आर्थिक मुद्दे सदा से मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं, किन्तु आज के समय में लोग 'अर्थ' की प्रधानता को सर्वव्यापी व सभी समस्याओं के एकमात्र समाधान के रूप में भी देखते हैं. इस हवा में दूसरी बहुत महत्वपूर्ण चीजें भी गौण हो चुकी हैं, मसलन सम्बन्ध, चरित्र, सहयोग, शिक्षा, उद्यम इत्यादि. भारतवर्ष के वर्तमान प्रधानमंत्री भी तमाम जतन कर रहे हैं कि देश के किसान, नौजवान सशक्त हों, उनको रोजगार मिले. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी जैसे तमाम बिल को तर्क-कुतर्क देकर संसद में पास कराये जाने की जरूरत बताई जा रही है. खैर, राजनीति एक अलग विषय है, और अर्थनीति अलग. भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि अर्थनीति पर आप ध्यान देंगे तो समझ जायेंगे कि यहाँ 'उद्यम' के अवसर पैदा करने की बजाय 'नौकरी' शब्द पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. 'नौकरी' शब्द मूलतः 'नौकर', 'सर्वेंट', चाकर, सेवक, दास इत्यादि से ही बना है, जिसे हर हाल में 'मालिक' के अनुसार ही चलना होता है, ठीक किसी सामंतवादी या जमींदारी प्रथा की तरह (आधुनिकता के लिहाज से इसका प्रारूप जरूर बदला है, पर मूल भाव 'मानसिक गुलामी' का भाव वही है). हम सबको पता है कि यह शब्द 'नौकरी' कितना कचोट भरा होता है, और इसीलिए आज का शिक्षित युवक उद्यम करने की सोच रखता है, शुरू भी करता है, किन्तु तमाम अन्य समस्याओं के अलावा शुरुआत में 'मानव संशाधन' की कमी, उनकी वफादारी और संघर्ष के दौर में उनमें समर्पण का अभाव मुख्य समस्या के रूप में सामने आता है. जी हाँ! आप कोई भी रोजगार शुरू करते हैं तो उसमें पूँजी की सर्वाधिक खपत 'मानव संशाधन' पर ही खर्च होती है, उसके बावजूद भी अधिकांश उद्यमी शुरुआत में ही दम तोड़ देते हैं और फिर नौकरी की तरफ मुड़ जाते हैं. आखिर इसका कारण क्या है?
इस बात को समझने के लिए मैंने कई पारम्परिक व्यापारियों (बनियों), पंजाबी परिवारों, जैन बंधुओं, मारवाड़ियों, बड़े और सफल किसान परिवारों का अध्ययन करने की कोशिश की तो निम्न बातें सामने आयीं-
इन सभी सफल उद्योगपतियों के अधिकांश परिवार 'संयुक्त' हैं. ध्यान रहे, इस एक शब्द 'संयुक्त' परिवार से मानव संशाधन की शुरूआती सभी समस्याओं में अधिकांश स्थाई रूप से हल हो जाती हैं, मसलन उनकी वफादारी, सहयोग, समर्पण और उद्योग शुरू होने के समय कम से कम जरूरतें इत्यादि.
इन सभी परिवारों के बच्चों को लगभग शुरू से ही उद्योग के प्रति प्रोत्साहित किया जाता है और वयस्क होते-होते उसकी मानसिकता स्वतः ही एक उद्यमी की हो जाती है और साथ में उसको व्यवसाय का व्यवहारिक ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है. (ध्यान रहे, यह भी संयुक्त परिवार के होने से ही संभव हो पाता है, जब वह बच्चा अपने परिवार में चाचा, ताऊ, भाई इत्यादि को रोजगार करते देखता है और उसके विभिन्न पहलुओं पर घर में चर्चा होते सुनता है.)
इन परिवारों के युवा बच्चे जब रोजगार करते हैं, तो उनकी गलतियां आप ही न्यून हो जाती हैं, क्योंकि परिवार एक होने से बड़े-बुजुर्ग बारीक नजर रखते हैं. (यहाँ ध्यान रखने वाली बात है कि उन बुजुर्गों का हस्तक्षेप कम से कम होता है और सहयोग ज्यादा).
व्यवसाय सेट हो जाने के बाद यदि दो भाइयों में किसी विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, तो इसका निपटारा बड़ी सरलता से घर के बुजुर्ग कर पाते हैं क्योंकि उनके दिमाग में यह विचार बहुत पहले से आया होता है और साथ में वह इसके समाधान पर भी लम्बे समय तक विचार कर पाते हैं.
इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि संयुक्त परिवार के बैकग्राउंड से होने के कारण सफल या औसत सफल व्यक्ति भी अनयंत्रित नहीं होता है, बल्कि एकल परिवार के किसी व्यक्ति की तुलना में वह एक हद तक समाज के दबाव को स्वीकार भी करता है और इस दबाव में वह जनविरोधी फैसले लेने से पहले हज़ार बार सोचता है.
मेरा निष्कर्ष यही निकला कि आधुनिक युग में उद्यम के लिए 'संयुक्त परिवार' सबसे उत्तम प्लेटफॉर्म है, यदि सच में उसके सदस्य 'नौकरी' जैसे शब्द के 'कचोट' से सफलतापूर्वक बचना चाहते हैं और यदि साथ में कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, सफलता की सर्वाधिक गारंटी के साथ. आप सब का क्या कहना है, इस विषय पर? साथ ही सरकार की इस नीति पर भी अपनी राय रखिये कि वह 'नौकरों' की संख्या बढ़ाना चाहती है कि 'उद्यमियों' की.
- मिथिलेश कुमार सिंह
Job or Business, in context of India, article in Hindi by Mithilesh.
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