Tuesday 9 December 2014

परिवर्तन संसार का नियम है - Bhagwad Geeta Gyan and Youth

भारत की संस्कृति में विचारों की इतनी सुन्दर व्याख्या की गयी है कि दुनिया की किसी संस्कृति से इसकी तुलना नहीं हो सकती. ज्ञात तथ्यों के आधार पर यदि कहा जाय तो किसी कार्य के तीन आयाम होते हैं, जो क्रमशः मन, वचन और कर्म की यात्रा करते हुए अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ता है. उदाहरणार्थ यदि किसी छोटे बच्चे को विद्यालय भेजने का समय है तो सर्वप्रथम यह विचार हमारे मन में पनपता है, तत्पश्चात हम अपनी वाणी द्वारा घरवालों को, उस बच्चे को अपनी बात बताते हैं, अपने विचार से अवगत कराते हैं और तब आखिर में उस बच्चे का दाखिला उस विद्यालय में होता है. लेकिन जरा सोचिये, यदि यह बात हमारे मन में ही दबी रह जाय तो... !! अथवा हम इसे बस विचार के रूप में प्रतिष्ठित करके इतिश्री कर लें तो ... !! निश्चित रूप से हमारा कार्य तब सफल अथवा पूरा नहीं कहा जा सकता है.

आज कल उन तमाम बातों पर बेहद संकुचित दायरे में पुनर्चर्चा शुरू हो रही है या शुरू की जा रही है, जिन बातों पर आम जनमानस की अगाध श्रद्धा रही है. यह अलग बात है कि महान भारतीय विचारों के कई मर्मज्ञ अपनी चारित्रिक निष्ठा को लेकर इस काल में संदिग्ध साबित हो रहे हैं. गीता के नाम से कोई अनजान नहीं है आज. इस ग्रन्थ को यदि सर्वाधिक प्रतिष्ठित ग्रन्थ कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. धर्म की बड़ी कठोर एवं स्पष्ट व्याख्या करने वाला ग्रन्थ, जिसके बारे में कहा गया है कि यदि तराजू के एक पलड़े पर समस्त वेद, शास्त्र रख दिए जाएँ तो भी भगवद्गीता की महिमा उन सभी ग्रंथों से ज्यादा होगी. यूं तो गीता के प्रत्येक अध्याय में मानव जीवन की तमाम दुविधाओं का निराकरण है, किन्तु उसकी जो सीख सर्वाधिक प्रभावित करने वाली है, वह है 'परिवर्तन संसार का अटल नियम है'. जो आज है कल वह नहीं होगा, कल कुछ और होगा और इस तरह से यह श्रृंखला अनंत है. दुनिया में कोई भी सिद्धांत तभी मान्यता प्राप्त करता है, जब वह सिद्धांत समय की कसौटी पर खरा उतर सके. गीता के परिवर्तनशील सिद्धांत को समय ने अपनी कसौटी पर कई बार कसा है, लेकिन सवाल इससे अलग है. और सवाल उठाना जरूरी इसलिए है क्योंकि लाखों लोगों की भीड़ में गीता के मर्म की व्याख्या करने वाले कई विशेषज्ञ, उन्हें आप संत कह लें या कुछ और आज सलाखों के पीछे पड़े हैं. आखिर क्यों? तर्क यह भी दिया जा सकता है कि गीता को ये लोग जानते भी नहीं, सिर्फ दिखावा करते हैं. वैसे यह सच ही है कि यह लोग गीता को मानने और समझने की बजाय सिर्फ उसकी क्रेडिबिलिटी को कैश कराने में ज्यादा यकीन करते हैं. मार्केटिंग के दौर में गीता जैसा पवित्र ग्रन्थ भी अछूता नहीं बचा है. एक से एक सजावटी पुस्तकें, जिनकी जिल्दें और फ्रेम्स आपको किसी महँगी पेंटिंग का अहसास कराएंगी, वह वर्ग विशेष के ड्राइंग हाल में या कार की डैशबोर्ड पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही होंगी, बेशक उस किताब को कभी खोला न गया हो.
उद्धृत करना थोड़ा अजीब होगा किन्तु गीता तो इस मामले में बहुत पहले से प्रचलन में रही है. आज़ादी के काल में महात्मा गांधी इसको अपने हाथ में लेकर घुमते थे तो आज के वर्तमान प्रधानमंत्री इसको अंतर्राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. ठीक है, यहाँ तक भी कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जिस ग्रन्थ के सिद्धांत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रतिष्ठित हों, उसे राष्ट्रीय-ग्रन्थ की मान्यता देने की बात कहने से सिवाय विवाद के आखिर क्या हासिल हो जायेगा, यह बात समझ से पर है. वैसे राष्ट्रीय ग्रन्थ का मसला भारत की जिन मंत्री महोदय ने उठाया है, उन्हें गीता के सिद्धांतों की सबसे ज्यादा जरूरत बताई जा रही है. जिस प्रकार उनकी इच्छा और महत्वाकांक्षा कहीं कोने में दुबक गई है, उस स्थिति में उन्हें 'स्थितप्रज्ञ' होना ही पड़ा है. गीता का सहारा लेकर पार्टी में वह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास जरूर कर रही हैं, लेकिन गीता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय 'परिवर्तन संसार का नियम है' को वह भूल गयी सी लगती हैं. राजनीतिक विश्लेषक तो यही समझते रहे हैं. खैर, राजनीतिक विश्लेषकों का क्या, उनका काम है समझते रहना, हमारा काम है कहते रहना. लेकिन देखने पर यह बात भी लगती है कि कुशल वक्ता मंत्री महोदया की बात को उनकी ही पार्टी और संगठन के लोगों ने कुछ ख़ास तवज्जो दी नहीं. शायद! ठीक से होमवर्क हुआ नहीं था इस मुद्दे पर.

वैसे इसमें मंत्री महोदया का दोष भी नहीं है, क्योंकि आप उन्हें मंत्री तो बनाते हो लेकिन विदेश मंत्रालय खुद संभालते हो तो वह क्या करें? अचानक उन्हें कुछ कर्म करने की सूझी। अब कर्म की बात करनी हो तो सबसे पहले गीता का स्मरण होता है. उन्होंने कर्म किया- गीता को ही राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने की बात उठा दी जबकि गीता तो अपने प्रथम क्षण से ही धर्म. जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय से ऊपर होकर सभी के लिए है इसलिए अंतरार्ष्ट्रीय है. अनेक विदेशी विद्वानो ने गीता की भूरि भूरि प्रशंसा की है, जर्मनी में संस्कृत और गीता को जानने वाले बहुत है, गीता को ही राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग को उग्र नहीं होना चाहिए क्योकि गीता कर्म की बात करते हुए 'फल' की चिंता न करने का उपदेश भी देती है। गीताकार ने स्पष्ट कहा है-


सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज।
अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः।। - गीता 18/66


एक मेरे देशभक्त मित्र इस मुद्दे पर बड़े परेशान नजर आये. कहने लगे गीता की बात करने वालों को गीता का ज़रा भी ज्ञान होता तो वह कर्म करने की कोशिश कर रहे अपने प्रधानमंत्री का साथ देते न कि उसे कभी रामजादों - हरामजादों की बहस में उलझाते और न कभी गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ की बहस में. आगे बढ़ते हुए बोले- बहुत सालों के बाद देश में एक ऐसा व्यक्ति कुर्सी पर बैठा है जिससे आम जनमानस को थोड़ी उम्मीद बंधी है, लेकिन इस उम्मीद को कोई यह बात कह कर पलीता लगाने की कोशिश करता है कि पृथ्वीराज चौहान के बाद देश में पहली बार कोई हिन्दू शासक हुआ है, तो कोई मंत्री ज्योतिष और विज्ञान की बहस में उसे उलझा देता है. गीता का गुणगान करने का दावा करने वाले उसके मूल सिद्धांत को क्यों नहीं समझ रहे हैं कि उनका समय अब परिवर्तित हो चूका है. मित्र महोदय का पारा चढ़ता जा रहा था और उन्होंने आगे राजनीति के उन जानकारों की बखिया उधेड़नी शुरू की जो यह कहते नहीं अघाते कि वर्तमान प्रधानमंत्री की जीत उनकी कथित हिंदूवादी छवि के कारण हुई है. ऐसे आत्म केंद्रित लोग आज के बदलते युवा को तब समझ ही नहीं पाये हैं. ऐसे युवा, जो वास्तव में बकवास बातों को छोड़कर गीता के सिद्धांत 'कर्म करो' को मानता है. क्या यह सच नहीं है कि प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री बनाने में उस बड़े वर्ग का हाथ है जिसे किसी भी कीमत पर विकास चाहिए, जिसे रामज़ादों और हरामजादों से कोई मतलब नहीं है, जिसे राष्ट्रीय पशु और राष्ट्रीय ग्रन्थ की प्रतीकात्मकता से भी कोई ख़ास मतलब नहीं है. हाँ! उसे देश से मतलब है, उसे देशवासियों और उनकी खुशहाली से भी मतलब है और वह सभी युवा विचारों की भूलभुलैया में आत्ममुग्ध होने की बजाय गीता जैसे महान ग्रन्थ को, आज के समाज में क्रियान्वित करने की सोच रखते हैं और उन्हें निश्चित रूप से सलाखों के पीछे पड़े किसी संत, बापू या कुंठित राजनेता की आवश्यकता नहीं है, गीता का मर्म समझने के लिए. ध्यान से देखो, बीते समय के कर्णधारों, आज का युवा 'गीता को जी रहा है. देखो और अपने बदलते समय को स्वीकार करो.

-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Shri Mad Bhagwad Geeta Gyan and Youth, article on political statements on religious issues, in Hindi by Mithilesh.
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