या तो ऐसे ही उसका जीवन यूँही कट जाता है या फिर अचानक उसको अहसास होता है कि अपने लिए, अपने बच्चों के लिए एक सोशल सर्कल भी होना जरूरी है, और वह अपना कमाया हुआ धन उन अनजान दोस्तों के साथ पार्टियों इत्यादि में खर्च करता है, जिनकी कुछ विशेष जिम्मेवारी हो नहीं सकती और न ही उसके बच्चों को इससे कुछ संस्कार मिल सकता है. वह अपना पैसा वाटर-पार्क, मूवी, देशी-विदेशी टूर जैसी जगहों पर बेतहाशा खर्च करता है, करता रहता है. और उसे आखिर में अहसास होता है कि इन सबके बावजूद वह अकेला है, उसकी पत्नी डिप्रेस्ड है, उसके बच्चे नालायक निकल गए हैं और उसके हाथ में अंततः शून्य है, क्योंकि संस्कार और अनुशासन तो 'संयुक्त परिवार' में ही विकसित हो सकता है.
फिर कई लोग अपने परिवार और अपने उन भाइयों की तरफ लौटने की सोचते भी हैं, जिन्हें वह अपना पैसा बचाने के लिए छोड़ आये थे, पर समय उनके हाथ से निकल चूका होता है. ...
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जरा सोचिये, यदि 'अर्थ' की इस दूषित प्रवृत्ति को कथित 'योग्य और काबिल लोग' संतुलित करें, और अपने विकास के साथ अपने संयुक्त परिवार के लिए यथासंभव सिंचन का भाव जीवित रखें, तब शायद हमारे भीतर, हमारी पत्नी के भीतर और हमारे आने वाले बच्चों के संस्कारों पर कितना बड़ा प्रभाव पड़ेगा! परिवार में संबंधों को सींचने के लिए हमारा पैसा जरूर खर्च होगा, किन्तु क्या ईश्वर ने हमें इसीलिए काबिल नहीं बनाया है कि हम अपने कमजोर भाइयों, बहनों, भतीजों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करें. आखिर, वह धन इसीलिए तो है कि हम अपने वास्तविक संबंधों को जिम्मेवारी से विकसित करें, क्योंकि परिवार के विकास में ही हमारा विकास भी है. अन्यथा हम तमाम सम्पदा के बावजूद अंततः 'भिखारी' ही साबित होते हैं.
जरूर विचार कीजिये !
-मिथिलेश कुमार सिंह
Family and Fund Priority
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