्चिमी देश इस मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव नहीं बनाता है. यह स्थिति तब है जब भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन चुका है और अधिकांश देशों के राजनैतिक, आर्थिक हित भारत से जुड़े हुए हैं. चीन जो हमारा पारम्परिक प्रतिद्वंदी या शत्रु कह लें, है, उसका रोल तो पाकिस्तान को उकसाने में है ही.

Buy-Related-Subject-Bookइतिहास के आईने में देखने पर पता चलता है कि अंग्रेजी शासन के अंतिम गवर्नर लार्ड माउंटबेटन के समय के पहले से ही अंग्रेजों ने भारत पाकिस्तान बनाने की जो चाल चली थी, उस समय ही अंग्रेज प्रशासकों ने कश्मीर के अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व को रेखांकित करते हुए इस बात को मान लिया था कि पाकिस्तान का अस्तित्व में रहना और कश्मीर का उस में विलय होना पश्चिम के हित में रहेगा. इसलिए कश्मीर का विलय पाकिस्तान में कराने के लिए अंग्रेजों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से पर कब्ज़ा किया है, उस समेत कश्मीर की भौगोलिक सीमाओं का अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व कहीं ज्यादा होता. अन्य कई देशों से सीमाओं के लगने के कारण इसके सामरिक महत्त्व का अंदाजा अंग्रेजों को भी था. उस समय के अंग्रेज प्रशासक यह भी समझ चुके थे कि भविष्य में भारत उनके दबाव में कभी नहीं झुकेगा, जबकि पाकिस्तान अपनी आतंरिक बदहाली के कारण दबाव में आकर पश्चिम के देशों को रास्ता मुहैया कराता रहेगा. लेकिन जम्मू कश्मीर के महाराजा द्वारा, भारत में विलय करने के बाद माउंटबेटन परेशान हो गया. फिर पाकिस्तान द्वारा १९४७ में ही आक्रमण करके ४,००० वर्ग किलोमीटर से ज्यादा भूमि हथिया ली गयी. बाद में यह कब्ज़ा राजनैतिक कमजोरी के कारण बढ़कर काफी ज्यादा हो गया. जम्मू कश्मीर को लेकर कई लोगों के मन में यह भ्रम भी है कि जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे को लेकर गए. यह सच है कि पंडित नेहरू संयुक्त राष्ट्र में गए, लेकिन वह पाकिस्तानी सेना द्वारा कश्मीर में क़त्ल-ए-आम मचाने को लेकर पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने गए थे, न कि कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र को हस्तक्षेप का न्यौता देने. हाँ! राजनैतिक रूप से भूल यह जरूर हुई कि रेफरेंडम की बात को लेकर हम कहीं फंस गए, लेकिन यह बात पूरी तरह से भारत के लिए आंतरिक मुद्दा ही रही है. इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण बात है कि पाकिस्तान ने कभी भी कश्मीर पर अपना दावा नहीं किया, वह कर भी नहीं सकता है. बल्कि उसने कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की बात विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठायी है. हालाँकि सभी जानते हैं कि यह पाकिस्तान की दोहरी नीति ही है, लेकिन तकनीकी रूप से अपने कब्ज़े के कश्मीर को वह आज़ाद कश्मीर ही कहता है. इन सब प्रश्नों पर गौर करने के बाद यह स्पष्ट है कि कश्मीर के लिए सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि भारत को अस्थिर करने के लिए दूसरी वैश्विक ताकतें भी परदे के पीछे लगातार सक्रीय रही हैं, अन्यथा पाकिस्तान की इतनी क्षमता नहीं है कि वह ६० सालों से सीधा और छद्म युद्ध भारत से लड़ पाये. संतुष्टि की बात यह है कि राजनैतिक मोर्चों पर कमजोरी के बावजूद हम पाकिस्तान से सीधा युद्ध तो जीते ही हैं, छद्म युद्ध पर भी भारतीय सेना काबू पा चुकी है. अब कश्मीर से आतंकवाद लगभग समाप्त हो चूका है, लेकिन राज्य के २० फीसदी हिस्सों में अलगाववादी जरूर सक्रीय हैं. लेकिन यह अलगाववादी कहीं से भी राष्ट्रीय ताकतों पर भारी नहीं हैं. इसलिए आतंकवाद के दिनों में कश्मीर छोड़कर भारत के दुसरे हिस्सों की तरफ पलायन करने वाले लोगों में हिम्मत भरने की, उनके साथ खड़े होने की जरूरत है अब.

Buy-Related-Subject-Book-beइस कड़ी में यह बताना सामयिक होगा कि सेनाधिकारियों के मन में इस बात की टीस जरूर है कि पाकिस्तान से हर तरह की लड़ाई जीतने के बावजूद, उनके अधिकारियों, सैनिकों को मानवाधिकार के नाम पर न्यायालयों/ आयोगों के चक्कर काटने पड़े हैं, जबकि मूल कश्मीरियों की हत्या करने वाले, उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने, हिन्दुओं को घाटी से भगाने वालों के खिलाफ हर एक की जुबां बंद हो जाती है. आखिर इनके अधिकारों के लिए घाटी में आंदोलन क्यों नहीं होता, इनकी जायदाद पर कब्ज़ा करने वालों के खिलाफ कोर्ट में मामला दायर क्यों नहीं किया जाता, इन अलगाववादियों के खिलाफ मानवाधिकार हनन की कार्यवाही के लिए विभिन्न संस्थाएं दबाव क्यों नहीं बनातीं. इसके साथ में यह बात भी सच है कि कश्मीर को लेकर हम काफी हद तक ग़लतफ़हमी के शिकार रहे हैं. जरूरत है इन सब मुद्दों को लेकर देश भर में व्यापक जागरूकता फैलाने की. जम्मू कश्मीर को लेकर अंग्रेजों द्वारा साहित्य लिखे गए, तब निश्चित रूप से ही उसमें नकारात्मकता भरी थी, इसलिए इतिहास को खंगालने कर उस का देशहित में अध्ययन किये जाने की जरूरत है. जम्मू कश्मीर हर तरह से भारत का हिस्सा था, यदि कुछ विवाद है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान द्वारा कब्जाए क्षेत्र को लेकर है. हालांकि पिछले दशकों में आतंकवाद की पीड़ा झेल चुके कश्मीरी, विशेषकर हिन्दुओं के मन में निश्चय ही डर का माहौल है, और यह डर का माहौल तभी निकलेगा जब सभी भारतवासी तन, मन, धन से उनके साथ हर पल खड़े रहेंगे. आज़ादी के समय के हमारे पूर्वजों द्वारा जो किया जा सकता था, वह उन्होंने अपने प्रयास से किया, कई चुकें भी हुईं, किन्तु कश्मीर को लेकर राष्ट्र न कभी कमज़ोर पड़ा, न कभी पड़ेगा.
-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Article by Mithilesh on Jammu Kashmir Vilay Diwas, 26 October

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